राहुल गांधी से दस साल कम उम्र के वरुण गांधी हैं। लेकिन दोनों ने कमोवेश राजनीति में एक ही वक्त कदम रखा। राहुल चुनाव लड़कर संसद पहुंच गये लेकिन वरुण गांधी उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के साथ एक मंच पर बैठकर अपने राजनीतिक इरादों को हवा देते रहे। राहुल को सोनिया ने अमेठी लोकसभा विरासत में दी तो वरुण को पीलीभीत सीट मेनका गांधी ने। राहुल जिस दौर से राजनीतिक उड़ान की शुरुआत करते हैं और दलितों-पिछडों के घर रात बिताने से लेकर कलावती में विकास का अनूठा सच टटोलना चाहते हैं, उस दौर में वरुण कागज पर अपने दर्द को कविता की शक्ल देकर प्रिंस आफ वाड्स यानी जख्मों का राजकुमार रचते हैं।
वह लिखते हैं- मैं मानता हूं /मै अपने पाप के साथ थोड़ी सी मुहब्बत में हूं/ क्योंकि मैं भटका हुआ हूं / इसलिये मुझे बताया गया है / सोचो मत सिर्फ देखो / चलना ही रास्ता दिखायेगा / इसलिये वहां कोई जवाबदेही नहीं है / एक अजनबी सिर्फ पीड़ित है / जिससे तुम कभी मिले नहीं..... तो क्या पीलीभीत में चली उन्मादी हवा ने पहली बार वरुण और राहुल को आमने सामने ला खड़ा किया है। बेटे की रक्षा के इरादे से पीलीभीत पहुंच कर मेनका गांधी कभी गांधी परिवार की दुहायी नहीं देती। वह खुद को सिख परिवार का बता कर हिन्दुओं की रक्षा का सवाल खड़ा करती हैं । ताल ठोंक कर वरुण के बयान को हिन्दुओं की रक्षा से जोड़कर छुपे संकेत भी देती हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चाहे बरगद गिरा हो लेकिन मेनका हिन्दुत्व की जमीन पर इंदिरा की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ भड़के दंगो पर मलहम लगाने को भी तैयार हैं।
तो क्या राहुल-वरुण से पहले सोनिया-मेनका आमने सामने खड़ी हैं? सोनिया गांधी जब कांग्रेस में ही नहीं बल्कि सहयोगियों को खारिज कर राहुल के लिये एक नयी राजनीतिक बिसात बिछाने की तैयारी में है तो क्या मेनका गांधी वरुण के जरीये देश को यह एहसास कराना चाहती है कि इंदिरा-नेहरु की असल विरासत उनके परिवार से जुड़ी है। पीलीभीत के राजनीतिक समीकरण साफ बताते है कि वरुण वहां ना भी जाये तो भी उन्हें चुनाव में जीत हासिल करने में कोई बड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। तो क्या वरुण की पीलीभीत स्क्रिप्ट महज साप्रदायिकता को उभारने के लिये नहीं लिखी गयी बल्कि उसके पिछे वरुण के उस तेवर-तल्खी को भी उभारना है जो कभी संजय गांधी में देखी गयी थी।
इंदिरा गांधी पर जितना हक राहुल का है उतना ही वरुण गांधी का है । राहुल में अगर राजीव गांधी का बिंब दिखाने में सोनिया जुटी है तो वरुण में संजय गांधी का बिंब दिखाने से मेनका चूकना नहीं चाहती हैं। और कांग्रेस के भीतर कद्द्दावर या ठसक वाले नेता को लेकर जो कसमसाहट लगातार महसूस की जा रही है तो क्या उसमें संजय गांधी के हारमोन्स की खोज हो रही है, जो युवा तुर्क पीढ़ी को दिशा दे सके । मेनका ने पहला राजनीतिक पाठ चन्द्रशेखर से पढ़ा था । माना जाता है इंदिरा गांधी के घर से बहु मेनका की विदाई को राजनीतिक तौर पर साधने की बात भी मेनका अक्सर चन्द्रशेखर से ही करती थी । सोनिया ने जब राजनीति का कहकरा नही पढ़ा था, उस वक्त मेनका राजनीतिक व्याकरण समझने लगी थीं। लेकिन मेनका जिस राजनीतिक जमीन पर खड़ी थीं, उसमें व्याकरण की नहीं फ्रंट रनर बनने के लिये अगुवायी करने की भाषा समझनी थी। यह भाषा इसलिये जरुरी थी क्योकि सोनिया के सामानातंर बगैर इसके, मेनका हो ही नहीं सकती थी।
लेकिन,यह दांव मेनका के हाथ कभी नहीं लगा। राहुल के खड़े होने के बाद भी सिमटती कांग्रेस में सबसे बड़ा सवाल सभी के सामने यही उभरा कि लोकप्रियता वोट बैक में तब्दील नहीं हो पा रही है। राहुल गांधी परिवार के चिराग हैं, इसे देखने तो लोग जुट जाते है लेकिन वोट नहीं डालते। यह तथ्य राहुल से भी जुड़ा और सोनिया गांधी के साथ भी। यह कमजोरी मेनका के साथ भी रही । लेकिन वरुण की उन्मादी स्क्रिप्ट ने गांधी परिवार के भीतर पहली बार ठीक इसके उलट स्थिति बनायी है। यानी मुद्दे को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने के लिये ना सिर्फ समूची बीजेपी जुट गयी बल्कि जो हालात मुलायम-लालू -पासवान के हाथ मिलाने से मंडल के दौर की जातीय गोलबंदी होने के कयास लगाये जा रहे थे, उसे भी वरुण की राजनीतिक तिकडम के आगे नये सिरे से सोचना पड़ रहा है।
इतना ही नहीं मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की बिसात भी इसमें उलझी । धार्मिक उन्माद दलित और ब्राहमण को नये सीरे से साधेगा। मायावती इमसे इस तरह उलझी भी कि पीलीभीत की कानून व्यवस्था भी मुद्दा बना और रासुका लगाना भी। यानी दोनों स्थिति में बीजेपी के खेल में वरुण के पतीले को लगातार सुलगाने की सोच मायावती के दामन से जुड़ गयी । असल में वरुण गांधी ने सिर्फ वोट जुगाड़ने या बिगाड़ने का खेल नहीं खेला बल्कि इंदिरा गांधी के बाद पहली बार गांधी परिवार के किसी शख्स ने राजनीतिक जमीन को हर पार्टी के लिये उर्वर बनाकर खुद को महज प्यादे के तौर पर रखा है। असल में सोनिया गांधी इस हकीकत को समझ रही हैं कि काग्रेस के भीतर भी साफ्ट हिन्दुत्व का रोग है, जो आज से नहीं नेहरु युग से चला आ रहा है। सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण के पीछे सरदार पटेल की ही सोच थी। अयोध्या को लेकर नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के खेल ने ही कभी जनसंघ तो अब बीजेपी को मुद्दा थमाया। लेकिन इसके पिछे कहीं ना कही मुस्लिम समुदाय को साथ खड़ा करने की चाहत कांग्रेस के भीतर हमेशा रही।
वरुण गांधी का हिन्दु रक्षा के उन्मादी भाषण सरीखा ही भाषण 15 मार्च को कांग्रेस के इमरान किदवई ने दिया। चूंकि वह अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन हैं तो उन्होने साफ कहा कि, अगर मै मुफ्ती होता तो फतवा जारी कर देता कि भाजपा को वोट देना क्रुफ है। यानी इस्लाम विरोधी है। असल में वरुण ने गांधी परिवार को लेकर वही दुविधा खड़ी कर दी है, जिसे आजादी से पहले तक कांग्रेस भोग रही थी। कांग्रेस जन्म के साथ ही मुस्लिमो को कभी साथ नहीं ला पायी। मुस्लिम समाज कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होता नहीं था। उस दौर के तीन बड़े मुस्लिम नेता , सर सैयद अहमद खान, जस्टिस अमिर अली और लतीफ खान कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं की संस्था मानते थे। 1937 के चुनाव में 482 मुस्लिम सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 25 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिये कुरान के अधिकारी व्ख्याकार मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को अध्यक्ष बनाया लेकिन सफलता तब भी नहीं मिली। 1945 के नेशनल असेंबली के चुनाव हों या 1946 के प्रांतीय असेम्बली के चुनाव, कांग्रेस का मुस्लिम सीटों पर जहां सूपडा साफ था, वहीं हिन्दु बहुल सीटो पर नब्बे फिसदी से ज्यादा सफलता मिली थी।
तो क्या नया सवाल बीजेपी को लेकर कांग्रेस के भीतर कसमसा रहा है कि हिन्दु वोट बैक अगर बीजेपी के साथ है और मुस्लिम समुदाय अलग अलग क्षेत्रिय दलों में अपनी रहनुमायी देख रहा है तो कांग्रेस की जमीन बढ़ेगी कैसे। कहीं वरुण गांधी के जरीये तो भविष्य में काग्रेस अपना उत्थान नहीं देखने लगेगी। सोनिया काग्रेस के अतीत की हकीकत और भविष्य के दांव के बीच वर्तमान का संकट नहीं समझ पा रही हो, ऐसा हो नहीं सकता । राहुल गांधी की राजनीति जिस आम आदमी के हाथ का सवाल खड़ा करती है, उसमें विकास की बात अव्वल है। लेकिन आम आदमी की न्यूनतम की लड़ाई जितनी पैनी है, उसमें राहुल का नारा कांग्रेस को लोकप्रिय बना सकता है लेकिन वोट नहीं दिला सकता। जबकि आईडेंटिटी यानी पहचान की राजनीति ही कांग्रेस के साथ हमेशा जुड़ी रही। जातीय गोलबंदी से लेकर आदिवासी ,पिछडों और मुस्लिम को लेकर आईडेंटिटी की कांग्रेसी राजनीति ही चली और इसी के सामानातंर सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर भी खिंची जाती रही। राहुल इस राजनीति की थाह को पकड नहीं पाये क्योंकि सोनिया गांधी ने पार्टी चलाने का समूचा खांचा इंदिरा गांधी सरीखा कर तो लिया लेकिन इंदिरा सरीखे सलाहकार नहीं रखे जो समाज की नब्ज पर उंगली रख कांग्रेस के भीतर गांधी परिवार की पैठ समाज तक ले जाते।
संयोग से सोनिया के सलाहकार भी अपने घेरे में सोनिया से कही ज्यादा अलोकतांत्रिक हैं। इसलिये वरुण गांधी को साधने का तरीका भी सतही है । जिस मुद्दे को लेकर वरुण को कांग्रेस साधना चाह रही है , उसके पीछे गांधी की समझ और सेक्यूलर भाव से मुस्लिमों को साथ खड़ा करने की चाहत है । लेकिन उम्मीद महज इतनी है कि हिन्दु-मुस्लिम की लकीर सीधे वोट बैक बांट दे। यानी जिस राजनीति ने कांग्रेस और बीजेपी सरीखे राष्ट्रीय दलों को भी क्षेत्रीय दलो के सामने झुकने के लिये मजबूर कर दिया अगर वरुण गांधी के जरीये उस राजनीतिक वोट बैक में सेंध लगायी जा सकती है
लेकिन गांधी परिवार की लड़ाई यही से शुरु होती है क्योकि वरुण से उन्मादी बोली से कही तीखे शब्द विनय कटियार कहते रहते हैं।
कल तक कल्याण सिंह भी कहते थे। नरेन्द्र मोदी ने भी उन्मादी शब्दों से परहेज अभी भी नहीं किया है। लेकिन वरुण का मतलब इन सबसे अलग है । चुनावी पटल पर मुद्दों के ही आसरे गांधी परिवार अगर दोनो तरफ खड़ा है तो बीजेपी की यह सबसे बडी हार है, उसे बीजेपी के रणनीतिकार समझ रहे है। क्योंकि मुद्दा हिन्दुत्व या सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि गांधी परिवार है। और सोनिया के रणनीतिकारों ने अगर वरुण के जरीये ही कांग्रेस को बढ़ाने की व्यूहरचना की तो ना सिर्फ झटके में मंडल-कमंडल की राजनीति पर पनपी क्षेत्रीय राजनीति का बंटाधार होगा। बल्कि गांधी परिवार भी आधुनिक चेहरे के साथ उभरेगा, जिसमें मुखौटा नहीं होगा।
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Wednesday, April 1, 2009
क्या वरुण गांधी एक नयी राजनीति के संकेत हैं?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:45 AM
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10 comments:
पुण्य प्रसून बाजपेयी जी आज के राजनीति में वरुण गाँधी के नाम का हउआ खरा किया जा रहा है क्यों की कांग्रेस के पास बोलने के लिये कुछ ज्यादा नही है और मिडीया भी उसका सहयोग कर रहा है।
सरसंघचालक सुदर्शन के साथ एक मंच पर बैठकर अपने राजनीतिक इरादों को हवा देते रहे।
वरुण गाँधी भी सांसद बन जाते लेकिन उनका उम्र सांसद नही बनने दिया वे 25 साल के नही थे जब राजनीति में आये थे और क्या आर.एस.एस. के संघचालक के साथ बैठना किसी तरह से गलत है क्या?
वरुण गाँधी ने क्या कहा क्या नही कहा पिलीभीती से दुर शायद बैठे किसी को नही पता है। इस पुरे मुद्दे पर हमें थोडा़ सोचना चाहिये। वरुण गाँधी ने 3 तारीख को पिलीभीती में जनसभा किया जिसका सी.डी. मिडीया वालों ने सभी को दिखा रहें हैं और यह सी.डी. 10 तारीख को समाचार चौनल ने दिखाना सुरु किया। सात दिन तक सी.डी. कहा था आज तक किसी मिडीया वालों ने नही बताया। सबसे पहले जिस समाचार चौनल ने इस सी.डी. को सबसे पहले दिखाया वह समाचार चौनल किस व्यक्ति का है आज तक किसी ने नही बताया और इस सी.डी को मिडीया के सामने लाने वाले और कोई नही एक काँग्रेस के नेता हैं जो पीलिभीत से काँग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहें है। इस सारे खेल में जनता को सिर्फ बरगलाने का काम किया गया है सच्चाई को छिपा कर सिर्फ वरुण गाँधी पर दोषारोपण करना सच्चाई का गला घोटना है।
मैं आपको याद दिलाना चाहूगा पिछले गुजरात चुनाव में नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिय एक मिडीया चैनल ने किस तरह आपरेशन कंलक का सी.डी. दिखाया था जिसके बारे में बाद में पता चला कि पुरा का पुरा सी.डी. सिर्फ झुठ का पुलिन्दा था। क्या वरुण गाँधी के मामले में यैसा नही हो रहा है।
मेरी समझ मे नहीं आ रहा है वरुण को हीरो क्यों बनाया जा रहा है . वरुण अपने कहे पर खुद मुकर गए है और शपथ पत्र दे कर कह रहे उन्होंने यह कुछ कहा ही नहीं . शायद वरुण के पीछे लगे गाँधी का फायदा भाजपा भी उठाना चाहती है
varun gandhi na to hinduon ka bhala karenge na hi bhajpa ka . ho sakta hai is chunaw mein bjp ko kuchh seat jyada mil jaye! parantu najdik ke fayde se door ka nuksan ghatak hoga . jis wanshwad arthat gandhi pariwar ke rajwansh ki baat karte the wahi sthiti to yahan bhi panaoti ja rahi hai ..............
abhi bjp ka wanshwad dikh nahi raha kyonki shruaati neta abhi tak rajniti mein hain .fir v kai naam abhi ginaye ja sakte hain .....
punam mhajan , prem kr dhumal ke putr anurag thakaur , wasundhara raje ke suputr , pankaj singh , pratibh aadwani aadi aneko hain jinme kuchh sarwjanik taur par aa chuke haun kuchh aadwani ke baad aane wale hain ...............
anukamppa ke aadhar par rajniti mein prawesh ka jo mudda bjp uthati rahi hai wahi rog yahan bhi lag gaya hai .
ye kewal bjp -congress nahi pure rajniti ki baat hai ... baap ke baad beta fir pota ... chalta rahega ................
MUDDA ABHI BHI GANDHI PARIWAR NAHI HAI, YE SEEN CHUNAW KE BAAD KA JAROOR HO SAKTA HAI. PAR ITNA JAROOR HAI KI BJP KO AIK MOHRA MIL GAYA HAI , LEKIN, NIRBHAR KARTA HAI KI WAH IS MOHRE KO LEKAR CHAL KAISI CHALTA HAI.AISE, IS AIK MOHRE SE RAJNITI NE AIK NAI KARWAT LI HAI, N JANE KITNAE DRISY BANTE BANTE BIGAD GAYE. ANYATHA ME NA LIYA JAAY, TO KYA DUR KI KAUDI PHEKI HAI BJP NE. DIKKAT YAHI HAI KI KOI CHANKYA NAHI HAI..
jo bhi ho vajpaiji, varoon gandhi aaj ke heero he..,
nai raajniti ke sanket ka naam to nahi de sakte kyuki bjp me naya kuchh hota dikhta hi nahi...ynha to bs khinchataan chal rahi he,,varoon ne jo kuchh kiya vo mere vichaar se khud ka kiya dhara he..ab usme party apne hit samjh kar vot khinchne ka kaam kar rahi he, bechara varoon kya kare?
vese bhi sikh hinduo ke rakshak rahe he..so varoon me vo sikh khoon to he hi lihaazaa uske bolne me uttejna jyada thi, galat kuchh bhi nahi tha.
Very thought provoking and good article... I can quote a small satire that I wrote on this..
हम गहरे सोच में हैं, अरे,
वरुण ने यह क्या किया?
चुप रह, सब सहना था,
जाने क्यों जोर शोर से बोल दिया?
भागवत गीता का नाम लिया तो,
उसे पढ़ने की नसीहत देने लगी प्रियंका,
जिसने आज तक सब, गीता को पढ़ा नहीं,
अब वही बजाने लगी अपने ज्ञान का डंका॥
बनता देख सीधी गाय को एक क्रुद्ध शेर,
खूब खलबली मची, और हैरत में पड़ी इं.का.*,
सहन ना कर सकी, सच की भीषण ज्वाला,
भीतर से जलने लगी, जैसे सोने की लंका॥
चुप रहता, तो मनमोहन कहते,
ये है नेहरू-गाँधी खानदान का बच्चा,
पर क्या करें, घोर अनर्थ हो गया,
ये तो निकल गया बिल्कुल ही सच्चा॥
माननीय मनमोहन जी, हम कहते हैं,
अच्छा है, वरुण ने भी तोड़ दिया नाता,
वरना यह भी, एक और, काश्मीर-पलायन,
पंजाब-जलन और सिख-विरोधी दंगे करवाता॥
यह सचमुच नेहरू-गाँधी वंश का होता तो,
गरीबी की जगह, गरीबों को ही हटवाता,
देश को दावं पर लगा, रक्षा सौदे करवाता,
कथनी करनी में फर्क रख, सौहाद्र के नारे लगाता॥
बिन योग्यता, बिन प्रयास, सत्ता को वंशवाद से पाता,
बचे खुचे चोरों, लुटेरों, हत्यारों, मक्कारों को संसद पहुचाता,
या विदेशी से शादी रचा, फिर भी उसे भारतीय नहीं बनाता
और अपने महान वंश की, महान परम्परा को आगे बढ़ाता॥
जवान था, शायद रक्त कुछ ज्यादा ही उबल गया,
सदियों से सब चुप रह सहते थे, ये बोल गया,
इसके चंद शब्दों से, अन्याय, तुष्टिकरण और
झूठी धर्म-निरपेक्षता का, खोखला सिंहासन डोल गया॥
~Jayant Chaudhary
प्रसून जी जिस देश में झंडे का अपमान कर माफी मांग कर सजा से बचा जा सकता है तो संविधान में दिये गये समानता के अधिकार का विरोध कर उसे गालियां दे कर माफी मांग ली जाये तो क्या फर्क पडता है देश को ? संविधान और देश का झंडा क्या इस तरह के अपमान के लिये ही बना है ? लगता तो यह भी है कि इनकी पालना कराने वाले भी इसके प्रति अपने दायित्व को भूल चुके हैं। तो वरूण हो या आडवानी हों कोई भी और नेता जो अपमान करे संविधान और देश के कानूनों को तो सोचने वाली बात है क्या वे इस देश के नागरिक हैं भी या नहीं ? अगर होते तो शायद देश की गरिमा और उसके प्रति अपने दायित्व को तो याद रखते ही यह दायित्व तो उनको स्कूलों में पढाया ही गया होगा ? मीडिया की बात करें तो बचारे विज्ञापन और टीआरपी के ही भूखे हैं इसके लिये कहां तक जा सकते हैं इसका तो अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता है। बहस करने का मुदा नहीं है कार्यवाही की बात है, आम आदमी ने ऐसा किया होता तो सोचिये क्या होता उसके साथ ? तो फिर इनके साथ क्यों नहीं होना चाहिये ?
http://pinkcitygold.blogspot.com/
अगर पूरे िवश्व में देखा जाए तो िहन्दुस्तान एकमात्र ऐसा देश है जो िहंदुओं का होकर भी िहंदुओं का नहीं है। िकतनी बदिकस्मती की बात है िक हम अपने देश में खुले आम. अपने को िहंदु भी नहीं कह सकते। क्योंिक ऐसा कहने पर हम सामप्रदाियक हो जाते है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है िक १९४७ में देश आजाद होने पर इसे िहंदु राष्ट्र न बनाना एक बड़ी भूल थी। इस देश में हालात यह है िक सभी पािटर्या अल्पसंख्यक की दुहाई देकर और उनके वोटों के लालच में हमेशा उनके िहतों के बारे में ही सोचती है और यिद िकसी ने िहंुओं से जुड़े मुद्दों की बात उठा दी तो हर तरफ हो हल्ला मचना शुरू हो जाता है। बहुत तकलीफ होती है यह देखकर। सच कहूं तो कभी-कभी लगता है िक इस देश में अब अलंपसंख्यक िहंदु है न िक अन्य धरम के लोग। अगर वरूण ने िहंदु रक्षा के िलए आवाज उठा दी तो क्या गलत कहा। लालू जी ने कहा िक अगर वह गृहमंत्री होते तो वरूण पर रोलर चलवा देते। यह वहीं, लालू है िजन्होंने िबहार में माई मतलब मुसलमान और यादव का नारा देकर अपनी राजनीित चमकाई। वास्तव में प्रसुन जी कभी-कभी बहुत तकलीफ होती है। मैं मुसलमानों के िवरोध में नहीं हूं लेिकन िहंदुओं की रक्षा के िलए आवाज उठाने वाले का मैं िदल खोलकर समथर्न करूंगा, िफर चाहे लोग मुझे सामप्रदाियक ही क्यू न कहे। आपने अपने ब्लाग में सचमुच उन चीजों के रेखािकंत िकया है जो सच्चाई के काफी नजदीक है। आपकों मेरा सादर प्रणाम, जय िहंद......सौरभ कुमार गुप्ता..
सौरभ जी आप ठीक कह रहे है. जो भी हिन्दुओ की रक्षा,सम्मान ,हित,देश,धर्म की आवाज बोलेगा हमें उसका समर्थन करना चाहिये .
ham hindu sanskati ke kattar samarthak hai aur varun ne jo kaha vo 100% satya kaha. us par kisi hindu ko kaisi sharm?sharm to us dogli(isai ma ki aulaad)aulaad rahul ko aayegi jo n to hindu hai aur n indian
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