29 सितंबर सर्जिकल अटैक के बाद सीमा पर 26 जवान शहीद हो चुके हैं। 8 नवंबर, नोटबंदी के बाद कतार में सौ मौत हो चुकी हैं। 28 नवंबर कालेधन पर 50 फिसदी टैक्स देकर बचा जा सकता है। 29 नवबंर यानी आज बीजेपी के तमाम सांसद-विधायक अपने बैक स्टेटमेंट पार्टी अध्यक्ष को सौंपकर ईमानदारी के महापर्व में शामिल हो जायें। तो क्या वाकई प्रधानमंत्री मोदी मिस्टर क्लीन की भूमिका में आ चुके हैं और इसीलिये दागी सांसदों की भरमार वाली संसद में प्रधानमंत्री अब जाना नहीं चाहते हैं और देश में कानून बनाने के जो प्रवधान संसद में बहस और तर्को के आसरे लोकतंत्र के मंदिर की साख बनाये रखती है वह अब सिर्फ औपचारिकता बची है।
तो क्या पीएम मोदी लोकतंत्र की पारंपरिक राग को खारिज कर एकला चलो रे के रास्ते निकल पड़े हैं। क्योंकि उनके पास पूर्ण बहुमत है। और विपक्ष कमजोर है। यानी जैसे पचास दिन नोटबंदी के वैसे ही सरकार कैसे भी चलाये इसके लिये पांच बरस। तो बीच में कोई बहस कोई चर्चा क्यों हो। यानी ये सवाल करें कौन कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सीमा पर हालात बदतर क्यों हुये। ये सवाल करे कौन कि अपनी ही करेंसी के इस्तेमाल पर रोक कैसे लग सकती है। ये सवाल कौन करे कि देश को लूट कर आधी रकम टैक्स में देने का ये कौन सा कानून है। यानी सजा का प्रावधान अब खत्म हो गया। और ये सवाल करे कौन कि सांसदों की कमाई देश के किसी भी नागरिको की तुलना में सौ फिसदी से ज्यादा तेजी से बढ़ कैसे जाती है। यानी आजादी के बाद पाकिस्तान और कालेधन का सवाल जिस तरह देश में नासूर बनता चला गया और नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक कै दौर में दोनों सवालों से हर सत्ता जुढती रही उसमें पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने इन्हीं दो सवालों से जनता को सीधे जोडकर संसद और संसदीय राजनीति के उस लोकतंत्र को ही ठेंगा दिखा दिया है, जिसे लेकर जनता ये हमेशा सोचती रही कि कोई सत्ता जब इसे सुलझा नहीं पाती तो फिर सत्ता का मतलब क्या हो। क्या ये माना जाये कि जन भावनाओं को साथ लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता चलाने के संसदीय लोकतंत्र को अपनी मुठ्ठी में कैद तो नहीं कर लिया। या फिर सत्ता के लिये संजीवनी इसी निरकुंश कार्रवाई में छिपी है। क्योंकि लग ऐसा रहा है जैसे भ्रष्ट राजनीति दरकिनार हो रही है और मोदी विरोध के राजनीतिक स्वर सिवाय सत्ता के लिये छटपटाते विपक्ष के अलावे और कुछ भी नहीं है। तो आईये जरा परख लें देश में क्या वाकई प्लेइंग फील्ड हर किसी के लिये बराबरी का है या फिर नया खतरा संविधान को भी सत्ता के जरीये परिभाषित करने का है। क्योंकि लोकसभा के सांसदों को ही परख लें।
2009 में लोकसभा के 543 सांसदों की कुल संपत्ति अगर 30 अरब 75 करोड़ रुपये थी। तो मौजूदा लोकसभा के 543 सांसदों की कुल संपत्ति 65 अरब रुपये है। यानी आजाद भारत की सबसे रईस संसद। जहां के मुखिया प्रधानमंत्री मोदी देश में अर्थक्रंति लाना चाहते है तो तमाम सांसदों को देश की गरीब जनता की फिक्र है। तो जनता और देश की फिक्र हर किसी को है लेकिन समूची संसद ही इस सच पर हमेशा मौन रहती है कि आखिर औसतन 12 करोड़ की संपत्ति जब हर सांसद के पास है तो फिर उनके सरोकार जनता से कैसे जुड़ते हैं। और बीते 5 बरस में संसद की रईसी दुगुनी कैसे हो गई। जबकि देश और गरीब हुआ । तो सांसदों के बैक स्टेटमेंट से होगा क्या। देखने में ये फार्म ईमानदारी का पाठ पढ़ा सकता है। लेकिन जरा समझे कैसे सांसद रईस होता है। और उस रईसी की वजह कोई नहीं जानता और सारी रईसी टैक्स देकर होती है। मसलन वर्तमान वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2006 में जब राज्यसभा की सदस्यता पाई थी तो उनके एफिडेविट के मुताबिक संपत्ति 23 करोड़ 96 लाख से ज्यादा थी, जो 2014 के लोकसभा चुनाव लड़ते वक्त दाखिल एफिडेविट में बढ़कर 1 अरब 13 करोड़, 2 लाख रुपए से ज्यादा हो गई। यानी पांच गुना से ज्यादा। इसी तरह कानून और दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 2006 में राज्यसभा का चुनाव लड़ते वक्त अपनी संपत्ति 1 करोड़ 71 लाख के करीब बताई थी, और 2014 में बतौर मंत्री अपनी संपत्ति बतायी 18 करोड़ 11 लाख 41 हजार 397 रुपये । यानी 8 बरस में करीब सोलह गुना संपत्ति बढ गई। तो संपत्ति कैसे बढ़ती है। ये सवाल इसलिये क्योकि इस दौर में ना तो सरकारी कर्मचारी की सपंतित की रफ्तार इस तेजी से बढती है ना ही दिहाडी मजदूर और देश के किसानों की। तो कल्पना कीजिये जब प्रधानमंत्री मोदी ही किसानों को 50 फिसदी न्यूमत समर्थन मूल्य कहकर बढ़ा नहीं पाये । तो फिर नेताओं की संपत्ति बढ कैसे जाती है । चाहे वह सांसद हो या विधायक। क्योंकि सवाल सिर्फ वित्त मंत्री या कानून मंत्री का नहीं सवाल तो हर सांसद का है । जो संसद में गरीबो के गीत गा रहा है या फिर संसद ठप कर प्रधानमंत्री मोदी को कटघरे में खड़ा कर रहा है। क्योंकि संसद के हंगामे का सच यही है कि संसद ना तो कारखाना है ना ही खेती की जमीन। फिर भी लोकसभा में बैठे 543 सांसदों की कुल संपत्ति 65 अरब रुपये की है। तो क्या संसद और
विधानसभा नेताओं को ऐसा विशेषाधिकार दे देती है, जहां वह किसी भी प्रोफेशनल्स से बड़े जानकार और किसी भी कारपोरेट से बडे कारोपरेट हो जाते है क्योंकि उन्हें जनता ने चुन कर भेजा है। दरअसल देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि गरीबी की रेखा खींचने से लेकर कारपोरेट को लाइसेंस देने का अधिकार राजनीतिक सत्ता के पास होता है। यूनिवर्सिटी के वीसी की नियुक्ति से लेकर हर संवैधानिक संस्था में डायरेक्टर की नियुक्ति सत्ता ही करती है । तो ऐसे में किसी भी पार्टी का कोई भी सांसद रहे वह अपने बैंक स्टेटमेंट को अगर देश के सामने रख भी देखा तो भी ये सवाल तो गौण ही रहेगा कि आखिर इनकी कमाई होती कैसे है । और होती है तो उसमें उनकी सियासी ताकत कैसे काम करती है । फिर मुद्दा किसी एक पार्टी या सत्ता का नहीं है। क्योंकि पूर्व टेलीकॉम मंत्री कपिल सिब्बल की संपत्ति देखें तो 2014 के लोकसभा चुनावों के वक्त 114 करोड़ थी,जो सत्ता गंवाने के बाद भी धुआंधार बढ़ी और जब इस साल राज्यसभा के लिए ऩामांकन किया तो उनकी घोषित संपत्ति 184 करोड़ हो गई थी। तो नेता अपना काम बखूबी करते हैं, और ये बात उनकी बढ़ती संपत्ति से समझी जा सकती है। लेकिन-सीधा सवाल यही है कि जब नेताओं को अपना धंधा ही चमकाना है तो उन्हें समाजसेवा या कहें राजनीति में क्यों आने दिया जाए। राजनीति से नेताओं की निजी बैलेंसशीट बढ़ रही है। उनकी संपत्ति बैंक में है तो वो व्हाइट है ही। या कहें कि वो पहले से आयकरवालों की निगाहों में हैं। तो ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी अगर 8 नवंबर से 31 दिसंबर के बीच बीजेपी सांसदों और विधायकों की बैंक में जमा राशि की रिपोर्ट पार्टी अध्यक्ष को सौंपने के लिए कह रहे हैं तो उसका मतलब है क्या। क्या ये खुद ही खुद को ईमानदारी की क्लीनचिट देने की कवायद है या पार्टी को लगता है कि आयकर विभाग का ही कोई मतलब नहीं।
Tuesday, November 29, 2016
एकला चलकर बनेंगे मिस्टर क्लीन !
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:42 PM
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4 comments:
prasun ji pura black many jo ki kuch kalabzari hadap gaye the...usme se kuch to sarkar ke pas aayega na.,,to kya farak padta h 50 ya 25 percent dene se...aapki congress to pura pura hadap jati thi...isase to thik hi h.
विश्लेषण काफी प्रसांगिक और समकालीन लगा। संसद सम्वाद की जगह है पर वो संघर्ष की जग़ह बनता जा रहा है। आपके विचार सही है और जिसमें संसदीय परम्परा पर अपने प्रश्नचिन्ह खड़ा किया। अब अंतर कर पाना मुश्किल है कि राजनीति में अपराधीकरण है या अपराधीकरण में राजनीतिकरण है। भ्रष्ट राजनीति को भी अपने अच्छे तरह से व्याख्या किया है।
सम्पत्ति के मामले में २००९ और २०१४ के तुलना तथ्यों से भरपूर है। आपने काफी मेहनत कर इस लेख को लिखा, जिसकी मैं प्रशंसा करता हूँ। कल था दस्तक का इंतजार मगर आप गैरहाजिर रहें।
विश्लेषण काफी प्रसांगिक और समकालीन लगा। संसद सम्वाद की जगह है पर वो संघर्ष की जग़ह बनता जा रहा है। आपके विचार सही है और जिसमें संसदीय परम्परा पर अपने प्रश्नचिन्ह खड़ा किया। अब अंतर कर पाना मुश्किल है कि राजनीति में अपराधीकरण है या अपराधीकरण में राजनीतिकरण है। भ्रष्ट राजनीति को भी अपने अच्छे तरह से व्याख्या किया है।
सम्पत्ति के मामले में २००९ और २०१४ के तुलना तथ्यों से भरपूर है। आपने काफी मेहनत कर इस लेख को लिखा, जिसकी मैं प्रशंसा करता हूँ। कल था दस्तक का इंतजार मगर आप गैरहाजिर रहें।
Aap ek hai. Mere pass word hi nahi hai ki aap kitne achhe.aapka show 10 tak mujhe bahut bahut achhe hai.
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