Sunday, July 26, 2009

मीडिया, राजनीति और नौकरशाही का कॉकटेल

मीडिया को अपने होने पर संदेह है । उसकी मौजूदगी डराती है । उसका कहा-लिखा किसी भी कहे लिखे से आगे जाता नहीं। कोई भी मीडिया से उसी तरह डर जाता है जैसे नेता....गुंडे या बलवा करने वाले से कोई डरता हो। लेकिन राजनीति और मीडिया आमने-सामने हो तो मुश्किल हो जाता है कि किसे मान्यता दें या किसे खारिज करें। रोना-हंसना, दुत्काराना-पुचकारना, सहलाना-चिकोटी काटना ही मीडिया-राजनीति का नया सच है। मीडिया के भीतर राजनीति के चश्मे से या राजनीति के भीतर मीडिया के चश्मे से झांक कर देखने पर कोई अलग राग दोनो में नजर नहीं आयेगा। लेकिन दोनों प्रोडेक्ट का मिजाज अलग है, इसलिये बाजार में दोनों एक दूसरे की जरुरत बनाये रखने के लिये एक दूसरे को बेहतरीन प्रोडक्ट बताने से भी नहीं चूकते। यह यारी लोकतंत्र की धज्जिया उड़ाकर लोकतंत्र के कसीदे भी गढ़ती है और भष्ट्राचार में गोते लगाकर भष्ट्राचार को संस्थान में बदलने से भी नही हिचकती।

मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलो में है । अस्सी के दशक तक नेता अपनी इमेज साफ करने के लिये एक बार पत्रकार होने की चादर को ओढ़ ही लेता था, जिससे नैतिक तौर पर उसे भी समाज का पहरुआ मान लिया जाये। जागरुक नेता के तौर पर ...बुद्दिजीवी होने का तमगा पाने के तौर पर, पढ़े-लिखों के बीच मान्यता मिलने के तौर पर नेता का पत्रकार होना उसके कैरियर का स्वर्णिम हथियार होता, जिसे बतौर नेता मीडिया के घेरे में फंसने पर बिना हिचक वह उसे भांजता हुआ निकल जाता।

नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के दौर में कई प्रधानमंत्रियो और वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर कहा कि वह पत्रकार भी रह चुके हैं। आई के गुजराल और वीपी सिंह भी कई मौकों पर कहते थे कि एक वक्त पत्रकार तो वह भी रहे हैं । लेकिन नया सवाल एकदम उलट है। एक पत्रकार की पुण्यतिथि पर कबिना मंत्री मंच से खुलकर कहता है कि उन्हें मीडिया की फ्रिक्र नहीं है कि वह क्या लिखते हैं क्योकि पत्रकार और पत्रकारिता अब मुनाफा बनाने के लिये किसी भी स्तर तक जा पहुंची है। अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। राजनेता की यह सोच ख्याली कह कर टाली नहीं जा सकती है । हकीकत है कि इस तरह की पत्रकारिता हो रही है ।

लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।

लेकिन पत्रकारिता के घालमेल का असल खेल यहीं से शुरु होता है । मीडिया को लेकर पिछले एक दशक में जितनी बहस मीडिया में ही हुई उतनी आजादी के बाद से नहीं हुई है। पहली बार मीडिया को देखने, समझने या उसे परोसने को लेकर सही रास्ता बताने की होड मीडियाकर्मियों में ही जिस तेजी से बढ़ी है, उसका एक मतलब तो साफ है कि पत्रकारो में वर्तमान स्थिति को लेकर बैचैनी है। लेकिन बैचैनी किस तरह हर रास्ते को एक नये चौराहे पर ले जाकर ना सिर्फ छोड़ती है, बल्कि मीडिया का मूल कर्म ही बहस से गायब हो चला है, इसका एहसास उसी सभा में हुआ, जिसमें संपादक स्तर के पत्रकार जुटे थे।

उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो सवाल उस सभा में मंच या मंच के नीचे से उठे, वह गौर करने वाले इसलिये हैं, क्योंकि इससे हटकर व्यवसायिक मीडिया में कुछ होता नही और राजनीति भी कमोवेश अपने आत्ममंथन में इसी तरह के सवाल अपने घेरे में उठाती है और सत्ता मिलने के बाद उसी तरह खामोश हो जाती है, जैसे कोई पत्रकार संपादक का पद मिलने के बाद खुद को कॉरपोरेट का हिस्सा मान लेता है। मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता हैं। और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन मीडिया अगर खबरों की जगहो पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे तो उपभोक्ता कहां शिकायत करें। यह मामला चारसौबीसी का बनता है । इस तरह के मापदंड मीडिया को पटरी पर लाने के लिये अपनाये जाने चाहिये। प्रिंट के पत्रकार की यह टिप्पणी खासी क्रांतिकारी लगती है।

लेकिन मीडिया को लेकर पत्रकारों के बीच की बहस बार बार इसका एहसास कराने से नहीं चूकती कि पत्रकारिता और प्रोडक्ट में अंतर कुछ भी नही है । असल में खबरों को किसी प्रोडक्ट की तरह परखें तो इसमें न्यूज चैनल के पत्रकार की टिप्पणी भी जोड़ी जा सकती है, जिनके मुताबिक देश की नब्ज न पकड़ पाने की वजह कमरे में बैठकर रिपोर्टिग करना है। और आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के पत्रकारो को कमरे में बंद कर दिया है, ऐसे में स्पॉट पर जाकर नब्ज पकडने के बदले जब रिपोर्टर दिल्ली में बैठकर समूचे देश के चुनावी तापमान को मांपना चाहेगा तो गलती तो होगी ही।

जाहिर है यह दो अलग अलग तथ्य मीडिया के उस सरोकार की तरफ अंगुली उठाते हैं जो प्रोडक्ट से हटकर पत्रकारिता को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद से निकली है । इसमें दो मत नहीं कि समाज की नब्ज पकड़ने के लिये समाज के बीच पत्रकार को रहना होगा लेकिन मीडिया में यह अपने तरह की अलग बहस है कि पत्रकारिता समाज से भी सरोकार तभी रखेगी, जब कोई घटना होगी या चुनाव होंगे या नब्ज पकडने की वास्तव में कोई जरुरत होगी। यानी मीडिया कोई प्रोडक्ट न होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार प्रोडक्ट हो चुके हैं, जो किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पायेंगे जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा।

अब सवाल पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओ को खबरें न परोस कर चारसौबीसी कर रहा है। तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा । या फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगो को ही प्रभावित कर रहे हैं, तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजार के लिये बनायेगा। यानी देश में सांप्रदायिक दंगो को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में फिल्म अवॉर्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई चैनल उसे ही दिखाये। य़ा फिर अवार्ड समारोह की ही खबर किसी अखबार के पन्ने पर चटकारे लेकर छपी रहे तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है। जैसे ही पत्रकारिता प्रोडक्ट में तब्दील की जायेगी, उसे समाज की नहीं बाजार की जरुरत पड़ेगी। पत्रकारिता का संकट यह नहीं है कि वह खबरों से इतर चमकदमक को खबर बना कर परोसने लगी है।

मुश्किल है पत्रकारिता के बदलते परिवेश में मीडिया ने अपना पहला बाजार राजनीति को ही माना। संपादक से आगे क्या। यह सवाल पदों के आसरे पहचान बनाने वाले पत्रकारों से लेकर खांटी जमीन की पत्रकारिता करने वालो को भी राजनीति के उसी दायरे में ले गया, जिस पर पत्रकारिता को ही निगरानी रखते हुये जमीनी मुद्दों को उठाये रखना है। संयोग से उदयन की इस सभा में एनसीपी के नेता डीपी त्रिपाठी ने कहा कि राजनीति का यह सबसे मुश्किल भरा वक्त इसलिये है क्योकि वाम राजनीति इस लोकसभा चुनाव में चूक गयी। वाम राजनीति रहती तो सत्ता मनमानी नहीं कर सकती थी। वहीं कपिल सिब्बल ने कहा कि उदयन सरीखे पत्रकार होते तो पत्रकारिता चूकती नही, जो लगातार चूक रही है । लेकिन मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि उदयन को भी आखिर राजनीति क्यों रास आयी । क्यो पत्रकारिता में इतना स्पेस नहीं है कि पत्रकार की जिजिविशा को जिलाये रख सके। उदयन जिस दौर में कांग्रेस में गये या कहें कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े, उस दौर में देश में सांप्रदायिकता तेजी से सर उठा रही थी । और उदयन की पहचान सांप्रदायिकता के खिलाफ पत्रकारिता को धार देने वाली रिपोर्ट करने में ही थी। सवाल सिर्फ उदयन का ही नहीं है। अरुण शौरी जिस संस्थान से निकले, उसे चलाने वाले गोयनका राजनीति में अरुण शौरी से मीलो आगे रहे। लेकिन गोयनका ने कभी पिछले दरवाजे से संसद पहुचने की मंशा नहीं जतायी। चाहते तो कोई रुकावट उनके रास्ते में आती नहीं । गोयनका को पॉलिटिकल एक्टिविस्ट के तौर पर देखा समझा जा सकता है। लेकिन उसी इंडियन एक्सप्रेस में जब कुलदीप नैयर का सवाल आता है और इंदिरा गांधी के दबाब में कुलदीप नैयर से और कोई नहीं गोयनका ही इस्तीफा लेते है तो पत्रकारिता के उस घेरे को अब के संपादक समझ सकते है कि मीडिया की ताकत क्या हो सकती है, अगर उसे बनाया जाये तो।

लेकिन कमजोर पड़ते मीडिया में अच्छे पत्रकारो के सामने क्या सिर्फ राजनीति इसीलिये रास्ता हो सकती है क्योकि उनका पहला बाजार राजनीति ही रहा और खुद को बेचने वह दूसरी जगह कैसे जा सकते हैं। स्वप्न दास हो या पायोनियर के संपादक चंदन मित्रा या फिर एम जे अकबर । इनकी पत्रकारिता पर उस तरह सवाल उठ ही नहीं सकते हैं, जैसे अब के संपादक या पत्रकारो के राजनीति से रिश्ते को लेकर उठते हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति में गये इन पत्रकारों की हैसियत राजनीतिक मंच पर क्या हो सकती है या क्या है, जरा इस स्थिति को भी समझना चाहिये।

राजनीतिक गलियारे में माना जाता है कि उड़ीसा में नवीन पटनायक से बातचीत करने के लिये अगर चंदन मित्रा की जगह किसी भी नेता को भेजा जाता तो बीजू जनता दल और भाजपा में टूट नहीं होती। इसी तरह चुनाव के वक्त वरुण गांधी के समाज बांटने वाले तेवर को लेकर बलबीर पूंज ही भाजपा के लिये खेतवार बने। बलवीर पुंज भी एक वक्त पत्रकार ही थे । और वह गर्व भी करते है कि पत्रकारिता के बेहतरीन दौर में बतौर पत्रकार उन्होने काम किया है। लेकिन राजनीति के घेरे में इन पत्रकारो की हैसियत खुद को वाजपेयी-आडवाणी का हनुमान कहने वाले विनय कटियार से ज्यादा नहीं हो सकती है। तो क्या माना जा सकता है कि पत्रकारिय दौर में भी यह पत्रकार पत्रकारिता ना करके राजनीतिक मंशा को ही अंजाम देते रहे। और जैसे ही राजनीति में जाने की सौदेबाजी का मौका मिला यह तुरंत राजनीति के मैदान में कूद गये।

पत्रकार का नेता बनने का यह पिछले दरवाजे से घुसना कहा जा सकता है,क्योकि राजनीति जिस तरह का सार्वजनिक जीवन मांगती है, पत्रकार उसे चाहकर भी नहीं जी पाता। पॉलिटिक्स और मीडिया को लेकर यहां से एक समान लकीर भी खिंची जा सकती है। दोनों पेशे में समाज के बीच जीवन गुजरता है। यह अलग बात है कि पत्रकारों को राजनीतिज्ञो के बीच भी वक्त गुजारना पड़ता है और नेता भी मीडिया के जरीये समाज की नब्ज टटोलने की कोशिश करता रहता है। लेकिन संयोग से दोनो जिस संकट पर पहुचे है, उसका जबाब भी इन्ही दोनों पेशे की तरफ से उदयन को याद करने वाली सभा में उभरा।

राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के एक ब्यूरो चीफ ने सभा में साफ कहा कि पत्रकारिता का सबसे बडा संकट तत्काल को जीना है। इसमें भी बडा संकट गहरा रहा है क्योकि आने वाली पीढ़ी तो उस गलती को भी नहीं समझ पा रही है, जिसे अभी के संपादक किये जा रहे हैं। यानी जो मीडिया में सत्तासीन हैं, उन्हे तमाम गलतियों के बावजूद पद छोडना नहीं है या उन्हे हटाने की बात करना सही नहीं है क्योकि उनके हटने के बाद जो पीढी आयेगी, वह तो और दिवालिया है।

जाहिर है यह समझ खुद को बचाने वाली भी हो सकती है और आने वाली पीढ़ी की हरकतो को देखकर वाकई का डर भी। लेकिन पत्रकारिता में संकट के दौर में यह एक अनूठी समझ भी है, जिसमें उस दौर को मान्यता दी जा रही है जो बाजार के जरीये मीडिया को पूरी तरह मुनाफापरस्त बना चुकी है। लेकिन इस मुनाफापरस्त वक्त की पीढी की पत्रकारिता को कोई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है य़ा फिर उसके मिजाज को पत्रकारिय चिंतन से इतर देख रहा है। यह घालमेल राजनीति में किस हद तक समा चुका है, इसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ही वक्तव्य से समझा जा सकता है। संयोग से उदयन की सभा के दिन सीपीएम सेन्ट्रल कमेटी की बैठक भी दिल्ली में हो रही थी, जिसमें चुनाव में मिली हार की समीक्षा की जा रही थी। और सीताराम येचुरी दिये गये वादे के मुताबिक बैठक के बीच में उदयन की सभा में पहुंचे, जिसमें उन्होंने माना कि वामपंथियों की हार की बड़ी वजह उन आम वोटरों को अपनी भावनाओं से वाकिफ न करा पाना था, जिससे उन्हें वोट मिलते। यानी सीपीएम के दिमाग में जो राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर चल रही थी, उसके उलट लोग सोच रहे होगे, इसलिये सीपीएम हार गयी। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह रही होगी। हालाकि सीपीएम के मुखपत्र में कैडर में फैलते भष्ट्राचार से लेकर कैडर और आम वोटरो के बीच बढ़ती दूरियो का भी बच बचाकर जिक्र किया गया। लेकिन सीताराम येचुरी के कथन ने उस दिशा को हवा दी, जहा राजनीति अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति अपनाती है लेकिन जनता के दिमाग में कुछ और होता है।

यहां सवाल है कि राजनीति को जनता की जरुरतो को समझना है या फिर राजनीति अपने मुताबिक जनता को समझा कर जीत हासिल कर सकती है। भाजपा ने भी लोकसभा चुनाव में वहीं गलती कि जहां उसे लगा कि उसकी राजनीति को जनता समझ जायेगी और जो मुद्दे जनता से जुड़े हैं अगर उसमें आंतकवाद और सांप्रदायिकता का लेप चढ़ा दिया जाये तो भावनात्मक तौर पर उसके अनुकुल चुनावी परिणाम आ जायेगे। हालांकि भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी और उसने हिन्दुत्व को भी मुद्दे सरीखा ही आडवाणी के चश्मे से देखना शुरु किया। हिन्दुत्व कांग्रेस के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन भाजपा की जो अपनी पूरी ट्रेनिंग है, उसमें हिन्दुत्व जीवनशैली होगी। चूंकि आरएसएस की यह पूरी समझ ही भाजपा के लिये एक वोट बैक बनाती है, इसलिये अपने आधार को खारिज कर भाजपा को कैसे चुनाव में जीत मिल सकती है, यह भाजपा को समझना है।

यही समझ वामपंथियो में भी आयी, जहां वह वाम राजनीति से इतर सामाजिक-आर्थिक इंजिनियरिंग का ऐसा लेप तैयार करने में जुट गयी जिसमें वह काग्रेस का विकल्प बनने को भी तैयार हो गयी और जातीय राजनीति से निकले क्षेत्रिय दलों की अगुवाई करते हुये भी खुद को वाम राजनीति करने वाला मानने लगी। इस बैकल्पिक राजनीति की उसकी समझ को उसी की ट्रेनिग वाले वाम प्रदेश में ही उसे सबसे घातक झटका लगा क्योकि उसने अपने उन्हीं आधारो को छोड़ा, जिसके जरीये उसे राजनीतिक मान्यता मिली थी।

जाहिर है यहां सवाल मीडिया का भी उभरा कि क्या उसने भी अपने उन आधारो को छोड़ दिया है, जिसके आसरे पत्रकारिता की बात होती थी । या फिर वाकई वक्त इतना आगे निकल चुका है कि पत्रकारिता के पुराने मापदंडों से अब के मीडिया को आंकना भारी भूल होगी । लेकिन इसके सामानांतर बड़ा सवाल भी इसी सभा में उठा कि मीडिया का तकनीकि विस्तार तो खासा हुआ है लेकिन पत्रकारो का विस्तार उतना नहीं हो पाया है, जितना एक दशक पहले तक पत्रकारो का होता था और उसमें उदयन-एसपी सिंह या फिर राजेन्द्र माथुर या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखो का हुआ। मीडिया को लेकर नौकरशाह चुनाव आयुक्त एस एम कुरैशी ने भी अपनी लताड़ जानते समझते हुये लगा दी कि चुनाव को लेकर जीत-हार का सिलसिला रोक कर चुनाव आयोग ने कितने कमाल का काम किया है। एक तरफ कुरैशी साहब यह बोलने से नहीं चूके की मीडिया सर्वे के जरीये राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचा देती है क्योंकि सर्वे का कोई बड़ा आधार नहीं होता। दूसरी तरफ राजनीति के प्रति लोगो में अविश्वास न जागे, इसके लिये मीडिया को भी मदद करने की अपील भी यह कहते हुये कि राजनेता लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है । कुरैशी साहब के मुताबिक चुनाव आयोग जिस तरह चुनावों को इतने बडे पैमाने पर सफल बनाता है, असल लोकतंत्र का रंग यही है । हालांकि मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि सत्तर करोड़ मतदाताओं में से जब पैंतिस करोड़ वोट डालते ही नही तो लोकतंत्र का मतलब क्या होगा। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी तीस करोड से ज्यादा वोटरो ने वोट डालने में रुचि दिखायी ही नही । और वोट ना डालने वालो की यह तादाद राष्ट्रीय पार्टियो को मिले कुल वोट से भी ज्यादा है या कहे कांग्रेस की अगुवाई में जो सरकार बनी है, उससे दुगुना वोट पड़ा ही नहीं।

लेकिन मीडिया का संकट इतना भर नहीं है कि पत्रकार शब्द समाज में किसी को भी डरा दे। राजनीति या नौकरशाही इसके सामने ताल ठोंककर उसे खारिज कर निकल भी सकती है । उस सभा के अध्यक्ष जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने आखिर में जब अभी के सभी पत्रकारो को खारिज कर पुराने पत्रकारो को याद किया तो भी पत्रकारो की इस सभा में खामोशी ही रही। शरद यादव ने बडे प्यार से प्रभाष जोशी को भी खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने कहा कि अभी के पत्रकारो में एकमात्र प्रभाष जोशी हैं, जो सबसे ज्यादा लिखते है लेकिन वह भी रौ में बह जाते हैं। जबकि शरद यादव जी के तीस मिनट के भाषण के बाद मंच के नीचे बैठे हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने टिप्पणी की- कोई समझा दे कि शरद जी ने कहा क्या तो उसे एक करोड़ का इनाम मिलेगा। असल में मीडिया की गत पत्रकारों ने क्या बना दी है यह 11 जुलायी को उदयन की पुण्यतिथि पर रखी इस सभा में मंच पर बैठे एक मंत्री,चार नेता और एक नौकरशाह और मंच के नीचे बैठे पत्रकारो की फेरहिस्त में कुलदीप नैयर से लेकर एक दर्जन संपादको से भी समझी जा सकती है। दरअसल, इस सभा में जो भी बहस हुई, इससे इतर मंच और मंच के बैठे नीचे लोगें से भी अंदाज लगाया जा सकता है कि एतक पत्रकारों को याद करने के लिए पत्रकारों द्वारा आयोजित सभी में ही किसे ज्यादा तरजीह मिलेग।

10 comments:

Unknown said...

bajpaiyeeji,
afsos toh is baat ka hai ki aap jaise log bhi
kuchh nahin kar paa rahe hain

bazaar me tike rahne ki ladaai me aaj patrakaar bhi bahut had tak samjhautavaadi ho gaye hain aur yahin aa kar patrakaarita kalankit ho jaati hai

raajneeti toh bhrashton ke haath ki kathputlee pahle bhi thee aur aaj bhi hai lekin press ki ye giraavat dukh pahunchaati hai

kuchh karo............
kuchh karo yaar !

बवाल said...

आदरणीय पण्डितजी,
ख़ुदा के वास्ते अपने आपमें इतना परेशान मत होइए। आप अपना फ़र्ज़ तो बख़ूबी निभा ही रहे हैं क्या हम सब आप को देखते नहीं ? रही बात औरों की तो दुनिया एक न एक दिन बदलेगी ही, हमें निराश नहीं होना चाहिए। हम सब साथ हैं आपके। अपने चैनलों पर हिन्दी ब्लागजगत को तरजीह देना तो शुरू कीजिए। आप हमें साथ खड़े पाइएगा ।

Aadarsh Rathore said...

लेख की प्रथम पंक्ति सार्थक हैं और बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं।

दिगम्बर नासवा said...

sochne को vivash करती है आपकी post..............

anil yadav said...

आपकी चिंता बिल्कुल सही है....

Sarita Chaturvedi said...

MEDIA KI JO BHI DURDASA HO RAHI HAI USKE LIYE KAHI N KAHI US PAR SAALO SE KUNDALI MARKAR BAITHE HUYE LOG JIMMEDAR HAI..MATR MEDIA DOSI NAHI HAI APNI IS ISTHTI KE LIYE ... PATHAK WARG AUR DARSAK BHI UTNE HI UTTARDAAI HAI...YADI GAMBHIR LEKHAN NAHI HO RAHA HAI TO WAISE PATHAK BHI KAHA RAH GAYE HAI? N TO NEWS BANANE KI JAROORAT RAH GAI HAI AUR NA HI NEWS IMPACT KI BAAT KI JA SAKTI HAI AGAR BAAT BAJAR AUR TRP KI AA JAAYE. NAI PIDHI KE DIWALIYA HONE PAR KISE LABH HOGA ....? BILKUL..UNHI LOGO KO JO SIT KHALI NAHI KARNA CHAHTE..BAHUT SACHHI AUR KADWI BAAT YAHI HAI KI NAI PIDHI KO JAGAH TO DI JAA RAHI HAI PAR SHARTO KE SAATH ,JAHA WO KUCHH SOCHNE , NAYA KARNE YA PHIR NAYE PRYOG KE LIYE BILKUL SWATANTR NAHI HAI. YADI WO AAKH BAND KARKE SIRF NAUKARI HI KAREGE TO AISE ME UNSE KIS PATRKAARITA KI AASA KI JAA SAKTI HAI...US PAR AAJ SIRF BHAGNE KA DAUR HAI..KISE MATLAB PATRKARITA KE SIDHANT SE..SAHI GALAT ..KYA MATALB..TRP BADHNI CHAHIYE. KOI DO RAI NAHI KI MEDIA ME KABJA JAMAYE HUYE LOG NAI PIDHI KE RASTE KA KATA HAI..SAHI KO BHI GALAT KAHTE HAI KYOKI INKI SEKHI BANI RAHE..UDAHARAN KE LIYE..MR. AASUTOSH JO SAYAD IBN ME HAI..UNHE ITNA TO MALOOM KI FOOLAN DEVI KI HATYA HUI PAR JIS SHAKSH NE HATYA KI USE GIRFTAR KIAA GAYA YA USNE AATMSAMPARPAN KIAA....VYAKTIGAT AACHEP SE BACHNA CHAIYE PAR APNE OHADE KE GUMAAN ME SABKUCHH GALAT KAH GAYE..AFSOS KI LAGBHAG BHARE PURE HALL ME KISI NE SAWAL NAHI UTHAYA...KYOKI MAMLA AIK STUDENT AUR AIK ISTHAPIT PATRKAR KE BICH KA THA. MEDIA ME JIS TARAH KA ASHYOG HAI SHAYAD HI KAHI AUR DEKHNE KO MILE....NAI GENERATION BAHUT KUCHH JANTI HAI PAR USE AAGE LANA KAUN CHAHTA HAI..

sudeep thakur said...

प्रसून जी,

मुक्तिबोध अक्सर पूछा करते थे- पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है? इस दौर में राजनीति एक गंदा शब्द हो गई है. इसके लिए मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं. दरअसल आप राजनीति से भाग नहीं सकते. मुझे लगता है कि हर व्यक्ति राजनैतिक होता है और बिना राजनीति के इस समाज की कल्पना ही बेमानी है. राजनीति के प्रति जो अस्पृश्यता वाला भाव है वह उसी कारपोरेट कल्चर और कंज्यूमराइजेशन की वजह से है जिसने पत्रकारिता जैसे गंभीर कर्म को बाजारू और बिकाऊ बना दिया है वरना देश के एक बड़े समूह के एमडी को अपने पत्रकारों की मीटिंग में यह कहते हिचक नहीं होती कि हम अपने अखबार को प्रोडक्ट की तरह देखें. एक और जाने-माने पत्रकार ने एक अखबार का समूह संपादक बनने के बाद इसी दिल्ली में अपनी पहली बैठक में अपने संपादकीय कर्मियों को यह सुझाव देते शर्म महसूस नहीं की थी कि आज से आप यह सोचकर अखबार निकालें कि हमारा पाठक 10,000 रु,से अधिक मासिक आय वाला है. बताइए इसमें राजनीति का क्या दोष है?
आपने एक बेहद वाजिब सवाल उठाया है कि जो पत्रकार राजनीति में जाते हैं वे अपने राजनैतिक मिशन में अक्सर फेल क्यों हो जाते हैं. मुझे ऐसा लगता है ऐसा उनकी कमजोर राजनैतिक समझ की वजह से है. इससे यह भी जाहिर होता है कि वे समाज से भी कितने कटे हुए हैं. कुछ जोड़तोड़ शायद वे कर भी लेते हैं लेकिन आज जो भी पत्रकार राजनीति का चोगा पहने हुए हैं वे शायद ही कभी बुनियादी मसले उठाते दिखते हैं.
असल में राजनीति के लिए वाचडाग की भूमिका पत्रकारिता को निभानी चाहिए थी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.
शुक्रिया.

Unknown said...

पंडित जी,

दिक्कत ये है कि कॉरपोरेट मीडिया के इस युग में सारा खेल ही डर का है। साबुन और टूथपेस्ट बनाने वाला कीटाणुओं से डराता है, मिनरल वाटर बनाने वाला पूरे देश के पानी को गंदा बताकर डराता है और तो और अब तो आटा बेचने वाला भी चक्की के आटे को लेकर डराने लगा है। भाजपा ने भी जनता को इस चुनाव में डराने की कोशिश करने वाले ही विज्ञापन बनवाए। तो मीडिया भी लोगों को डराता है, कभी दुनिया के खात्मे की ख़बर दिखाकर तो कभी सूर्य ग्रहण को एक सामान्य प्राकृतिक घटना क्रम ना मानकर राशियों पर होने वाला असर बताकर। और, लोग वाकई अब मीडिया से डरते हैं। माता पिता बच्चों को बताते हैं कि बेटा जीके मजबूत करना हो तो अंग्रेजी न्यूज़ चैनल देखो। हिंदी के कुछ न्यूज़ चैनल तो पारिवारिक परंपरा में प्रतिबंधित से हो चुके हैं, तो इसमें दोष किसका है?

समाचार के कारोबार में आने वालों की मंशा अगर सिर्फ पाठकों या दर्शकों तक ज्यादा से ज्यादा समाचार और विचार बढ़ाकर कारोबार बढ़ाने की होती तो ये नौबत कभी ना आती है। लेकिन, असली मंशा तो सिर्फ संपादक को पता होती है, और आमतौर पर संपादक की तैनाती होती ही इसलिए है कि वो इस अघोषित उद्देश्य को पाने में वाल्मीकि की तरह लुटेरा बनकर शामिल रहे।

हर समाचार का एक विचार होता है, लेकिन अब विचार आधारित समाचार ही ज्यादा पढ़ने और देखने को मिलते हैं। और, ये हल्ला तब है जब टीवी देखने वालों की जमात में नियमित तौर पर हिंदी समाचार चैनल देखने वालों का प्रतिशत अभी पांच फीसदी तक भी नहीं पहुंचा है। फिर भी, हारिए ना हिम्मत बिसारिए ना राम। बिना सनसनी फैलाए, और फूहड़ कॉमेडी शोज़ कि क्लिपिंग दिखाए भी चैनल नंबर वन हो सकता है, ये मेरा भरोसा भी है और अनुभव भी।

लेकिन, हालात अब भी सुधर सकते हैं, बस ज़रूरत है वाल्मीकि को अपनी शब्द शक्ति पहचानने की और शायद किसी क्रोंच पंछी का वध होने की?

कहा सुना माफ़,
पंकज शुक्ल

सौरभ के.स्वतंत्र said...

"मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलो में है"

वाजपेयी जी अगर ऐसा कॉकटेल मिले तो क्या आप उसका सेवन करेंगे? हाँ या ना? दरअसल, बहुतेरे सिद्धांत वाले लोग मौका मिलने पर सब कुछ त्याग ऐसे कॉकटेल का सेवन कर लेते हैं..अब लार जो टपकने लगती है.. अन्यथा न लेंगे.. जवाब जरूर दीजियेगा.

"लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।"

बहुत सही फ़रमाया

पुनर्मिलनाय

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

11 july ko udayan ji ka janam din tha, punye tithi nahin.