दो चेहरे। एक नरेन्द्र मोदी तो दूसरे राहुल गांधी। एक का कद बीजेपी से बड़ा। तो दूसरे का मतलब ही कांग्रेस। एक को अपनी छवि को तोड़ना है। तो दूसरे को अपनी बनती हुई छवि को बदलना है। 2019 के आम चुनाव से पहले गुजरात से लेकर हिमाचल। और कर्नाटक से लेकर राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तक के चुनावी रास्ते में टकरायेंगे मोदी और राहुल ही। पर दोनों के संकट अपने अपने दायरे में अलग अलग होते हुये भी एक सरीखे हैं। और 2019 से पहले नई छवि दोनों को गढ़नी है। क्योंकि मोदी के सामने अब मनमोहन सरकार नहीं अपने किये वादों की चुनौती है। जिसे उन्होंने 2014 मे गढ़ा। मोदी को हिन्दुत्व का चोगा पहनकर विकास का मंत्र फूंकते हुये संघ से लेकर वोट बैंक तक के लिए उम्मीद को बरकरार रखना है। मोदी को गरीबों की आस को भी बरकरार रखना है और युवा भारते के सपनो को भी जगाये रखना है। यानी जिस उल्लास-उत्साह के साथ 2014 में कांग्रेस को निशाने पर लेकर मोदी मनमोहन सरकार या गांधी परिवार की हवा निकाल रहे थे, उसने मोदी की छवि को ही इतना फूला दिया कि 2019 में खुद को कैसे मोदी पेश करेंगे ये चुनौती मोदी के सामने है। और गुजरात में इस चुनौती के सामने घुटने टेकते मोदी जीएसटी को लेकर नजर आये। जब वह ये कहने से नहीं चूके कि जीएसटी सिर्फ उनका किया-धरा नहीं है। इसमें पंजाब-कर्नाटक की कांग्रेस सरकार का भी योगदान है। तो एक देश एक कानून की हवा क्या जीएसटी के साथ वैट व दूसरे टैक्स के लिये जाने की वजह से निकल रही है। हो जो भी मोदी को खुद से ही इसलिये टकराना है क्योंकि सामने कोई ऐसा नेता नहीं जो मोदी का विकल्प हो। सामने राहुल गांधी हैं, जिन्हें खुद अपनी छवि गढ़नी है। राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते है पर पार्टी कैसे बदलेंगे। राहुल की सामूहिकता का बोध मुस्लिम-दलित-आदिवासी के बिखरे वोट को कैसे एकजुट करेंगे। राहुल की राजनीतिक समझ क्या बार बार विरासत से नहीं टकरायेगी।
क्योंकि चाहे अनचाहे नेहरु-गांधी परिवार की राजनीतिक समझ के दायरे में राहुल गांधी की आधुनिक कांग्रेस टकरायेगी ही। यानी राहुल की चुनौती मोदी से टकराने की नहीं बल्कि खुद की छवि गढने की है। यानी मोदी और राहुल चाहकर भी ना तो एक दूसरे का विकल्प हो सकते हैं और ना ही खुद को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर चुनाव जीत सकते है। दोनों को ही खुद को गढना है। क्योंकि पहली बार जनता 2014 में पार्टी से बडे मोदी के कद को देखने की आदी हो चली है तो वह जीतायेगी भी किसी चेहरे को और हरायेगी भी किसी चेहरे को ही। चाहे वह चेहरा मोदी हो या राहुल गांधी। राहुल गांधी पहली बार कांग्रेस को लेकर तब मथ रहे है जब वह अपने इतिहास में सबसे कमजोर है। और मोदी ऐसे वक्त जीत के घोड़े पर सवार हैं, जब आरएसएस भी अपने विस्तार को मोदी की सत्ता तले देख रही है। दोनों ही हालात जन-मन को भी कैसे प्रभावित कर रहे होंगे ये इससे
भी समझा जा सकता है कि 1991 के आर्थिक सुधार के घोडे पर सवार भारत 2017 में आते आते उन सवालों से जूझने लगा है, जो सवाल इससे पहले या तो इक्नामी के दायरे में आते रहे या फिर करप्शन या वोट बैंक को प्रबावित करते रहे। यानी नेता कौन होगा और भारत का अक्स कैसे शून्यता तले दुनिया के मानचित्र पर उभर रहा है इस सवाल से हर भारतीय चाहे अनचाहे जूझने लगा है। यानी तकनीकी विस्तार ने सत्ता को हर नागरिक तक पहुंचा भी दिया और हर नागरिक सीधे सत्ता पर टिका टिप्पणी करने से चूक भी नहीं रहा है। तो हिन्दुस्तान का सच अब छुपता भी नहीं। हालात सार्वजनिक होने लगे हैं कि एक तरफ देश में 36 करोड] लोग गरीबी की रेखा से नीचे है। तो दूसरी तरफ देश के 12 करोड़ कंज्यूमर हैं, जिन पर बाजार की रौनक टिकी है। लेकिन भारत का सच इसी पर टिक जाये तो भी ठिक सच तो ये है कि एक तरफ संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृर्षि
संगठन की 2015 की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 19 करोड से ज्यादा लोग भूखे सोते हैं। तो 2017 की विश्व भुखमरी सूचकांक में भारत सौवे नंबर पर नजर आता है। यानी मोदी या राहुल खुद को मथे कैसे। कैसे वह सरोकार की राजनीति करते हुये नजर आये । ये चुनौती भी दोनो के सामने है क्योंकि सत्ता की निगाहबानी में दूसरी तरफ एक ऐसा भारत है जो हर तकलीफ से इतना दूर है कि हर दिन साढे सोलह टन अनाज बर्बाद कर दिया जाता है। 2015 से 2017 के दौर में 11,889 टन अनाज बर्बाद हो गया।
इन हालातों के बीच झारखंड के सिमडेगा से जब ये खबर आती है कि एक बच्ची की मौत इसलिये हो गई क्योंकि राशन दुकान से अनाज नहीं मिला। अनाज इसलिये नहीं मिला क्योकि आधार कार्ड नहीं था तो राशन कार्ड भी नहीं था। तो क्या मौत दो जून की रोटी की तडप तले जा छुपी है। और अगर भूख से हुई मौत को छुपाने में सियासत लग रही है,देश के इस सच को भी समझना जरुरी है कि एक तरफ भूख खत्म करने के लिये। गरीबी हटाओ के नारे तले. इंदिरा गांधी से लेकर मौजूदा मोदी सरकार भी गरीबो की मसीहा अलग अलग योजनाओ तले खुद को मान रही है। यानी राहुल सिर्फ मोदी पर चोट कर बच नहीं सकते और मोदी 70 बरस के गड्डो का जिक्र कर पीएम बने भी नहीं रह सकते है । और यही से स्टेटसमैन की खोज भी शुरु होती है और सर्वसम्मति वाले नेता की चाहत भी लोगो में बढती है । क्योकि मोदी हो या राहुल दोनो ही इस सच को जानते समझते है कि गरीब सबसे बडा वोट बैक भी है और गरीबी सबसे बडी त्रासदी भी । पर सरकारो की नीतियो ने कैसे देश को खोखला किया इससे दोनो ही क्या ज्यादा दिनो तक आंखे मूंद सकते है । क्योकि कहे कोई कुछ भी सच तो यही है कि 254 करोड रुपये का अनाज हर दिन बर्बाद हो जाता है । 58 हजार करोड का बना हुआ भोजन हर बरस बर्बाद हो जाता है । और इस अंधेरे से दूर दिल्ली के रायसीमा हिल्स पर मौजूद साउथ-नार्थ ब्लाक की इस जगमगाहट को देखकर कौन कह सकता है कि गरीबो के लिये यहा वाकई कोई नीतियां बनती होगी । क्योकि इनइमारतो से तो सबसे करीब संसद भवन ही है । जहा का सच ये है कि -बीते 10 बरस में 7 राष्ट्रीय दलों की कुल संपत्ति 431 करोड़ रुपए से बढकर 2719 करोड़ रुपए हो गई । जिसमें बीजेपी की संपत्ति 122 करोड़ रुपए से बढ़कर 893 करोड़ तो कांग्रेस की संपत्ति 167 करोड़ से 758 करोड़ पार कर गई । तो सत्ता की दिवाली तो हर दिन मनती ही होगी । पर नीतिया हर दौर में ऐसी रही है कि बीते 10 बरस में 2,06,390 मीट्रिक टन अनाज गोदामों में रखे रखे सड़ गया। इन्हीं10 बरस में 6400 लाख टन खाना बर्बाद हो गया लेकिन भूख से तरसते लोगों तक नहीं पहुंच सका । और इन्ही दस बरसो में जनता के नुमाइन्दो की संपत्ति सबसे तेजी से सबसे ज्यादा बढी । तो मोदी हो या राहुल । मथना खुद को दोनों को ही है। क्योंकि दिल्ली की चकाचौंध देश का सच है नहीं और देश का सच दिल्ली से दूर होता चला जा रहा है।
Tuesday, October 17, 2017
ना मोदी राहुल के विकल्प है ना राहुल मोदी के...दोनों को लड़ना खुद से है
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:52 PM
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