Tuesday, December 1, 2009

26/11 यानी हर आंख में आंसू...और दिल में दर्द के प्रायोजक हैं न्यूज़ चैनल

......मोहन आगाशे तो कह सकता है प्रसून....लेकिन अपन किससे कहें। क्यों आपके पास पूरा न्यूज चैनल का मंच है..जो कहना है कहिये..यही काम तो बीते तीन सालों से हो रहा है। यही तो मुश्किल है.....जो हो रहा है वह दिखायी दे रहा है..लेकिन जो करवा रहा है, वही गायब है । असल में शनिवार यानी 28 नवंबर को देर शाम मुबंई में मीडिया से जुडे उन लोगो से मुलाकात हुई जो न्यूज चैनलों में कार्यक्रमों को विज्ञापनों से जोड़ने की रणनीति बनाते हैं। और 26/11 को लेकर कवायद तीन महीने पहले से चलने लगी।

लेकिन किस स्तर पर किस तरह से किस सोच के तहत कार्यक्रम और विज्ञापन जुड़ते हैं, यह मुंबई का अनुभव मेरे लिये 26/11 की घटना से भी अधिक भयावह था। और उसके बाद जो संवाद मुंबई के चंद पत्रकारों के साथ हुआ, जो मराठी और हिन्दी-अग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से जुड़े थे, वह मेरे लिये आतंकवादी कसाब से ज्यादा खतरनाक थे।

जो बातचीत में निकला वह न्यूज चैनलों के मुनाफा बनाने की गलाकाट प्रतियोगिता में किस भावना से काम होता अगर इसे सच माना जाये तो कैसे.....जरा बानगी देखिये। एक न्यूज चैनल में मार्केटिंग का दबाव था कि अगर सालस्कर...कामटे और करकरे की विधवा एक साथ न्यूज चैनल पर आ जायें और उनके जरिये तीनो के पति की मौत की खबर मिलने पर उस पहली प्रतिक्रिया का रिक्रियेशन करें और फिर इन तीनो को सूत्रधार बनाकर कार्यक्रम बनाया जाये तो इसके खासे प्रयोजक मिल सकते हैं । अगर एक घंटे का प्रोग्राम बनेगा तो
20-25 मिनट का विज्ञापन तो मार्केटिग वाले जुगाड लेंगे। यानी 10 से 15 लाख रुपये तो तय मानिये।

वहीं एक प्रोग्राम शहीद संदीप उन्नीकृष्णन के पिता के उन्नीकृष्णन के ऊपर बनाया जा सकता है । मार्केटिंग वाले प्रोग्रामिंग विभाग से और प्रोग्रामिग विभाग संपादकीय विभाग से इस बात की गांरटी चाहता था कि प्रोग्राम का मजा तभी है, जब शहीद बेटे के पिता के. उन्नीकृष्णन उसी तर्ज पर आक्रोष से छलछला जायें, जैसे बेटे की मौत पर वामपंथी मुख्यमंत्री के आंसू बहाने के लिये अपने घर आने पर उन्होंने झडक दिया था। यानी बाप के जवान बेटे को खोने का दर्द और राजनीति साधने का नेताओ के प्रयास पर यह प्रोग्राम हो।

विज्ञापन जुगाड़ने वालो का दावा था कि अगर इस प्रोग्राम के इसी स्वरुप पर संपादक ठप्पा लगा दे तो एक घंटे के प्रोग्राम के लिये ब्रांडेड कंपनियो का विज्ञापन मिल सकता है ।
8 से 10 लाख की कमायी आसानी से हो सकती है। वहीं विज्ञापन जुगाड़ने वाले विभाग का मानना था कि अगर लियोपोल्ड कैफे के भीतर से कोई प्रोग्राम ठीक रात दस बजे लाइव हो जाये तो बात ही क्या है। खासकर लियोपोल्ड के पब और डांस फ्लोर दोनों जगहों पर रिपोर्टर रहें। जो एहसास कराये कि बीयर की चुस्की और डांस की मस्ती के बीच किस तरह आतंकवादी वहां गोलियों की बौछार करते हुये घुस गये। .....कैसे तेज धुन में थिरकते लोगों को इसका एहसास ही नहीं हुआ कि नीचे पब में गोलियों से लोग मारे जा रहे हैं.....यानी सबकुछ लाइव की सिचुएशन पैदा कर दी जाये तो यह प्रोग्राम अप-मार्केट हो सकता है, जिसमें विज्ञापन के जरीये दस-पन्द्रह लाख आसानी से बनाये जा सकते हैं।

और अगर लाइव करने में खर्चेा ज्यादा होगा तो हम लियोपोल्ड कैफे को समूचे प्राईम टाइम से जोड़ देंगे। जिसमें कई तरह के विज्ञापन मिल सकते हैं। यानी बीच बीच में लियोपोल्ड दिखाते रहेंगे और एक्सक्लूसिवली दस बजे। इससे खासी कमाई चैनल को हो सकती है । लेकिन मजा तभी है जब बीयर की चुस्की और डांस फ्लोर की थिरकन साथ साथ रहे। एक न्यूज चैनल लीक से हटकर कार्यक्रम बनाना चाहता था। जिसमें बच्चों की कहानी कही जाये। यानी जिनके मां-बाप
26/11 हादसे में मारे गये......उन बच्चों की रोती बिलकती आंखों में भी उसे चैनल के लिये गाढ़ी कमाई नजर आ रही थी। सुझाव यह भी था कि इस कार्यक्रम की सूत्रधार अगर देविका रोतावन हो जाये तो बात ही क्या है। देविका दस साल की वही लड़की है, जिसने कसाब को पहचाना और अदालत में जा कर गवाही भी दी।

एक चैनल चाहता था एनएसजी यानी राष्ट्रीय सुरक्षा जवानो के उन परिवारो के साथ जो
26/11 आपरेशन में शामिल हुये । खासकर जो हेलीकाप्टर से नरीमन हाऱस पर उतरे। उसमें चैनल का आईडिया यही था कि परिजनो के साथ बैठकर उस दौरान की फुटेज दिखाते हुये बच्चों या पत्नियो से पूछें कि उनके दिल पर क्या बीत रही थी जब वे हेलीकाप्टर से अपनी पतियों को उतरते हुये देख रही थीं। उन्हें लग रहा था कि वह बच जायेंगे। या फिर कुछ और.......जाहिर है इस प्रोग्राम के लिये भी लाखों की कमाई चैनल वालो ने सोच रखी थी।

26/11 किस तरह किसी उत्सव की तरह चैनलों के लिय़े था, इसका अंदाज बात से लग सकता है कि दीपावली से लेकर न्यू इयर और बीत में आने वाले क्रिसमस डे के प्रोग्राम से ज्यादा की कमाई का आंकलन 26/11 को लेकर हर चैनल में था। और मुनाफा बनाने की होड़ ने हर उस दिमाग को क्रियटिव और अंसवेदवशील बना दिया था जो कभी मीडिया को लोगों की जरुरत और सरकार पर लगाम के लिये काम करता था।

जाहिर है न्यूज चैनलों ने
26/11 को जिस तरह राष्ट्रभक्ति और आतंक के खिलाफ मुहिम से जोड़ा, उससे दिनभर कमोवेश हर चैनल को देखकर यही लगा कि अगर टीवी ना होता तो बेडरुम और ड्राइंग रुम तक 26/11 का आक्रोष और दर्द दोनों नहीं पहुंच पाते । लेकिन 26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद ही मुबंई ने यह एहसास भी करा दिया कि आर्थिक विकास का मतलब क्या है और मुंबई क्यों देश की आर्थिक राजधानी है। और कमाई के लिये कैसे न्यूज चैनल ब्रांड में तब्दील कर देते है 26/11 को। याद किजिये मुबंई हमलों के दो दिन बाद प्रधानमंत्री 28/11/2008 को देश के नाम अपने संबोधन में किस तरह डरे-सहमे से जवानों के गुण गा रहे थे। वही प्रधानमंत्री मुंबई हमलों की पहली बरसी पर देश में नहीं थे बल्कि अमेरिका में थे और घटना के एक साल बाद 25/11/2009 को अमेरिकी जमीन से ही पाकिस्तान को चुनौती दे रहे थे कि गुनाहगारो को बख्शा नहीं जायेगा। तो यही है 26/11 की हकीकत, जिसमें टैक्सी ड्राइवर मोहन आगाशे का अपना दर्द है.......न्यूज चैनलो की अपनी पूंजी भक्ति और प्रधानमंत्री की जज्बे को जिलाने की अपनी राष्ट्र भक्ति। आपको जो ठीक लगे उसे अपना लीजिये ।

11 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

मुनाफे पर जीवित संस्था हर मौके को मुनाफे में बदल देना चाहती है। वह आप के लिए असीम दुख का क्षण हो या सुख का।

Alok Nandan said...

मार्केटिंग वाले तो अपने मामले में बहुत क्रिएटिव हैं, क्योंकि उनका काम ही माल बनाना...कंटेंट को लेकर उनके दिमाग में तमाम तरह के आइडि याज घूमते रहते हैं, और फिर वे मैनेमेंट को झाड़ के ऊपर का सपना दिखाते हैं, और फिर मैनेजमेंट संपादाकीय को हांक मारने की कोशिश करता है...संवेदनशीलता की बात बेमानी है...लेकिन पत्रकारिता को यहीं पर कुशाग्र रूप से प्रोफेशनल होने की जरूरत है...जैसे मार्केटिंग का ध्यान माल बटोरने पर होता है वैसे ही पेशेवर पत्रकारों का ध्यान उनके अपने धंधे पर होना चाहिये...पत्रकारिता मार्केटिंग और मैनेजमेंट के बीच पड़ी है...दोनों इसी को दबोच कर अपना झंडा बुलंद करना चाहते हैं...

प्रदीप जिलवाने said...

बाजार की अपनी रवायते हैं. बाजार की अपनी शर्तें. इन दिनों मीडिया भी इस बाजार की चपेट मे है. इसी बाजार ने तो उसे टीआरपी का मनोरंजक खेल दिया है.
बहरहाल 26/11 के बहाने आपने एक अच्‍छी पोस्‍ट दी है. बधाई.

Anshu Mali Rastogi said...

26/11 पर संजीदा रहा ही कौन? न मीडिया न प्रधानमंत्री न सरकार। जो शहीद हुए उन्हें मोमबत्तियों की शक्ल में याद किया गया।

Vikas Kumar said...

साहब ये बात कोई नई तो नहीं ही है.
मीडिया जो दिखा रहा है वो क्यों और किस लिए दिखा रहा है ये तो सभी जानते हैं.....

लेकिन अहम सवाल ये है कि इसे क्या कभी रोका जा सकता है?

Krantikari Sipahi said...

26/11 के रूप मे आपने जो बात रखी है वो दिल को छु जाती है चाहे पहली बरसी हो या 20 जिन्होंने अपनों को खोया है उनका दर्द वोहि रहेगा. पर एक और भी बात कही है आपने जो सही कहा आपने पर सवाल ये है ? की जो इसे रोक सकते है वह रोकने की कोशिश ही नहीं करते है, लेकिन कही न कही आप भी उस न दिखाई देने वाले चेहरे के साथ हो जाते है जो दर्द दिखा कर पैसा कमाना चाहता है.

Anonymous said...

Excellent!! market media relations will be at cornerstone in India unless there are some innovative reforms in media and market regulations. Individual rights of privacy is gravely violated in media market honeymoon. 26/11 Festivities (as you called it) will continue with new tragedies. Except sex appeal, nothing is more attractive. But the 'fear' and 'threat' perception is newly discovered appeal which is hugely supported by security and defense industries. Instead of advertisements of security equipments, live tragedies are best market strategy. Have a look on significant increase of security supplies to India after 26/11 which constitute more than we lost.

Anupama Bose said...

celebrating 26/11... Happy 26/11 to you ! agle saal yeh jingle sting ki tarah sunayee dega...mind it!

amitesh said...

sabkuchh jab bikaau hai to ye mota munafa kamane kaa maukaa kyon chhode. isliye 26\11 ko bhi bech diyaa...

Unknown said...

आप ने बिल्कुल यथोचित कहा है| अगर देश में मीडिया की स्थिति देखी जाए तो वो ताल ठोक के पत्रकारिता करने वाला जमाना लद गया सा दिखता है |अब तो मीडिया की देशभक्ति में भी टी .आर .पी की आर्थिक खुशबू आती है | जहाँ शहीदों के शवो को राजनितिक तिरंगे में लपेटकर पूरे राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार करता हुआ दिखाया जाता है |मीडिया में भी शायद एक नई अलख जगाने की जरूरत है |शायद ऐसा हो पाये.....

Unknown said...

बाजपेई जी पराई पीड़ा से कैसे पैसे बनाये जा सकते हैं और देश के लोकतंत्र का चौथा खम्भा कैसे इसे अपनी आमदनी और दर्शक संख्या में परिवर्तित करता है, इसका उसी के अंदर से पर्दाफाश करने के लिए आप बधाई के पात्र हैं. ये बाज़ार है और आज का कोई भी समाचार संतान बाज़ार का हिस्सा है.....अब गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे मिशनी पत्रकार और पत्रकारिता कहाँ yaksh prashna yah है कि आप कब तक इस तरह का पर्दाफाश करते हुए इस बाज़ार में बने रह पायेंगे.