Sunday, November 29, 2009

26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद मुंबई की सुबह

बडा जज़्बा है आपके शहर में ? सही कहा आपने ...लेकिन जज़्बा ही अगर जिन्दगी का प्रतीक हो और जज़्बे के बगैर पेट ना भरे तो फिर कहा जा सकता है......बड़ा जज़्बा है आपके शहर में । तो क्या 26 नवंबर को जिस तरह मुंबई की आंखों में पानी और दिल में दर्द का गुबार था....फिर सामने जलती मोमबत्ती...यह जिन्दगी की जरुरत है? लगता है आप न्यूज चैनलो को देखकर मुंबई को माप रहे हैं। जनाब 26/11 तो 27/11 को ही घुल गया। एक साल बाद न्यूज चैनलों की यादों में अगर आप 26 नवंबर को टटोलते हुये उसे मुंबई का सच मान लेंगे तो आप मुंबई से वाकिफ नहीं हैं। यहां जिन्दगी पेट से लेकर गोरी और मुलायम चमडी पर रेंगती है। यह ऐसा शहर है जहां एक ही जमीन पर फक्कड-मुफलिस से लेकर दुनिया के सबसे रईस और सिल्वर स्क्रीन पर चमकते सितारे चलते हैं। और सभी की भावनाएं एक सी रहती हैं। पांच सितारा जिन्दगी जीने वाले की मय्यत में अगर आंखों में काला चश्मा लगाकर कोई रईस पहुचता है तो सवाल उसके आंसुओं को देखने या छुपाने का नहीं है। उसे पता है मय्यत से निकलते ही उसे काम पर लग जाना है। और किसी मजदूर या मच्छीमार की मौत के बाद जमा लोग हाथो में अपने कामकाज का सामान ले कर पहुचते हैं....कि मय्यत से निपटे तो बस काम पर निकल लें। हर का अपना घेरा है और हर कोई अपने घेरे में अपने तरीके से मरता है।


तो अड़तालिस घंटे पहले जो टीवी पर दिखायी दे रहा था, वह सब झूठ था? न्यूज चैनल वाले उसे अपने हिसाब से गढ़ रहे थे? यह तो आप जाने और आप ही जैसा समझना चाहते है वैसा समझें। लेकिन कैमरे के लैंस को अगर आप अपनी आंख मान लेंगे तो और वह सबसे बड़ा धोखा होगा। क्यों कैमरा तो कभी झूठ बोलता नहीं...? लेकिन कैमरे से झूठ छिपाया तो जा सकता है। कमाल है कैसे..? अच्छा अगर कोई न्यूज चैनल वाला अभी टैक्सी रोक कर 26/11 पर आपसे सवाल करे तो आप क्या कहोगे। मै कहूंगा कि जो मारे गये उनके परिजनो के दर्द को मैं महसूस कर सकता हूं। मैं उनके साथ हूं । और मुझसे कोई पूछेगा तो मैं कहूंगा....मुंबई एक है। हमला कहीं भी हो वह हमारे सीने पर होता है । टेरररिज्म के खिलाफ समूची मुंबई एक है। बस मैं भी ताज-नरीमन जा रहा हूं श्रद्धांजलि देने। वह तो एक पैसेन्जर मिल गया। बस इन्हे छोडूंगा और निकल लूंगा।

तो यह जज्बा है? जी जनाब यही जज़्बा है मुंबई का। अगर यह ना कहूं तो फिर यवतमाल और मुंबई में अंतर ही क्या है। यही ग्लैमर है जनाब मुंबई का। आपने जिस दिन यह सच समझ लिया उसी दिन आप मुंबईकर हो जाते हैं। फिर आपका दर्द सभी का हो जाता है और सभी का दर्द आपका। क्योंकि काम करते रहना मुंबई का जज़्बा है । जिसमें चूके तो सबकुछ गया । टेरररिज्म इसमें रुकावट डालता है। आप तो साहब नरीमन हाउस गये होंगे । वह है यहूदियो का लेकिन उसमें तीन सौ से ज्यादा लोग काम करते हैं। एक तो मेरे गांव का भी है। कौन सा गांव ? यवतमाल का खेडका गांव। आप विदर्भ के हो ? जी जनाब उसी यवतमाल का जहां विदर्भ में सबसे किसान आत्महत्या कर रहा है। कर रहा है, मतलब ? मतलब की दो दिन पहले जब सभी न्यूज चैनल में मुबंई को 26/11 कह कर पुकारा जा रहा था, तो उस दिन भी हमारे गाव में मौनू देखमुख ने आत्महत्या कर ली। और यवतमाल में उस दिन कुल तीन किसानों ने आत्महत्या की।

मेरे भी दिमाग में कौंधा की विदर्भ के किशोर तिवारी का एसएमएस 26 नवंबर की रात को आया था कि विदर्भ में छह किसानों ने आत्महत्या कर ली। लेकिन टीवी पर 26/11 को याद करने का जुनून कुछ इस तरह छाया हुआ था कि रात बुलेटिन में मैं भी 10 सेकेंड भी किसानों की आत्महत्या के लिये नहीं निकाल सका। लगा जैसे 26/11 का जायका कहीं खराब ना हो जाये।

अच्छा आप बता रहे थे नरीमन हाउस के बारे में। जी जनाब....अब आप ही बताइये कि जो दो सौ-तीन सौ लोग वहा काम करते हैं, उन्हें 26 नवंबर को तो दिन भर काम ही यही दिया गया कि मोमबत्ती जलाकर श्रदांजलि देनी है। न्यूज चैनलों के कैमरे उन्हें टकटकी लगाकर देखते रहे और जाने क्या कुछ उनके जज्बे को लेकर कहते रहे। लेकिन किसी ने उनसे अगर पूछ लिया होता कि सुबह से मोमबत्ती जलाकर शोक मना रहे हो तो आज की दिहाड़ी कहां से आयेगी। तो खुद ही सच निकल जाता कि यही दिहाड़ी है। और मुबंई में जिस दिन दिहाड़ी से चुके उस दिन जिन्दगी से चूके। और जो जिन्दगी से चुका उसकी जगह दिहाड़ी लेने कोई दूसरा आ जायेगा।

तो क्या 26/11 में जान जाने से ज्यादा तबाही दिहाड़ी जाने में है? अब आप समझ रहे है जनाब। यहां जिन्दगी सस्ती है लेकिन उसकी भी दिहाड़ी मिल जाये तो चलेगा। लेकिन मौत अनमोल है जो बिक जाये तो चलेगा नहीं तो शोक ही चलेगा।

कमाल है अगाशे साहेब....आपका नाम ही फिल्मी कलाकार का नहीं है बल्कि काम और अंदाज भी निराला है। जी, टैक्सी ड्राईवर का नाम मोहन अगाशे ही है। असल में शनिवार 28 नवबंर को मुंबई हवाई अड्डे पर सुबह जब मित्र की कार लेने नहीं पहुची तो मुझे बैग उठाये बाहर टहलते देखकर टैक्सी ड्राइवर खुद ही आ गये और बोले मी मोहन अगाशे जनाब। कुठे चालणार। और इस शख्स के खुलेपन में मैं भी खिंचा सा इन्हीं की टैक्सी में बैठते ही बोला- अंधेरी चलो। अगाशे साहब ने बोलना शुरु किया- मोहन अगाशे के नाम के चक्कर में मै एक मराठी फिल्म में काम भी कर चुका हूं। यवतमाल ही आये थे कलाकार। फिल्म की शूंटिग हमारे गांव के बगल में ही हो रही थी। मराठी फिल्म के बड़े कलाकार नीलू फूले ने मुझे देखते ही कहा था...काम करोगे । फिर मुझे किसान बनाकर कुछ डायलॉग भी बुलवाये। वह मुझे जनाब कहते। फिर कहते वाकई कमाल का काम किया तुमने । अब मैं उन्हें कैसे बताता कि जिस किसान का काम वह मुझसे करवा रहे थे....वही तो मेरे घर में मेरे बाप ने जिन्दगी में किया। सब कुछ चौपट हुआ तो आत्महत्या कर ली ।

तुमने नीलू फूले को बताया
? बताया जनाब । उसी के बाद से तो मुंबई आ गया । उन्होंने कहा फिल्मों में ही काम करो । लेकिन मैंने कहा मुझसे जो कराना है करा लो। लेकिन एक टैक्सी ही खरीदवा दो। वही चलाउंगा। फिल्म में एक्टिंग होती नहीं है, जो जिंन्दगी में देखा हो । पता नहीं फूले जी क्या लगा । उन्होंने साठ हजार रुपये दिलवाये। पुरानी टैक्सी मैंने खरीदी और पिछले नौ साल से टैक्सी चला रहा हूं। तो यवतमाल लौटना नहीं होता ? जाता हूं जनाब । लेकिन मुंबई से लौटता हूं तो यहां की मुश्किलों को यहीं छोड़ कर लौटता हूं। क्यो वहां घर पर कोई नहीं कहता कि मुंबई से वापस घर लौट आओ। वहां तो 26/11 होता रहता है ? साहब यही तो जज़्बा है । लौटता हूं तो मुंबई के किस्से ही गांव वालो को सुनाता हूं ....वह भी उसे सुनकर यही समझते है कि टेररिज्म में भी भी मुबंई वाले खुश रहते हैं। जबकि सच बताऊं मुंबई मौत का सागर है, लेकिन यवतमात तो मौत का कुआं है । अब यहां कुछ बताने या छुपाने की बात नहीं है। जिसे जो अच्छा लगे उसे वहीं दे दो....यही काफी है । ऐसे में अगर मुंबईकर मुंबई की पहचान को ही मिटाने में लग जाये तो वह जायेगा कहां। मुझे लगा यही मुंबईकर का जज्बा है जो मुबंई को जिलाये हुये है। नहीं तो क्या मुंबई का एक 26/11 और यवतमाल में हर दिन 26/11 .....

6 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

यथार्थ यही है, पर यह केवल मुम्बई या यवतमाल का यथार्थ नहीं है। यह पूरे देश का यथार्थ है। केवल रूप भर बदल जाता है।

अनिल कान्त said...

सही लिखा है आपने
एक कुआँ तो दूसरा सागर
दर्द के चेहरे भले अलग हों लेकिन दर्द तो दर्द है, लेकिन जिस दर्द को फिल्माया जा सके बस मीडिया उसी पर आँखें गढ़ाए रहता दिखता है

shailendra said...

आपका दर्द समझ सकते हैं सर ... टीआरपी मुंबई से मिलेगी न की यवतमाल से ...बस बात यही है

प्रेम said...

आपकी बातें बिल्कुल सही हैं। पर ऐसा क्यों होता है कि आप जैसा संजीदा शख्स भी मुंबई हमलों की बरसी के दिन किसानों की आत्महत्या वाली खबर को 10 सेकंड भी नहीं दे पाया। हम समझ सकते हैं आपकी मजबूरी। पर क्या हम इतने मजबूर हैं कि किसानों की आत्महत्या वाली खबरो को 1 मिनट भी नहीं दे सकते। कोई न कोई तो पहल करेगा। खाली ऐसे कहने से तो बात बनेगी नहीं।

हालांकि आपने मुंबई हमलों की बरसी के बहाने हमेशा की तरह गंभीर मुद्दे को उठाया है। इसके लिए आपको धन्यवाद।

sirfsach said...

यही असली पत्रकारिता है सर...बुंदेलखंड का रोना रोने से बेहतर है ..राखी सावंत..विदर्भ से बेहतर है बिग बास...और आदिवासियों की समस्याओं से बेहतर पत्रकारिता है....राजू श्रीवास्तव के वो कमेंट्स.....। यहीं चल रहा है और यहीं चलेगा भी। किसान कौन है..असमानता क्या है..शोषण और गरीबी ये किस चिड़िया का नाम है। भला हो आपके टाईपराईटर पर लिखे शब्दों का जिसमें थोड़ी मानवता तो बची है...वरना खोजते रह जाएंगे....मानवीय मूल्यों की पत्रकारिता..............

rahul said...

ji,yahi vah baat jo patrakarita ko samaja ka aaina banati hai !aapne aaine me samaj ko sachhai dikhai hai,ye vo sachhai jo jante to sab hai lekin maane se parahej rakhte hai,t.v screen par hateliyo ki aapas me ragd ke us rahasmayi andaj ka matalb bhee shayad yahi hai !