Wednesday, July 17, 2019

" भागी हुई लडकियां "

घर की जंजीरे /  कितना ज्यादा दिखायी पडती है / जब घर से कोई लडकी भागती है.... बीस बरस पहले कवि आलोक धन्वा ने " भागी हुई लडकियां " कविता लिखी तो उन्हे भी ये एहसास नही होगा कि बीत बरस बाद भी उनकी कविता की पंक्तियो की ही तरह घर से भागी हुई साक्षी भी जिन सवालो को अपने ताकतवर विधायक पिता की चारहदिवारी से बाहर निकल कर उठायेगी वह भारतीय समाज के उस खोखलेपन को उभार देगी जो मुनाफे-ताकत-पूंजी तले समा चुका है । ये कोई अजिबोगरीब हालात नहीं है कि न्यूचैनल की स्क्रिन पर रेगते खुशनुमा लडकियो के चेहरे खुद को प्रोडक्ट मान कर हर एहसास , भावनाये , और रिश्तो को भी तार तार करने पर आमादा भी है और टीआरपी के जरीये पूंजी बटोरने की चाहत में अपने होने का एहसास कराने पर भी आमादा है । दरअसल बरेली के विधायक की बेटी साक्षी अपने प्रेमी पति से विवाह रचाकर घर से क्या भागी वह सोशल मीडिया से लेकर टीवी स्क्रिन पर तमाशा बना दिया गया । भावनाओ और रिश्तो को टीआरपी के जरीये कमाई का जरीये बना दिया गया ।  तो  कानून व्यवस्था से लेकर न्यायापालिका के सामने सिवाय एक घटना से  दोनो रेंग ना सके । जबकि  देश का सच तो ये भी कि हर दिन 1200 भागे हुये बच्चो की शिकायत पुलिस थानो तक पहुंचती है । हर महीन ये तादाद 3600 है और हर बरस चार लाख से ज्यादा । और तो और भागे हुये बच्चो में 52 फिसदी लडकिया ही होती है ।  लेकिन हमेशा ऐसा होता नहीं है कि लडका -लडकी एक साथ भागे । और पुलिस फाइल में जांच का दायरा अक्सर लडकियो को वैश्यावृति में ढकेले जाने से लेकर बच्चो के अंगो को बेचने या भीख मंगवाने पर जा टिकता है । लेकिन समाज कभी इस पर चिंतन कर ही नहीं पाती कि आखिर वह कौन से हालात होते है जो बच्चो को घर से भागने को मजबूर कर देते है । यहा बात भूख और गरीबी में पलने वाले बच्चो का जिक्र नहीं है बल्कि खाते पीते परिवारो के बच्च को जिक्र है । और इस अक्स में जब आप पश्चमी दुनिया के भीतर भागने वाले बच्चो पर नजर डालेगें तो आपको आश्चर्य होगा कि जिस गंभीर परिस्थियों पर बच्चो के भागने के बाद भी हमारा समाज चर्चा करने को तैयार नहीं है । उसकी संवेदनशीलता को समझने के लिये टीवी स्क्रिन पर खुशनुमा लडकिया ही समझने को तैयार नहीं है । वही इस एहसास को पश्चमी देशो ने साठ-सत्तर के दशक में बाखुबी चर्चा की । बहस की । सुधार के उपाय खोजे और माना कि पूंजी या कहे रुपया हर खुश को खरीद नहीं सकता है । यानी एक तरफ ब्रिटेन-अमेरीका में साठ के दशक में बच्चो के घर से भागने पर ये चर्चा हो रही थी कि क्या पैसे से खुशी खरीदी जा सकती है । क्या पैसे से सुकून खरीदा जा सकता है । क्या पैसे से दिली मोहब्बत खरीदी जा सकती है । यानी भारतीय समाज के भीतर का मौजूदा सच साक्षी के जरीये उस दिसा में सोचने ही नहीं दे रहा है कि बहत से मा बाप  जो अपनी ज़िंदगी में पैसे कमाने में मशगूल होते हैं. वो अपने बच्चों को ढेर सारे खिलौने दिला देते हैं. तमाम तरह की सुख-सुविधाओं का इंतज़ाम कर देते हैं. नए-नए गैजेट्स, मोबाइल, शानदार गाड़ियां वग़ैरह...सामान की उनके बच्चों की कोई कमी नहीं होती. ऐसे बच्चों को कमी खलती है, मां-बाप की. उनकी मोहब्बत की. । बकायादा बीबीसी ने तो 1967 में घर से भागी उस लडकी के जीवन को पचास बरस बाद जब परखा तो ये सवाल कई संदर्भो में बडा हो गया कि क्या पचास बरस में वह चक्र पूरा हो चुका है जब हम जिन्दगी और रिश्तो के एहसास को खत्म कर चुके है । और दुनिया के सबसे बडे बाजार के तौर पर खुद को बनाने में लगा भारत भी हर खुशी को सिर्फ मुनाफे, पूंजी, रुपये में भी देख-मान रहा है । लेखक बेंजामिन ने तो अपनी रिपोर्ट में बताया कि ऐसे बहुत से बच्चे होते हैं, जो उकताकर घर छोड़कर भाग जाते हैं । और  पिछली सदी के साठ के दशक में एक दौर ऐसा आया था जब पश्चिमी देशों में बच्चे ही अपनी दुनिया से उकताए, घबराए और परेशान थे. उन्हें सुकून नहीं था. उन्हें अपनी भी फ़िक्र हो रही थी और दूसरों की भी.। भारत में चाहे गढे जा रहे उपभोक्ता समाज को यह तमीज अभ भी नहीं है लेकिन 50 बर पहले लंदन से भागी एक लडकी की कहानी को ब्रिटिश मीडिया ने पूंजीवाद के संकट और बच्चो की दुनिया के एहसास तले उठाया था । और मीडिया की कहानी पढ़कर मशहूर रॉक बैंड द बीटल्स ने मेलानी की कहानी पर एक गाना तैयार किया था, जिसका नाम था- "शी इज लिविंग होम । " इस गाने को सर पॉल मैकार्टिनी और जॉन लेनन ने मिलकर तैयार किया था. गाने में मेलानी को और उस जैसे घर छोड़कर भागने वाले तमाम बच्चों का दर्द भी था, तो उनके मां-बाप की तकलीफ़ भी बयां की गई थी  ।
 और बकायदा गाने के बोलों के ज़रिए कहा गया था कि मां-बाप अपने भागने वाले बच्चों के बारे में सोचते हैं कि उन्होंने तो उसे सब सुविधाएं दीं, फिर भी बच्चे उन्हें छोड़कर चले गए. । वहीं घर छोड़कर भागने वाले बच्चों की तरफ से भी गाने में कहा गया था कि वो अपने भीतर कुछ खोया सा, कुछ टूटा सा महसूस करते हैं. उन्हें लगता है कि बरसों से उनका हक़, उनके हिस्से की मोहब्बत छीनी जाती रही है । ऐसा ही गाना 1966 में साइमन और गारफंकेल ने" रिचर्ड कोरी " के नाम से तैयार किया था. इसमें भी पैसे और ख़ुशी के बीच की खाई को बयां किया गया था।  भारत में तो सालाना चार लाख 30 हजार का आंकडा घर छोड बच्चो के भागने का है लेकिन तब अमेरिका में एक वक्त ये आंकडा पांच लाख पार कर गया था । 1967 से 1971 के बीच अमरीका में क़रीब पांच लाख लोग अपना घर छोड़कर भागे थे. ये लोग ऐसे समुदाय बनाकर रह रहे थे, जो बाक़ी समाज से अलग था. इसे नए तजुर्बे वाले समुदाय कहा जाता था. हर शहर में ऐसे समुदाय बन गए थे. जैसे सैन फ्रांसिस्को में डिगर्स के नाम से एक ऐसी कम्युनिटी बसी हुई थी । उस दौर में बच्चों के घर से भागने का आलम ये था मामला अमरीकी संसद तक जा पहुंचा था. संसद ने इस बारे में रनअवे यूथ एक्ट के नाम से 1974 में एक क़ानून भी बनाया था । और तब बच्चे समाजवादी और वामपंथी सोच से प्रभावित हुये । बहस ने राजनीतिक तौर पर चिंतन शुरु किया और साथ ही समाज में कैसे बदलाव लाया जाये उसे भी महसूसकिया ।  लेकिन इस समझ के अक्स में हम मौजूदा भारतीय समाज के उस खोखलेपन को बाखूबी महसूस कर सकते है जहा बेटी की पंसद के पति के साथ पिता के रिशतो के बीच जातिय संघर्ष है । हत्या का डरावना चेहरा है । कानून व्यवस्था का लचरपन है । मीडिया का सनसनीखेज बनाने के तरीके है । और कुछ नहीं है तो वह है भावनाओ की संवेदनशीलता या फिर गढे जा रहे भारतीय समाज का वह चेहरा जिसमें हिसंक होते समाज में  बच्चो के लिये कोई जगह है ही नहीं । तभी तो बीस बरस पहले आलाक धन्वा की कविता की ये पंक्तिया कई सवाल खडा करती है , जब वह लिखते है , " उसे मिटाओगे / एक भाग हुई लडकी को मिटाओगे / उसके ही घर की हवा से  /  उसे वहा से भी मिटाओगे  / उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर  /  वहा से भी / मै जानता हूं, कुलिनता की हिंसा । " 


2 comments:

Pankaj कुमार said...

जब तक समाज मे जात पात की दिवार नहीं हटे गी समाज पैसे केपीछे अपने बच्चे को नहीं समझें गे तब तक इस समाज मे ये घटना होता रहेगा और आज सहरी समाज ने ये बगीचा खूब फल फूल रहा है पंकज

Power of knowledge said...

Very well this is really a big problem n parents r unable to understand what their kids want if they try to give them worldly comfort kids demand love n care or vice versa what to do no solution