Thursday, October 1, 2009

60 साल का पीपुल्स रिपब्लिक : किसी के लिए चेतावनी, किसी के लिए अवसर

इन 60 साल में माओ-डेंग से बहुत आगे निकल गया चीन

माओ के किसान संघर्ष से डेंग के श्रमिक कारखानों तक। एक लाइन में 60 साल के पीपुल्स रिपब्लिक की यही पहचान है। और यही पहचान दुनिया के सामने चीन को किसी सपने की तरह संजोती है। क्योंकि 1949 में माओ ने जो सपना कम्युनिस्ट पार्टी के जरिए पीपुल्स रिपब्लिक को संजोने का रखा, उसमें चीन के तीस करोड़ अशिक्षित लोग भी थे और करीब इतने ही गरीबी रेखा से नीचे के भी थे। और 1979 के बाद डेंग जियोपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी के जरीये पीपुल्स रिपब्लिक को संवारने का जो सपना देखा, उसमें दुनिया के लिये चीन को सबसे बडे कारखाने में बदलना था और इसमें चीन के ऐसे नये तीस करोड़ मजदूर थे जो खेती से दूर उत्पादन के जरीये विश्व बाजार को अपने कब्जे में करना चाहते थे। उत्पादन से सीधे जुड़े इतनी बड़ी तादाद के सामने दुनिया का कोई देश टिक नहीं सकता, इस नब्ज को अलग अलग तरीके से माओ ने भी पकड़ा और डेंग ने भी।

वजह भी यही रही कि सोवियत रुस के खिलाफ जब अमेरिका और नाटो एक गठबंधन की दिशा में बढ़ रहे थे तो माओ ने इसमें शामिल होने से सीधा मना कर दिया। यह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की एकजुटता और माओ की समूचे देश को कम्यूनिस्ट धारा के साथ जोड़ने की पहल थी कि जिसमें देश के भीतर और बाहर हर निर्णय को अमली जामा पहनाने में माओ जुटे थे। अगर इन साठ बरस को टुकड़ों में बांटा जाये तो सांस्कृतिक क्रांति के ठीक बाद माओ के पहले चार साल क्रांति विरोधियो को ठिकाने लगाने में गये। उसके बाद दो साल पार्टी के भीतर पार्टी विरोधियो के खात्मे में गये और इस दौर में दक्षिण पंथियो के सर उठाने को लेकर भी 1958-59 में माओ को खासी मशक्कत करनी पड़ी।लेकिन इस दौर में पीपुल्स रिपब्लिक दुनिया के सामने आर्थिक तौर पर खासा कमजोर भी रहा। गरीबी-भुखमरी का आलम इसी चीन में ऐसा भी आया जब अंतर्राष्ट्रीय मापदंडो के तहत न्यूनतम भोजन भी चीन की एक तिहाई आबादी को नहीं मिल रहा था और चीन की जनसंख्या में औसत कैलोरी भी सभी को नसीब नहीं थी ।

1959-62 के दौर में चीन की भुखमरी में तीन करोड़ लोग मर गये लेकिन माओ ने पीपुल्स रिपब्लिक की उस इच्छा शक्ति को कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया जो सांस्कृतिक क्रांति के जरीये जगायी थी। यही वजह है कि भुखमरी के बाद माओ ने 1966 में उस महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति की नींव रखी, जिसने अगले दस सालो में चीन की विकास दर को 9 फीसदी तक पहुंचाया। पढ़े लिखे युवाओं को सीधे खेती और ग्रामीण समाज से जोडने की नायाब पहल इसी दौर में की गयी। नतीजा उसी दौर का है जो आज भी चीन में खेती का उत्पादन भारत की तुलना में एक बराबर जमीन में पांच गुना ज्यादा होता है।

लेकिन औधोगिक मसलों पर माओ की रणनीति कारगर नहीं हुई और अक्सर इस सवाल को कम्युनिस्ट पार्टी में भी उठाया गया कि 90 करोड़ की जनसंख्या में सिर्फ 6 करोड ही श्रमिक है और समूची विकास दर इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है। इसलिये माओ का चीन गरीब है। असल में विकास की इस कमजोर नब्ज को डेग झियाओपिंग ने पकड़ा। 1979 के बाद जहां किसानो की आर्थिक स्थिति में ,सुधार के लिये कानूनी तौर पर ऐसी पहल की, जिसमें खेती के उत्पादन का एक हिस्सा, जो औसत काम के बाद कोई किसान करता है, उसका लाभ उसी किसान के पास रहे। इससे अचानक ना सिर्फ खेत में उत्पादन बढ़ा बल्कि किसान बतौर उपभोक्ता भी सामने आया। वहीं इसके सामानांतर औघोगिक विकास की जो रुप रेखा डेंग जियोपिंग ने खिंची उसमें पश्चिमी देशो की तरह पूंजीवाद को अपनाया जरुर लेकिन माओ की क्रांति के उस तत्व को कमजोर नहीं पड़ने दिया, जिसके आसरे देश की बहुसंख्य जनसंख्या की भी भागेदारी हो। शहरी विकास का मॉडल विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी एसईजेड के जरीये ही तैयार हुआ । विदेशी निवेश के लिये रास्ते इतने सरल कर दिये और उघोग लगाने में नियमों को इतना लचीला बना दिया गया कि 2002 में ही अमेरिका से ज्यादा विदेशी निवेश चीन में हो गया।

आज की तारीख में निवेश 80 बिलियन डालर पार कर चुका है। यानी विदेशी व्यापार को अगर माओ के दौर से डेंग के दौर में देखे तो चीन में इन तीस साल यानी 1979 से 2009 के बीच 125 गुना वृद्धि हुई है । माओ के दौर में जहां 6 करोड श्रमिक थे, वही अब इनकी तादाद तीस करोड़ तक पहुंच गयी है । आलम यह है कि चीन जिस माल को बनाकर दुनिया के बाजार में निर्यात करता है, उस माल का नब्बे फीसदी उत्पादन चीनी श्रमिक ही करता है। इतनी बडी तादाद में दुनिया के किसी देश में मजदूर नहीं है इसलिये दुनिया के लिये पीपुल्स रिपब्लिक एक कारखाना भी है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। जहां सुविधाओं की फेरहिस्त चीनियो के लिये राज्य ने ही बढ़ाई। आरामपसंद जिन्दगी के लिये चीन कितना सुकूनदायक है, इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि अमेरिकियो की तुलना में प्रति चीनी पर पावर की खपत चार गुना ज्यादा है। यानी बाजारवाद की थ्योरी में चीनी उपभोक्ता भी शामिल हुआ। वजह भी यही है कि दुनियाभर में आई मंदी का असर चीन में नहीं पड़ा और पीपुल्स रिपब्लिक की तरफ से मंदी के दौर में भी चीनियों से कहा गया कि वह बाजार से अपनी खरीदारी जारी रखे और इसका असर भी यही हुआ कि मंदी के दौर में चीन एकमात्र देश है, जहां नियुक्तियों का दौर जारी रहा। इसीलिये विश्व आर्थिक विकास में चीन एक मॉडल की तरह उभरा।

लेकिन यहां यह सोचना बेमानी होगा कि यह स्थिति समूचे चीन की है । असल में बाजारवाद ने सामाजिक असमानता को बढ़ावा दिया । माओ के दौर में चीनी समाज में कभी असमानता को लेकर आक्रोष नहीं फूटा लेकीन डेंग के विकास में आर्थिक खाई के साथ साथ असमानता का चरित्र चकाचौंध और डपिंग ग्राउंड के तौर पर भी हुआ। यानी एक तरफ उपभोक्ताओं के लिये रेड कारपेट वाली नीतियां बनीं तो दूसरी तरफ तीस करोड़ श्रमिको से इतर मजदूरो के लिये कोई ठोस पहल नहीं हो पायी। उत्पादन और बाजार का तालमेल जब विश्व बाजार हुआ तो उत्पाद के लिये डंपिंग ग्राउड भी चीन में बना। खासकर मंदी के दौर में निर्यात में आयी कमी ने पीपुल्स परिपब्लिक के सामने यह संकट भी खड़ा किया कि वह श्रमिको को किस तरह लगातार उत्पादन से जोड़े रखे। इसका असर विकास दर पर भी पड़ा। मगर बाजार की थ्योरी का सबसे बुरा असर चीन के पर्यावरण पर पड़ा। जिसने कई क्षेत्रों में अगर पर्यावरण का विनाश दिखाया तो दूसरी तरफ उर्वर जमीन पर असर डाला। यानी किसान भी इस पर्यावरण के साथ खिलवाड़ से प्रभावित हुआ है । दक्षिण के बाद अब पूर्वी कोस्ट को जिस तरह आधुनिक औधोगिक विकास से जोड़ने की पहल शुरु की गयी है, उसमें पहली बार चीन में ही किसानों के विरोध के स्वर भी उठ रहे है और कम्युनिस्ट पार्टी में भी इस बात को लेकर बहस शुरु हुई है कि विकास का जो खांचा अपनाया जा रहा है, उसमें कहीं एक धारा को जगाने के लिये पुरानी धारा को बंद तो नहीं करना पड़ रहा है।

कम्युनिस्ट पार्टी के सामने सबसे बड़ी चिन्ता इसी बात को लेकर है कि सामाजिक असमानता कहीं कम्युनिस्ट पार्टी से उस युवा पीढ़ी का मोह भंग ना कर दे, जिसने सुविधा में जीना सिखा है और अपने मां-बाप को क्रांति के सपनों को पूरा करते हुये मशक्कत करते हुये देखा है । यह तालमेल कैसे बैठेगा चीन के सामने ही नहीं कम्युनिस्ट पार्टी के सामने भी यह परेशानी का सबब है। लेकिन दुनिया के सामने अपनी स्थिति को नये तरीके से परिभाषित करने करवाने की जो नयी पहल पीपुल्स रिपब्लिक की तरफ से हुई है, उसमें यह कहा जा सकता है कि पहले माओ फिर डेग जियोपिंग के बाद अब चीन उस सोच से भी आगे बढ़ना चाहता है, जहा दुनिया "चीमेरिका " कह कर उसकी ताकत को अमेरिका के समकक्ष मान्यता दे रही है। शायद दुनिया के सामने चीन इसीलिये एक अनसुलझी पहेली है क्योकि उसके सपने अभी जिंदा है और इन्हीं सपनो को पूरा करने की दिशा में बढ़ता चीन किसी के लिये चेतावनी है तो किसी के लिये अवसर।

6 comments:

Dr. Shreesh K. Pathak said...

चीन पर बात करो तो एक रहस्य सा छा जाता है, अरसे बाद चीन पर, खासकर उसके उस जादू पर जिससे समूचा विश्व आश्चर्यचकित है; एक सारगर्भित और समग्र लेख पढ़ा. आभार....

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

असल में बाजारवाद ने सामाजिक असमानता को बढ़ावा दिया । माओ के दौर में चीनी समाज में कभी असमानता को लेकर आक्रोष नहीं फूटा लेकीन डेंग के विकास में आर्थिक खाई के साथ साथ असमानता का चरित्र चकाचौंध और डपिंग ग्राउंड के तौर पर भी हुआ। यानी एक तरफ उपभोक्ताओं के लिये रेड कारपेट वाली नीतियां बनीं तो दूसरी तरफ तीस करोड़ श्रमिको से इतर मजदूरो के लिये कोई ठोस पहल नहीं हो पायी।

सार्थक लेख!

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर रचना ।
ढेर सारी शुभकामनायें.

Anonymous said...

सामाजिक असमानता तो किसी भी तरह की व्यवस्था में मिल जायेगी फ़िर वो पूंजीवादी हो या समाजवादी या फ़िर भारत की तरह कोई मध्य मार्ग। हाँ चीन से एक शिक्षा अवश्य लेनी चाहिए की जिन नेताओं को देश की बागडोर थमाएं उनमें दूरदर्शिता हो व देश को विश्व स्तर पर शक्तिशाली बनाने का, हर क्षेत्र में, जज्बा हो।

00000 said...

vajpaye ji your article is good but i expect more article from you on this subject. pls visit this link

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anurag said...

china ka behtreen kissa