भारतीय सिनेमायी दर्शकों को "स्लमडॉग मिलेनियर" देखने का मौका ऐसे वक्त मिल रहा है जब उनके बीच से "मार्केटडॉग मिलेनियर" जेल जा चुका है। असल में करोड़पति बनने का खेल 'कौन बनेगा करोड़पति' के जरिए जितना आसान लगता है "स्लमडॉग मिलेनियर" में यह खेल जिन्दगी जीने के दौरान हर क्षण पाने और गंवाने के बीच का है। जो देश और समाज की सच्चायी का ऐसा नंगा चेहरा लिये हुये है कि कई बार खुद को सभ्य समाज का हिस्सा बताने पर भी शर्म आ जाये।
वहीं "मार्केटडॉग मिलेनियर" का सच उस हकीकत से रुबरु होना है, जिसमें सबकुछ पाने के लिये समाज-देश किसी को भी बेचा जा सकता है। चकाचौंध की आगोश में खोया जा सकता है और राज्य नीतियों के तहत "मार्केटडॉग" जगह बनाता है। "स्लमडॉग मिलेनियर "का खेल कौन बनेगा करोड़पति के खेल से शुरु होता है, जिसमें संयोग से मुबंई का एक चायवाला जमाल करोड़पति बनने की कुर्सी पर आ गया है। अनिल कपूर खेल के नियम समझा कर सवाल पूछने का सिलसिला शुरु करते हैं और हर सवाल 18 साल के चायवाले को उसकी बीती जिन्दगी में ले जाता है। जहां से उसे हर सवाल का जवाब मिलता है। लेकिन इस खेल में चायवाले को आखिरी सवाल का जबाब देने से पहले की रात और उससे पहले पूछे गये सवालो के दिन के बीच पुलिस थाने में थर्ड डिग्री झेलते हुये हर सही जबाब देने की कहानी पुलिस वाले को बतानी पड़ती है, जिससे पुलिस को भरोसा हो जाये कि झोपड़पट्टी से निकला चायवाला बिना किसी गड़बड़ी के दो करोड़ जीत रहा है।
लेकिन इस फिल्म को जानने से पहले "मार्केटडॉग मिलेनियर "यानी सत्यम के पूर्व चेयरमैन रामालिंगा राजू के खेल को समझना चाहिये । सत्यम का डूबना और उसके चेयरमैन रामलिंगा राजू का खेल बाजार अर्थव्यवस्था का अक्स है । 70-80 के दशक के जिस दौर में आंध्रप्रदेश के खेत-खलिहान में नक्सलवाद पनप रहा था, उस दौर में राजू के पिता आंध्र के पूर्वी गोदावरी के एक छोटे से गांव में खेती-किसानी के जरिए समूचे गांव का पेट भर रहे थे। नक्सलियों की नजर में राजू का परिवार जमींदार था जिनसे इलाके के मजदूरों के लिये नक्सली वसूली करते थे। राजू इसी माहौल को देखते हुये निकला। इसलिये पढ़ाई पूरी करने के बाद राजू ने गांव और खेती को पूरी तरह खारिज कर दिया। राजू ने जब शहरी धंधों के जरीये जिन्दगी को आगे बढ़ाने की सोची, उस दौर में धंधे के तौर पर खेती बाजार भाव से भी और राजनीति से भी चूकने लगी थी। पिता की मौत के बाद गांव में पिता की एक आदमकद मूर्ति लगवाकर राजू ने गांव की जमीन को बेच कर अपनी साख बाजार में बनायी। वैसे, गांव के कुछ लोग इसका उलट भी कहते है कि शहर में साख जमी तो पिता की आदमकद मूर्ति गांव में लगी। लेकिन ट्रैक्टर बेचने से लेकर इंवेट प्लानिंग तक का काम नहीं चला। या कहें खेती ने राजू के परिवार को जो मान्यता गांव में दिलायी थी, उस मान्यता पाने जैसा का भी कोई धंधा नहीं चला। आंध्र की राजनीति में एनटी रामाराव ने जब तेलांगना में सक्रिय नक्सलियों को अन्ना कहा तो संयोग से पूर्वी गोदावरी और करीमनगर ही दो ऐसे जिले थे जो सबसे ज्यादा नक्सलियों के प्रभाव में आये। करीमनगर में ही पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव का घर है। उसी दौर में राजू का नाता अपने गांव से टूटा । या कहे गांव में नक्सलियों की पैठ और राजनीतिक मान्यता ने राजू को राजनीति का महत्व समझा दिया। इस समझ ने राजू को धंधा चमकाने में भी राजनीति की शिरकत समझा दी। यहां से राजू का "मार्केटडॉग मिलेनियर" का खेल शुरु होता है।
वहीं दूसरी तरफ फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में करोड़पति बनने की कुर्सी पर बैठे जमाल की कहानी मुंबई की उस झोपडपट्टी से शुरु होती है जो छत्रपति अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से सटा है । और गेंद-बल्ला खेलने तक के लिये हवाई अड्डे की जमीन पर ही जाना पडता है। इस जीवन को जीता जमाल और उसका भाई सलीम महज चार-पांच साल की उम्र में ही जिन्दगी के हर दर्द को देखते भोगते है । रोजमर्रा की न्यूनतम जरुरतों से लेकर सपने संजोने तक की त्रासदी को देखते-समझते हुये जमाल-सलीम दंगों में अपनी मां की मौत और फिर बिना मां-बाप के जीने की खुरदुरी जमीन को भोगते हैं । जिसमें भीख मंगवाने के लिये आंखे निकालने के माफिया से लेकर दो-चार रुपये के धंधे का बोझ शामिल है। लेकिन जिन्दगी के एक मोड़ पर जब दुबारा सामने आंख निकाल कर भीख मंगवाने वाले माफिया से सामना होता है तो सलीम उसकी हत्या कर जब अपनी,अपने भाई और उसकी बचपन की साथी लतिका का जीवन बचाता है, जिसने बचपन में दंगो में मां-बाप को खो दिया था तो सलीम का जन्म "स्लमडॉग मिलेनियर" के तौर पर होता है क्योकि अब उसकी पहचान माफियाओं के बीच एक पहचान के साथ हुई थी । और माफिया का खेल उसे कैसे आगे बढा सकता है इसे सलीम बाखूबी समझता है।
वहीं "मार्केटडॉग मिलेनियर" यानी रामलिंगा राजू 1987 में साफ्टवेयर का धंधा सत्यम कम्पयूटर के नाम से खोलता है । राजनीति से पहली करीबी उसकी सत्यम को खोलते वक्त ही होती है । उसी साल नक्सली संगठन पीडब्लुजी आंध्र के सात विधायको का अपहरण कर अपनी पकड़ मजबूत बनाता है । अपहर्त विधायकों में पूर्वी गोदावरी का भी एक विधायक शामिल था। रामालिंगा राजू सत्यम के जरीये पहली बार सरकार को सर्विस देने का कंसल्टमेंट हासिल करते है । संयोग से भारतीय राजनीति में राजीव गांधी की आकस्मिक मौत के बाद आंध्रप्रदेश के पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बनते हैं। देश में आर्थिक सुधार का दौर शुरु होता है। पूंजी को लेकर सीमा टूटनी शुरु होती है तो बाजार को लेकर भारतीय घंघेबाजों के लिये सुनहरा दौर शुरु होता है। तकनीक और कम्प्यूटर की दस्तक भारतीय बाजार में इसी दौर में होती है और सत्यम कम्पयूटर के लिये अमेरिका का बाजार सर्विस देने के नाम पर खुलता है । जिसमें अचानक पंख तब लगते है, आर्थिक सुधार के नाम पर ट्रैक-1 और ट्रैक-2 के जरीये दिल्ली की हर सरकार मान्यता देती चली जाती है और कम्पयूटर सेवी चन्द्रबाबू नायडू के जरीये हैदराबाद इस सेक्टर का अड्डा बन जाता है। राजू इस बढ़ते बाजार के असल राही साबित होते है । चन्द्रबाबू के प्रिय हो चुके राजू एकमात्र प्रोफेशनल के तौर पर बिल गेट्स के साथ हैदराबाद के मंच पर भी नजर आते हैं । फैलते सत्यम के करोबार में जमीन का नया धंधा राजू ही शुरु करते हैं । राजनीति से यारी उन्हें जमीन खरीदने में मदद करती है। इसी दौर में हैदराबाद की कीमत जमीन के जरीये दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़ती है। मुनाफे में मुख्यमंत्री तक की हिस्सेदारी और जमीन के जरीये नयी राजनीति की शुरुआत चन्द्रबाबू नायडू से शुरु होती है तो सत्ता बदलने के बाद भी नहीं रुक पाती। कांग्रेस के वाय एस आर रेड्डी के दरबार में नायडू के यारों की आवाजाही रुकती है लेकिन राजू यानी सत्यम के लिये दरवाजे खुले रहते हैं । इसकी एवज में राजू का कौन सा सौदा वायएसआर तक पहुचा, यह आंध्र की राजनीति में आज भी सस्पेंस है ।
इस दौर में देश - दुनिया के सामने रामालिंगा राजू यानी सत्यम कारपोरेट जगत का कोहिनूर साबित होता है । 2002 से लेकर 2008 तक के दौरान जहां राजू की डेवलपमेंट कंपनी मारयेट्स के पास राज्य की सबसे ज्यादा जमीन पर मालिकाना हक होता है वहीं इस दौर पर कारपोरेट जगत के हर सम्मान से राजू और सत्यम को नवाजा जाता है। वहीं दूसरी तरफ फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में सलीम माफियाओं के बीच पहचान बनाता है। करोडों का मालिक होता है, वहीं जमाल अपने भाई से अलग होकर एक बीपीओ कंपनी वालो के बीच चाय बेचता है। संयोग से एक दिन झटके में एक टेलिफोन ऑपरेटर कुछ देर के लिये उसे बैठा बाहर जाता है। उसी वक्त जमाल जहां अपने भाई सलीम को फोन पर खोज निकालता है वहीं उसकी लाईन मिलेनियर के खेल से जुड़ जाती है और जमाल जा पहुंचता है करोडपति बनाने वाली कुर्सी पर। लेकिन, यहीं से हर खेल पलटता है। सलीम के साथ रह रही लतिका की चाहत मन में लिए जमाल माफियाओं के बीच पहुंच जाता है जबकि "मार्केटडॉग मिलेनियर" रामालिंगा राजू के सबकुछ पाने की चाहत गलत तरीके से उसे हैदराबाद की मेट्रो योजना का टेंडर दिला देती है। लेकिन टेंडर को लेकर इतना बवाल मचता है कि मेट्रो के चीफ श्रीधरन हैदराबाद योजना को लेने से साफ इंकार कर देते हैं। "मार्केटडॉग मिलेनियर "राजू के लिये यह सबसे बडा झटका साबित होता है । एक तरफ पैसा जमीन में फंसा है तो दूसरी तरफ साढे बारह हजार करोड़ की मेट्रो योजना अधर में लटकती है । वहीं इसी वक्त सत्यम को अमेरिका ब्लैक लिस्टेड कर देती है । जबकि "स्लमडॉग मिलेनियर" सलीम इसी वक्त अपने भाई का साथ देता है और माफियाओं के चंगुल से छुडाकर लतिका को जमाल के पास भेज देता है।
यह वही लतिका है जिसको पनाह जमाल-सलीम यह कह कर अपने घर में देते हैं कि वे दो से तीन मस्केटियर हो जायेंगे। तीन मस्केटियर का किस्सा स्कूल में जमाल ने पढ़ा था और संयोग से फिल्म में अनिल कपूर भी आखिरी सवाल तीन मस्केटीयर को लेकर ही पूछते हैं, जिसे सुनते ही सलीम के चेहरे पर हंसी की एक पतली सी लकीर उभरती है। और वह जान जाता है कि "स्लमडॉग मिलेनियर" बन चुका है। लेकिन, वह अपने भाई सलीम से बात करने के लिये फोनो फ्रेंड का रास्ता चुनता है। उधर इसी वक्त शुरु से बना "स्लमडॉग मिलेनियर" सलीम का अंत उन्हीं नोटो के बीच होता है, जिस रास्ते पर चल वह माफिया बना । दूसरे माफिया उसे गोलियों से भून डालते हैं। इधर जमाल तीन मस्केटियर का जबाब देकर "स्लमडॉग मिलेनियर" बनता है । और संयोग से "मार्केटडॉग मिलेनियर" रामालिंगा राजू का अंत उसके अपने उस ऐलान से होता है जहां वह खुद को फ्रॉड कहने से नहीं चूकता। असल में "मार्केटडॉग मिलेनियर" राजू की यहां से नयी शुरुआत हो रही है क्योकि वह उस व्यवस्था का प्रतीक है, जिसे राज्य ने अपना माना है । और खुद की असफलता छुपाने के लिये राजू को न्यायिक हिरासत में भेजकर सत्यम को फिर से उबारने का काम भी वहीं राज्य कर रहा है ।
फिल्म "स्लमडॉग मिलेनियर "हिट है । अमेरिका में चार गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीते हैं । फिल्म आस्कर की दौड़ में है । स्लमडॉग मिलेनियर मुबंई में रहने वाले एक डिप्लोमेट के उपन्यास पर आधारित फिल्म है जबकि मार्केटडॉग मिलेनियर अमेरिकी बाजारवाद पर मनमोहन सिंह की लगी मुहर है। इसलिये "मार्केटडॉग मिलेनियर" का खेल जारी है, क्योकि यह फिल्म नही हकीकत है। अब तय आप किजिये "स्लमडॉग मिलेनियर" फिल्म देखियगा या "मार्केटडॉग मिलेनियर" बनियेगा।
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Tuesday, January 13, 2009
स्लमडॉग मिलेनियर से मार्केटडॉग मिलेनियर तक
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:39 AM
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13 comments:
Oh! Kya partaal ki hae...wah ji wah maan gae bajpaey ji aapko.
प्रसूनजी, क्या खूब तालमेल बिठाया है आपने सलीम, जमाल और राजू का। तीनों की कड़ियां कहीं न कहीं अमेरिकी बाजारवाद की बयार में बह रही भारतीय व्यवस्था की ही नहीं, बल्िक उस शाइनिंग इंडिया की मैली छवि की भी झलक है, जो ऊपर से दिखती कुछ और है। आपने आखिर में यह सवाल सही उठाया है कि राजू को सजा देने भर से क्या होगा, गर वह व्यवस्था न बदली जाए, जिसके कारण ऐसे राजू पैदा हुए। मेरा सवाल यह है कि कहीं मार्केटडॉग मिलियनेयर का पराभव और स्लमडॉग मिलियनेयर का उद्भव कहीं इस देश के भविष्य की काली परछाई तो नहीं? अगर ऐसा हुआ तो हमें ऑस्कर व गोल्डन ग्लोब तो कई मिलेंगे, आम आदमी का क्या होगा?
SLUMDOG MILLIONAIRE KOI KOI HI BANTA HAI AUR MARKETDOG MILLIONAIRE BHI SAB NAHI BAN JATE....LEKIN VYAWASTHA AISI HAI JISME DONO KA STHAN SURACHIT HAI...JAISA KI AAPNE HI KAHA..KYOKI AMERIKI BAJARWAD PAR MANMOHAN SINGH KI MUHAR HAI.....
yakinan ye film nahin haqeeqat hai. sundar vishleshan hai prasoon ji.
Respected Prasoon ji,
Hamare desh men abhee kitne aur Raju paida honge..kisi ko andaj bhee naheen hoga.Jis desh men ye parampara hee ban gayee ho ki ghar men kisi ek nithalle,bekar parantu Frod,for twenty karne men mahir,svabhav se shatir dimag,aur naye apradhon ko anjam dene kee himmat rakhne vale ,vyakti/bete ko rajneeti men kisi tarah se ghuspath kara dee jaya.To us desh men..Ram linga raju,Akhand Pratap singh,Harshad Mehta(soochee bahut badee hai)jaise maharathiyon ka paida hona koi ashcharya janak bat naheen hai.Han inka achanak janta ke samne aa jana desh kee janta ko jaroor hairat men dal deta hai.Ki are ye aisa bhee ho sakta hai....?
Vase ek achchhee tulnatmak vivechna ke liye hardik badhai.
Hemant Kumar
स्लमडॉग नेट पर देख चुका हूं..राजू द फ्रॉड को खबरों के रूप में लगातार टीवी पर देख रहा हूं...लेकिन स्लमडॉग को मार्केटडॉग के साथ जोड़ पाना..इस खूबी से तुलना कर पाना..समझा पाना..कागज के पुराने पन्नों को इस तरह सामने ला पाना..कल को आज..सिनेमा को असल जिंदगी से इस तरह जोड़कर..बहुत अच्छा लिखा आपने..ऐसी पोस्ट या लेख लिख पाना..आपके जैसे चंद पत्रकारों के बस की ही बात है..जिन दूसरे बुद्धिजीवी और बड़े पत्रकारों,के बारे में अभी जानकारी नहीं,देखा या पढ़ा नहीं है...उनसे मैं माफी चाहूंगा....चीजों को साफ समझाने,दिखाने की कोशिश करती ये पोस्ट है..वैसे भी अकसर आप बहुत अच्छा लिखते हैं..बोलते तो हमेशा अच्छा हैं..हालांकि मैं ये भी कहना चाहूंगा कि कई बार किसी बड़े,प्रसिद्ध,सीनियर,जाने-माने पत्रकार (संपादक,),व्यक्ति की तारीफ करने को, दूसरे लोगों के साथ-साथ जिसकी तारीफ आप कर रहें हैं..चापलूसी या स्वार्थ की कलम से लिखा समझकर हलके में ले लिया जाता है..लेकिन ताजमहल को ताजमहल..हवामहल को हवामहल ही कहा जाएगा..बस इतना ही
सत्यम का सुनामी भारतीय अर्थ व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी हैं।किस तरह आकङे के खेल में आम भारतीय को लूटा जा रहा हैं इससे वेहतर उदाहरण क्या हो सकता हैं।
पता नही मनमोहन सिंह के कार्यकाल के पूरे होते होते और क्या सब देखने को मिलेगा
संतोष(ई0टी0भी0)
समकालीन परिवेश से जोड़ता यथार्थ विश्लेषण..प्रसून जी को साधुवाद !!
...Bahut khoob.Prasun ji kabhi hamare blog par bhi ayen !!
sir , आपके से विचारो से प्रभावित होकर ही ये प्रयास किया है
आपके सहयोग और मार्गदर्शन की अपेक्छा है हिन्दी के लिए मुझे आपके सहयोग की जरूरत है
अपने विचार हमें जरुर भेजे .http://www.cg4bhadas.blogspot.com/
www.cg4bhadas.com
ravikant
globalization ke is chaka-choundh me aaj har koi millionaire banna chahta hai...chahe woh hindi pati ke gaon ka ho ya fir metro sehar ka
जब मैं लिख रहा हूँ "खुल के बोल" तो बहुत सम्भावना है कि इसे भडास निकालने के समतुल्य मान लिया जाए ....इसलिए ज़रूरी लग रहा है कि शुरुआत में ही इसे साफ कर दूँ कि "खुल के बोलना " क्या है ? जब -जब भडास शब्द सुनता हूँ यह महसूस होता है कि भडास चिंतन और वैचारिक प्रक्रिया से जुडने की बजाय कुंठा को अभिव्यक्त करता है । हमारे मन में किसी स्थिति या व्यवस्था या विशेष मानसिकता के प्रति आक्रोश होता है और तुरत-फुरत मौका मिलते ही हम उसे उगल देना चाहते हैं इस पूर्वाशा के साथ कि इससे मन हलका हो जाएगा और वापस काम पर चलेंगे तो ताज़ादम हो कर । लेकिन होता अक्सर यह है कि तुरत-फुरत में हलका किया गया मन हमेशा के लिये एक कुंठा से ग्रसित हो जाता है क्योंकि यह आसान काम लगता है कि गालियाँ बक दो ,थूक दो ,उगल दो और फारिग हो जाओ । दूसरी ओर ,एक थोडी जटिल व संतुलित स्थिति यह बनती है कि आक्रोश की वजहों को तलाशा जाए , चिंतन और मनन किया जाए और तब उस व्यक्तिगत अनुभव का सामान्यीकरण करके विषय को सार्थकता की ओर ले जाने का प्रयास हो । खुल के बोलने से निरभयता की ओर संकेत है । निर्भयता के माने दीवार की ओर मुँह करके बॉस को चार गाली देना नही है । निर्भयता के माने हैं व्यवस्थाजन्य दबावों और दुनियावी तौर तरीकों के पाश से मुक्त हो कर सही को सही और गलत को गलत कह सकने की हिम्मत होना । नफे -नुकसान की राजनीति की परवाह के बिना अपने विचारों को कह सकना ।
इस ब्लॉग के पीछे मेरा यही उद्देश्य है कि कैसे मैं दबावों से मुक्त रहकर वो कह सकता हूँ जिसे मैं वाकई कहना चाहता हूँ क्योंकि यह वास्तव में एक सांसारिक जीव के लिये एक दुश्कर कार्य है ।
Email -neeraj.rana786@gmail.com
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