Monday, September 11, 2017

मां-बाप क्या करें ? जब हर जिम्मेदारी से है मुक्त चुनी हुई सरकार

तो सुप्रीम कोर्ट को ही तय करना है कि देश कैसे चले। क्योंकि चुनी हुई सरकारों ने हर जिम्मेदारी से खुद को मुक्त कर लिया है। तो फिर शिक्षा भी बिजनेस है। स्वास्थ्य सेवा भी धंधा है। और घर तो लूट पर जा टिका है। ऐसे में जिम्मेदारी से मुक्त सरकारों को नोटिस थमाने से आगे और संविधान की लक्ष्मण रेखा पार न करने की हिदायत से आगे सुप्रीम कोर्ट जा नहीं सकता। और नोटिस पर सरकारी जवाब सियासी जरुरतो की तिकड़मों से पार पा नहीं सकता। तो होगा क्या। सरकारी शिक्षा फेल होगी। प्राइवेट स्कूल कुकुरमुत्ते की  तरह फले-फुलेंगे। सरकारी हेल्थ सर्विस फेल होगी। निजी अस्पताल मुनाफे पर इलाज करेंगे। घर बिल्डर देगा। तो घर के लिये फ्लैटधारकों की जिन्दगी बिल्डर के दरवाजे पर बंधक होगी। यानी जीने के अधिकार के तहत ही जब न्यूनतम जरुरत शिक्षा, स्वास्थ्य और घर तक से चुनी हुई सरकारें पल्ला झाड़ चुकी हो तब सिवाय लूट के होगा क्या सियासत लूट के कानून को बनाने के अलावा करेंगी क्या। और सुप्रीम कोर्ट सिवाय संवैधानिक व्याख्या के करेगा क्या। हालात ये है कि 18 करोड़ स्कूल जाने वाले बच्चो में 7 करोड़ बच्चों का भविष्य निजी स्कूलों के हाथो में है। सरकार का शिक्षा बजट 46,356 करोड़ है तो निजी स्कूलों का बजट 8 लाख करोड से ज्यादा है। यानी देश की न्यूनतम जरुरत, शिक्षा भी सरकार नहीं बाजार देता है। जिसके पास जितना पैसा। और पैसे के साथ उन्हीं नेताओं की पैरवी, जो जिम्मेदारी मुक्त है। और तो और नेताओ के बडी कतार चाहे सरकारी स्कूल में बेसिक इन्फ्रस्ट्रक्चर ना दे पाती हो लेकिन उनके अपने प्राईवेट स्कूल खूब बेहतरीन हैं। इसीलिये निजी  स्कूलों की कमाई सरकारी स्कूलो के बजट से करीब सौगुना ज्यादा है। तो मां-बाप क्या करें । सुप्रीम कोर्ट के नोटिस पर 21 दिन बाद आने वाले जवाब का इंतजार करें ।

और इस बीच चंद दिनो पहले की खबर की तरह खबर आ जाये कि गोरखपुर में 125 बच्चे । तो फर्रुखाबाद में 38 और सैफई में 98 बच्चे मर  गये। बांसवाडा में भी 90 बच्चे मर गये। ये सच बीते दो महीने का है तो मां-बाप शिक्षा के साथ अब बच्चो के जिन्दा रहने के लिये इलाज की तालाश में भटके। और इलाज का आलम ये है कि 100 करोड जनसंख्या जिस सरकारी इलाज पर टिकी है उसके लिये बजट 41,878 करोड का है। 25 करोड नागरिकों के लिये प्राइवेट इलाज की इंडस्ट्री 6,50,000 करोड पार कर चुकी है। यानी इलाज की जगह सरकारी अस्पतालो में मौत और मौत की एवज में करोड रुपये का मुनाफा।  तो दुनिया में भारत ही एकमात्र एसा देश है जहा शिक्षा और हेल्थ सर्विस का सिर्फ निजीकरण हो चला है बल्कि सबसे मुनाफे वाली इडस्ट्री की तौर पर शिक्षा और हेल्थ ही है। तो मां-बाप क्या करें। जब शिक्षा के नाम पर  कत्ल हो जाये । इलाज की एवज में मौत मिले। और एक अदद घर के लिये खुद को ही बिल्डर के हाथो रखने की स्थिति आ जाये और चुनी हुई सरकार पल्ला झाड ले तो फिर सुप्रीम कोर्ट का ये कहना भर आक्सीजन का काम करता है कि , " बैंक बिल्डर का नहीं फ्लैटधारको को फ्लैट दिलाने पर ध्यान दें। बिल्डर डूबता है तो डूबने दें।" तो जो बात सुप्रीम कोर्ट संविधान की व्यख्या करते हुये कह सकता है उसके चुनी हुई सरकारे सत्ता भोगते हुये लागू नहीं कर  सकती। क्योंकि सवाल बच्चो की मौत के साथ हर पल मां बाप के मर के जीने का भी होता है। इसीलिये गुरुग्राम के श्यामकुंज की गली नं 2 में जब नजर कत्ल किये जा चुके प्रद्यु्म्न 50 गज के घर पर पडती है तो कई सवाल हर जहन  में रेंगते है। क्योंकि पूरी कालोनी जिस त्रासदी को समेटे प्रद्युम्न की मां ज्योति ठाकुर को सांतवना देने की जगह खुद के बच्चे की तस्वीर आंखों  में समेटे है। वह मौजूदा सिस्टम के सामने सवाल तो हैं। क्योंकि बच्चे का कत्ल ही नहीं बल्कि सिर्फ बच्चे को पालने के आसरे पूरा परिवार कैसे जिन्दगी जीता है उसकी तस्वीर ही प्रद्युम्न के घर पर मातम के बीच खामोशी तले पसरी हुई है।

और फैलते महानगरो में हाशिये पर पड़े लोगों के बीच देश के किसी भी हिस्से में चले जाइये इस तरह पचास गज की जमीन पर घर बनाकर बच्चो को बेहतर जिन्दगी देने की एवज में खुद जिन्दगी से दो दो हाथ करते  परिवार आपको दिखायी दे जायेगें । और बच्चो को पढाने के नाम पर इन्हीं परिवारो की जेब में डाका ढाल कर इस देश में सालाना दो लाख करोड़ की फिस-डोनेशन प्राइवेट स्कूलों से ली जाती है।  सबसे ज्यादा जमीन शिक्षा के  नाम पर प्राईवेट-कान्वेंट स्कूल को मिल गई। सिर्फ एक रुपये की लीज पर। तीस बरस के लिये। इसी दौर में प्राइवेट शिक्षा का बजट देश के शिक्षा बजट से 17 गुना ज्यादा का हो गया।  तो जो परिवार रेयान स्कूल में कत्ल के बाद फूट पडे । उन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चो को मां-बाप के लिये चुनी हुई सरकारें क्या वाकई कुछ सोचती भी हैं। क्योंकि आज का सच यही है कि प्राइवेट स्कूलों की फीस भरने में मां-बाप की कमर दोहरी हो रही है। एसोचैम का सर्वे कहता है कि बीते चार साल में निजी स्कूलों की फीस 100 से 120 फीसदी बढ़ गई है । प्राइवेट स्कूलों की फीस हर साल औसतन 10 से 20 फीसदी बढ़ाई जाती है । बच्चो की पढाई को लेकर मंहगाई मायने नही रखती । स्कूलो की मनमानी पर कोई रोक लगती नहीं । मसलन महानगरो में एक बच्चे को पढाने का सालाना खर्च किस रफ्तार से बढा । उसका आलम ये है कि 2005 में 60 हजार । 2011 में 1 लाख बीस हजार । तो 2016 में 1 लाख 80 हजार सालाना हो चुका है।यानी महानगरो में किसी परिवार से पूछियेगा कि एक ही बच्चा क्यों तो जवाब यही आयेगा कि दूसरे बच्चे को पैदा तो कर लेंगे लेकिन पढायेंगे कैसे । यानी बच्चो की पढाई परिवार की वजह से पहचाने वाले देश में परिवार को ही खत्म कर रही है । लेकिन सिर्फ प्राइवेट स्कूल ही क्यो । पढाई के लिये ट्यूशन एक दूसरी ऐसी इंडस्ट्री है जिसके लिये स्कूल ही जोर डालते है । आलम ये है कि देश का शिक्षा बजट 46,356 करोड का है । और  ट्यूशन इंडस्ट्री तीन लाख करोड़ रुपए पार कर चुकी है । एसोचैम का सर्वे कहता है कि महानगरों में प्राइमरी स्कूल के 87 फीसदी छात्र और हाई स्कूल के 95 फीसदी छात्र निजी ट्यूशन लेते हैं । महानगरों में प्राइवेट ट्यूटर एक क्लास के एक हजार रुपए से चार हजार रुपए वसूलते हैं जबकि ग्रुप ट्यूशन की फीस औसतन 1000 रुपए से छह हजार रुपए के बीच है । यानी दो जून की रोटी में
मरे जा रहे देश में नौनिहालो की पढाई से लेकर इलाज तक की जिम्मेदारी से चुनी हुई सरकारे ही मुक्त है ।  क्योकि देश की त्रासदी उस कत्ल में जा उलझी है जिसका आरोपी दोषी नहीं है और दोषी आरोपी नहीं है क्योकि उसकी ताकत राजनीतिक सत्ता के करीब है । जब काग्रेस सत्ता में तो कांग्रेस के करीब और अब बीजेपी सत्ता में तो बीजेपी के करीब रेयान इंटरनेशनल की एमडी ग्रेस पिंटो । यू देश का सच तो ये भी है कि देश के 40 फीसदी निजी स्कूलों या शैक्षिक संस्थानों के मालिक राजनीतिक दलों से जुड़े हैं । बाकि अपने ताल्लुकात राजनीति सत्ता से रखते है । क्योंकि ध्यान दीजिए तो डीवाई पाटील,शरद पवार, सलमान खुर्शीद, छगन भुजबल, जगदंबिका पाल, जी विश्वानाथन,ज्योतिरादित्य सिंधिया, शिवपाल यादव, मनोहर जोशी,अखिलेश दास गुप्ता,सतीश मिश्रा जैसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है,जिनके स्कूल हैं या जो स्कूल मैनजमेंट में सीधे तौर पर शामिल हैं ।तमिलनाडु में तो 50 फीसदी से ज्यादा शैक्षिक संस्थान राजनेताओं के हैं । महाराष्ट्र में भी 40 से
50 फीसदी स्कूल राजनेताओं के हैं तो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी यही हाल है । दरअसल, शिक्षा अब एक ऐसा धंधा है, जिसमें कभी मंदी नहीं आती। स्कूल की मंजूरी से लेकर स्कूल के लिए तमाम दूसरी सरकारी सुविधाएं लेना राजनेताओं के लिए अपेक्षाकृत आसान होता है और स्कूल चलाने के लिए जिस मसल पावर की जरुरत होती है-वो राजनेताओं के पास होती ही है। तो एक बच्चे की हत्या के बाद मचे बवाल से सिस्टम ठीक होगा यही ना देखियेगा । कुछ वक्त बाद परखियेगा रेयान इंटरनेशनल स्कूल में 7 बरस के बच्चे की हत्या ने किस किस को लाभ पहुंचाया।

6 comments:

pushpendra dwivedi said...

netaon ko to bas vote dedo fir chup chaap ghar me jaake so jao bas yahi umeed kare janta sarkaar se waah kya din aagaye hain

HARSH DUBEY said...

क्यों सवाल उठाते हैं आप! हम उस दौर में हैं, जहां एहमियत केवल चुनाव की है। चरस, अफीम सब पुरानी बातें है, असली नशा आज की तारीख में चुनाव का है। गोरखपुर हो या गुरुग्राम, अभी कहीं चुनाव नहीं हैं। बात हिमांचल की होती तब होता पूरा तंत्र सक्रीय और खाई जाती कस्में प्रद्युमन को इंसाफ दिलाने की।
पर सच यही है कि यह उस क्षेत्र का दुर्भाग्य है, जहां रयान स्कूल है और जहां प्रद्युमन पढ़ता था कि वहां सामने कोई चुनाव नहीं हैं।

हमारे देश की विकास,व्यवस्था, अर्थव्यवस्था पर नहीं बल्कि चुनावों पर निर्भर है।

राष्ट्रीय कवच said...

बर्बादी के दिन आ गए।

Unknown said...

Nice brother

Unknown said...

Nice brother

Sachin Sinha said...
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