Tuesday, September 8, 2009

क्यों नागपुर से दिल्ली चली संघ एक्सप्रेस

6 दिसंबर 1992 को करीब साढे पांच बजे नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर उसी जगह पर सरसंघचालक देवरस की कुर्सी लगायी गयी, जहां अब सुरक्षाकर्मियो का टेंट लगा है। तीन स्वयंसेवकों के सहारे देवरस मुख्यालय से बाहर आये और उन्हे कुर्सी पर बैठाया गया । नागपुर के महाल इलाके में रिहायशी बस्ती के बीच संघ मुख्यालय की मौजूदगी 6 दिसबंर 1992 तक कुछ वैसी ही थी, जैसी रिहायशी इलाके में सामाजिक कार्यो में जुटा कोई संगठन किसी घर को ही अपना अड्डा बना ले। लेकिन 6 दिसंबर 1992 के दिन से अचानक छोटी-छोटी गलियों के बीच बना संघ मुख्यालय अचानक मील के पत्थर में तब्दील हो गया, जहां की पहचान पुलिस-जवानो के डेरे के तौर पर ही होने लगी। महाल के इस संघ मुख्यालय के बाहर का जो खाली प्लाट संघ का नहीं था, वह अचानक संघ से जुड़ गया और उस जमीन पर टेंट की रिहायश बनायी गयी, जिसमें छह जवानों की टोली उसी दिन से बैठा दी गयी, जो आज भी बैठी है।

इन 17 सालो में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीन आ गयी और महाल का मतलब संघ का असल मुख्यालय हो गया, जहा सारी शतरंज खेली जाती है। असल इसलिये क्योंकि हेडगेवार ने इसी घर से संघ कार्यालय की शुरुआत की थी। और 1948 के बाद प्रतिबंध का स्वाद 1993 में ही संघ के इस मुख्यालय ने भोगा। इमरजेन्सी के प्रतिबंध का एहसास यहां इसलिये नहीं हुआ, क्योकि तब पूरे देश में एक तरह का प्रतिबंध था।

6 दिसबंर 1992 को जब समूचॆ देश में हंगामा मचा हुआ था तो बेहद खामोशी के साथ देवरस को इसी घर में नजरबंद करने के आदेश प्रशासन ने दे दिये । इस दिन से पहले महाल के इसी घर से करीब चार किलोमीटर दूर रेशमबाग के हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ मुख्यालय मानता और समझता था। चूंकि हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है और हर सुबह- शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती और खुला मैदान होने की वजह से खेल का शोर कुछ इस तरह रहता कि पुराने नागपुर की दिशा में जाने वाला हर किसी शख्स को दूर से ही दिखायी पड़ जाता है।

लेकिन नागपुर के मिजाज में संघ की मौजूदगी कभी घुली नहीं । जनसंघ को कभी नागपुर में जीत मिली नहीं और इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत समूचे विदर्भ सभी 11 सीटो में से कोई भी जनता पार्टी का उम्मीदवार न जीत सका । उस वक्त देवरस को भी आश्चर्य हुआ था कि उनके राजनीति प्रयोग को जेपी के जरीये जब काग्रेस को मात दी गयी तो नागपुर में संघ समर्थित उम्मीदवार को कांग्रेस ने मात दे दी। यही हाल बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद भी हुआ, जब कांग्रेस जीत गयी । यानी नागपुर में संघ की पहचान कभी राजनीतिक तौर पर निकल कर नहीं आयी, जिससे लगे कि उसकी अपनी जमीन पर राजनीति तो खड़ी हो सकती है।

यह नागपुर में हुआ नहीं और भाजपा के लिये संघ की समझनुसार वैसी जमीन बनी नहीं जैसा देश के सार्वजनिक जीवन में हिन्दुत्व का पाठ पढाते हुये संघ, भाजपा को राजनीतिक तौर पर इसका लाभ दिलाता । ऐसा भी नहीं है कि संघ के सामने मौके नहीं आये कि वह नागपुर में अपनी पहचान बना ले। गांधी को लेकर संघ के क्या विचार थे, यह कोई छुपा नहीं है। लेकिन दलितो को लेकर आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नहीं हुआ क्योकि तब भी संघ हिन्दु राष्ट्र का एक अनोखा सपना पाले हुआ था । नागपुर में दलितो के संघर्ष से लेकर बुनकरो का संघर्ष आजादी के बाद ही शुरु हुआ । लेकिन संघ साथ खड़ा नहीं हुआ । नागपुर में बुनकरो के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गये थे। वहीं नागपुर में ही अंग्रेजो के दौर में ही सबसे बडी काटन मिल स्थापित हुई। और बड़ी बात यह है कि संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बीएमएस ने सबसे पहले इसी काटन मिल में अपनी यूनियन बनायी।

लेकिन जब नब्बे दे दशक में जब यह मिल बंद होने का आयी तो बीएमएस ने मजदूरो के हक की लड़ाई में अपना कंधा अलग कर लिया । असल में नागपुर में संघ मुख्यालय होने के बावजूद आरएसएस से ज्यादा हिन्दू महासभा की यादें लोगों के जहन में है । हालांकि संघ का विस्तार हिन्दू महासभा से ज्यादा होता गया, लेकिन सच यह भी है कि पहली बार सावरकर जब नागपुर पहुंचे तो उन्होने काटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीको को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा ही माना और राजनीतिक समझ से कोसो दूर बताते हुये खारिज भी किया । उस वक्त हेडगेवार चाहते थे कि सावरकर संघ मुख्यालय आये । लेकिन सावरकर राजनीतिक तौर पर हिन्दुओ को जिस तरह संगठित कर रहे थे, उसमें संघ उनके तरीको को कमजोर कर देता इसलिये संघ मुख्यालय तक नहीं गये।

वहीं मुस्लिमो को लेकर संघ की समझ नागपुर में ही 7 दिसबंर 1992 को उभरी थी । 6 दिसबंर को देवरस के नजरबंद होने के बाद बाबरी मस्जिद ढहाने के विरोध में अपने गुस्से का इजहार मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में हुआ । मोमिनपुरा के लोग रैली की शक्ल में जैसे ही मोमिनपुरा के बाहर सड़क पर निकले, वहां खड़ी पुलिस ने ताबडतोब गोलियां दागनी शुरु कर दी । 9 युवा समेत 13 लोग मारे गये। उसके बाद नागपुर में यह बहस शुरु हुई कि एक तरफ 6 दिसबंर को संघ से जुडे संगठन खुले तौर पर प्रदर्शन करते है, दुर्गा वाहिनी हथियारो का प्रदर्शन करती है और उन्हें कोई रोकता नहीं और सरसंघचालक को नजरबंद कर मामले को वहीं का वहीं खत्म किया जाता है। वहीं, मुस्लिमो के प्रदर्शन मात्र को कानून व्यवस्था के लिये खतरा बता दिया जाता है। हालांकि इस घटना के बाद नागपुर के पुलिस कमीशनर इनामदार का तबादला हुआ लेकिन तीन साल बाद शिवसेना-भाजपा के सत्ता में आने पर इनामदार को पदोन्नति भी मिली । मगर बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद देश में तुरंत कहीं लोग मरे तो वह नागपुर रहा, जहां 13 लोगो की मौत हुई । और इस घटना को भी नागपुर में संघ ने अपनी उस नयी पहचान से जोडने की पहल की जो इससे पहले उसे मिली नहीं थी । यानी अयोध्या पर संघ की इस प्रयोगशाला में हिन्दुत्व के लिये जगह है, बाकियो की अभिव्यक्ति भी बर्दाश्त नहीं है । लेकिन नागपुर ने संघ की इस पहचान को भी नहीं स्वीकारा । ना सामाजिक तौर पर ना राजनीतिक तौर पर । इसका मलाल देवरस को हमेशा रहा । इसलिय 1993 में जब कल्याण सिंह नागपुर पहुचे और संघ मुख्यालय में देवरस से मिलने के लिये बेताब हुये तो उन्हें टाला गया और मिलने का वक्त भी मिनटो में सिमटाया गया ।

नागपुर की इस नब्ज को टटोलने के लिये जब कल्याण सिंह नागपुर के तिलक पत्रकार भवन पहुंचे । तो उन्हे वहीं समझ में आ गया कि संघ की पकड़ नागपुर में कितनी कम है और जिनके भीतर संघ समाया हुआ है, वह कल्याण सिंह को संघ के सोशल इंजिनियरिंग का एक औजार भर मानते हैं। नागपुर की इन्हीं परिस्थितियो को जानते समझते हुये मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने हैं। इसलिये दिल्ली पहुंच कर भागवत का भाजपा को पाठ पढ़ाने के अंदाज को समझना जरुरी है । क्योंकि राजनीतिक तौर पर भागवत हेडगेवार की उसी थ्योरी को समझते है कि जब राजनीति दिशाहीन हो जाये तो सामाजिक तौर पर हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता बचता है। बदलाव सत्ता के जरीये नहीं बल्कि समाज के जरीये आता है। और सत्ता जोड़तोड़ की माथापच्ची के अलावा और कुछ नहीं है जबकि संघ सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, जो समाज में राजनीति से ज्यादा घुसपैठ करता है । कई मौको पर हिन्दु महासभा से टकराव के दौर पर हेडगेवार ने कई जगहो पर इस समझ को रखा ।

लेकिन सवाल है जो संगठन अपने जड़ में यानी नागपुर में ही बेअसर है, उसका असर दिल्ली में क्यों नजर आता है । जाहिर है दिल्ली में समाज नहीं सिर्फ राजनीति है और राजनीति को पटरी पर लाने के लिये समाज का भय दिखा कर संघ अपना औरा खड़ा कर सकता है । सवाल है क्या मोहन राव भागवत इस भय के सहारे भाजपा को संघ से बांध रहे है या फिर भाजपा संघ के बनाये गये इस भय से अपना राजनीतिक हित साधना चाहती है। अगर संघ की मौजूदगी को राजनीतिक तौर पर देखा परखा जाये तो आजादी के बाद से किसी भी संकट के वक्त संघ का कार्य किसी एनजीओ और सामाजिक संगठन के मिले जुले रुप के तौर पर उभर कर आता है । लेकिन अयोध्या कांड के वक्त पहली बार संघ की भूमिका उसी सावरकर की राजनीतिक समझ के करीब लगी, जिससे संघ हमेशा कतराता रहा । जिस तेजी से भाजपा ने 1992 के बाद राजनीति सत्ता की सीढियों को चढ़ना शुरु किया और संघ की नयी पहचान में वह समाज में घुलने मिलने की जगह कहीं ज्यादा अलग साफ दिखायी पड़ने लगा, उसने वैचारिक तौर पर समूचे संघ परिवार को ट्रासंफार्म के दौर में ला खड़ा किया । क्योंकि जिस संघ में चेहरे से ज्यादा संगठन को महत्वपूर्ण माना गया, वहां अयोध्या के बाद संघ को पहले संघ के ही संगठन और फिर संगठनों के चेहरो में केन्द्रित करने की राजनीति भी शुरु हुई । भागवत इसी चेहरे से कतरा रहे हैं। क्योकि उनकी पूरी ट्रेनिग नागपुर में हुई है, जहां के समाज में संघ का कोई चेहरा मान्य नहीं है। यानी हेडगेवार के बाद से गुरुगोलवरकर हो या देवरस या फिर रज्जू भैया किसी की पहचान इस रुप में नहीं बनी कि जिससे संघ भी चेहरा केन्द्रित लगे । इसका राजनीतिक खामियाजा नागपुर के हर चुनाव में हर बार उभरा । भाजपा का उम्मीदवार अगर खाकी नेकर में नजर आया तो वह संघ का माना गया। जो खाकी नेकर में कभी नजर नहीं आया उसे बाहरी माना गया । संघ का भी जोर भी उसी बात पर रहा कि भाजपा उम्मीदवारो को लेकर समाज के भीतर बहस संघ के काम को लेकर हो और उम्मीदवार उसी सच से जुडे । यह अलग बात है कि संघ का काम नागपुर में ऐसा उभरा नहीं, जिससे भाजपा के उम्मीदवार को राजनीतिक लाभ मिले । लेकिन भागवत इसी सोच के आसरे भाजपा को दिल्ली में ढालना चाहते है। क्योकि इससे संघ पहचाना जाता है और इस पहचान के जरीये अगर राजनीतिक संगठन सत्ता पाता है तो संघ को लगता है कि हिन्दु राष्ट्र के नारे को इससे बल मिला।

इसलिये भागवत का जोर एक महत्वपूर्ण चेहेरे की जगह सौ स्वयसेवको को काम पर लगाने की थ्योरी है । संघ की सोच और भागवत की निजी पहल इसीलिये दोहरे स्तर पर काम कर रही है । संघ उस चूक से निकलना चाहता है जिस चूक से धीरे धीरे भाजपा का मतलब लालकृष्ण आडवाणी होता चला गया । वहीं भागवत निजी तौर पर इस संदेश को साफ करना चाहते है कि वह आडवाणी के पीछे नहीं खड़े है जैसा की भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद प्रचारित किया गया । भागवत का मानना है कि 2007 से लेकर 2009 तक आडवाणी के विरोध के बावजूद संघ ने स्वयसेवकों को को ना सिर्फ पूरी तरह शांत किया बल्कि चुनाव पूरे होने तक विरोध का हर स्वर भी दबा दिया । लेकिन आडवाणी ने संघ को भाजपा केन्द्रित बनाने की पहल चुनाव में हार के बाद भी जारी रखी। इसीलिये उन्हे दिल्ली में ना सिर्फ तीन दिन तक डेरा डालना पडा बल्कि हर निर्णय में अपने साथ उस पूरी टीम को साथ रखना पडा जो संघ का केन्द्र है। यानी सरकार्यवाह भैयाजी जोशी से लेकर दत्तात्रेय होसबले और मदनदास देवी से लेकर मनमोहन वैघ तक की मौजूदगी दिल्ली के हर बैठक में रही और हर बैठक में एक ही बात स्वयंसेवकों के लिये खुलकर कही गयी कि आडवाणी को जाना होगा । लेकिन खास बात यह भी है कि भागवत को छोडकर हर वरिष्ठ स्वयंसेवक खामोश ही रहा । कैमरे के सामने भी और बातचीत के दौर में भी । संघ के अपने इतिहास में भी यह पहली बार हुआ जब संघ के छह महत्वपूर्ण पदाधिकारी सारे काम छोड कर अपने ही किसी संगठन के झगड़ों को निपटाने के लिये नागपुर से बाहर जुटे। इस जुटान का मतलब भाजपा का बढ़ा कद भी है और संघ का सिकुड़ना भी । इसका मतलब भाजपा के खिलाफ पहल करने के लिये संघ का सबसे कमजोर वक्त का इंतजार करना भी था और भाजपा के भीतर भी स्वयंसेवक और गैर स्वयंसेवकों के युद्द छिड़ने का इंतजार करना भी था । असल में नागपुर में बिना पहचान के 84 साल गुजारने वाले आरएसएस की मान्यता बनाने या पाने की रणनीति का अक्स भाजपा आपरेशन से भी समझा जा सकता है ।

संघ की पहल भाजपा के खिलाफ तब हुई जब भाजपा के भीतर से ही नहीं बल्कि गैर स्वयंसेवक अरुण शौरी से लेकर भाजपा के समर्थन में खड़े बाहरी लोगों ने भी जब यह कहना शुरु कर दिया संघ को अब भाजपा का टेकओवर कर लेना चाहिये । यानी संघ की मान्यता जैसे ही भाजपा से बड़ी हुई भागवत ने हलाल तरीके से झटका दिया जो गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर उस टिप्पणी पर भी भारी पडी कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बजी तो ठीक है नहीं तो खा जाएंगे । असल में संघ अब भाजपा को जनसंघ ही बनाना चाहता है, जिसमें आडवाणी की विदायी के साथ मई से दिल्ली में बैठे संजय जोशी सरीखे सौ स्वयंसेवक सक्रिय हो जाये और स्वदेशी आंदोलन को ठेगडी के बाद दिशा देने में लगे मुरलीधर राव सरीखे स्वयंसेवक भाजपा नेतृत्व संभाल लें। लेकिन संघ की इस पहल से सिर्फ भाजपा बदलेगी ऐसा भी नहीं है। असर संघ के भीतर बाहर भी है । इसका अक्स अयोध्या कांड के बाद नागपुर में संघ मुख्यालय से सटे खाली प्लाट को लेकर भी समझा जा सकता है । उस वक्त संघ मुख्यालय की सुरक्षा के लिये प्रशासन ने खाली प्लाट को संघ से जोड़ दिया, वही 17 साल बाद संघ को लग रहा है कि भाजपा को संघ में ढालकर वह उस राजनीतिक प्लाट को अपने घेरे में ले आयेगी जहां से टूटते-बिखरते संघ को एक नया जीवन मिलेगा ।

4 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

भाजपा जनसंघ हुई तो दो का आंकड़ा सामने दिखाई देने लगेगा।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

१०० बात की एक बात संघ मर रहा है . डॉ हेडगेवार की बनाई संस्था अपने १०० साल भी पूरा नहीं कर पायेगी जिसका अफ़सोस है . आर्य समाज की तरह अब संघ की सम्पति पर कब्जे वाले ही संघी रह जायेंगे . आपका सटीक विश्लेष्ण क्या आप भी कभी स्वयंसेवक रहे कभी जीवन में .

Unknown said...

भाजपा मर रही है, संघ कमजोर हो रहा है… यह तो देश के बहुसंख्यक लोगों के लिये खुशी की बात है… क्योंकि भाजपा कभी भी बहुसंख्यकों का प्रतिनिधित्व कर ही नहीं पाई।
समझ नहीं आ रहा कि हिन्दुत्ववादी ताकतों के कमजोर होने और कांग्रेस के एकछत्र साम्राज्य स्थापित होने पर इतनी चिन्ता और कष्ट क्यों व्यक्त किया जा रहा है? यह तो सेकुलरों और कांग्रेसियों के लिये खुशखबर है, फ़िर यह बेचैनी क्यों? भाजपा को मरने दीजिये और संघ को उसके हाल पर छोड़ दीजिये… काहे हलाकान हो रहे हैं वाजपेयी जी?

hamarijamin said...

aapka lekh mahal,nagpur or sangh ki jamin ki thik se padtal karta hai. sangh ki sabase badi problem hai 'confusion'. bhajpa ki durgati ki wajah hai Rajnath jaise chalu purje pradeshik neta ko sangh ki kripa se adwani ke parellel khada ho jana.
vajpai-adwani to samajh me aata raha hai. vajpai kheme banam adwani kheme ki bat hoti rahi lekin is tarah se mamla karunik nahi ho paya. aaj bhi BJP ME adwani ka viklap nahi hai. bjp ki second leadership lagbhag nalayak hai. vasundhara jaise ghamandi neta ko congress me kbhi ka bahar kar diya gaya hota. Rajnath se bhi pahale anek bjp president rahe hain,lekin adwani-vajpai ki takat or sarvamanyata me koi fark nahi aaya. yeh sab sangh xpress ki kripa se ho raha .