18 करोड़ मुस्लिम। 20 करोड़ दलित। खेती पर टिके 70 करोड़ लोग। और ऐसे में नारा सबका साथ सबका विकास। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती मुस्लिम-दलित-गरीब-किसान-मजदूर को नई राजनीति से साधना है। या फिर मुख्यधारा में सभी को लाना है। जरा सिलसिलेवार तरीके से इस सिलसिले को परखें तो आजादी के साथ विभाजन की लकीर तले मुस्लिमों की ये तादाद हिन्दुस्तान का ऐसा सच है जिसके आसरे राजनीति इस हद तक पली बढ़ी कि सियासत के लिये मुस्लमान वजीर माना गया और सामाजिक-आर्थिक विपन्नता ने इसे प्या बना दिया। लेकिन जो सवाल बीते 70 बरस में मुस्लिमों को लेकर सियासी तौर पर नहीं वह सवाल आज की तारीख में सबसे ज्वलंत है कि क्या मोदी राज में मुस्लिम खुद को बदलेंगे। या फिर मुस्लिम सियासी प्यादा बनना छोड़ अपनी पहचान को भी बदल लेंगे। ये सवाल इसलिये क्योंकि जब 1952 के पहले चुनाव से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के यूपी चुनाव तक में मुस्लिम को वोट बैक मान कर राजनीति अलग अलग धारा में बंटी। और जीत हार के बाद भी सवाल सिर्फ मुस्लिमों को लेकर ही खड़े किये जा रहे हैं। ऐसी आवाजें कई स्तर पर कई मुस्लिम नेताओं के जरीये यूपी चुनाव परिणाम के बाद सुनी जा सकती है। तो सवाल तीन हैं। पहला क्या मुस्लिम नेता के सरोकार आम मुस्लिम नागरिक से जुडे हुये नहीं है। दूसरा क्या नुमाइन्दी के नाम पर हमेशा मुस्लिम ठगे गये। तीसरा, क्या मुस्लिम समाज के भीतर की कसमसाहट अब मुस्लिम नेताओं से अलग रास्ता तलाश रही हैं। क्योंकि यूपी चुनाव का सच तो यही है कि बीजेपी बहुमत के साथ जीती। करीब 40 फीसदी वोट उसे मिले। लेकिन कोई मुस्लिम उसका उम्मीदवार नहीं था। और पहली बार यूपी विधानसभा में सबसे कम सिर्फ 24 विधायक मुस्लिम हैं। पिछली बार 69 मुस्लिम विधायक थे। यानी जो समाजवादी और मायावती मुस्लिमों को टिकट देकर खुद को मुस्लिमों की नुमाइन्दी का घेरा बना रही थी, मुस्लिमो ने उसी समाजवादी और मायावती के बढते दायरे को कटघरा करार दे दिया। असर इसी का हुआ कि सपा के 16 तो बीएसपी के 5 और कांग्रेस के 2 मुस्लिम उम्मीदवार विधायक बन पाये। तो इसके आगे के हालात ये भी है कि क्या चुनावी जीत हार के दायरे में ही मुस्लिम समाज को मुख्यधारा में लाने या ना ला पाने की सोच देश में विकसित हो चली है। क्योंकि ट्रिपल तलाक पर बीजेपी के विरोध के साथ मुस्लिम महिलायें वोट देने के लिये खडी हुई लेकिन ट्रिपल तलाक बरकरार है। वाजपेयी के दौर में मदरसों के आधुनिकीकरण के साथ मुस्लिम खड़े हुये लेकिन मदरसों के हालात जस के तस है। कांग्रेस के दौर में बुनकर से लेकर हज करने तक में बड़ी राहत दी गई। लेकिन दोनों सवाल आज भी जस के तस हैं।
मुलायम-मायावती के दौर में मुस्लिमों को वजीफे से लेकर तमाम राहत दी गई। लेकिन रहमान कमेटी से लेकर कुंडु कमेटी और सच्चर कमेटी तक में मुस्लिम समाज के भीतर के सवालों ने एक आम मुस्लिम की जर्जर माली हालत को ही उभार दिया। तो फिर मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी के सामने भी ये सवाल है और मुस्लिम समाज के भीतर भी ये सवाल है कि अखिर मुख्यधारा से सरकार की नीतिया मुस्लिम समाज को जोड़ेगी या फिर मुस्लिम अपनी पहचान छोड जब एक आम नागरिक हो जायेगा तो वह मुख्यधारा से जुड़ेगा क्योंकि अगला सवाल दलितो का है। 20 करोड़ दलित का। और राजनीति ने दलित को एक ऐसे वोट बैक में तब्दील कर दिया,जहां ये सवाल गौण हो गया कि दलित मुख्यधारा में शामिल कब और कैसे होगा। यानी आंबेडकर से लेकर कांशीराम और मायावती तक के दौर में दलितो का ताकत देने के सवाल कांग्रेस की राजनीति से टकराता रहा। और कांग्रेस नेहरु से लेकर राहुल गांधी तक के दौर में दलितों के हक का सवाल दलितों के दलित पहचान के साथ जोड़े रही। तो क्या यूपी चुनाव के जनादेश ने पहली बार संकेत दिये कि दलित नेताओं की नुमाइन्दगी तले दलित खुद को ठगा हुआ मान रहा है। यानी दलित नेताओ के सरोकार दलितों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान से जुडे नहीं तो दलितों ने रास्ता अलग पकडा यानी जो सवाल मुस्लिमो की पहचान को लेकर उठा कि मोदी को लेकर मुस्लिम बदलेगें उसी तर्ज पर दलित भी अब अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान छोड कर मोदी सरकार के साथ खडे होगें ।
लेकिन संकट वहीं है कि क्या चुनावी जीत -हार तले दलितों की मुशिकल हालात सुधरेंगे । या फिर दलितो के लिये नीतिया मुख्यधारा में शामिल करने के अनुकूल बनेगी यानी मोदी के सामने दोहरी चुनौती है। एक तरफ मुस्लिम अपनी राजनीतिक पहचान छोड़े दूसरी तरफ दलितों को सत्ता मुख्यधारा की पहचान दें। यानी सारे हालात बार बार सरकार की उन आर्थिक सामाजिक नीतियों की तरफ ले जाती है जो असमानता पर टिका है। और प्रधानमंत्री मोदी के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह कैसे असमान समाज के भीतर सबका साथ सबके विकास की अलघ जगाये। क्योंकि बीजेपी के अपने अंतर्विरोध हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को भी जीते हैं। यानी जाति और धर्म से टकराती हुये संघ से लेकर बीजेपी भी नजर आती है। ऐसे में अगला सवाल तो देश की असमानता के बीच सबका साथ सबका विकास तले गरीब किसान मजदूर का है। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में अब बीजेपी के वो पारंपरिक मुद्दे नज़र नहीं आते, जिनके आसरे कभी बीजेपी ने अपनी पहचान गढ़ी थी। अलबत्ता गरीब-किसान-मजदूर-दलित-शोषित-वंचित की बात करते हुए मोदी खुद को लीक से अलग ऐसे राजनेता के रुप में पेश करने की कोशिश में हैं,जिसके लिए हाशिए पर पड़े शख्स की जिंदगी को संवारना ही पहला और आखिरी उद्देश्य है।लेकिन देश की विपन्नता सबका साथ सबका विकास की समानता पर सवाल खड़ा करती है । क्योंकि देश का सच यही है कि सिर्फ एक फीसदी रईसों के पास देश की 58 फीसदी संपत्ति है । और दलित-मुस्लिम-किसान जो 80 फिसदी है उसके पास 10 फिसदी संसाधन भी नहीं है। यानी अर्थव्यवस्था के उस खाके को देश ने कभी अपनाया ही नहीं जहा मानव संसाधन को महत्व दिया जाये । यानी जो मानव संसाधन चुनाव जीतने के लिये सबसे बडा हथियार है। वहीं मानव संसाधन विकास की लकीर खींचे जाते वक्त पगडंडी पर चलने को मजबूर हैं। और उसके लिये किसी सरकार के पास कोई नीति है ही नहीं। यानी देश के हाशिए पर पड़ा समाज आज भी मूलभूत की लड़़ाई लड़ रहा है, और सबका साथ सबका विकास आकर्षक नारा तो बन जाता है लेकिन जमीन पर इसे अमलीजामा कैसे पहनाया जाए-इसका रोड़मैप किसी सरकार के पास कभी नहीं दिखा।
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