उनसठ साल पहले श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर एक राष्ट्रवादी राजनीतिक दल की स्थापना के लिये तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवरकर से कार्यकर्ता मांगे थे। तब आरएसएस ने उन कार्यकर्ताओं को श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जाने की इजाजत दे दी जो राजनीतिक दल बनाने के पक्ष में थे। उसी के बाद 1951 में जनसंघ आसतित्व में आया। और जनसंघ के अध्यक्ष डॉ मुखर्जी बने। और उनसठ साल बाद संघ के राजनीतिक दल भाजपा के अध्यक्ष नीतिन गड़करी ने सरसंघचालक से पार्टी का संगठन संभालने या कहें मथने के लिये संघ से कार्यकर्ता मांगे और संघ ने तीन कार्यकर्ताओ पर हरी झंडी दिखा दी। रामलाल के साथ वी सतीश और सौदान सिंह । संघ के रास्ते ही मुरलीधर राव ने भी दस्तक दी। लेकिन मुरलीधर आरएसएस से ज्यादा स्वदेशी के झंडाबरदार दत्तोपंत ठेंगडी के प्रिय रहे हैं। मगर गडकरी ने देशी अर्थव्यवस्था का खासा पाठ ठेंगडी के जीवित रहते उनसे पढ़ा है तो मुरलीघर के प्रति सहोदर वाला भाव उनके भीतर है। असल में गड़करी की टीम यही तीन-चार की है। चूंकि गड़करी सिर्फ खाकी हाफ पैन्ट पहनने वाले संघी नहीं हैं। नागपुर में संघ के मोहल्ले में पले-बढ़े हैं। जहां हेडगेवार के भाषणों के कैसट और लघु पुस्तिका आज भी कई मौकों पर बांटी जाती है। और संगठन के बगैर पार्टी तो दूर देश भी नहीं बचता, यह पर्चा आज भी नागपुर के महाल में बतौर हेडगेवार भाषण के तौर पर मिल जायेगा। यह अलग बात है कि कागज में छपे हेडगेवार के विचार अब पुराने नागपुर शहर में ही किसी परचून की दुकान में पुलिन्दे में लिपटे भी मिल जायेंगे। जिसमें 1935 में पुणे में हेडगेवार के दिये उस तकरीर का भी हिस्सा मिलेगा, जिसमें कहा गया है,
" किसी भी राष्ट्र का सामर्थ्य उसके संगठन के आधार पर निर्मित होता है। बिखरा हुआ छिन्न-भिन्न समाज तो एक जमघट मात्र है। और जमघट में परस्पर कुछ न संबंघ रखने वाले लोग होते हैं जबकि संगठन में एक अनुशासन होता है। जमघट भूर-भूरी मिट्टी की तरह होता है और संगठन ठोस चट्टान की तरह। जो हथौड़े से भी नहीं टूटता। संघ का जन्म समाज को ही संगठन में ढाल कर संगठित , अभेघ और बलशाली बनाने के लिये हुआ है। " लेकिन समाज तो दूर आज की भाजपा को देखकर कोई भी कह सकता है कि यह जमघट है । जहा राष्ट्रवाद से लेकर सत्तावाद और समाजिक सरोकार से लेकर पूंजी की दरकार वाले लोगो का जमावड़ा है। तो क्या गड़करी ने भी हेडगेवार का यह पुलिन्दा पढ़ा और उसके बाद ही जमघट में तब्दील हो चुके भाजपा को संगठन में बांधने की सोची। या फिर सरसंघचालक मोहन भागवत ने हेडगेवार की तकरीर को गड़करी के कान में फूंका। हो जो भी लेकिन पहला संवाद यही निकलता है कि भाजपा जमघट में तब्दील हो चुकी है, जिसे संगठन में बांधना पहली जरुरत है। इसलिये संगठन बनाने का पूरा काम संघ के इन्हीं चार कार्यकर्ताओं को सौपा गया है। लेकिन गडकरी की टीम को देखकर एक दूसरा संवाद भी निकला कि भाजपा का संगठन बांधने की दिशा में गडकरी की टीम ही पहली नजर में संगठन की जगह जमघट हो गयी।
वैसे जमघट को मथना और संवारना भी संघ को आता है, इसकी ट्रेनिग हेडगेवार और गुरु गोलवरकर के दौर की पहचान रही है। क्योंकि पहली बार जब हेडगेवार ने महाराष्ट्र से बाहर आरएसएस को फैलाना चाहा तो नौ लोगो की टीम बनायी और उन्हें ही संगठन मजबूत करने के लिये तैयार किया। जिन नौ को चुना गया और उन्हीं के भरोसे संघ के विस्तार का सपना हेडगेवार ने देखा। जरा उस टीम को देखिये। भाउराव देवरस को लखनउ भेजा,तो राजाभाउ पातुरकर को लाहौर भेजा। इसी तरह वसन्त राव ओक को दिल्ली, एकनाथ रानाडे को महारौशल, माधवराव मुले को कोंकण, दादाराव परमार्थ को दक्षिण में तथा नरहरि और बापूराव दिवाकर को बिहार भेजा। जबकि बाला साहेब देवरस को कोलकत्ता भेजा गया । 1931 में यह टीम तैयार की गयी थी । उस वक्त आरएसएस के स्वंयसेवकों की संख्या करीब तीन हजार थी। लेकिन पांच साल बाद यानी 1936 में स्वंयसेवकों की तादाद देश भर में तीस हजार पार कर चुकी थी।
कुछ ऐसा ही प्रयोग गोलवरकर ने किया और कुछ इसी तर्ज पर जनसंघ के विस्तार को पहला अंजाम 1952-53 में डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दिया। संघ और जनसंघ से होते हुये भाजपा में यह सिलसिला कब तक चला और कब थमा यह कहना तो मुश्किल है लेकिन जिस टीम के आसरे संगठन बनाते हुये भाजपा को मथते हुये दस फिसदी वोट बैंक बढ़ाने का सपना जिस तरह गड़करी ने पाला है, वह पहली बार हुआ है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। सिल्वर स्क्रीन का जादू सिल्वर स्क्रीन के जरीये ही रेंगता है इसका एहसास आज के गडकरी और मोहनराव भागवत को चाहे न हो और भाजपा की टीम में बडे पर्दे से लेकर छोटे पर्दे तक से जादू बिखेरने वालो को भी संगठन की पंगत में बैठा नये भारत का सपना जागते हुये देखने की हिम्मत चाहे दिखायी गयी हो लेकिन साठ साल पहले बतौर सरसंघचालक 44 साल के गुरु गोलवरकर को भी इसका एहसास था कि सिनेमायी पर्दा आखिरकार सिनेमायी ही होता है। इसलिये उस दौर में जब वी. शांताराम से लेकर गीतकार प्रदीप की मान्यता किसी भी स्वंयसेवक से ज्यादा की थी, तब भी गोलवरकर ने यही माना कि राष्ट्रवाद को जगाने के लिये समाज के कंघे से कंघा मिलाकर चलना होगा। जिसमें प्रदीप के गीत मन में उंमग तो भर सकते है लेकिन सिर्फ गीत या प्रदीप के जरीये हिन्दू राष्ट्रीयता का भाव जाग जायेगा, ऐसा संभव नहीं है। यानी संघ के हर संगठन में मजबूती भी उसी दौर में आयी जब संगठन की दिशा का नजरिया साफ रहा। चाहे वह खुद आरएसएस हो या उससे बना जनसंघ या फिर स्वदेशी से लेकर विश्वहिन्दू परिषद और भारतीय मजदूर संघ से लेकर वनवासी कल्याण केन्द्र या भारतीय किसान संघ । यहा तक की विद्या भारती भी उसी दौर में फैली जब प्राथमिक शिक्षा को लेकर संघ का नजरिया साफ रहा। 1998 में जब संघ के स्वयंसेवक ही सत्ता में आये अगर उससे ठीक पहले संघी शिक्षा के विस्तार को विघा भारती तले ही देखे तो किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि 1998 तक देश में 13 हजार शिक्षण संस्थाओं से 73 हजार आचार्य और 17 लाख से ज्यादा छात्र जुड़े थे।
लेकिन नजरिया डगमगाया तो शिक्षा देने और समाज को जोडने में लगे संगठन भी जमघट में तब्दील होते चले गये। और बीते बारह सालों में विद्या भारती से जुडे छात्रों की तादाद कम हो गयी । जो 15 लाख के करीब है। भाजपा को भी नयी टीम के जरीये मथने की तैयारी बिना नजरिये कैसे हो रही है। यह सरसंघचालक के दिल्ली की चौकड़ी को आईना दिखाने से लेकर गडकरी के गांव में कार्यकर्ताओ को भेजने और अंत्योदय कार्यक्रम के तहत आखिरी व्यक्ति तक पहुंचने के नारे से समझा जा सकता है। मोहनराव भागवत ने जिस दिल्ली की चौकडी को सीधे नकारा उसी की बी टीम गडकरी को बनानी पड़ी।
यानी भागवत ने भाजपा के भीतर एयरकंडीशन कमरे में बैठकर भ्रष्टाचार के दलदल में गोते लगाते हुये सत्ता की जोड़तोड़ करने के तौर तरीक को कैंसर की संज्ञा देते हुये एक वक्त अंगुली उठायी और गडकरी की टीम में उन्हीं के एंजेट प्रभावी हो गये। वही मनमोहन इक्नामिक्स जब गांव को खत्म कर शहर में तब्दील करने पर तुले है और विकास की इसी लकीर को जब भाजपा के सबसे उदीयमान नेता नरेन्द्र मोदी भी अपनाये हुये हैं तो फिर गडकरी के गाव या अंत्योदय का अर्थ क्या निकाला जाये। खासकर तब जब देश में अस्सी करोड़ लोग सरकार की नीतियों में भी फिट ना बैठ रहे हों। जहां गरीबी की रेखा से नीचे जीने वालो की तादाद में लगातार बढोत्तरी हो रही हो। जहां बिना सरकारी मदद के और बिना इन्फ्रस्ट्रक्चर के खेती पर टिके साठ करोड़ लोगों की रोटी पर ही सीधे हमला खेती की जमीन छिनकर विकास के नाम पर सरकार कर रही हो और वैसे में गडकरी की टीम के 75 फिसदी मनमोहनइकनामिक्स की ही देन हो तो यह सवाल कौन उठायेगा कि भाजपा का नजरिया है क्या । शिक्षा से लेकर आर्थिक मुद्दों और आदिवासी से लेकर किसान तक पर बिना साफगोई नीति के कैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल चलाया जा सकता है। और यह सवाल किससे किया जा सकता है कि आपकी नीति आप ही से जुडे उन तमाम संगठन की है क्या जो समाज के तकरीबन हर हिस्से में संगठन बना कर चला रहे हैं। और अगर सिर्फ आंकड़ों के आसरे गडकरी या भागवत दावा करे कि इतना बड़ा परिवार और किसी के पास नहीं है, तो सवाल उठेगा यह जमघट है संगठन नहीं। क्योकि किसान संघ की नरेन्द्र मोदी अपने राज्य में नहीं सुनते। वनवासी कल्याण आश्रम छत्तीसगढ में रमन सरकार की विकास नीति में फिट नहीं बैठता। हिन्दु जागरण मंच और विश्व हिन्दुपरिषद में टकराव है। स्वदेशी जागरण मंच भाजपा की आर्थिक नीति में फिट नहीं बैठता । लघु उघोग भारती को लेकर कोई राजनीतिक सहमति स्वंयसेवको की सत्ता के दौर में नहीं हुई । और जिस हिन्दुत्व को लेकर हेडगेवार ने आरएसएस की नींव डाली उसी को हर कोई अपनी सुविधानुसार परिभाषित करने में लगा है ।
1992 में विश्व हिन्दु परिषद का दिया नारा, गर्व से कहो हम हिन्दु है आज की भाजपा के लिये राजनीतिक सुसाइड का नारा हो गया है। संघ के भीतर बाहर कितना कुछ बदल चुका है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि 9 जून 1940 को हेडगेवार के अपने आखिरी भाषण में कहा था,-----"प्रतिज्ञा कर लो कि जब तक जीवित है,संघ कार्य को अपने जीवन का प्रधान कार्य मानेगे, हमारे जीवन में यह कहने का दुर्भाग्यशाली क्षण कभी ना आये कि मै भी संघ का स्वंयसेवक था ......। "सवाल है गडकरी की टीम के चमकते-दमकते चेहरे तो जानते तक नहीं कि आरएसएस है क्या और बुझे चेहरे छुपाते हैं कि वह संघ के स्वंयसेवक हैं। और जो ताल ठोंक कर कहते है कि संघ का कार्य जीवन का प्रधान कार्य है उनकी कोई राजनीतिक हैसियत पार्टी लीडर ही नहीं मानते। अब इस जमघट को संगठन में बांधना भी संघ की जरुरत है। इसलिय भाजपा की नयी टीम गड़करी की नही भागवत की हार है।