23 नवंबर 2009 को संसद में मुलायम को कहना पड़ा कि 1992 में बाबरी मस्जिद की असल लड़ाई उन्होंने ही लड़ी थी। और संकेत में यह भी कह गये कि कहीं ऐसा न हो कि दुबारा नब्बे के दशक के दौर की परिस्थितियां आ जाये। मुलायम यह बात और किसी को देखकर नहीं कह रहे थे बल्कि उनकी नजरें और जवाब दोनों आडवाणी की तरफ था। उनके ठीक पहले आडवाणी ने मंदिर के लिये मर मिटने की तान छेड़ी थी। तो क्या यह संकेत मुलायम को अपनी पुरानी राजनीति में लौटने की है।
संयोग देखिये 1992 में कांशीराम को इटावा संसदीय सीट से उपचुनाव जीतने में मुलायम की जरुरत पड़ी थी और 2009 में इटावा विधानसभा उप चुनाव में मायावती ने मुलायम को पटखनी दे दी। तो क्या मुलायम की राजनीति का चक्र पूरा हो चुका है। क्योंकि जो राजनीतिक जमीन नब्बे के दशक में मुलायम बनाते रहे, वह 2009 में चूक चुके है। अगर राजनीतिक बिसात पर पहली एफआईआर दर्ज हो तो लिखा जा सकता है....हां।
लेकिन मुलायम की बिसात की एक-एक तह को हटाया जाये तो राजनीतिक चूक की एफआईआर में शायद... हां-नहीं दोनों लिखना होगा। और मुलायम को परखने का एक मौका और देना होगा। राजनीतिक तौर पर मुलायम की शुरुआत शिकोहाबाद से हुई, जहां समाजवादी नेता नत्थू सिंह ने नगला अंबर की प्रतियोगिता में मुलायम को अपने से बडे पहलवान को चित्त करते देखा। बस मुलायम की यही अदा नत्थू सिंह को भा गयी, जो सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से जसवंतनगर से चुनाव लड़ रहे थे। मुलायम ने जमकर चुनाव प्रचार किया। नत्थू जीते और मुलायम के राजनीतिक गुरु बन गये। गैर-कांग्रेस का पहला पाठ मुलायम ने इसी वक्त पढ़ा और उसे अपनी रगों में कैसे दौड़ाया यह 14 जुलाई 1966 को तब नजर आया, जब कांग्रेस सरकार की नीतियों के खिलाफ उत्तर प्रदेश बंद का ऐलान किया गया। और जो दो जिले पूरी तरह बंद रहे, उनमें जसवंतनगर और इटावा ही थे और इसके हीरो और कोई नहीं मुलायम सिंह यादव ही रहे। इसीलिये कुछ दिनो बाद राममनोहर लोहिया जब इटावा पहुचे तो मुलायम से मिले। मुलायम के कंघे पर हाथ रखकर कहा ....यह कल का भविष्य है। और इसे अगले ही साल 1967 में मुलायम ने जसवंतनगर सीट पर कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चित्त कर साबित भी कर दिया। मुलायम ने 28 साल पूरे नहीं किये थे और चुनावी जीत के साथ अपने चाहने वालों को बता दिया कि उनके लिये राजनीतिक मैदान भी अखाड़े की तरह है, जहां बड़ों-बड़ों को वह चित्त करेंगे।
पहली राजनीतिक पहल मुलायम की तरफ से अलाभकारी खेती पर टैक्स माफ, अंग्रेजी पर प्रतिबंध और फौजदारी कानून के प्रतिक्रियावादी अनुच्छेदों को मुल्तवी करने की खुली वकालत से शुरु हुआ। लेकिन मुलायम उस दौर में एक साथ कई पांसो को संभालते थे। ब्राह्मण विरोध के लिये आरक्षण का समर्थन किया और युवकों को साथ लाने के लिये उनके सामाजिक और आर्थिक मसलों को उठाया। 18 मार्च 1975 को जब जेपी संपूर्ण क्रांति का नारा दे रहे थे, उस दिन विधानसभा में मुलायम कह रहे थे... नौजवानो की नाराजगी की वजह सामाजिक और आर्थिक है। अपने ही बच्चों के खिलाफ सरकार लाठी, गोली, डीआईआर, मीसा और गुंडा एक्ट का इस्तेमाल कर अच्छा नहीं कर रही है। ...अपनी कुर्सी बचाने के लिये सरकार दमन कर के लाठी चार्ज करवा कर अपनी कब्र खोद रही है। मुलायम के इस रुख ने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में युवाओं को एक समाजवादी नायक दिया, जिसकी बिसात पर हर तबके को साथ जोड़ते हुये भी एक नयी राजनीति की महक दिखायी दे रही थी। इस राजनीति का लाभ मुलायम को अस्सी के दशक के दौर में तब मिला, जब वीपी सिंह दस्यु विरोधी अभियान के नाम पर फर्जी इनकाउंटर में पिछडे युवाओं को निशाना बना रही थी।
मुलायम ने इसी दौर में आंदोलन छेड़ा। आंदोलन छेड़ा कैसे जाता है, मुलायम ने एक नयी परिभाषा दी। पुलिसिया आतंक से सड़क पर सीधा संघर्ष किया और सरकार के तौर तरीकों के खिलाफ यानी फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ खुद ही अखबारों में लेख लिखने से लेकर मानवाधिकार संगठन एमेनस्टी इंटरनेशनल तक को बेकसूरों की सूची भेजी। अपने कैनवास को राजनीतिक तौर पर मुलायम ने नया आयाम तब दिया जब राजीव गांधी ने उत्तर प्रदेश की गद्दी पर वीर बहादुर सिंह को बैठा दिया। मुलायम ने कटाक्ष किया...जहां कभी गोविंद वल्लभ पंत बैठते थे, वहां आप जैसे माफिया का बैठना भी जनता को देखना था। बिलकुल लोहियावादी शैली में मुलायम ने कांग्रेस को घेरा। राजनीतिक माफिया और माफिया की राजनीति को जन्म देने वाली कांग्रेस को घेरा। और इसी के सामानांतर साप्रंदायिक दंगे, भ्रष्टाचार,बिजली,हरिजन और किसानों की समस्याओ को उठाया। लेकिन मुलायम की इस राजनीतिक बिसात में सत्ता कही नहीं थी। वहीं 5 दिसंबर 1989 को लखनउ के कुंवर दिग्विजय सिंह स्टेडियम में राज्य की सर्वोच्च गद्दी की शपथ लेने के साथ ही यही बिसात उलटने लगी जो इटावा से लखनऊ तक तो पहुंचाती थी, लेकिन इसके आगे की पटरी किसी को पता नहीं थी। अब मुलायम की छाती पर जो तमगे लग रहे थे वह गैर कांग्रेसवाद से छिटक कर गैर भाजपा की दिशा में ले गये।
मुलायम की राजनीतिक पटरी सांप्रदायिकता के खिलाफ चलते हुये बहुसंख्यक तबके को समाजवादी नीति तले एकजूट करने वाली होनी थी। लेकिन साप्रंदायिकता के खिलाफ सवारी करते मुलायम बाबरी मस्जिद की रक्षा में इस तरह उतरे की कल्याण सिंह से लोहा लेते भी मुलायम नजर आ रहे थे और कल्याण को राम बनाकर खुद मौलाना होना भी उन्हें अच्छा लग रहा था। यानी मुलायम एक कुशल नट की तरह समाजवादी बने रहने को राज्य में परिभाषित करने में लगे रहे तो दूसरी तरफ वीपी,देवीलाल,चन्द्रशेखर गुटों में संतुलन बनाने का खेल भी खेल रहे थे। वह टिकैत को लखनऊ आने से और स्वरुपानंद सरस्वती को अयोध्या जाने से रोकने में भी सफल हुये। लेकिन 1991 में सत्ता जब फिसली तो मुलायम खुद इतने फिसल चुके थे कि उनकी मौजूदगी हिन्दी का सवाल उठाने और बाबरी मस्जिद की रक्षा करने वाले तक जा सिमटी। इसी सिमटती राजनीति को तोड़ने के लिये मुलायम ने 1992 में इटावा से कांशीराम को जीता कर दलित मुख्यता जाटव और यादव वोटों की एकता बनायी। मुसलमान भी उनके साथ जुड़े। कांशीराम ने सपा-बसपा गठजोड को लोहिया-आंबेडकर के छोडे गये कार्यो को पूरा करने के उद्देश्य से जोड़ दिया। लेकिन बाबरी मस्जिद गिरायी गयी तो मुसलमान मुलायम के पीछे थे। अछूत कांशीराम के और सवर्ण भाजपा के।
जाहिर है यही वह राजनीति है जो कांग्रेस को हाशिये पर ले जाती है। इसे मुलायम नहीं समझ पाये। लेकिन मायावती ने इसी काट को समझा कि अगर कांग्रेस इस तिकडी में दखल देने आ जाये तो मुलायम की जमीन खिसकायी जा सकती है। इसलिये मायावती ने खुद के खिलाफ हमेशा कांग्रेस को तरजीह दी। और इसी दौर में मुलायम के काग्रेस प्रेम से लेकर कल्याण प्रेम किसी से छुपा नहीं। और संकीर्ण यादवो के साथ भी रोटी-बेटी के संबंधो को ना निभा पाना भी भारी पड़ा। लेकिन अब जब मुलायम को अपनी राजनीतिक जमीन पर ही पटखनी मिली है तो पहला काम वह यही कर रहे हैं कि कल्याण और कांग्रेस से पल्ला झाड़ रहे हैं। और इसमें कल्याण सिंह अब यह कर मदद कर रहे है कि उनका काम तो हिन्दुत्व को जगाने और रक्षा करने का है। लेकिन मुलायम समझ रहे हैं कि गोमती किनारे खड़े होकर वह बाबरी ढांचे का राग नहीं अलाप पायेंगे। क्योकि आजम खान की माने तो , बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद मुलायम ने पहला टेलीफोन बेनी प्रसाद वर्मा को किया था...और कहा था अब सत्ता भी मिल जायेगी....खामोश हो जाइये। लेकिन अब सवाल यही है कि मुलायम अपनी पुरानी राजनीति पर लौटते हुये अपनी बिसात बिछाते है या बिछ रही राजनीतिक बिसात में फिर अपने उन्हीं मोहरो को बचाने में जुटते हैं, जिन्होंने अपने ही अखाड़े में मुलायम को चित्त करा दिया।
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Tuesday, November 24, 2009
मुलायम अखाड़े में कुश्ती होगी या नूरा कुश्ती
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:40 AM
Labels:
मुलायम सिंह,
राजनीति
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4 comments:
आदरणीय प्रसून जी
करते रहिये बेनकाब
बहुत खूब कहा जनाब... मुलायम के अखाड़े पर सबकी नज़र है पर आपका अंदाजेबयां बस वाह!
मुलायम का कुलप्रेम ही उन्हें ले डूबा
this blog help me to know mulayam and his history, his moral.
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