Friday, December 2, 2016

हर आंख में एक सपना है...

पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर, रोजगार बात इससे आगे तो देश में कभी बढी ही नहीं । नेहरु से लेकर मोदी के दौर में यीह सवाल देश में रेगते रहे। अंतर सिर्फ इतना आया की आजादी के वक्त 30 करोड में 27 करोड लोगो के सामने यही सवाल मुहं बाये खडे थे और 2016 में सवा सौ करोड के देश में 80 करोड नागरिको के सामने यही सवाल है । तो ये सवाल आपके जहन में उठ सकता है जब हालात जस के तस है तो किसी को तो इसे बदलना ही होगा । लेकिन इस बदलने की सोच से पहले ये भी समझ लें वाकई जिस न्यूनत की लडाई 1947 में लडी जा रही थी और 2016 में उसी आवाज को नये सीरे से उठाया जा रहा है उसके भीतर का सच है कया । सच यही है कि 80 लाख करोड से ज्यादा का मुनाफा आज की तारिख में उसी पानी, बिजली,खाना, शिक्षा, इलाज घर और रोजगार दिलाने के नाम पर प्राईवेट कंपनियो के टर्न ओवर का हिस्सा बन जाता है ।

यानी जो सवाल संसद से सडक तक हर किसी को परेशान किये हुये है कि क्या वाकई देश बदल रहा है या देश बदल जायेगा । उसके भीतर का मजमून यही कहता है कि 150 अरब से ज्यादा बोतलबंद पानी का बाजार है । 3 हजार अरब से ज्यादा का खनन-बिजली उत्पादन का बाजार है । 500 अरब से ज्यादा का इलाज का बाजार है । ढाई हजार अरब का घर यानी रियल इस्टेट का बाजार है ।सवा लाख करोड से ज्यादा का शिक्षा का बाजार है । अब आपके जहन में ये सवाल खडा हो सकता है कि फिर चुनी हुई सत्ता या सरकारे काम क्या करती है । क्योकि नोटबंदी के फैसले से आम आदमी कतार में है लेकिन पूंजी वाला कोई कतार में क्यो नदर नहीं आ रहा है और देश में बहस इसी में जा सिमटी है कि उत्पादन गिर जायेगा । जीडीपी नीचे चली जायेगी । रोजगार का संकट आ जायेगा । तो अगला सवाल यी है कि जब देश में समूची व्यवस्था ही पूंजी पर टिकी है । यानी हर न्यूनतम जरुरत के लिये जेब में न्यूनतम पूंजी भी होनी चाहिये और उसे जुगाडने में ही देश के 80 फिसदी हिन्दुस्तान की जिन्दगी जब इसी में खप जाती है तो फिर नोटबंदी के बाद लाइन में खडे होकर अगर ये सपना जगाया गया है कि अच्छे दिन आयेगें तो कतारो में खडा कोई कैसे कहे कि जो हो रहा है गलत हो रहा है ।

लेकिन क्या सपनो की कतार में खडे होकर 30 दिसबंर के बाद वाकई सुनहरी सुबह होगी । तो आईये जरा इसे टटोल लें । क्योकि 70 बरस में कोई बदलाव आया नहीं और 70 बरस बाद बदलाव का सपना देखा जा रहा है तो इस बीच में खडी जनता क्या सोचे । आदिवासी , दलित, महिला, किसान , मुस्लिम ,बेरोजगार । संविधान में जिक्र सभी का है । संविधान मे सभी को बराबर का हक भी है । लेकिन संविधान की शपथ लेने के बाद जब राजनीतिक सत्ता के हाथ में देश की लगाम होती है तो हर कोई आदिवाली हो या दलित । महिला हो या मुस्लिम । किसान हो या बेरोजगारो की कतार । सभी से आंख क्यो और कैसे मूंद लेता है । और चुनाव दर चुनाव वोटबैक के लिये राजनीतिक दल इन्हे एकजूट दिखाते बताते जरुर है लेकिन हर तबका अलग होकर भी ना एकजूट हो पाता है ना ही कभी मुख्यधारा में जुड पाता है । और इन सभी की तादाद मिला तो 95 फिसदी तो यही है ।मुख्यधारा का मतलब महज 5 फिसदी है । यानी जो सपने आजादी के बाद से देश को राजनीतिक सत्ताओ ने दिखाये क्या उसके भीतर का सच सिवाय देश को लूटने के अलावे कुछ नहीं रहा । क्योकि किसानो की तादाद 18 करोड बढ गई और खेती की जमीन 12 पिसदी कम हो गई । मुस्लिमो की तादाद साझे तीन करोड से 17 करोड हो गई लेकिन हालात बदतर हुये । दलित भी 3 करोड से 20 करोड पार कर गये । लेकिन जिस इक्नामी के आसरे 1947 में शुरुआत हुई उसी इक्नामी के आसरे 2016 में भी अगर देश चल रहा है तो फिर ये सवाल जायज है कि देश में किसी भी मुद्दे को कोई भी कैसे उठाये ।

समाधान निकल नहीं सकता जब तक पूंजी पर टिकी व्यवस्था को ही ना बदला जाये । यानी उत्पादन, रोजगार , नागरिको के हक और राजनीतिक व्यवस्था की लूट से लेकर मुनाफे के सिस्टम को पलटा ना जाये । तो क्या मोदी पूंजी पर टिकी व्यवस्था बदलने की सोचेगें । क्या पानी-बिजली-शिक्षा-हेल्थ से निजी क्षेत्र को पूरी तरह बेदखल कर सरकार जिम्मेदारी लेगी । यानी जो तबका कतार में है । जो तबका हासिये पर है । जो तबका निजी क्षेत्र से रोजगार पाकर जिन्दगी चला रहा है । उनकी जिन्दगी से इतर नोटबंदी को आधार कालेधन और आंतक पर नकेल कसने को बनाया गया । लेकिन भ्ष्ट्रचार, नकली नोट , आंतकी हमले भी अगर नोटबंदी के बाद सामने आये । तो क्या कहॉ जाये कि 70 बरस के दौर में पहली बार देश में सबसे बडा राजनीतिक जुआं सिर्फ यह सोच कर खेला गया कि इसके दायरे में हर वह तबका आ जायेगा जो परेशान है और कतार की परेशानी बडे सपने के सामने छोटी हो जायेगी । लेकिन ये रासता जा किधर रहा है । क्योकि इसी दौर में भ्,्ट्रचार और ब्लैक मनी का दामन साथ कैसे जुडा हुआ है ये बेगलूर में 4 करोड 70 लाख रुपये जब 2 कन्ट्रेकटर और सरकारी अधिकारी के पास से जब्त किये गये तो सभी के पास नये 2 हजार के नोट थे । वही मोहाली में तो दो हजार के नकली नोट जो करीब 42 लाख रुपये थे । वह पकड में आ गये । और गुजरात तो दो हजार रुपये के छपते ही 17 नवंबर को पोर्ट ट्रस्ट के दो अधिकारी के पास से दो लाख 90 हजार रुपये जब्त हुये ।

इन सबके बीच नगरोटा की आंतकी घटना ने भी ये सवाल खडा किया कि आंतकवाद क्या नोटबंदी के बावजूद अपने पैरो पर खडा है । यानी सवाल इतने सारे की हर जहन में वाकई ये सवाल ही है कि क्या वाकई 30 दिसबंर के बाद सबकुछ सामान्य हो जायेगा । या फिर देश में जिन चार जगहो पर नोट छपते है । -नासिक, देवास, सलबोनी , मैसूर । इन जगहो में किसी भी रफ्तार से नोट छापे जाये अगर इनकी कैपेसिटी ही हर वर्ष 16 अरब छापने की है । और नोटबंदी से करीब 22अरब नोट बंद हुये है . तो फिर हालात लंबे खिचेगें । या फिर दो की जगह चार शिफ्ट में भी काम शुरु हो जाये तो फिर जिसने नोट निकले रहे है और जितने नोट लोगो को मिल रहे है । सबकुछ सामान्य हालात में आने में कितने दिन लगेगें । ये अब भी दूर की गोटी है ।

5 comments:

Optimistic said...

...agreed to every word.
I heard somewhere prior to 2014 election that ruling party + soninlaw has broken all the records of corruption etc.and whatever... whatever bjp + can not rig system any further....
...exact words I do not remember but the person also added that every time any non Congress come to the power they make extreme loots and that's why they do not ever win two consecutive elections.
...so it seems he was partially right

Unknown said...

अाज एजेण्डा में अाप के प्रश्न के जवाब में अमित शाह ने कहा कि लुटेरों के ऋण को एनपीए करके उन्होंने बहुत ईमानदारी अौर बहादुरी का काम किया है, जो काम पूव की सरकारें नही करती थी , क्योंकि उनका उन लुटेरों से गठजोड़ था,अौर वे अागे के लिये इसे बंद करना चाहते हैं। किन्तु उन्होंने मूल बात तो छुपा दी, कि वे कौन कौन लोग हैं,जिनका ऋण उन्होंने माफ कर दिया है। इतने बड़े-बड़े लोन अवश्य ही कंपनियों के होंगे,अौर वो कंपनियाँ किनकी हैं, उनके मालिकान कौन हैं, वे अौर किन किन कंपनियों के मालिक है। ये खेल तो वषों से बैंकों के अधिकारियों अौर नेताअों के साथ मिलीभगत से चल रहा है, कि कंपनियों का फंड दुसरी जगह निकाल कर कंपनियों को घाटे में दिखा दिया जाता है, अौर नेताअों अौर अधिकारियों के साथ मिलकर एन पी ए कर दिया जाता है, अौर सरकारें जनहित में मालिकों अौर कंपनियों के नाम उजागर नही करती है . अौर वे लोग फिर नई नई कंपनियां बनाकर यूं ही जनता की गाढ़ी कमाई जो बैंकों में जमा है, को अधिकारियों अौर नेताअों के साथ मिलकर लुटते रहतें हैं। एैसे लोग जिन कंपनियों के बोडर्र् में होते हैं उन कंपनियों को लोन कैसे मिल जाता है,अौर सामान्य जन को बगैर माडगेज के लोन ना देने वाली अौर प्रापटी को बेचकर वसुल कर लेने वाली बैंक, उन्हें कैसे लोन दे देती जो वसुला भी ना जा सके। सर, अाप शायद एन पी ए हुई कंपनियों को अौर उनके मालिकों को जानते हौगे, खोज करेंगें तो पता चल जायेगा कि वे अौर किन किन कंपनियों के बोडर्र् में है, जब उनकी दुसरी कंपनियाँ चल रही है तो इन कंपनियों को एन पी ए कैसे किया जा सकता है।

Unknown said...

पुण्य प्रसून बाजपेयी जी,

आपका विचार पढ़कर अच्छा लगा। जनतन्त्र में जनता के सवालों को हमेशा से अनदेखा किया गया। मीडिया भी जनतन्त्र में अपनी भूमिका निर्वाह करने में कमी दिखा रही है। सरकार तो सीमित संसाधन और असीमित इच्छाओं के बीच द्वंद में हमेशा से रही है। आप तो गाना के शौकीन है और कई बार मैंने देखा आप अपनी बात को गाना के माध्यम से कहना चाहते हैं। जब प्रयेक चीज को बाजार तय करने लगे तो भावना के भवन को बनाना आसान नहीं होता है।
आप अपने लेख में नेहरू से मोदी सरकार तक को घेरा है तो कमेंट लिखना भी मुश्किल है। मिश्रित अर्थव्यस्था से उदारीकरण का दौर रहा - समस्या भी वहीं खड़ी रही।

कैशलेस समाज का निर्माण हो रहा है। बिजली समस्या पर कोई बोल ही नहीं रहा है ?

समस्या का समाधान आखिर क्या है ?

कहीं माल्थस और मार्क्स के बीच में समस्या उलझ न जाएँ।

वेबर ने कहा था - सत्ता एक ही प्रकार का होता है। जो भी बैठे सत्ता के सामंजस्य बैठा ही लेता है। अंदाज बदल जाता है कहने का, बोलने का और सुनने का ????मगर समस्या अपनी नयी पहचान के साथ सामने आ जाती है।

Unknown said...

पुण्य प्रसून बाजपेयी जी,

आपका विचार पढ़कर अच्छा लगा। जनतन्त्र में जनता के सवालों को हमेशा से अनदेखा किया गया। मीडिया भी जनतन्त्र में अपनी भूमिका निर्वाह करने में कमी दिखा रही है। सरकार तो सीमित संसाधन और असीमित इच्छाओं के बीच द्वंद में हमेशा से रही है। आप तो गाना के शौकीन है और कई बार मैंने देखा आप अपनी बात को गाना के माध्यम से कहना चाहते हैं। जब प्रयेक चीज को बाजार तय करने लगे तो भावना के भवन को बनाना आसान नहीं होता है।
आप अपने लेख में नेहरू से मोदी सरकार तक को घेरा है तो कमेंट लिखना भी मुश्किल है। मिश्रित अर्थव्यस्था से उदारीकरण का दौर रहा - समस्या भी वहीं खड़ी रही।

कैशलेस समाज का निर्माण हो रहा है। बिजली समस्या पर कोई बोल ही नहीं रहा है ?

समस्या का समाधान आखिर क्या है ?

कहीं माल्थस और मार्क्स के बीच में समस्या उलझ न जाएँ।

वेबर ने कहा था - सत्ता एक ही प्रकार का होता है। जो भी बैठे सत्ता के सामंजस्य बैठा ही लेता है। अंदाज बदल जाता है कहने का, बोलने का और सुनने का ????मगर समस्या अपनी नयी पहचान के साथ सामने आ जाती है।

Unknown said...
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