जवाहर लाल नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में यानी चीन युद्द से लेकर बाढ़ तक के दौर में अकसर तमाम प्रधानमंत्रियो ने सासंदो से यही गुहार लगायी है कि विपदा के वक्त सांसदों को अपने क्षेत्र में रहना चाहिए । इंदिरा गांधी ने 1975 में बिहार में आयी बाढ़ के वक्त कांग्रेसी सांसद को डपटा कि उन्हें दिल्ली में नहीं बिहार में होना चाहिये। आम जनता के बीच उनके दुख दर्द को समझते हुये उनकी जरुरत का इंतजाम देखना चाहिये।
लेकिन वक्त किस हद तक बदल चुका है, इसका अंदाजा संसद के मानसून सत्र को लेकर लगाया जा सकता है। एक तरफ मानसून की देरी ने सूखे की स्थिति देश में ला दी है, वहीं दूसरी तरफ संसद उसी दिल्ली में मानसून सत्र के लिये तैयार हैं, जहां 4 से बारह घंटे तक बिजली कटौती सरकारी आदेश पर की जा रही है। समूचे उत्तर भारत में बिजली-पानी के हाहाकार के बीच संसद के मानसून सत्र का मतलब दिल्ली के लिये क्या है, अगर इसे पहले समझें तो लुटियन की दिल्ली को रोशनी से जगमग और एसी से ठंडा करने के लिये दिल्लीवालो को कई स्तर पर कुर्बानी देनी होगी। फिलहाल, दिल्ली के पास सिर्फ 1575 मेगावाट बिजली है। केन्द्र के वितरण के जरीय भी दिल्ली को कमोवेश 1500 मेगावाट बिजली मिल जाती है । जबकि दिल्ली की जरुरत 4171 मेगावाट की है । लेकिन मानसून सत्र का मतलब है लुटियन की दिल्ली में करीब 175 मेगावाट की खपत। क्योंकि संसद और साढे सात सौ सांसदों में से कोई भी न तो अंधेरे में रह सकता है, न ही एसी बंद कर सकता है। इस 175 मेगावाट का मतलब है, दिल्ली में बिजली कटौती में कम से कम हर इलाके में दो से तीन घंटे की बढोतरी। वहीं जितना पानी समूचे दक्षिणी दिल्ली में लगता है, करीब उतना ही पानी संसद के मानसून सत्र को एक महीने तक चलाने के लिये चाहिये। तो पानी की किल्लत को भी दिल्ली को ही भुगतना है। लेकिन इस पर सवाल नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सांसदों के विशेषाधिकार का मामला है। लेकिन मानसून सत्र है किसके लिये यह सवाल देश के मद्देनजर तो उठाया ही जा सकता है। सरकार खुद मान चुकी है कि उत्तर-पश्चिम भारत में इस बार औसत से 17 से 26 फीसदी कम बारिश होगी। औसत से कम बारिश के आंकडों में कुछ कम की स्थिति पूरे देश की है। यहां तक कि चेरापूंजी में भी औसत से कम बरसात होगी। यह संकेत सूखा के हैं। लेकिन सरकार सबकुछ कहते हुये भी सूखा शब्द से बच रही है । देश के हालात क्या है और सरकार वैकल्पिक नीतियों को लेकर कितनी सजग है, इसका अंदाजा हालात पर गौर करने से मिल सकता है। देश में कोई राज्य ऐसा नहीं है, जहां बिजली की सप्लाई और मांग एकसरीखी हो। औसतन हर राज्य में छह सौ मेगावाट बिजली की कमी है।
मानसून में देरी और आसमान चढ़ता पारा अगर एक हफ्ते यानी बजट के दिन यानी 6 जुलायी तक बरकरार रहा तो पानी से पैदा होने वाली बिजली में 45 फीसदी की और कमी आ जायेगी। मसलन भाखडा सरीखे डैम की स्थिति यह हो जायेगी कि जहां पिछले साल 44 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी था, वह करीब 5 बिलियन क्यूबिक मीटर पर आ जायेगा। यानी चार राज्यों को जिस भाखड़ा से पानी मिलता है, वहा बिसलरी की बोतल भर भी पानी देना मुश्किल हो जायेगा। यह स्थिति हिमाचल के पोंग से लेकर गुजरात के साबरमती और राजस्थान के राणा सागर से लेकर दक्षिण के नागार्जुना सागर तक की है। यहां पिछले साल की तुलना में 75 फिसदी कम पानी है।
वहीं तमिलनाडु के कृष्णराजा सागर में, जहा पिछले साल 41 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी था, इस वक्त समूचा डैम सूख चुका है। पानी की कमी और बढ़ती गर्मी के बीच बिजली की बढ़ती मांग ने अब यह सवाल भी खड़ा किया है कि सरकार के पास विकल्प है क्या। बिजली के निजीकरण को जिस तेजी से हरी झंडी दी गयी, उसके सात साल बाद अगर दिल्ली की ही हालत देख लें कि इस दौर में बिजली की मांग 1100 मेगावाट बढ़ गयी लेकिन निजी क्षेत्र से एक यूनिट बिजली नहीं आयी। 2010 तक बिजली आ जायेगी, यह कयास अब लगाये जा रहे हैं। कमोवेश यह हालात देश के बहुतेरे दूसरे राज्यों की भी है।लेकिन बिजली पानी का यह संकट देश के उन सत्तर फीसदी लोगों के लिये सीधे पेट से जुड़ा है,जिनकी जिन्दगी ही उस जमीन पर टिकी है, जो गर्मी और पानी न मिलने से फटी जा रही हैं।
सवाल उठेगे कि आर्थिक सुधार की जो लकीर 1991 में बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने खिंची उसमें फसल बीमा या मानसून बीमा क्यों लागू नहीं किया गया। बाजार अर्थव्यवस्था ने पूंजी के जरीये मध्यम वर्ग की हैसियत और जरुरत का दायरा तो बढा दिया । लेकिन खेत में जब कुछ उगेगा ही नहीं तो मुनाफे की थ्योरी तले जमा की गयी पूंजी का होगा क्या । क्या वित्त मंत्री से प्रमोट होते होते प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह यह मान चुके है कि एक देश के भीतर बन चुके दो देश में वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी एक देश को सभांलने की है, जिसका बैरोमिटर मानसून नहीं शेयर बाजार और बाजार अर्थव्यवस्था का वह खाका है, जहा उपभोक्ता बनना ही नागरिकता का धर्म निभाना है। और दुसरे भारत का वित्त मंत्री मानसून है। जिसके भरोसे बाजार नहीं बढ़ाया जा सकता। जबकि दुनिया के तमाम देशों में मानसून के बिगड़ने पर किसानों को इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया करा कर विकास की गति को बरकरार रखा जाता है, इसे मनमोहन सिंह या तो मानते नहीं या फिर लागू करा पाने में सक्षम नहीं हैं। सवाल है आर्थिक सुधार ने न्यूनतम की लडाई को पूंजी से खरीदने की हैसियत तो बाजार अर्थव्यवस्था ने दे दी लेकिन न्यूनतम का विकल्प यह अर्थव्यवस्था नहीं दे पायी। इसका दागदार चेहरा राज्यों में मुख्यमंत्रियो की पहल से समझा जा सकता है। विकास के मद्देनजर बीजेपी के सबसे काबिल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और जमीन-किसान के दर्द को समझने वाले कांग्रेस के सबसे उम्दा आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वाय एस आर रेड्डी ने भी मानसून की देरी में घुटने टेक कर मंदिर में पूजा पाठ का रास्ता अपना लिया। जबकि दोनों राज्यों में कृषि अर्थव्यवस्था को औघोगिक विकास से जोड़ने की बात दोनों ही नेताओ ने अपने पहले चुनाव को जीतने के साथ ही कही थी। यही हाल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज शिंह चौहान और कर्नाटक के मुख्यमंत्री यदुरप्पा का हुआ । चौहान महाकाल के मंदिर पहुंच गये तो यदुरप्पा कुंभकोणम के मंदिर में। सभी ने इन्द्र देवता को खुश करने के लिये पूजा पाठ शुरु कर दी। किसी ने नहीं माना कि पर्यावरण से लगातार खिलवाड़ करने वाली आर्थिक नीतियो का विकल्प तैयार करने की जरुरत है। लेकिन देश का दर्द सांसद या मुख्यमंत्रियों के दरवाजे पर भी पहुंच पा रहा होगा, यह सोचना भी बेवकूफी होगी। क्योंकि आस्था के आसरे नेता खुद को आम जनता से जोड़ना तो चाहता है। लेकिन यही आस्था आम जनता के बीच सरकारों से भरोसा उठाकर निजी जद्दोजहद कैसे कराती है, इसका नजारा इलाहबाद में नजर आया, जहां रात में चांद की रोशनी में नग्न होकर महिलाये हल जोत रही हैं, जिससे इन्द्र देवता खुश हो जाये। यह परंपरा है इन्द्र को मनाने की है। जाहिर है यह दृश्य न न्यूज चैनल पकड़ सकते हैं, न ही सरकार की मुनाफे की अर्थव्यवस्था समझ सकती है । नग्न होकर हल चलाती महिलाओं की उस मानसिक स्थिति को भी वह सरकार कैसे समझ सकती हैं, जिसे न्यूक्लियर डील के आसरे हर समाधान का भरोसा है । जबकि यह महिलाये सबकुछ गंवाकर जीने की आखिरी लड़ाई में भी सरकार पर भरोसा नहीं कर पा रही हैं। इस दर्द को न तो मायावती का बुत समझ पायेगा, न ही राहुल का विकास मॉडल। क्योंकि राजनीतिक जमीन सींचने के लिये एक रात ग्वालिन या दलित के यहां बितायी जा सकती है। लेकिन हर रात दर्द से कराहते समाज के दर्द में शरीक नहीं हुआ जा सकता। दलित की बेटी का राजकुमारी हो जाना और राजकुमार का दलित के घर रात बिता देने में तब कोई फर्क नहीं आयेगा, जब तक घाव से रिसते मवाद को न देखा जाये । मानसून की देरी और गर्म हवा के थपेडो का दर्द गांव और छोटे शहरों में बिजली पानी के हाहाकार से कहीं आगे का है। जहां मवेशियों के लिये चारा नहीं है और दूधमुंहे बच्चों के लिये दूध नहीं है। गरीबी की रेखा से नीचे परिवारों के पास अन्न नहीं है, और सरकारी गोदामों में अन्न सड़ रहा है। सांसद विपदा की परिस्थितियों में ही हकीकत से रुबरु हो सकता है, इसका जिक्र कई बार इंदिरा गांधी ने किया। लेकिन नयी परिस्तितियो में विपदा से उभरे घाव से ज्यादा गहरा घाव तो सरकारी नीतियों के फेल होने का है। दिल्ली में फूड सिक्यूरटी का मामला सोनिया गांधी उठाती हैं। दिल्ली में नौकरशाह टारगेट से ज्यादा खादान्न दिखा भी देता है । लेकिन अन्न का वितरण कैसे हो और उसे सुरक्षित भंडारों में कैसे रखा जा सके, इसकी कोई व्यवस्था आजतक सरकार नहीं कर पायी है।
अर्थव्यवस्था के जरीये देश के साथ कैसा मजाक होता है, इसका नजारा मुद्रास्फीती की दर की शून्य के नीचे पहुंचने के दौर में ही मंहगाई के चरम पर पहुंचने से भी प्रधानमंत्री नहीं समझ पाते कि कही तो गडबडी है। असल में गड़बड़ी को विपदा के दौर में ही सांसद अपने अपने इलाको में रहते हुये महसूस कर सकते हैं। राहुल गांधी की कलावती से मुलाकात करने अगर आज कोई यवतमाल जिले के जालका गांव सडक के रास्ते जाये तो वह समझ जायेगा कि विदर्भ में किसान खुदकुशी क्यों करता है। पूरे इलाके में महाजनी सौ रुपये में जमीन-जोरु दोनो को अपने नाम करने से नहीं कतरा रही हैं। और जिन्दगी बचाने के लिये इससे कम या ज्यादा देने की हैसियत यहां के किसानों में बची नहीं है। आप कह सकते हैं मानसून सत्र का खास महत्व है, जिसमें बजट पेश किया जाना है। तो तकनीकी तौर पर इस बार बजट को स्टेडिंग कमेटी के पास तो जाना नहीं है और मानवीय तौर पर उस बजट से देश को क्या लेना देना है, जिसमें रुपया बनाने और खर्च करने की बाजीगरी होगी।
Sunday, June 28, 2009
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बिन मानसून...संसद के मानसून सत्र का मतलब ! |
Wednesday, June 24, 2009
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कैसे हुआ भाजपा का बंटाधार |
"जो लोग कल तक संघ की सभा और बैठकों में भौतिक इंतजाम करते थे। स्वंयसेवकों को भोजन कराकर, अपने घर में ठहराकर खुद को धन्य समझते थे । अब वही शीर्ष पर पहुंच गये हैं। भौतिक इंतजाम करना-करवाना पहले सरोकार की राजनीति करने वालो के प्रति श्रद्दा रखने समान था । अब भौतिक इंतजाम करवा पाना राजनीति का मूल मंत्र बन चुका है। पहले संघ की वैचारिक समझ के आसरे जनसंघ और फिर भाजपा की राजनीतिक जमीन बनाने की बात होती रही, अब भाजपा की राजनीतिक जमीन पर ही संघ की जगह नहीं बची है । सरोकार नहीं सुविधा के आसरे राजनीति खरीदी और बेची जा रही है,ऐसे में हम जैसे पुराने स्वसंसेवकों को तो नये मंत्रियो से मुलाकात का भी वक्त नहीं मिल पाता है।"
यह वक्तव्य गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री से मुलाकात का इंतजार कर रहे गुरु गोलवरकर के दौर में प्रचारक की हैसियत से जुडे संघ के बुजुर्ग स्वयंसेवक का दर्द है। लेकिन यह दर्द सिर्फ मोहन भाई तक सिमटा हो ऐसा भी नहीं है। भाजपा ही नहीं संघ के भीतर भी जो पीढ़ी और जो सोच वाजपेयी सरकार के दौर में चूकती चली गयी और खामोश रहना उसकी फितरत बन गयी 2009 के जनादेश ने अचानक उन्हें जुबान दे दी है। सौराष्ट्र से लेकर नागपुर तक के बीच एक हजार किलोमीटर की लंबी पट्टी पर जनसंघ या भाजपा से लेकर संघ तक का वर्तमान का कोई ऐसा प्रमुख कार्यकर्त्ता या नेता या फिर स्वयंसेवक नही होगा, जिसने उस इलाके में काम नहीं किया हो।
लेकिन इस पूरे इलाके में संघ के स्वयसेवकों और भाजपा के कार्यकर्त्ताओं के भीतर झांकने पर साफ लगता है कि संघ ने जो राजनीतिक जमीन भाजपा के लिये दशकों की मेहनत से बनायी, उसे नेताओ के सत्ता प्रेम में ना सिर्फ गंवाया गया बल्कि संघ के भीतर भी नेता सरीखी एक नयी लीक तैयार हो गयी जो संघर्ष नही सुविधा टटोलने लगी। नागपुर के मनसुख भाई की मानें को भाजपा का मतलब मुद्दों को उठाकर भावनात्मक तौर पर संघ की सामाजिक जमीन पर राजनीतिक लाभ उठाना जरुर है लेकिन भाजपा में मुद्दों में बडे नेता हो गये और नेताओ के सामने संघ के स्वयंसेवक नकारे वोट बैंक भी नही बन पाये ।
नागपुर से सटे छिंदवाडा के राजन ने तो देवरस के उस प्रयोग को बेहद करीब से देखा जो जेपी के जरिये 1974 में रचा गया । लेकिन किसी चुनावी राजनीति को पहली और आखिरी बार सुन्दरलाल पटवा के साथ छिंदवाडा में देखा जब कांग्रेस की कभी न हारने वाली सीट पर भाजपा के पटवा कांग्रेस के कमलनाथ की पत्नी अलका कमलनाथ को चुनौती देने पहुंचे थे। पटवा जब छिंदवाडा में उतरे तो उनके पीछे चावल-गेंहू-आलू-प्याज से लदा एक ट्रक भी आया। दो महीने चुनावी मशक्क्त पटवा ने संघ के प्रचारको और सामूहिक सरोकार की राजनीति के जरीये छिदंवाडा में कुछ इस तरह रची कि जो भी पटवा के प्रचार मुख्यालय में पहुंचता, वहां लंगर में खाने का इंतजाम हर किसी के लिये हमेशा रहता। इस दौर में विचारों का आदान-प्रदान होता और सामाजिक संगठन बनाने की संघ की सोच को मूर्त रुप में कैसे लाया जा सकता है, इस पर हर किसी से पटवा चर्चा करने से नहीं चूकते । प्रचार की कमान पूरी तरह संघ के अलग अलग संगठनों ने संभाल रखी थी । राजन के मुताबिक चुनाव प्रचार में करीब ढाई लाख रुपये खर्च हुये, जिसमें लंगर का खाना भी शामिल था। जिसका खर्च सबसे ज्यादा डेढ़ लाख तक का था । लेकिन पटवा की जीत के बावजूद अगले ही चुनाव में छिंदवाडा में टिकट उसी को दिया गया जो कमलनाथ की पूंजी की सत्ता से टकरा सकता था।
जाहिर है कांग्रेस के तौर तरीको की राजनीति को भाजपा ने अपनाया, लेकिन संघ का साथ छूटता गया । असल में भाजपा ने चुनाव की राजनीति के जो तौर तरीके को अपनाया, उसमें संघ के तरीके फिट बैठ भी नहीं सकते थे । क्योंकि संघ का जोर संगठन के जरिये सामाजिक शुद्दीकरण के उस मिजाज को पकड़ना था, जिससे वोट डालने के साथ वैचारिक भागेदारी का सवाल भी वोटर में समाये। लेकिन भाजपा ने वोटर को सत्ता की मलायी से जोड़ने की राजनीतिक पहल न सिर्फ उम्मीदवारो के चयन को लेकर की बल्कि चुनावी घोषणापत्र से लेकर चुनाव प्रचार के दौरान वोटरों को लुभाने की ही जोर-आजमाइश की।
संघ के स्वयसेवको के मुताबिक चूंकि भाजपा को कोई भी वोटर संघ से इतर देखता नहीं तो सत्ता की मलाई का प्रचार संघ के भीतर भी समाया। यानी यह बात सामाजिक तौर पर बहस का हिस्सा बनी की भाजपा की सत्ता का मतलब संघ के लिये सुविधाओ की पोटली खुलना है। इससे संघ के प्रति आम लोगो का नजरिया भी बदला । सेवक भाव के बहले सुविधा भाव नये स्वयंसेवको में ज्यादा है। पुणे के बुजुर्ग रविन्द्र मानाटे के मुताबिक आरएसएस के आठ दशक के दौर की सामाजिक समझ को वाजपेयी सरकार के दौर में सबसे ज्यादा झटका लगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। भाजपा के भीतर नेताओ की कतार की तरह संघ के भीतर भी नेताओं की कतार सत्ता से जुडने से नहीं चूकी। ऐसे में वह स्वयंसेवक हाशिये पर चले गये जो एक ऐसी राजनीतिक जमीन लगातार बना रहे थे, जिसका लाभ भाजपा को लगातार मिलता रहा ।
भाजपा ने काग्रेस की तर्ज पर जिस तरह की राजकरण व्यवस्था को अपनाते हुये नीतियो को अपनाया, उसका सबसे बडा झटका संघ को ही लगा। नयी आर्थिक नीतियो को लेकर भाजपा जिस तरह कारपोरेट घरानो का हित देखने लगी और विश्व बैक के निर्देशो का लागू कराने में कांग्रेस से कहीं ज्यादा तेजी दिखाने लगी उससे अचानक संघ के वह सभी संगठन भोथरे साबित होने लगे, जिनके भरोसे भाजपा की कभी पहचान बनी। किसान मंच, स्वदेशी जागरण मंच से लेकर आदिवासी कल्याण मंच सरीखे दर्जन भर से ज्यादा आरएसएस के संगठन पहले बेकार हुये और फिर बीमार। राजनीतिक तौर पर भाजपा और संघ के बीच नीतियों को लेकर टकराव इन्हीं संगठनों के जरीये ही उभरा । यानी जनता के बीच यह संवाद कभी नहीं गया कि भाजपा की नीतियो को संघ नहीं मानता। उल्टे स्वदेशी जागरण मंच के दत्तोपंत ठेंगडी ने जब भाजपा की आर्थिक नीतियों पर चोट की या फिर किसान संघ ने कृषि अर्थव्यवस्था को लेकर भाजपा की अनदेखी पर निशाना साधा तो आरएसएस रेफरी की भूमिका में ही आयी। आदिवासी कल्याण संघ ने भी जब आदिवासियो की जमीन और जंगल खत्म करने की बात उठा कर भाजपा पर हमला बोला तो आरएसएस बीच-बचाव की मुद्रा में ही नजर आयी । इससे आरएसएस को लेकर भी उस राजनीतिक जमीन के लोगों में उहापोह की स्थिति बनी, जो संघ के जरीये भाजपा को देखते थे। पुणे के किसानों ने जब एसइजेड को लेकर वैकल्पिक एसइजेड का फार्मूला खुद ही विकसित करने का आवेदन सरकार को दिया तो स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ तक को समझ नहीं आया कि उसकी भूमिका अब क्या होनी चाहिये।
स्वयंसेवक रविन्द्र के मुताबिक जो किसान पहले नयी आर्थिक नीतियों से परेशान होकर संघ की छांव में आते थे, नयी परिस्थितियों में वह संघ पर ही कसीदे गढ़ने लगे। नया असर यही है कि महाराष्ट्र में किसान राजनीतिक तौर पर भाजपा के साथ नहीं है और सामाजिक तौर पर आरएसएस को जगह नहीं देते। यहा तक की विदर्भ में शिवसेना की पहल को किसानो ने ज्यादा मान्यता दी है। चुनाव से ऐन पहले जब राजनाथ सिंह ने विदर्भ से किसान यात्रा शुरु की तो उसमें किसान की जगह भाजपा के शहरी कार्यकर्त्ता और किसानो को कर्ज देकर मुनाफा कमाने वाले भाजपायी ज्यादा थे । यवतमाल के नानाजी वैघ की उम्र 73 साल है । विश्व हिन्दू परिषद के गठन के वक्त ही संघ से वास्ता पड़ा लेकिन मंदिर मुद्दे पर जिस तरह का रुख वाजपेयी सरकार ने अपनाया और विहिप के विरोध के बावजूद आरएसएस ने महज रेफरी की भूमिका जिस तरह अपनायी, उससे आजिज आकर वैघ साहब ने संघ से रिटायरमेंट ले लिया । पूछने पर साफ कहने से नहीं चूकते कि संघर्ष सत्ता के लिये नहीं बेहतर समाज के लिये था। लेकिन अब सत्ता और नेता ही केन्द्र में हैं तो उसमें उनका क्या काम। राहुल गांधी यवतमाल के ही जालका गांव में जब कलावती से मिलने पहुचे थे, तो वैघ साहब वहीं मौजूद थे । नानजी वैघ के मुताबिक राहुल की यह राजनीतिक तिकडम हो सकती है कि वह कलावती का नाम लेकर खुद को देश के सुदूर हिस्सों से जोड़ रहे हों। लेकिन इससे सरोकार तो बना। संघ ने तो शुरुआत ही सरोकार से की थी और आठ दशकों से सरोकार की राजनीति को ही महत्व दिया। लेकिन भाजपा की सत्ता की मलाई की चाहत ने सभी नेताओ को कमरे में कैद कर दिया और दिल्ली में खूंटा गाढ़ दिया। वैघ का मानना है कि भाजपा कुछ न भी करे लेकिन उसके नेता लोगो से सरोकार तो बनाते, राजकरण में भाजपा ने सरोकार तो छोडा ही संघ को भी सरोकार की समझ के बदले बैठक और चिंतन से जोड दिया।
खास बात यह है कि सौराष्ट्र से नागपुर की पट्टी में जितने सवाल संघ के भीतर भाजपा को लेकर है, उतने ही सवाल भाजपा के कार्यकर्ताओ में संघ को लेकर भी है । नागपुर में संघ का मुख्यालय जरुर है लेकिन यहां भाजपा लोकसभा चुनाव जीत नही पाती है। और तो और जब इमरजेन्सी में सरसंघचालक देवरस नागपुर में बैठकर जेपी के जरीये राष्ट्रीय प्रयोग कर रहे थे तो उसके बाद हुये चुनाव में चाहे जनता पार्टी को दो तिहायी बहुमत मिल गया हो लेकिन नागपुर ही नहीं विदर्भ की सभी ग्यारह सीटों पर कांग्रेस जीत गयी थी। उस वक्त देवरस का इन्टरव्यू नागपुर से प्रकाशित तरुण भारत में छपा था। जिसमें उन्होंने विदर्भ में कांग्रेस की जीत पर यही कहा था कि संघ के सरोकार विदर्भ से नहीं जुड़ पाये हैं तो इसकी बडी वजह दलित राजनीति है। और आंबेडकर की राजनीतिक ट्रेनिंग है। लेकिन भाजपा के भीतर गोविन्दाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग की वजह से कल्य़ाण सिंह का कद बढ़ना देखा गया और उत्तर प्रदेश में एक वक्त भाजपा की राजनीतिक सफलता को भी कल्याण सिंह से जोड़ा गया लेकिन वही कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद 1993 में जब पहली बार नागपुर आये थे तो संघ मुख्यालय में वह सिर्फ पांच मिनट ही रह पाये थे। इतनी छोटी मुलाकात के पीछे आरएसएस का ब्राह्माणवाद या दलित-पिछडा राजनीति को जगह ना देना भी माना गया। लेकिन संघ को लेकर कार्यकर्त्ताओ में कुलबुलाहट इतनी भर ही नही है कि संघ की राजनीतिक जमीन में भाजपा सत्ता पा नहीं सकती ।
बडा संकट यह है कि भाजपा में अपना आस्तितिव बनाने के लिये नेता संघ की चौखट पर माथा टेकता है और संघ में खुद को बड़ा दिखाने के लिये वरिष्ठ संघी भाजपा को राजनीतिक हिदायत देता है । ऐसे में बंटाधार दोनो का हुआ । उमा भारती खुल्लमखुल्ला आडवाणी से गाली गलौच कर संघ मुख्यालय पहुंच कर राम माधव के साथ ही तस्वीर खिंचवाती हैं, और संघ भी उन्हें पुचकार कर सेक्यूलर रेफरी बन जाता है। ऐसे में सत्ता की सहूलियत ने संघ को भी सरोकार से डिगाया और संघ के भीतर भाजपा सरीखा पतन भी हुआ । कभी वाजपेयी-आडवाणी को उम्र की दुहायी देकर रिटायर होने की बात कही गयी। तो जिन्ना मसले पर आडवाणी से इस्तीफा भी मांगा गया और प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने पर हरी झंडी भी दी गयी। यानी रेफरी की ही भूमिका आरएसएस की बढ़ती रही। संघ के भीतर एक तबके ने ठीक उसी तरह राजनीतिक मान्यता ली जैसी मान्यता संघ को खारिज कर पैसे वाले उन समर्थको को मिली , जो एक दशक पहले संघ या भाजपा की बैठको में भौतिक जरुरतो का इंतजाम अपने पैसे से करते थे। यानी पैसे वाले समर्थक चुनावी टिकट पाकर नेता बन गये तो संघ के वरिष्ठ और प्रभावी राजनीतिज्ञ बनने लगे। सत्ता ने किस तरह भाजपा को सिमटाया है, इसका अंदाजा भाजपा के मुख्यमंत्रियो को देखकर भी लगाया जा सकता है । छत्तीसगढ में रमन सिंह और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन्हें कोई पहचानाता नहीं था। लेकिन अब इन दोनो के अलावे दोनो राज्य में कोई और भाजपा नेता का नाम जुबान पर आता नहीं है। कमोवेश यही स्थिति राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया की है और तमिलनाडु में येदुरप्पा की है । यानी दूसरी लाइन किसी नेता ने बनने ही नही दी। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने तो दूसरी-तीसरी किसी लकीर पर नेताओं को नहीं रखा है। जबकि, मुख्यमंत्री बनने से पहले अहमदाबाद या राजकोट के सर्किट हाउस का अदना अधिकारी भी मोदी को ग्राउंड फ्लोर का वीवीआईपी कमरा नहीं देते हुये हड़का देता था। कहा जा सकता है यही संकट भाजपा के केन्दिय नेताओ का भी है। 2004 में हार के बावजूद बाजपेयी ने आडवाणी के लिये रास्ता नहीं खोला था। 2009 में आडवाणी हार के बावजूद किसी दूसरे के लिये रास्ता नहीं खोल रहे हैं। माना जाता है सरसंघचालक मोहन राव भागवत के लिये पिछले एक साल से सुदर्शन जी भी रास्ता नहीं खोल रहे थे । लेकिन भागवत ने रास्ता बना ही लिया । लेकिन राजनीतिक तौर पर सवाल अनसुलझा है कि संघ परिवार में जब अपनों के लिये ही रास्ता नहीं बनाया जाता तो जनता इस परिवार के लिये रास्ता कैसे बनायेगी।
Monday, June 22, 2009
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"लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना " |
माओवादी नेता कामरेड किशनजी से पुण्य प्रसून वाजपेयी की बातचीत
लालगढ़ में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के आपरेशन शुरु होने के 72 घंटो बाद हालात कितने बदले हैं और माओवादियों की अगली पहल क्या होगी यह सवाल हर किसी के जहन में है। खासकर पहली बार सीपीएम लालगढ़ में माओवादियों के सफाये का सवाल उसी तरह उठा रही है, जैसा कभी नक्सलबाडी में किसानों ने जमींदारो को लेकर उठाया था । जब इन सवालो को मैंने कामरेड किशनजी के सामने रखा तो उनका पहला और सीधा सपाट जबाब यही आया कि "लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना। " कामरेड किशन के इस जबाब के बाद मैने सवाल-दर-सवाल उठाये और जबाब भी बिना किसी लाग लपेट के इस तरह आया जैसे लालगढ युद्द में पुलिस का ऑपरेशन नहीं बल्कि कौई बौद्दिक क्लास चल रही हो।
सवाल- लालगढ को लालगढ तक देखना भूल होगी । इसका मतलब क्या क्या है ।
जबाव- लालगढ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है । और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढे सोलह हजार गांवो में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार है । इन ग्रामीणों की हालत ऐसी है, जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है । इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है । सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी । इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है । गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है । जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी, हथियार, धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरों में तो एयरकंडीशन भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले । जबकि गांव के कुंओं में इन्होने कैरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके । और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है । सालो-साल से यह चला आ रहा है । किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है । जंगल गांव की तरह यहा के आदिवासी रहते है । यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानो की अदला-बदली से काम चलाया जाता है । इसलिये सवाल माओवादियों का नहीं है । हमनें तो इन्हे सिर्फ गोलबंद किया है । इनके भीतर इतना आक्रोष भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार है । और गांव वालो का यह आक्रोष सिर्फ लालगढ़ तक सीमित नही है ।
सवाल- तो माओवादियो ने गांववालो की यह गोलबंदी लालगढ़ से बाहर भी की है ।
जबाब- हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब न आये । क्योकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है । हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था । सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गाववालों को थोड़ी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता । लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमने चुनाव का बांयकाट कराकर गाववालो को जोडा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर, लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड खत्म हो चुकी है । जिसका केन्द्र लालगढ़ है ।
सवाल--तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही हैं । इसीलिये वह आपलोगों को मदद कर रही हैं ।
जबाब- ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है, यह तो हम नहीं कह सकते । लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उसपर हमारी सहमति जरुर है । लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा । ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलो को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेंगी । लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियो ने पकड़ा है, उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितिया इतनी विकट हो चली है कि लालगढ़ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है । वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है ।
सवाल---नक्सलबाडी से लालगढ़ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।
जबाब---जोड़ने का मतलब हुबहू स्थिति का होना नहीं है । जिन हालातों में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी । चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे है, बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है । क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहूलुहान हो रहा है तो उसका आक्रोष कहां निकलेगा । क्योंकि इन तीस सालो में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनो में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी । लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फिसदी कौन डकार गया, इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा । छोटी जोत के कारण 90 फिसदी पट्टेदार और 83 फिसद बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हुये । इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारो की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालों से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कही ज्यादा गहरा है, क्योकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती। और कंगाल होकर बंद हो चुके उद्योगों की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है । वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है । यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे ।
सवाल- लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है ।
जबाव- आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है । बंगाल में माओवादियों के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दूसरे राज्यों से भी कड़ा है । हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है । तीस से ज्यादा माओवादी बंगाल के जेलों में बंद है । अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूखांर अपराधी के साथ होता है । दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण है । प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालो को जेल में बंद किया जा सकता है । लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं है । अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते है । जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही । अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है । नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है । महिलाओ के साथ बलात्कार की कई धटनाये सामने आयी है । लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।
सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियों से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।
जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है । लालगढ़ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे हैं, उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालो का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है । जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थकों पर पुलिस अत्याचार हो रहा है । इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है । उन्हें गांव छोडने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं, उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संघर्ष लंबे वक्त तक चल सके ।
सवाल--आप ग्राउंड जीरो पर है । हालात क्या है लालगढ़ के ।
जबाब-- लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैप जरुर लगा लिये हैं । लेकिन गांवो में किसी के आने की हिमम्त नहीं है । आदिवासी महिलाए-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं । लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी - ग्रामीण मारा जाये । इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमने गांववालो को मानव ढाल बना रखा है । पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही हैं। माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे । बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं । फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है। जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमे पुलिस से ज्यादा है । इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है, जहा तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती है । उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।
आखिरी सवाल- कभी यह अतिवाम सीपीएम में ही थी, अब आमने सामने आ जाने की वजह ।
जबाव--अच्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया । क्योंकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे । पहली बार जब 1967 मे संयुक्त मोर्चे की सरकार में ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री बने । लेकिन 1964 में जो सवाल भूमि को लेकर वाम आंदोलन खडा कर रहा था उसे संयुक्त मोर्चा की सरकार ने जब सत्ता में आने के बाद टाला तो अतिवाम ने सीपीएम के खिलाफ आंदोलन की पहल की । उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर या आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियो को लागू कराने का वक्त नहीं दिया । अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातों को ज्योति बसु ने 42 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये ।
Thursday, June 18, 2009
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लालगढ़ के राजनीतिक प्रयोग में ममता प्यादा भर हैं |
किसने हमारे कुंओं में कैरोसिन तेल डाला?...... नये जमींदार ने। किसने चावल में जहर भरी दवाई मिला दी? .. नये जमींदार ने। किसने हमें हमारी जमीन से उजाड़ा?... नये जमींदार ने। पुलिस किसकी है.? नये जमींदार की। सेना किसके लिये है?... नये जमींदार के लिये। तो अब लड़ाई किससे है ?.. नये जमींदार से। यह नारे लालगढ के हैं । 16 जून को लालगढ़ टाउन के बीच मैदान में करीब छह सौ गांव के पन्द्रह हजार से ज्यादा लोग जमा हुये तो मंच से यही नारे लग रहे थे। मंच से आवाज आती... नये जमींदार पर निशाना है और हजारो की तादाद में जमा लोग इस आवाज को आगे बढाते हुये कहते.... या खुद निशाना बन जाना है।
वाममोर्चा के तीस साल के शासन में पहली बार माओवादियो का रुख वामपंथियो के खिलाफ ठीक उसी तरह है, जैसे चालीस साल पहले कांग्रेस के खिलाफ वामपंथियो ने हथियार उठाकर कांग्रेस को जमींदार और फासिस्ट करार दिया था। वहीं चालीस साल बाद अब संघर्ष से निकल कर सत्ता में पहुची सीपीएम को फासिस्ट और जमींदार का तमगा माओवादी दे रहे है। पश्चिम बंगाल में वाम राजनीति का चक्का एक सौ अस्सी डिग्री में किस तरह घूम चुका है, इसका अंदाजा सीपीआई माओवादी की सीधी पहल से समझा जा सकता है।
16 जून को लालगढ़ टाउन के मैदान की सभा को संबोधित करने और कोई नहीं, उसी आंदोलन से निकले नेता पहुंचे थे, जिन्होंने साठ के दशक में नक्सलबाडी में हथियार उठाकर कांग्रेस के शासन के खिलाफ बिगुल फूंका था । और आंदोलन की आग उस वक्त इतनी तेज हुई थी कि सीपीआई में दो फाड़ हो गया था। और तीन साल बाद यानी 1967 में ही पहली बार गैर कांग्रेसी संयुक्त मोर्चा सरकार बनी, जिसमें ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री थे। लेकिन साठ के दशक में नक्सलबाडी की आग ने वामपंथियो को यह सीख जरुर दे दी की बंगाल की जमीन वामपंथियो के भटकाव को भी बर्दाश्त नहीं करेगी। उस वक्त वजह भी यही रही कि सीपीआई के भटकाव से टूट कर निकली सीपीएम ने जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दो को ही अपनी राजनीति का पहला आधार बनाया। नक्सलबाडी की इस आग ने संसदीय राजनीति में चाहे सीपीएम को सफलता दे दी लेकिन आंदोलन की कमान उस दौर जिन एमएल और एमसीसी संगठनों ने थाम रखी थी, पहली बार यही दोनो धारायें एक साथ सीपीएम के खिलाफ बंगाल में हथियार उठाये हुये हैं।
राजनीतिक तौर पर सीपीआई एमएल पीपुल्स वार और एमसीसीआई 2004 में एक साथ हुये। लेकिन विलय के बाद बने सीपीआई माओवादी के लिये बीते पांच साल में यह पहला मौका है, जब राजनीतिक तौर पर वह सीधे सीपीएम को जमींदार और फासिस्ट करार दे कर हथियारबंद संघर्ष के जरीये चुनौती देने को तैयार है । जाहिर है सीधे राज्य के खिलाफ इस तरह हथियारबंद संघर्ष नक्सलबाडी के बाद प्रयोग के तौर पर कहीं हुआ तो वह आंध्र-प्रदेश है । जहां नक्सली संगठन पीपुल्स वार ने राज्य को चुनौती दी तो संसदीय राजनीति में कांग्रेस से लेकर एनटीआर और 2004 में तेलगंनाराष्ट्वादी पार्टी ने चुनावी लाभ भी उठाया । लेकिन बंगाल की स्थिति इस बार सबसे ज्यादा जटील है। नंदीग्राम की आग को राजनीतिक तौर पर ममता बनर्जी ने सीधे किसी सोच के तहत ढाल नहीं बनाया। बल्कि पिछले चालीस साल की जो राजनीतिक ट्रेनिग बंगाल में सत्ताधारी वामपंथियो ने ही जनता को दी है, उसका असर यही हुआ कि जब वाममोर्चा सरकार जंगल-जमीन से जुडे मुद्दो को बिना सुलझाये ही आगे बढी तो सुलगते नंदीग्राम का राजनीतिक असर वामपंथी जनता में खुद-ब-खुद हुआ। और ममता बनर्जी को इसका चुनावी लाभ मिला। लेकिन ममता बनर्जी की राजनीतिक ट्रेनिंग वाम राजनीति के जरीये नहीं हुई है, इसलिये लालगढ़ की हिंसा के बीच जब ममता बनर्जी बंगाल में इस बात का ऐलान करती है कि हिंसा के जरीये समाधान नहीं हो सकता है और लालगढ में हथियार नहीं उठाये जाने चाहिये तो प्रतिक्रिया में कहीं ज्यादा हिंसा इस बात का भी संकेत दे रही है कि माओवादी ममता के जरीये वाममोर्चा के खिलाफ अपनी राजनीतिक लडाई को महज ढाल बनाना चाहते है न कि ममता के अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियों की लड़ाई लडना चाहते हैं । वही ममता बनर्जी उस राजनीतिक माहौल को तो सूंघ पा रही है, जिसमें सीपीएम के खिलाफ ग्रामीण इलाको में तेजी से आक्रोष उभर रहा है मगर उस आक्रोष को कोई राजनीतिक जामा नहीं पहना पा रही है।
इस लडाई में ममता का संकट दोहरा है। एक तरफ वैचारिक तौर पर तृणमूल कांग्रेस की कोई पहचान नहीं है, सिवाय कांग्रेस के टूट कर दल बनाने से और दूसरी तरफ ममता ने उसी कांग्रेस का हाथ थाम रखा है, जिसके साथ सीपीएम से फूटा गुस्सा जा नहीं सकता है। यानी पहले नंदीग्राम और अब लालगढ से निकले मुद्दे ममता की राजनीति को साध रहे है । ममता भी राजनीतिक भाषा में वाम लहजे का इस्तेमाल कर रही हैं, जो जमीन-जंगल से जुडे किसान-मजदूर-आदिवासी और गांववालों को अछ्छी लग रही है। लेकिन बंगाल की जमीन पर वाम और अतिवाम की लडाई में ममता महज प्यादा हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । क्योंकि सीपीएम जिस नयी पीढी का सवाल उठाकर आर्थिक सुधार की दिशा में कदम बढा रही है, वह पीढी मंदी के दौर में देश में रोजगार छिनने वाले माहौल को बकायदा देख रही है। बंगाल की इस युवा पीढी का लालन-पालन भी वामसमझ वाले परिवार और माहौल में हुआ है । इसलिये बंगाल में नये सवाल देश के दूसरे हिस्सो की तुलना में कहीं तेजी से उठते हैं। खासकर मुद्दों को अगर राजनीतिक पंख लग जाये तो बंगाल की एकजुट समझ भी खुल कर सडकों पर ही निकलती है । इसका असर सामाजिक तौर पर किस तेजी से हो रहा है, यह लालगढ के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। जहां सीआरपीएफ के बासठ कैंप गांव और जंगल में चुनाव के बाद से ही लगा दिये गये थे । लेकिन जब नारे लगे की पुलिस -सेना जमींदार के लिये है तो गांव से सुरक्षाकर्मियों को 12 कैंप इसलिये समेटने पड़े क्योंकि गांववालों ने खाना-पानी बंद देना और कैंप तक पहुंचने देना भी बंद कर दिया । इसका असर शहर में भी दिखायी दिया खासकर उन जिलो में जहा राशनिंग लूट हुई थी। सीआरपीएफ को देख कर शहरों में यह सवाल तेजी से घुमड़ने लगा कि अगर वाममोर्चा विकास के नाम पर खेत और जमीन को खत्म कर देगे तो मुश्किल और बढेगी । वहीं किसान-मजदूर अगर मारा जायेगा तो खेती करेगा कौन।
राज्य के सत्रह जिले ऐसे हैं, जहां खेती न हो तो जिन्दगी की गाड़ी चल नहीं सकती है । इन जिलों में गरीबों की तादाद का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि साठ फिसद घरों में बीपीएल कार्ड है और निन्यानवे फिसद परिवारो के घर राशन का ही चावल-गेंहू आता है । और सत्ताधारी वामपंथियो के लिये कैडर बनाने और जुटाने की सौदेबाजी का आधार भी पेट भरने के साधन जुटाने पर आ टिकता है। यानी बीपीएल कार्ड सीपीएम कैडर के पास होगा ही । राशन की लूट में उसी कैडर को अन्न मिलेगा जो सत्ता के लिये काम कर रहा होगा। जाहिर है जब वाम राजनीति पेट की परिभाषा पर टिकी होगी तो जिसमें बल होगा वहीं असल वामपंथी भी हो जायेगा। चूंकि राज्य की सत्ता की ताकत के सामने हर कोई बौना है और राज्य के आंतक के सामने हर आंतक छोटा है तो ऐसे में सत्ताधारी अगर कमजोर होगा तो पेट की जरुरत वैचारिक आधार बदलने में कितनी देर लगायेगी । असल में नंदीग्राम और लालगढ की राजनीति से बंगाल की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सीधे जुड़ी हुई है । इसलिये चुनाव में जैसे ममता बनर्जी मजबूत हुई हैं, सीपीएम का कैडर ममता के साथ हथियार लेकर खड़ा होने से नहीं कतरा रहा है। वहीं ममता की यही जीत सीपीएम को कमजोर करने से ज्यादा माओवादियो को मजबूत कर रही है, क्योकि बंदूक तले वह राज्य की पुलिस से दो दो हाथ कर रहे है और जिले-दर-जिले ममता के साथ जुड़ने वाला सीपीएम कैडर प्रमोशन पाकर पेट के लिये कहीं ज्यादा लाभ समेट रहा है। वाममोर्चा के कैडर के चक्रव्यू को भेंदते हुये लालगढ से माओवादी कोलकत्ता तक अब नक्सलबाडी की तर्ज पर उस राजनीति को हवा देने में लग गये हैं, जहां राज्य मान ले कि हथियार जनता ने उठा लिये हैं।
चूंकि गांव समिति से लेकर जिला कमेटी तक के स्तर पर कामकाज देखने वाले कैडर के पास हथियार रहते हैं और चुनाव से पहले इलाको के कब्जे की राजनीति इसी हथियार के भरोसे चलती है, इसे हर राजनीतिक दल का कैडर जानता सतझता है । चूकि सत्ताधारी सीपीएम कैडर के पास सबसे ज्यादा हथियार हो सकते है, इसी आधार पर माओवादियो ने अपनी रणनीति के तहत गांव वालों को उकसाना भी शुरु किया है जिससे सीपीएम दफ्तरों और नेताओं के घरो में आग लगा कर हथियार समेटे जा रहे है । लालगढ के इलाके में अगर सीपीएम कैडर का पूरी तरह सफाया हुआ है तो उसकी बडी वजह उनके हाथों से हथियारों का जाना भी है और ग्रामीणो का हाथ में हथियार उठाकर माओवादियो की सभा में नारा लगाना भी।
ऐसे में सवाल सिर्फ लालगढ के जरीय माओवादियो के हथियारबंध संघर्ष के नारे भर का नहीं है। बल्कि मुश्किल परिस्थितयाँ उस आने वाले टकराव को लेकर बन रहे राजनीतिक माहौल की हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों में लूट के लिये बड़े कारपोरेट घरानों को लाइसेंस दे रही हैं और चार फसली खेती योग्य जमीन पर उद्योग लगा कर रोजगार पैदा करने का स्वांग रच रही हैं। जबकि बंगाल का सच यही है कि वहां वो नारे भी दम तोड चुके हैं, जिसके भरोसे कांग्रेस रोजगार क्रांति का सपना संजोये है। क्या ऐसे में बंगाल में वामपंथियों और माओवादियों का संघर्ष देश की राजनीति को साध पायेगा, यह नया सवाल बंगाल की जमीन पर वाम राजनीति को समझने वाला बौद्धिक तबका खड़ा कर रहा है क्योंकि उसे लगने लगा है जब प्रतिक्रियावादी ममता बनर्जी की सलाहकार नक्सली महाश्वेता देवी हो सकती हैं, तो भविष्य में नयी राजनीतिक जमीन माओवादियो के लिये कुछ नयी परिस्थितियाँ पैदा भी कर सकती है।
Friday, June 12, 2009
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बीजेपी के ग्राउंड जीरो पर मोदी-आडवाणी |
जिस युवा राजनीति का सवाल कांग्रेस के भीतर उफान पर है, वह उफान ‘हिन्दुत्व की प्रयोगशाला’ के राज्य गुजरात में बीजेपी के गढ़ राजकोट में अर्से से है। राजकोट में कम्प्यूटर साइंस से लेकर बिजनेस मैनेजमेंट और मेडिकल से लेकर बीपीओ से जुडा युवा तबका बीजेपी का झंडा उठाने से नही चूकता लेकिन लहराते झंडे में संघ की वैचारिक समझ देखना चाहता है। आरएसएस की इस राजनीतिक ट्रेनिंग का असर कमोवेश समूचे सौराष्ट्र में है। इसका केन्द्र राजकोट है और वजह भी यही है कि बीजेपी ने कभी राजकोट सीट नहीं गंवायी।
लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी राजकोट में कांग्रेस से हार गयी। बीजेपी के युवा कार्यकर्त्ताओ की माने तो बीजेपी कांग्रस से नहीं बीजेपी के कांग्रेसीकरण से हार गयी। और सौराष्ट्र में बीजेपी का मतलब है नरेन्द्र मोदी। तो पहली बार गुजरात में संघ और बीजेपी के भीतर यह सवाल जोर-शोर से कुलबुला रहा है कि नरेन्द्र मोदी का भी कांग्रेसीकरण तो नहीं हो रहा है?
कांग्रेसीकरण का सवाल चुनाव को लेकर बनायी गयी रणनीति और चुनाव के बाद देश की राजनीति में मोदी की अपनी भूमिका के तौर तरीको को अपनाने से है। सौराष्ट्र में बीजेपी और आरएसएस ही नहीं किसी भी तबके के बीच बैठते-घूमते हुये कोई भी नरेन्द्र मोदी की गैर मौजूदगी में भी मोदी का एहसास कर सकता है। द्वारका में द्वारकादीश मंदिर के बाहर मनीष की पान की दुकान हो या पोरबंदर में गांधी के जन्मस्थल वाले मोहल्ले में दिनेश सर्राफा की दुकान या फिर सोमनाथ में सोमेश का एसटीडी बूथ...हर जगह नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर को दुकान में चस्पा कर दुकानदार गर्व भी महसूस करता है और सामाजिक अकड़ भी दिखाता है।
युवा तबका मोदी के साथ तस्वीर खिंचा कर अपने घेरे में अपनी अकड दिखाने से नही चूकता तो बच्चे और महिलाएं मोदी के हस्ताक्षर लेकर मोदी की नायक छवि को बरकरार रखते हैं। नायक की यह छवि मोदी की किस्सागोई से भी जुड़ चुकी है। मसलन सड़क से गुजरता मोदी का काफिला आम लोगो की आवाजाही नहीं रोकता। सडक पर कोई दुर्घटना हो तो लोगो की आवाजाही चाहे जारी रहे लेकिन मोदी का काफिला रुक जाता है और घायलों का कुशलक्षेम पूछ कर ही आगे बढ़ता है। मोदी की लोकप्रियता का यह अंदाज मोदी को आरएसएस की उस राजनीतिक ट्रेनिंग से अलग खड़ा करता है, जिसमें वैचारिक शुद्दता के साथ आदर्श समाज की परिकल्पना हो। जिसमें संगठन और हिन्दुत्व समाज का भाव हो। ऐसा नहीं है कि अपनी लोकप्रियता को इस तर्ज पर देखने के लिये मोदी ने कोई खास रणनीति अपनायी। असल में आरएसएस की राजनीतिक ट्रेनिंग और बीजेपी की राजनीति ने जहां दम तोडा, वहां नयी पीढी और आर्थिक सुधार के बाद बनते नये सामाज की जरुरतों को मोदी ने थामा । इसलिये मोदी का संकट दोहरा हो गया। एक तरफ मोदी की प्रयोगशाला में संघ ने भी खुद को झोंका और रास्ता न पाकर बीजेपी भी नतमस्तक हुई। वहीं, दूसरी तरफ इस प्रयोगशाला की हर कैमिकल थ्योरी मोदी ही रहे तो मोदी को देखने का नजरिया भी हर तबके ने अपने अपने तरीके से अपनाया। किसी के लिये मोदी हिन्दुत्व का झंडाबरदार रहे तो किसी के लिये विकास का प्रतीक तो किसी के लिये बालीवुड के नायक सरीखे हो गये।
इस अंदाज ने मोदी को भी बरगलाया। जिन्हें टिकट दिया गया, उनका वास्ता संघ से रहा नहीं और सामाजिक पहचान बीजेपी के बीच की है नहीं। हां, बाजार और पूंजी से पहचान बनाने वाले बीजेपी के उन समर्थको को मोदी ने न सिर्फ टिकट दिया बल्कि गुजरात बीजेपी में उनकी राजनीतिक हैसियत भी बढ़ायी। राजकोट के उम्मीदवार किरण पाटिल इस सोच के प्रतीक हैं, जो पैसे के बूते बीजेपी का टिकट तो पा गये लेकिन बीजेपी के भीतर ही वोट ना मिलने से हार गये । असल में आरएसएस ने गुजरात में जो राजनीतिक ट्रेनिंग दी, उसमें हर जिले में ऐसे पैसे वालों की भरमार है, जो संघ या बीजेपी की कार्यशाला या बैठकों को सफल बनाने के लिये हर तरीके से भौतिक इंतजाम करते रहे हैं।
मोदी ने पूंजी और राजनीति को मिलाकर उन्हें ही राजनीतिज्ञ बना दिया, जो कल तक पार्टी के इंतजाम का खर्चा उठाते-देखते थे । बीजेपी के इन नये कर्ताधर्ता के राजकरण के तौर तरीके कांग्रेसी सरीखे हैं। जिसमें आरएसएस की सामाजिक सोच नहीं बल्कि सत्ता बनाये रखने के तौर तरीके चलते हैं। यह तरीके बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता के बीच खायी लगातार चौड़ी भी करते जा रहे हैं। कार्यकर्ता की समझ या उसके सुझाव या उसकी जरुरत लोकप्रिय मोदी स्टाइल के आगे कोई मायने नहीं रखते क्योकि कार्यकर्ता जहां के सवाल खड़ा करता है, वहां से या तो मोदी सीधा संपर्क बनाने की दिशा में हीरो की तरह जाते हैं.या अपने नये राजनीतिक करिन्दो के जरीये राजनीति टटोलते हैं। यह स्टाइल मोदी को घेरे समूह में भी है। यानी मोदी जैसा ही उसे घेरे लोग भी बनना-दिखना चाहते हैं। तो हर का वास्ता स्टाइल से होता है ना कि मोदी से।
कल तक जो घन्नसेठ फक्कड और मुफलिस संघी स्वसंसेवक या बीजेपी नेता को अपने घर में ठहरा कर भोजन करा कर घन्य समझता था, वही सेठ नेता बनने के लिये अब जोड-तोड़ भी कर रहा है और वैचारिक तौर पर खुद को ज्यादा समझदार नेता भी मान रहा है और फक्कड-मुफलिस संघी को बाहर से ही बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं चूक रहा। चूंकि मोदी ही सर्वसर्वा हैं और उन तक सीधी पहुंच उस तबके की है तो वह भी कार्यकर्ता-नेता को कुछ नहीं समझता। चूंकि दंगों से उपजी हिन्दुत्व प्रयोगशाला का पाठ बीजेपी की राजनीति के लिये ज्यादा देर तक फायदेमंद हो नही सकता है, इसलिये बीजेपी से पहले मोदी ने ही नये राजधर्म के नये-नये तौर तरीके अपनाये । जिससे 2002 की पहचान का तमगा ही छाती पर न टंगा रहे । इसलिये 2009 तक आते आते मोदी ने विकास का खांचा उस नयी अर्थव्यवस्था के ही इर्द-गिर्द ही रचा, जिसके खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच काम करता रहा है। जिसमें वैकल्पिक आर्थिक खांचा खड़ा कर स्वावलंबन का सवाल है। खेती और उघोगों के सामानांतर समाज के हर तबके को भी एक साथ खड़ा करने का सवाल है । वहीं, मोदी के अंदाज ने सौराष्ट्र के एनआरआई समेत उस क्रीम तबके को पकड़ा, जिसकी जरुरत विकास का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की थी । जिसके लिये वह फंडिंग के लिये भी तैयार है।
मोदी ने उघोगोपतियो को रिझाने के लिये सौराष्ट्र की जमीन का एनओसी खुद ही बांटे। उघोगों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का जिम्मा भी खुद उठाया। उघोगों तक बेहतरीन सड़क बनाने की रफ्तार भी अपने हाथ में रखी। भ्रष्टाचार या कमीशनखोरी के बंदरबांट को सीधे सत्ता से जोडा। और सत्ता को भी इस तबके ने हिस्सेदारी दे दी। इसका बेहतरीन उदाहरण पोरबंदर में देखा जा सकता है, जहां सबसे ज्यादा एनआरआई हैं। तो पोरबंदर जिला भी है और औघोगिक विकास की नगरी भी। बडे किसान भी है और किसान-व्यापारी मोदी स्टाइल के प्रतीक भी हैं। असल में नरेन्द्र मोदी राजनीति एक स्टाइल है, जो गुजरात में पांच करोड़ गुजरातियों का नाम तो लेता है लेकिन सामाजिक तौर पर महज पचास लाख गुजरातियों के जरीये बाकियों को इस स्टाइल को अपनाने पर ही टिका देता है। ऐसे में सत्ता की कार्यप्रणाली भी संगठन से इतर इसी स्टाइल पर आ टिकी है जो व्यक्ति विशेष को देखती है न कि किसी विचारधारा या सांगठनिक तौर-तरीको को।
मोदी स्टाइल सत्ता बरकरार रखने का एक ऐसा तरीका है, जो पार्टी या विचारधारा से हटकर एक तबके को मुनाफे की थ्योरी समझाता है तो दूसरे तबके को मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लालायित करता है। जो बच जाते हैं, उन्हे संभावना और आशंका के बीच तब तक झूलाता है ज बतक उसपर कोई और राजनीति अपना मुलम्मा ना चढ़ा ले। राजनीतिक तौर पर बीजेपी के लिये यह शार्टकट का रास्ता हो सकता है लेकिन पांच करोड गुजरातियों और सवा सौ करोड़ भारतीयों के अंतर को समझना होगा, जो ना तो बीजेपी समझ पायी न ही लाल कृष्ण आडवाणी समझ पा रहे है।
सत्ता का रास्ता बीजेपी के लिये तभी तक मान्य है, जबतक वह कांग्रेस की बनायी लीक का विकल्प दे सके। असल में बीजेपी सत्ता के लिये अपनी उस लकीर को ही मिटाना चाह रही है, जो कांग्रेस की राजनीति से अलग बन रही थी। कांग्रेस के एनजीओ स्टाइल के सामानांतर संघ के करीब चालीस संगठन और को-ओपरेटिव व्यवस्था का जो खांचा बीजेपी को राजनीतिक लाभ पहुचा सकता था, उसे बीजेपी ने खुद ही तोडा । हिन्दुत्व की प्रयोगशाला या मंदिर निर्माण कांग्रेस की राजनीति का विकल्प नहीं हो सकते बल्कि सामाजिक तौर पर भावनात्मक उभान जरुर पैदा कर सकते हैं। लेकिन इस उभान का राजनीतिक लाभ तभी मिल सकता है, जब सामाजिक तौर पर वैकल्पिक राजनीति की जमीन हो। असल में भगवा कांग्रेसीकरण ने इसी जमीन को हड़पा है। जिसमें गुजरात में मोदी हो या दिल्ली में आडवाणी दोनो ने विकल्प का सारा ताना-बाना खुद के ही हर्द-गिर्द बुनने की जबरन कोशिश की है।
इस हकीकत को कोई समझ नही पा रहा है कि आरएसएस अगर खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन कहता है तो उसका राजनीतिक पाठ समाजिक शुद्दीकरण और सांगठनिक विचार को ही राजनीतिक सत्ता मानता है। जो कांग्रेस की संसदीय राजनीति की थ्योरी से हटकर है । इसलिये संघ का वोट बैंक भगवा कांग्रेसीकरण यानी बीजेपी का वोटबैंक नही हो सकता। इसलिये सवाल यह नहीं है कि आडवाणी हार गये है और मोदी भी उसी राह पर हैं। बड़ा सवाल यह है कि एक तरफ कांग्रेस है तो दूसरी तरफ संघ । वाजपेयी ने संघ की समझ को सूंड से पकड कर सत्ता भोगी और आडवाणी ने संघ की समझ को पूंछ मान कर खुद को ही मजबूत नेता माना । राजकोट की हार बताती है कि मोदी भी इसी राह पर है। लेकिन बीजेपी के ग्राउंड जीरो पर खडे होकर महसूस किया जा सकता है कि भविष्य का सवाल बीजेपी की राजनीति या मोदी की राह की नहीं बल्कि आरएसएस के आस्तित्व का है । जिसका नया पाठ मुद्दा के आसरे राजनीति को खडा करना है ना कि राजनीति के आसरे मुद्दो को ताड़ना ।
(गुजरात से लौटकर)
Monday, June 8, 2009
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भरोसे की बात है मनमोहन जी |
राष्ट्रपति भवन के अशोका हाल में उस शख्स के लिये कुर्सी नहीं थी, जिसने बीते तीन महिने के दौरान देश-दुनिया में हर माध्यम से इस बात का प्रचार किया कि भारत की सबसे महत्वपूर्ण और ऊंची कुर्सी के वही दावेदार हैं। पीएम-इन-वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी ने सोचा भी न होगा कि प्रधानमंत्री के शपथ लेते वक्त उनके लिये कोई प्रोटोकॉल अधिकारी कुर्सी उठाये हुये पहुंचेगा और पहले दूसरी फिर पहली कतार में लगाकर आग्रह करेगा कि आप इस कुर्सी पर बैठकर अपने कहे के मुताबिक देश के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री को दोबारा प्रधानमंत्री बनते हुये देखिये।
जनादेश के बाद हर स्थिति कैसे बड़े बड़े नेताओं को खामोश कर देती है, यह उसका नजारा था। लेकिन जिस राजनीति का हवाला देकर मनमोहन सत्ता में लोटे या फिर जिस राजनीति के आसरे आडवाणी सत्ता चाहते थे, दोनों का रिश्ता आम आदमी से कितना जुड़ा हुआ था, यह बात कहने के लिये किसी तर्क-वितर्क की जरुरत नही है बल्कि देश के सामाजिक-आर्थिक हालात खुद ही सबकुछ बयान कर देते हैं। किसान-मजदूर-छोटे व्यापारी-नौकरी पेशा तबका, रोजगार की तालाश में भटकता युवा वर्ग, उच्च शिक्षा लेने के बाद भी बेरोजगारी का दर्द यानी किसी भी तबके के भीतर झांक कर कोई भी देख सकता है कि स्थिति बद से बदतर हुई है। हर तबके के भीतर यूरोप के कई देश समा सकते है जो न्यूनतम जरुरत की लड़ाई लगातार लड़ रहे हैं। लेकिन यह मनमोहन की इक्नॉमिक्स का ही खेल है कि भारत में सिर्फ एक ही तरह का यूरोप देखा गया, जो उपभोक्तावादी है। और उसी आसरे विकसित होने का सपना भी देश ने रचना शुरु किया। और नयी परिस्थितियों में तो नया मंत्र उभरा कि सरकार के बदले पूंजी पर टिक कर जीवन चलाया जा सकता है। यानी निजीकरण से उपजी मुनाफे की थ्योरी ने इस मंत्र को हर आम आदमी के कान में फूंक दिया कि सरकार का मतलब कुछ भी नहीं है अगर आपकी जेब और तिजोरी भरी हुई है।
असल में पैसे से पैसा बनाने के आर्थिक सुधार का जो खेल मनमोहन सिंह ने शुरु किया और पिछले पांच साल के दौरान इस खेल में जितनी पारदर्शिता लायी गयी उसने ही जनता को प्रेरित भी किया कि बिना प्रोटोकाल के पीएम की कुर्सी मनमोहन सिंह के लिये रख दे। आम चुनाव में कोई प्रोटोकाल नही होता इसलिये वह भावनाओ के आसरे चलता है। आडवाणी भी भावनाओ के आसरे चुनाव का खेल खेल रहे थे और मनमोहन सिंह भी भावनाओ को उभार रहे थे। अंतर सिर्फ इतना था कि आडवाणी की भावनाये मन और दिल के इर्द-गिर्द रची जा रही थी, जिसका भूख-रोटी-रोजगार से लेकर शिक्षा-स्वास्थ्य-पीने के पानी तक से कोई सरोकार नहीं था और मनमोहन सिंह सीधे भावनात्मक आर्थिक थ्योरी के जरीये नश्वर शरीर में ही भावना भरके उसे ही साधे हुये थे। जहां सबकुछ गंवाने का डर था, सुविधा का बंसी और मुनाफे का नगाड़ा खत्म होने का भय था। आर्थिक सुरक्षा के खतरे में पड़ने का भय था लेकिन यहां नैतिकता और कल्याणकारी राज्य कोई मायने नही रखते पा रहे थे।
सवाल यह नही है कि अयोध्या की नगरी वाले राज्य में ही मंदिर की भावना ही चूक गयीं। सवाल यह भी नहीं है कि जातीय तौर पर सुरक्षा और सुविधा की राजनीति भी चूक गयी । बड़ा सवाल यह है कि जिस भावना को मनमोहन ने जगाया है और राहुल गांधी उसे नये तरीके से परिभाषित करने में लगे है अब वह रास्ता सिर्फ कांग्रेस की राजनीतिक लीक बनायेगा या फिर देश को नये सिरे से जोड़ेगा। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि राहुल गांधी ने संसद में जिस कलावती का नाम लेकर चेताया था, उसी लोकसभा सीट पर कांग्रेस की नहीं चली। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदर्भ के जिस इलाके में जाकर खुदकुशी करते किसानो के लिये राहत पैकेज का ऐलान करते हैं, वहां भी कांग्रेस हार गयी। सोनिया गांधी खुदकुशी करते परिवार को सातंवना देने जिस बस्ती में गयीं, वहा भी कांग्रेस नहीं जीती। विदर्भ की दस में पांच सीटो पर कांग्रेस-एनसीपी हारी है। मनमोहन सिंह का पैकेज विदर्भ के जिन 31 ताल्लुका को केन्द्रित में रख कर बांटा गया, उसमें से 28 ताल्लुका में कांग्रेस को हार मिली है। यहां सवाल यह नहीं है कि इन सीटो पर बीजेपी या शिवसेना जीत गयी। आगे का रास्ता बिना प्रोटोकॉल के पीएम की उस कुर्सी की दिशा में ही जाता है, जो मनमोहन को मिली है। कुर्सी न मिलने से आडवाणी इतने निराश है कि वह राष्ट्पति भवन में प्रोटोकाल अधिकारी को डपट भी न सके, जो उनकी विपक्ष के नेता की कुर्सी से भी खेल खेल रहा था। ऐसे में आम आदमी अब आडवाणी से गुहार कैसे लगायेगा । लेकिन जनादेश लेकर सत्ता संभाले पीएम या गांधी परिवार की पहल अब क्या होगी । खासकर जब पीएम के सामने कोई कामन मिनिमम प्रोग्राम का डर नहीं है और गांधी परिवार के बच्चे भी अब लोकप्रिय हो चुके हैं। मनमोहन सिंह अभी तक टारगेट पूरा करने का ही शासन चलाते आये हैं। जाहिर है आंकडो की बाजीगरी टारगेट पूरा तो करा सकती है लेकिन पथरीली जमीन को उर्जावान नहीं बना सकती।
मनमोहन की इकनॉमी किसानों को एग्रेसिव फार्मिंग की दिशा में ले जा रही है। रोटी के लिये नगदी फसल की दिशा में बढ़ते किसानो को पता है कि उनका जीवन मौसम पर टिका है जो जरा सा इधर उधर हुआ तो सबकुछ तहस नहस हो जायेगा । क्या मनमोहन सिंह सादी खेती यानी अनाज की खेती को राहत दिलाने के पक्ष में है । क्या उन्हे बढ़ावा देने के लिये कोई व्यवस्था की जा सकती है। नाबार्ड के पास किसान की जरुरत मुताबिक बजट नही है । बैंक का कर्जा चुटकी भर काम कर रहा है । दो लाख का कर्ज चाहने वाले किसान को बैंक से बीस हजार से ज्यादा मिलते नहीं । बाकि एक लाख अस्सी हजार लेने वह किसी ना किसी बनिये के पास जाता ही है और खेती के लिये सरकारी इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐसा है कि खेती बाजार तक पहुंचते पहुंचते उसे खुदकुशी की दिशा में ले जाती है। ग्रामीण रोजगार तो दूर की बात है खेती के लिये समुचित पानी और बिजली तक की व्यवस्था नही है। ग्रामीण इलाकों के शहरीकरण का रास्ता तो मनमोहनी व्यवस्था ने दिखाया है, लेकिन इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यादा सामाजिक तनाव है। नरेन्द्र मोदी जिस गुजरात में सबसे ज्यादा शहरों को बनाने की बात कहते हैं, इन्हें वहीं चुनावी जीत नहीं मिल पाती। सबसे विकसित शहरो में अव्वल सूरत शहर में डायमंड वर्कर बेरोजगार होने पर आत्महत्या करता है तो अहमदाबाद से लेकर दिल्ली तक की कोई आर्थिक नीति उसे राहत नहीं दिला पाती। यानी आर्थिक नीतियो ने कहीं यह साबित नहीं किया है कि वह मंदी में रास्ता कैसे निकालेगी। वहीं मनमोहनी अर्थव्यवस्था की पीठ इसलिये भी ठोंकनी चाहिये कि उसने पांच साल तक जब खेती और किसानी को देखा ही नहीं तो मौसम और जमीन के बूते खडी कृर्षि अर्थव्यवस्था से जुडे करोडों लोगो भी जमीन से ही जुड़े रहे और बाजार में उपभोक्ता नहीं बन पाये । और मंदी में जब इसी खेती ने देश का पेट भरे रखा और अराजकता को देश में आने से रोका तो यूरोपीय अर्थशास्त्रियों ने भारतीय अर्थ-गणित की पीठ ठोंकी । लेकिन इस दौर में खेती को खत्म करने की अर्थव्यवस्था ने खेती पर टिके व्यापारियो की भी कमर तोड़ी और खेती पर टिके सौहार्दपूर्ण समाज में भी पहले तनाव फिर हिंसा पैदा की । महाराष्ट्र एक अच्छा उदाहरण है, जहां ग्रामीण इलाकों का शहरीकरण हो रहा है। शहरों को बनाने के लिये खेती की जमीन पर कंक्रीट के जंगल बिछ रहे हैं। विकास का खांचा औघोगिक नगरो को बनाना चाह रहा है तो बैंक से लेकर हर सरकारी संस्थान के लिये चक्कर लगाती अर्थनीति में शरीक होना महत्वपूर्ण हो गया है। क्षेत्रों का असमान विकास बिजली और पानी की धोखाधडी से नहीं चूक रहे हैं। विदर्भ की बिजली पिंपरी-पूना चली जा रही है तो मराठवाडा का पानी पशिचमी इलाकों को तर कर रहा है । सरकार की तमाम योजनाएं अधूरी हैं। कागजों पर खानापूर्ती का खेल खुला है। इसलिये जांच और इनक्वायरी कमेटियां भी बैठी हुई हैं। इंदिरा आवास योजना से लेकर अंत्योदय योजनाओं तक में घपला है और राजनीतिक पटल पर यह राजनीति का औजार बना हुआ है। पूरी व्यवस्था में मॉनिटरिंग ही गायब है। यानी सरकार देश में योजनाओ के जरीये हर तबके को रोजी-रोटी और घर देने के लिये प्रतिबद्द है, यह संवाद पीएमओ या दस जनपथ से कुछ इस तरह स्वच्छंद होकर निकलता है कि योजना का नाम है..बस यही काफी है । पूरा हो रहा है या नहीं इसे देखनेवाला या इसकी फिक्र किसे है। प्रियंका के तेवर इंदिरा गांधी सरीखे हैं या सोनिया गांधी ने भी इंदिरा की तर्ज पर लगातार दो चुनाव जीत लिये, यह सच बार बार कहा तो जा सकता है लेकिन इंदिरा ने जिस तरह कभी बैंको को हड़काया था । या फिर योजनाओं के पूरा न होने पर नौकरशाही की नकेल कसी थी, यहा तक की मुख्यमंत्रियों को भी सीधे योजनाओ के क्रियान्वयन से जोड़ा था। वह तेवर फिलहाल गांधी परिवार में नदारद है।
इसकी वजह सरकार में परोक्ष हस्तक्षेप का ना होना भी हो सकता है लेकिन दस जनपथ का प्रेम और राहुल की रणनीति जब एरे-गैरे को मंत्री बना सकती है तो योजनाओं और नीतिगत कार्यक्रम के पूरा न होने पर किसी मंत्री को डपट क्यो नहीं सकती । राहुल गांधी के तरीके युवाओ को भा सकते है लेकिन पथरीली जमीन पर वह कितने तार तार हैं, इसका एहसास तो आंध्र प्रदेश के चुनावी नतीजो में ही छुपा है । राहुल गांधी जिस चन्द्रबाबू नायडू को बेहतर बताते हैं, उसी नायडू को कांग्रेस के ही वाय एस आर रेड्डी चुनाव में पछाड़ कर दोबारा सत्ता में लौट आते है । नायडू ने सीमित दायरे में जो भी काम किया हो, लेकिन वाय एस आर अपने दौर में खेत-खलिहान की पगडंडियो पर नंगे पांव चले और समूचा आंध्र नापा । इस वजह से 2004 में उन्होंने अगर नायडू को पटखनी दी तो 2009 में वही वाय एस आर गरीबी की रेखा से नीचे खड़े लोगो की हर योजना को पूरा करते दिखे। इंदिरा आवास योजना का टारगेट ही पूरा नहीं किया बल्कि टारगेट से आगे जाकर उन लोगों को भी घर दिलवाया जिनके नाम बीपीएल में नहीं थे । मॉनिटरिंग खुद की और हर जिला अधिकारी को जिम्मेदारी दी । यही काम चन्द्रबाबू नायडू टेलीकान्फ्रन्सिंग के जरीये किये करते थे और वाहवाही या जिक्र काम का नही तकनीक का होता था।
राहुल गांधी केन्द्र से चले जिस पैसे को निचली पायदान तक पहुंचाने की बात करते है , वह दूर की गोटी है । क्योंकि सरकार का नजरिया उसी ग्लोबलाइजेशन की इकनॉमी में देश का सार टटोल रहा है जो मनमोहन ने समझायी है या फिर जनादेश की सफलता का पैमाना उसे ही बनाया गया। हो सकता है कि कांग्रेस इस बार जनादेश से डरी हुई भी हो क्योंकि मनमोहन सिंह ने पहले दिन से यह संकेत दिये है कि इसबार उनकी जिम्मदारी कहीं बड़ी है । लेकिन मंत्री पद संभालने के बाद देश के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी जब मंदी से लेकर ग्लोबल इकनॉमी में देश का अक्स खोजने की बात कह रहे हो फिर बड़ा सवाल यही होगा राहुल को आने वाले पांच सालो में या हर रात किसी झोपडी में गुजार कर सरकार पर दबाब बनाना होगा या फिर मनमोहन अपनी इकनॉमी को 180 डिग्री में उलट कर सीधे देश के उस खाद्दान्न और न्यूनतम जरुरत पर केन्द्रित कर दे, जहां रोटी और घर का फलसफा अभी भी अटका पड़ा है । या फिर उस भरोसे को अपनी पहल से जीवित कर दे कि देश के सत्तर करोड लोगों को लगे कि देश में सरकार है । क्योंकि पहली बार यह देश यह भी महसूस करने लगा है कि सार्वजनिक जीवन में रहते हुये जो राजनेता कभी आदर्श हो जाया करते थे अब वही खलनायक बन रहे हैं। इसलिये मनमोहन की पहली चुनौती मंदी से निपटना नहीं भरोसे को पैदा करना है, जिसके लिये दिल में देश को बसाना होगा। अन्यथा राष्ट्रपति भवन में आडवाणी की कुर्सी से खेलते प्रोटोकाल अधिकारी की तरह जनता भी कुर्सी खींच कर कोई नया खेल शुरु कर देगी।
Tuesday, June 2, 2009
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क्या करे मनमोहन सरकार ? |
जंबो मंत्रिमंडल ने रन-वे पर दौड़ना शुरु कर दिया है। इससे पहले की वह उड़ान भरे और आसमान से समूचा देश एक सरीखा ही लगे, उससे पहले देश के भीतर बन चुके दो देश और जमीनी हालत पर अपनी ताकत का एहसास पायलट को होना चाहिये। यह एहसास रेल और आम बजट को पेश करने से पहले होना जरुरी है। देश के जो हालात हैं, उसमें मनोहारी बजट से लुभाने के बदले एक ऐसा विजन होना जरुरी है, जो लागू करा सकने वाली नीतियो के आसरे असल ताकत का एहसास करा सके। चूंकि सरकार पर असल सरकार की भी नजर है, जो जनादेश को भरोसा दिला रही है कि इस बार आर्थिक-सामाजिक तौर पर बंट रहे देश को पाटा जायेगा इसलिए रन-वे पर दौड़ती सरकार को पहली बार शहरी नहीं गांव का चश्मा पहनना होगा। इस चश्मे से वो शेयर बाजार या कारपोरेट थ्योरी से इतर इन्फ्रास्ट्रक्चर को देखेगा।
सरकार का टारगेट सीधा और साफ होना चाहिये और प्रयोग एकदम नया। देश की मिट्टी में अभी भी इतनी उर्जा है कि मंदी के भयानक दौर में भी वह सौ करोड़ लोगों का पेट भर सकती है। ऐसे में सवाल सरकार के नजरिये का है । काम के तरीको का है। और अपनी जमीन पर अपने संसाधनों के जरिए उस अर्थव्यवस्था को विकसित करना होगा, जो गांव और पिछड़े इलाकों से लोगो का पलायन रोके। हर को अपने घेरे में एहसास कराये कि वह देश की मुख्यधारा से जुड़ा है। यानी इलाको को लेकर सामाजिक-आर्थिक तौर पर असमानता न हो।
यहां से सरकार का टारगेट शुरु होता है। उसे सबसे पहले शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार को टारगेट करते हुये एक देश में बने दो देशो की दूरी को पाटने का नजरिया अपनाना होगा । जिन इलाको में न खेती है, न रोजगार, वहां विश्वविधालय खोलने की नीति सरकार को अपनानी होगी। यह क्षेत्र जमीन की खोजबीन और उस पर होने वाली बहस से सरकार को बचा देंगे। मसलन बुंदेलखंड सरीखे इलाके में अगर विश्वविधालय खोला जाता है, जो वह इलाका मुख्यधारा के इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ेगा ही। इसमें तीस फीसदी एडमिशन स्थानीय यानी अगल-बगल के चार पांच जिलो के बच्चों के लिये आरक्षित करना होगा, जिससे इन इलाको से दिल्ली-लखनऊ या भोपाल पलायन करने वाली युवा पीढी को भी रोका जा सके। इस दिशा में फायदे वाले मंत्रालयों को जोड़ना । मसलन रेलवे अपनी जमीन पर रेलवे कर्मचारियो के बच्चो के लिये यूनिवर्सिटी खोले। यह यूनिवर्सिटी विदर्भ में कलावती के जिले अमरावती में भी खुल सकती है या ऐसे ही किसी इलाके में। इसमें स्थानीय लोगों के लिये कुछ सीटों का आरक्षण हो। यह काम ओएनजीसी या फायदे और जरुरत वाले हर सेक्टर में भी किया जा सकता है । इनके शिक्षा संस्थान ट्रेनिग सेंटर सरीखे होगे । जिसमें से निकलने वाले छात्रों को टेक्निकल फील्ड में खापाया जा सकता है।
चूंकि देश की जरुरत के हिसाब से देखे तो टेक्निकल संस्थान न के बराबर हैं। जाहिर है इस क्षेत्र में मुनाफा भी इतना है कि निजी क्षेत्र इससे जुडने के लिये खदबदा रहा है । उन्हें जितनी सुविधा सरकार देती है, अगर उसका आधी सुविधा देते हुये भी फायदे वाले सार्वजिक उपक्रमो को इस क्षेत्र में लगाया जाये तो इसका दो-तरफा लाभ देश को मिल सकता है । एक तरफ कर्मचारियो का जुड़ाव अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर सार्वजिक उपक्रम से जुड़ेगा तो दूसरी तरफ ट्रेड युवाओं की मौजूदगी सेक्टर को पैर पसारने में मदद करेगा। यह प्रयोग बैकिंग सेक्टर में कहीं ज्यादा व्यापक हो सकता है । चूंकि बैकिंग सेवा को सिर्फ कम्प्यूटर से ही समूचे देश को जोड़ने के लिये और हर क्षेत्र में इसकी सेवा की व्यापक जरुरत के मद्देनजर इतनी बडी तादाद में लोगो की जरुरत होगी, जिसे सार्वजनिक उपक्रम के बैक खुद के ही तकनीकी शिक्षा संस्थान के जरीये पूरा कर सकते है। फिर बैकिंग ट्रेनिग संस्थान से निकले छात्रों को नेशनल सेक्यूरिटी एजेंसी से जोड़ा जा सकता है । जो आंतकवाद पर नकेल कसने में मददगार बने । क्योंकि इकनॉमिक ऑफेन्स को पकड़ने का तकनीकी ज्ञान अभी भी खासा कम है । बैंकिग की जानकारी वाला शख्स नाजायज ट्रांजेक्शन को पकड़ेगा तो आंतकी खुद पकड़ में आ जायेगा । जबकि अभी तक सरकार आतंकवादी के पीछे भागती है। ऐसे में आंतकवादी के मरने के बावजूद उसका स्ट्रक्चर बरकरार रहता है । सरहदों को लांघते आतंक को पकड़ने में बैकिंग तकनीक खासी सहायक होगी।
दूसरा क्षेत्र टेलीकॉम का है। टेलीकॉम का उपयोग देश के भीतर करने की स्थितियों को पैदा करना होगा। इनकी जरुरत इतनी ज्यादा है कि हर क्षेत्र अछूता है। सिर्फ देशी कंपनी विप्रो-इनफोसिस-टीसीएस-टेक महेन्द्रा को हर सेक्टर से जोडकर तकनीकी तौर पर मजबूत बनाने की पहल करनी होगी। जैसे---लॉ रिफार्म के लिये जरुरी है निचली अदालतो से लेकर हाईकोर्ट तक का कम्प्यूटरीकरण । इसकी बिडिंग कराके तत्काल देशी कंपनियो को काम सौंपने चाहिये। मुकदमों को लेकर जितने मामले हर दिन अदालतों में पहुंचते हैं और उसमें जितना पैसा एक स्टाम्प लगाने से लेकर दस्तावेज जमा करने में किसी भी गांव वाले से लेकर शहरी का होता है, अगर उसे अदालतों के सुधार से जोड़ दिया जाये तो धन की उगाही अदालतो के जरीये भी की जा सकती है ।
राज्यों को भी इससे जोड़ा जा सकता है । खासकर भूमि सुधार और निचली दीवानी अदालतो के कामकाज को लेकर । यह काम देशी कंपनियो से कराने की बात इसलिये क्योंकि पिछली सकार में ही देसी कंपनी को दरकिनार कर अमेरिका कंपनी आईबीएन को एक मामले में तरजीह दे गयी, जबकि अमेरिका में आईबीएन की जगह उसी भारतीय कंपनी को तरजीह दी गयी, जिसे मनमोहन सरकार के दौर में खारिज कर दिया गया। फिर विप्रो सरीखी कंपनियो के जरीये तो ग्रामीण इलाकों में नये विश्वविद्यालय के साथ ट्रेनिंग सेंटर भी खुल सकते है। और नारायणमूर्ति तो खुद इसके हिमायती हैं।
तीसरा सवाल कॉरपोरेट सेक्टर को देश से जोड़ना जरुरी है। बड़े कॉरपोरेट सेक्टर की पूंजी देश के भीतर के इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने के लिये निकलवाना जरुरी है। जब कॉरपोरेट घराने क्रिकेट टीम खरीद कर मुनाफा कमा सकते है तो देश के भीतर उन इलाको में स्टेडियम क्यो नही बनाये जा सकते जहां कोई दूसरा काम नहीं होता । उन्हे चमक-दमक की मुख्यधारा से जोड़ना होगा। जैसे----महाराष्ट्र में इन्टरनल पर्यटन जबरदस्त है। रेलवे को निजी हाथो के जरिए पर्यटन से जोड़ना चाहिये। सड़क और हवाई यात्रा के बाद देश के भीतर रेलवे में यह प्रयोग अभी तक हुआ ही नहीं है।
चौथा सबसे महत्वपूर्ण तथ्य जो जंबो मंत्रिमंडल को उडान भरने के बाद आसमान से दिखायी देगी ही नहीं, वह खेती का है । कृषि अर्थव्यवस्था को सरकार बोझ माने हुये है।
वजह सरकार का नजरिया है जो टारगेट ओरियेन्ट्ड है, जबकि मॉनेटिरिंग है ही नहीं । हर पैकेज और राहत के साथ पंचायती स्तर को मॉनेटरिंग के साथ जोड़ना होगा । ब्लाक डेवलपमेंट आफिसर से लेकर मुख्यमंत्री तक की जिम्मेदारी तय करनी होगी । जिसे इंदिरा गांधी ने अपने दौर में बखूबी किया। राहत और पैकेज को नाबार्ड और बैंक से इस निर्देश के सहारे जोड़ना होगा कि किसान की जमीन की जरुरत पूरी हो सके। फिलहाल बैक चुटकी भर मदद करते है तो किसान को असल मदद के लिये सूदखोरो और बनियो पर ही आश्रित रहना पडता है। इस चक्र को तोड़ना होगा। खेती को उघोग सरीखा तो मनमोहन सरकार ने बनाया नहीं उल्टे उसे उस बाजार से जोड़ दिया जहां एक ही शब्द की तूती बोलती है वह है मुनाफा। इस चक्कर में कैश क्रॉप में किसान हाथ जलाने निकल पड़े है। सरकार को सादी खेती या कहें अन्न उपजाने वाले किसानों को इन्सेन्टिव देना होगा। जिससे उनका मनोबल न टूटे और देश का पेट भरने की उनकी क्षमता भी बरकरार रहे। इस घेरे में एसआईजेड को भी लाना होगा। ग्रामीण इलाको में एसईजेड बने तो रोजगार के साथ साथ गरीब-ग्रामीण-पिछड़ों के रहने की व्यवस्था भी करे। पांच फीसदी जमीन पर इस तबके के लिये घरों को बनाना जरुरी करना होगा । जिसमें लगने वाला लोहा-सीमेंट-स्टील सरकार टैक्स फ्री दे, जिससे इस तरह की योजना शुरु होने पर गांव के गांव खाली ना होने लगे और शहर दर शहर की संख्या में इजाफा कर सरकार मनोहारी व्यवस्था का खाका खडा कर खुश ना होने लगे ।
और पांचवा सवाल स्वास्थ्य सेवा का है। हेल्थ सेक्टर को सीधे पिछड़े और ग्रामीण इलाको से जोड़ना जरुरी है । प्राइवेट हेल्थ सेंटरो को भी इसमें शरीक करना होगा । शुरुआत तुरंत हो इसके लिये रेलवे को भी भागीदार बनाया जा सकता है। क्योंकि रेलवे की जमीन और रेलवे की व्सवस्था ऐसी है, जहा लोग आसानी से पहुंच भी सकते हैं। हालांकि अस्पताल देश के किसी भी सुदुर इलाके में भी खुले तो भी वहां मरीज पहुंचेगा ही। लेकिन वह बेहतर होगा क्योकि मरने से पहले व्यक्ति शहर या गांव नहीं बल्कि बेहतर इलाज चाहता है और उसके लिये कहीं भी जाने को तैयार होता है । इसलिये सवाल सिर्फ अस्पताल का नहीं है कि वह शहर से दूर ग्रामीण इलाको में खोलने चाहिये। बल्कि हर सेक्टर को ग्रामीण इलाकों से जोड़ना इसलिये जरुरी है क्योकि यह स्थानीय इकनामी का पूरा केन्द्र बन जाते हैं। और पलायन भी रुकता है और युवा तबका मुख्यधारा के प्रयोग अपने इलाको में करने से नहीं चूकता । तो रन-वे पर दौडते जंबो मंत्रिमंडल के उडान से पहले पायलट मनमोहन सिंह जमीन की हकीकत समझ ले तो बेहतर है अन्यथा आसमान से तो देश एर सरीखा लगेगा लेकिन जब दोबारा जमीन पर जंबो को उतरना होगा तो रन-वे बचा भी नहीं होगा ।