केरल में बीजेपी की जनरक्षा यात्रा का नजारा राजनीति जमीन बनाने के लिये है । या फिर राज्य में राजनीतिक हिंसा को रोकने के लिये । ये सवाल अनसुलझा सा है । क्योंकि वामपंथी कैडर और संघ के स्वयंसेवकों का टकराव कितनी हत्या एक दूसरे की कर चुका है, इसे ना तो वामपंथियों के सत्ता पाने के बाद की हिंसा से समझा जा सकता है ना ही सत्ता ना मिल पाने की जद्दोजहद में संघ परिवार के सामाजिक विस्तार से जाना जा सकता है । मसलन एक तरफ बीजेपी और संघ के स्वयंसेवकों के नाम हैं तो दूसरी तरफ सीपीएम के कैडर के लोगो के नाम। सबसे खूनी जिले कुन्नुर में एक तरफ सीपीएम कैडर के तीस लोग हैं, दूसरी तरफ संघ के स्वयंसेवकों के 31 नाम है । सभी मारे जा चुके हैं। राजनीतिक हिंसा तले मारे गये। ये सब बीते 16 बरस की राजनीतिक हिंसा का
सच है। और कुन्नूर की इस हिंसा के परे समूचे केरल का सच यही है । 2001 से 2016 तक कुल 172 राजनीतिक हत्यायें हो चुकी है । जिसमें बीजेपी-संघ के स्वयसेवको की संख्या 65 है तो सीपीएम के कैडर के 85 लोग मारे गये हैं। इसके अलावे कांग्रेस के 11 और आईयूएमएल के भी 11 कार्यकत्ता मारे गये है । तो राजनीतिक हिंसा किस राज्य में कितनी है इसके आंकडों के लिये सरकारी एंजेसी एनसीआरबी के आंकडो को भी देखा जा सकता है। जहां देश में पहले नंबर पर यूपी है तो केरल टाप 10 में भी नहीं आता।
लेकिन लड़ाई राजनीतिक है तो राजनीति के अक्स में ही केरल का सच समझना भी जरुरी है । क्योंकि आाजादी के बाद पहली बार लोकतंत्र की घज्जियां उड़ाते हये किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया तो वह केरल ही था और तब दिल्ली में नेहरु थे। और केरल में नंबूदरीपाद यानी 60 बरस के पहले कांग्रेस ने राजनीति दांव केरल को लेकर चला था । 60 बरस बाद केरल में वामपंथी विजयन की सत्ता है तो दिल्ली में मोदी है । तो दिल्ली की सत्ता तो काग्रेस से खिसक कर बीजेपी के पास आ गई । पर 60 बरस के दौर में बीजेपी केरल की जमीन पर राजनीतिक पैर जमा नहीं पायी । बावजूद इसके की संघ परिवार की सबसे ज्यादा शाखा आजकी तारिख में केरल में ही है । 5000 से ज्यादा शाखा। तो बीजेपी अब वाम सत्ता को लेकर आंतक-जेहाद और हिंसक सोच से जोड़ रही है । तो अब चाहे खूनी राजनीति को लेकर सियासत हो । लेकिन 60 बरस पहले चर्च के अधिन चलने वाले स्कूल कालेजो पर नकेल कसने का सवाल था । तब नंबूदरीपाद चाहते थे निजी स्कूलो में वेतन बेहतर हो । काम काज का वातावरण अच्छा हो ।
और इसी पर 1957 में शिक्षा विधेयक लाया गया । कैथोलिक चर्च ने विरोध कर दिया । क्योकि उसके स्कूल-कालेजो की तादाद खासी ज्यादा थी । नायर समुदाय के चैरिटेबल स्कूल-कालेज थे । तो उसने भी विरोध कर दिया । तो उस वक्त काग्रेस नायर समुदाय के लीडर मनन्त पद्ननाभा पिल्लई के पीछे खडी हो गई । और आंदोलन को उसने राजनीतिक हवा दी । हडताल, प्रदर्शन, दंगे से होते हुये आंदोलन इतना हिसंक हो गया कि पुलिस ने 248 जगहो पहर लाठीचार्ज किया और तीन जगहो पर गोली चला दी ।डेढ लाख प्रदर्शन कारियो को जेल में ढूसा गया । और जुलाई 1959 में जब एक गर्भवती मधुआरिन पुलिस की गोली से मारी गई तो उसने आंदोलन की आग में धी का काम किया । और नंबूदरीपाद के मुरीद नेहरु भी तब काग्रेसी सियासत के दवाब में आ गये । वित्त मंत्री मोरारजी देसाई के विरोध और राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के अनिच्छा भरी सहमति के वाबजूद आजाद भारत में पहली बार चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने का एलान 31 जुलाई 1959 को कर दिया गया । उसके बाद काग्रेस अपने बूते तो नहीं लेकिन यूडीएफ गठबंधन के आसरे सत्ता में जरुर आई । पर सीपीएम को पूरी तरह डिगा नहीं पायी । पर संघ अपने विस्तार को अब राजनीतिक जुबान देना चाहता है तो पहली बार जनरक्षा यात्रा के दौरान मोदी सरकार के हर मंत्री को केरल की सडक पर कदमताल करना है । जिससे मैसेज यही जाये कि सवाल सिर्फ केरल का नहीं बल्कि देश का है । तो केरल की वामपंथी सरकार अपना
किला कैसे बचायेगी या फिर किला नहीं ढहा तो जो प्रयोग नेहरु ने राष्ट्रपति शासन लगाकर किया था क्या उसी रास्ते मोदी चल निकलेगें । ये सवाल तो है ।
Wednesday, October 4, 2017
60 बरस पहले कांग्रेस थी..60 बरस बाद बीजेपी है
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:49 PM
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