नरेन्द्र मोदी भाजपा के स्टार प्रचारक हैं। नरेन्द्र मोदी भाजपा के सबसे कद्दावर नेता हैं। नरेन्द्र मोदी भाजपा शासित राज्यों में सबसे अव्वल मुख्यमंत्री हैं। नरेन्द्र मोदी विकास की लकीर खींचने में माहिर हैं। नरेन्द्र मोदी के हिन्दुत्व प्रयोग के आगे तो संघ परिवार भी नतमस्तक है। नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ यह ऐसे अंलकार हैं, जो भाजपा और आरएसएस में बीते नौ सालो से लगातार सुने जाते रहे हैं। लेकिन नरेन्द्र मोदी बिहार में चुनाव प्रचार करने नहीं जा सकते। नरेन्द्र मोदी बिहार गये तो भाजपा-जेडीयू गठबंधन का चुनावी भट्टा बैठ सकता है। नरेन्द्र मोदी अगर बिहार गये तो नीतीश गठबंधन ही तोड़ सकते हैं। यानी एक ही व्यक्ति को लेकर एक ही वक्त दो बातें कैसे कहीं जा सकती हैं। असल में नरेन्द्र मोदी बिहार चुनाव प्रचार के मद्देनजर वजीर से सिर्फ राजनीतिक प्यादा ही नहीं बने हैं बल्कि भाजपा के भीतर राजनीतिक रस्साकसी में उस रस्सी में तब्दील किये जा रहे हैं, जिसमें जीत-हार रस्सी खींचने वालों की होगी और मोदी के हक सिर्फ इस या उस खेमे के हिस्से में जाना ही बचेगा।
अगर भाजपा की इस राजनीति का पोस्ट्मार्टम करें तो पहली नजर में यही लगेगा कि आखिर नरेन्द्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार भाजपा पर क्यों दबाव बना रहे हैं। जबकि राजनीतिक मंत्र तो यही कहता है कि नरेन्द्र मोदी पर निर्णय तो भाजपा को करना है। तो क्या जानबुझकर भाजपा के भीतर से एक खेमा नीतिश कुमार को उकसा रहा है कि वह नरेन्द्र मोदी को बिहार जाने से रोकने के लिये कुछ इस तरह अपनी बात रखे जिससे मुस्लिम समुदाय को यही संकेत जाये कि नीतीश ने उस मोदी से टक्कर ली है, जिसके आगे भाजपा भी नतमस्तक है। या फिर नरेन्द्र मोदी पर इतनी कालिख पोत दी जाये कि भाजपा बिना नरेन्द्र मोदी के मॉडरेट लगे। यानी भाजपा की वह चौकडी जो दिल्ली में ही रहकर ना सिर्फ खुद सबसे ताकतवर जतलाना चाहती है, बल्कि दिल्ली से ही पार्टी को अपनी अंगुलियो पर नचाते हुये बागडोर को संभालना चाहती है। और भाजपा अध्यक्ष बनने के दौरान रिंग से ही बाहर किये जाने का खार अब भी आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत से खाये हुये है।
असल में भाजपा की राजनीतिक रस्साकस्सी की नयी कहानी यहीं से शुरु हुई लेकिन पहली बार इस चौकडी के मंसूबे भी अलग अलग राह पकड़े हुये हैं और पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी को हाशिये पर ढकेल नरेन्द्र मोदी के कद को भी बौना साबित करने की जुगत में लगे हैं। इसलिये राजनीतिक रस्साकस्सी की इस कहानी में हर उस मुद्दे को देखने का नजरिया भी न देखने वाला हो चला है, जो कभी भाजपा के लिये ऑक्सीजन का काम करती। खासकर तीन मुद्दे किसान-आदिवासी, खेती की जमीन-खनन, अयोध्या-राममंदिर। उन मुद्दो पर आएं, उससे पहले नरेन्द्र मोदी की मुश्किलो को समझ लें।
मोदी सोहराबुद्दीन फर्जी इनकाउंटर से ज्यादा संजय जोशी फर्जी सैक्स सीडी को लेकर फंसे हैं। एनकाउंटर मामले में फंसे गुजरात के अधिकारी अब यह बताने लगे है कि सीडी कैसे फर्जी बनी। उसे कैसे मुंबई अधिवेशन के वक्त बंटवाया गया। और यह जानकारी अब आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत के पास भी तथ्यों के साथ पहुंच चुकी है। और इसी के बाद भागवत ने भाजपा अध्यक्ष गडकरी से कहा कि संजय जोशी को भी भाजपा के सांगठनिक काम में लगायें। गडकरी जब भाजपा कार्यकारिणी बना रहे थे, जब संजय जोशी के नाम को लेकर नरेन्द्र मोदी का वीटो चला था और दिल्ली की चौकडी के एक नेता ने गडकरी को संकेत की भाषा में चेताया भी कि उस रास्ते ना जाएं, जहां टकराव से शुरुआत हो।
लेकिन इस दौर में मोदी के गृहराज्यमंत्री ही जब सीबीआई के फंदे में आये और राज्य के 60 से 70 पुलिस-प्रशानिक अधिकारियो पर मोदी का एंजेडा चलाने पर कार्रवाई के संकेत कानूनी तौर पर मिल रहे हैं तो दिल्ली की चौकडी के नेताओ को यह महसूस भी होने लगा है कि इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा, जब वह अपना कद मोदी से बडा कर लें। या फिर नरेन्द्र मोदी का कद छोटा कर दें। मनमोहन सरकार के साथ पहली बार कई मुद्दों पर जिस तरह भाजपा ने गलबईयां डालीं और बावजूद उसके मोदी को राहत दिलाने की पहल से ज्यादा सरकार चलाने को अहमियत दी, उसने भी भाजपा के भीतर एक नया सवाल खड़ा किया कि पहले दिन जब सीबीआई ने गुजरात के गृहराज्य.मंत्री और मोदी के सबसे करीबी नेता पर हाथ डाला तो प्रधानमंत्री का लंच भी आडवाणी-सुषमा स्वराज -जेटली ने खारिज कर दिया। लेकिन उसके बाद कभी मोदी के राहत का सौदा इन नेताओ ने नहीं किया। जबकि न्यूक्लियर बिल पर मनमोहन सिंह और हाल में कश्मीर मुददे को लेकर चिदबंरम बकायदा भाजपा नेताओ से मिले और एक लिहाज से नतमस्तक मुद्रा में रहे।
भाजपा ने सरकार को संकट से उबारा भी। लेकिन मोदी को संकट में अकेले छोड़ा गया। यानी लगातार यह संकेत गया कि संसद में सरकार के सुर में सुर भाजपा भी मिला रही है। लेकिन दूसरी तरफ आरएसएस के संकेत के बाद गडकरी ने संजय जोशी को बिहार चुनाव के सर्वे में लगाया और पिछले हप्ते जब दिल्ली में भाजपा के मीडिया मैनेजमेंट की क्लास हुई, जिसमें देश भर से मीडिया से रुबरु होने वाले भाजपा कार्यकर्ता दिल्ली पहुंचे तो उन्हें संबोधित करते हुये लालकृष्ण आडवाणी समेत चौकडी की मौजूदगी में नीतिन गडकरी सीधे यह कह गये कि
, " एक बार जब पार्टी में कोई फैसला हो जाये , तो उस पर अलग अलग राय मीडिया के सामने नहीं जानी चाहिये ।"
जाहिर है गडकरी के इस कथन को झारखंड में सरकार बनाने पर मचे घमासान से जोड़कर देखा जा सकता है लेकिन संघ परिवार के यह संकेत अयोध्या में राम मंदिर और टप्पल में किसान संघर्ष को लेकर गडकरी को दिये गये। आरएसएस में इस बात को लेकर बैचेनी है कि टप्पल में जिस वक्त किसान संघर्ष पूरे उभार पर था, उस वक्त किसान संघ दिल्ली के भाजपा हेडक्वार्टर में बैठक कर अपनी क्षमता और रणनीति बनाने के लिये बैठक कर रहा था। इसी तरह जब उडीसा के नियामगिरी के आदिवासियो का मसला आया तो संघ का आदिवासी कल्य़ाण सेवा मंडल अपने कार्यक्रमो की समीक्षा करते हुये राजनीतिक तौर पर भाजपा से मदद की सोच रहा था। और भाजपा जो एक वक्त उडीसा में बीजू सरकार के साथ थी उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसकी रणनीति ऐसे मौके पर किस राह चलनी चाहिये। भूमि अधिग्रहण को लेकर भी भाजपा की नीतियां सरकार की पिछलग्गू वाली ही हैं। हालांकि संघ का मानना है कि भूमि अधिग्रहण को लेकर मुआवजा सुधार के बदले भूमि सुधार जरुरी हैं। यानी इन मुद्दो के आसरे पहली बार संघ जहां यह मान रहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी के बाद अब भाजपा में कोई नेता नहीं है जो मुद्दो को अपने तरीके से उठा सके और राजनीति को मुद्दो के सहारे उठा सके।
लेकिन संघ का अंदरुनी सच यह भी है कि वह भी भाजपा से कोई चुनौती किसी मुद्दे पर नहीं चाहता है। इसलिये भाजपा नेतृत्व जितना कमजोर रहे उतना ही उसके अनुकूल है। क्योंकि मुद्दो के सहारे संघ के संगठनों को एक गांठ में पिरोना भी उसकी पहली प्राथमिकता है। इसका असर अयोध्या मसले पर अदालत के फैसले को लेकर भाजपा की संसदीय राजनीति में अगुवाई करने वाले नेताओ का पहल और आरएसएस की पहल से भी समझा जा सकता है। भाजपा का कोई वैसा नेता अयोध्या को लेकर मुखर नहीं है, जिसका कद संसद या दिल्ली की राजनीति में हैसियत ऱखता हो। आरएसएस भी नब्बे के दशक से इतर अपनी रणनीति बदलते हुये कानून और संविधान के दायरे में मंदिर के लिये सहमति का सवाल खडा कर अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींच रही है। यानी पहली बार अयोद्या को लेकर कोई चेहरा अभी तक पूरे संघ परिवार के भीतर से नहीं उभरा है, जो सामाजिक तौर पर या राजनीतिर तौर पर असर डाल सके।
इसमें एक नाम नरेन्द्र मोदी का लिया जा सकता है। लेकिन उन्हें विहिप पसंद नहीं करता और आरएसएस घबराता है तो दिल्ली की राजनीति में कद बढ़ा कर बैठे नेता अपने लिये खतरा मानते है। इसलिये मोदी को गुजरात में ही बंद किया गया है। और संघ इस परिस्थिति को अपने अनुकूल मान रहा है कि इस बार अयोध्या को लेकर सबकुछ सिर्फ विहिप पर भी नहीं टिका है और कोई राजनीतिक आंदोलन भी इसकी दिशा तय नहीं कर रहा है। लेकिन अंदरुनी तौर पर संघ को इसका भी एहसास है कि अयोध्या में राम मंदिर के हक में स्थिति ना बनी तो जो परिस्थितियां बनेंगी उस पर लगाम लगाने की हैसियत उसकी भी नही है। यानी नब्बे के दशक में राम मंदिर को लेकर जो राह संघ परिवार या भाजपा राजनीतिक तौर पर खींच रहे थे, अब वह उभरने वाली परिस्थितियों का इंतजार कर रहे हैं। इसलिये दिल्ली के संघ मुख्यालय में प्रांत प्रचारको के साथ मंथन में गडकरी तो शामिल होते है लेकिन आडवाणी, सुषमा, जेटली शामिल नहीं होते। हालांकि आरएसएस की तान को अपनी ताकत मानने वाले मुरली मनोहर जोशी और संघ मुख्यालय को दडंवत कर ठाकुरवाद को बल देने वाले राजनाथ सिंह जरुर अयोध्या के चिंतन में शामिल होते हैं लेकिन इनकी मौजूदगी महज मौजूदगी वाली ही रहती है। यानी भाजपा के इस राजनीतिक घटाटोप में पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं है जिसकी नजर बिहार या उत्तर प्रदेश चुनाव या फिर बीच में पड़ने वाले बंगाल चुनाव को लेकर तीक्ष्ण हो। या फिर यह सोच रहा हो कि कर्नाटक, मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ में अगर भष्ट्राचार से लेकर आदिवासी-किसान और नक्सली संकट आने वाले दौर में मद्दा बना तो भाजपा की सत्ता वहा बचेगी कैसे और भविष्य में क्या झारखंड जैसे प्रयोग के जरीये पार्टी फंड बढाने की बात होगी। और उसमें भी नेताओ का कद सत्ता की जोड़तोड़ तले ही मापा जायेगा कि कौन सत्ता दिला पाने में सक्षम है। यानी एक वक्त के प्रमोद महाजन की सोच ही पार्टी का रुप ले लेगी, यह किसने सोचा होगा । और यह सोच दिल्ली की चौकड़ी को इस एहसास में डूबा दें 2014 के आम चुनाव के वक्त उसका निजी कद इतना बढ़ जायेगा कि वह पीएम पद का उम्मीदवार हो जाये...
बस इंतजार संघ परिवार की हरी झंडी है, तो समझा जा सकता है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी और संसदीय राजनीति के अटूट गांधी परिवार से यह टक्कर कैसे लेंगे और "पार्टी विथ डिफरेन्स " का सपना किसे दिखायेंगे।
Monday, September 27, 2010
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भाजपा का अनूठा सच |
Wednesday, September 22, 2010
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सत्ता के नशे की खुमारी-पीएमओ, मीडिया और जेएनय़ू का कॉकटेल |
यह पहली बार है कि पीएमओ आम आदमी से सीधे संपर्क बना रहा है। यह पहली बार है कि संसदीय राजनीति और जंगल में हथियार उठाये माओवादियों के बीच का कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा है। पहली बार समूचा पीएमओ देश के पत्रकारों के लिये उपलब्ध है। पहली बार लोकतंत्र के चारो खम्भे एक सरीखे बिके हुये लग रहे हैं। दो अलग-अलग जगहों पर दो अलग अलग आबो-हवा के बीच गूंजते यह सवाल 18 सितंबर की देर शाम से लेकर देर रात तक के है। पहली आबो-हवा दिल्ली के हैबिटेट सेंटर के सिल्वर ओक की है ,जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को छोड़ समूचा पीएमओ देर शाम आठ बजे जुटा। इसमें देश के नामी-गिरामी पत्रकारों को डिनर के लिये प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव ने बकायदा पत्र लिखकर आमंत्रित किया। तो दूसरी आबो-हवा जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की है। जिसमें जेएनयू के अलग-अलग हॉस्टल में रहने वाले छात्र-छात्रों का हूजुम रात साढ़े नौ बजे गोदावरी हॉस्टल के मेस में जुटा। इसमें छात्रों के एक समूह ने ग्रीन हंट और कारपोरेट मीडिया पर बहस के लिये पत्रकारों, शिक्षकों और कवियों को आमंत्रित किया।
पीएमओ के डिनर में संपादक स्तर के करीब तीस-पैंतीस पत्रकार पहुंचे और जेएनयू में करीब तीन-साढ़े तीन सौ छात्र-छात्रायें। देर शाम आठ बजे पीएमओ के डिनर के लिये सिल्वर ओक में घुसते ही हाथों में काकटेल का पैमाना ट्रे में उठाये वेटर से ही सामना हुआ। पहला ऑफर वेटर का...शराब का ही। जबकि प्रधान सचिव के हाथों लिखे पत्र में बेहद अपनत्वता का एहसास था कि 18 की शाम आपका स्वागत करने में हमें खुशी होगी। और हमारा आग्रह है कि आप हमारे साथ भोजन करें। वहीं जेएनयू के दरवाजे पर पहुंचते ही एक छात्रा एकाएक सामने आयी और सुरक्षाकर्मी के सवाल से पहले ही कहा यह हमारे मेहमान हैं। और फिर गाड़ी का टोकन ले हम सीधे गोदावरी हॉस्टल के पास पहुंचे । जहां गोदावरी और पेरियार के बीच में खाली जगह पर ढ़ाबे के सामने जमीन पर बैठ प्लास्टिक के कप में चाय पिलाकर स्वागत किया गया। इन छात्रों ने कोई लिखित आमंत्रण ना भेज सीधे मोबाइल पर ही सहमति ली थी। सिल्वर ओक में ज्यादा संवाद वेटरों का ही था जो बार बार जाम या कोल्ड ड्रिंक्र के साथ चखना का ऑफर करते और इन सबके बीच पीएमओ के अधिकारियों के साथ संवाद बनाने-मुसकुराने की आबो-हवा लगातार घुमड़ती रही। वहीं जेएनयू में घुसते ही छात्र-छात्रों का हुजुम कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही अपने-अपने सवालों पर चर्चा के लिये जुटने लगा। कोई कश्मीर, तो कोई नार्थ-ईस्ट, तो कोई सुप्रीम कोर्ट के अनाज बर्बाद होने दिये गये निर्देश को लेकर अपनी प्रतिक्रिया बता रहा था, तो कोई हमारी राय जानना चाह रहा था। सिल्वर ओक में अलग अलग घेरे में चर्चा करते धीरे-धीरे पीएमओ के अधिकारी खुलने लगे तो यह बताने से नहीं हिचके कि कैसे पहली बार आम आदमी को भी अपने साथ जोड़ने की पहल पीएमओ कर रहा है। कैसे पीएमओ का मीडिया सेल अपनी पहल से मुल्क से जुड़े अहम मुद्दों को उठा रहा है। देश में कोई प्रधानमंत्री इतना पारदर्शी है, इतना ईमानदार है और किस तरह विकास के काम को अंजाम देने में जुटा है।
वहीं जेएनयू में चर्चा के दौरान जब सुनने आये छात्रों ने सवाल दागने शुरू किये तो पहला सवाल ही संसदीय राजनीति और माओवाद के बीच क्या कोई रास्ता नहीं है, इसे लेकर ही उठा। क्या राजनीति का मतलब सिर्फ वही संसदीय राजनीति है जिसे अब आम आदमी भी कटघरे में खडा करना शुरू कर चुका है । किसान-आदिवासी के हक की बात जब संविधान में दर्ज है तो फिर सत्ता ही संविधान को अपनी सुविधानुसार परिभाषित क्यों कर रही है। मीडिया का विस्तार हुआ है या मीडिया तकनीक का। नयी पीढ़ी जो मीडिया से जुड़ रही है उसकी अहमियत कितनी है। राहुल गांधी अगर देश के भीतर दो देश का सवाल उठा रहे हैं, तो इसका मतलब क्या निकाला जाये। आखिर प्रधानमंत्री ने जानबूझकर सब कुछ बाजार के हवाले इसलिये कर दिया है जिससे संसदीय सत्ता पर दाग ना लगे...और आम आदमी पीने के साफ पानी से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सब कुछ के लिये बाजार का ही मुंह देखे । यह सारे छात्रों के सवाल थे। लेकिन इन सवालो को लेकर कोई बैचैनी सिल्वर ओक में शाम आठ बजे से सवा नौ बजे तक बिताये सवा घंटे के दौरान मैंने कहीं देखी-सुनी नहीं। पीएमओ के एक युवा अधिकारी से अनौपचारिक गुफ्तगू में जैसे ही विकास की नीतियों को लेकर मुल्क से इतर महज 15-20 करोड़ को ही देश मानने का सवाल उठाया...तो जबाव भी झटके के साथ आया, "डोंट टॉक लाइक अरुणधति " { अरुणघति राय की तरह बात मत कीजिये } समाधान बताइये...रास्ता बताइये। मीडिया में कहा जाता है पीएमओ संपर्क नहीं बनाता। तो लीजिये पहली बार पूरा पीएमओ ही मौजूद है। असल में सवाल उठाने पर पीएमओ को अगर अरुणधति का भूत नजर आता है तो जेएनयू में भी छात्र ऊर्जा के सामने सबसे बडा संकट यही है कि अगर वह तत्काल की व्यवस्था से खुश नहीं हैं तो उसे रास्ता भी नजर नहीं आता। सवाल-जवाब के आखिरी दौर में एक छात्र ने सीधे पूछा, अगर जेएनयू कैंपस के बाद राजनीति की लीक पकड़नी हो तो हमें करना क्या चाहिये। क्यों संसदीय राजनीति भी है और चुनाव में शामिल नहीं होना चाहते हैं, तो भी राजनीति के माध्यम हैं। लेकिन संसदीय राजनीति में शामिल होने का मतलब अगर भष्ट्र होना है और माओवादी रास्ते को ही जब गैर कानूनी करार दिया जा चुका है तो फिर राजनीति कहां-कैसे होगी।
लेकिन राजनीति रास्ता भी निकालती है और राजनीति के कोई भी तौर तरीके अपनाये जायें उनका मकसद कहीं ना कहीं बहुसंख्य जनता से जुड़ाव और उसका हित होना चाहिये। सही है, लेकिन हम जानना चाहते हैं कि जिस तरह किसी नौकरी को करने पर अगले दिन से पेमेंट मिलने लगता है, उसी तरह कोई ऐसा राजनीतिक मंच भी इस देश में है,जहां सत्ता के लिये राजनीति कर भष्ट्र होना भी ना पड़े और गैर कानूनी करार देकर सरकार जेल में भी ना ठूंस दे। यह सवाल जेएनयू में ही उठ सकता है। रास्ता आपको खुद तय करना होगा। लेकिन रास्ता हो क्या और काम करने की ऊर्जा किस रूप में निकले यह बडा सवाल कमोवेश जेएनयू के तमाम छात्रों में दिखायी दिया, जबकि पीएमओ रोजगार और देश की श्रमिक ऊर्जा को खपाने के लिये मनरेगा का गुणगाण हमेशा करता है और सिल्वर ओक में भी मीडिया के बीच उसकी आवाज आ रही थी। हालांकि मनरेगा भी लक्ष्यविहीन है और देश की कोई परियोजना मनरेगा के तहत पूरी नहीं हुई, इस पर अंगुली उठाने का मतलब था....डोंट टाक लाईक अरुणधति का जवाब सुनना।
लेकिन मीडिया को डील करने वाले पीएमओ के अधिकारियों से मिलने-सुनने से यह एहसास जरुर हुआ कि मानवीय सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर ठीक उसी तरह खींची जाती है जैसे सोनिया गांधी की अगुवाई वाली नेशनल एडवाइजरी काउसिंल यानी एनएसी में वाम सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर निकलती है। यानी देश की नीतियों का चेहरा चाहे विकास की अत्याधुनिक धारा में बहने को तैयार हो लेकिन उस पर मानवीय पहलुओं की पैकेजिंग अगर पीएमओ कर ही देता है तो एनएसी भी वाम सोच की पैकेजिंग करने में माहिर है। और यह दोनों गाहे-बगाहे टकराते भी है। पीएमओ एनएसी पर यह कहकर निशाना साधता है कि उसका काम कांग्रेस के वोट बैंक पर नजर रखना है तो एनएसी पीएमओ को सिर्फ मनमोहन इक्नामिक्स में खोये चेहरे के तौर पर देखता है। हालांकि हकीकत यह भी है कि इन दोनों ही जगहों पर तैनात अधिकारी या सलाहकार वाकई मानवीय गुणों से लबरेज या वामपंथी सोच के तहत किसान-मजदूर और आदिवासियों के सवालो से जूझने वाले पुराने लोग हैं। लेकिन सत्ता की परिभाषा को परिभाषित करने में जिस तरह देश की ऊर्जा खपायी जा रही है उसमें जेएनयू से निकलने वाले सवाल क्या वाकई कल कोई मॉडल पेश कर पायेंगे या फिर इसी धारा में बह जायेंगे। यह सवाल इसलिये जरुरी है क्योंकि नौकरशाहों की टीम हो या मीडिया के घुरधरों का जमावड़ा। दोनों ही जगह जेएनयू से निकले छात्रों की कतार भी है जो फिलहाल कई डिनरों में व्यस्त हैं। सिल्वर ओक में पीएमओ का डिनर कबतक चला..यह तो पता नहीं लेकिन आधी रात के बाद जब वापस जेएनयू से घर के लिये निकला तो लगा यही कि सत्ता के नशे से कहीं ज्यादा नशा तो छात्रों की बैचैनी ने पाल रखी है और शायद रास्ता वहीं से निकलेगा। क्योंकि इन दोनों के बीच मीडिया भी सत्ता की खुमारी के नशे में है ।
Monday, September 13, 2010
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पारिवारिक लोकतंत्र का अलिखित संविधान |
कांग्रेस का अध्यक्ष कौन हो , यह गांधी परिवार से इतर सोचा नहीं जा सकता है तो भाजपा में संघ परिवार की सहमति के बगैर कोई अध्यक्ष बन नहीं सकता है । सोनिया गांधी लगातार चौथी बार अध्यक्ष बनती हैं तो भाजपा को उसमें तानाशाही या लोकतंत्र का खत्म होना नजर आता है तो भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी बनते हैं तो कांग्रेस को उसमें संघ परिवार की तानाशाही या भाजपा ही महत्वहीन नजर आती है । लेकिन कांग्रेस-भाजपा से इतर दक्षिण से लेकर उत्तर और पश्चिम से लेकर पूर्व तक किसी भी राजनीतिक पार्ट्री में झांकें तो वहां परिवार ही पार्टी है । मसलन मुलायम यादव की सपा , लालू यादव की आरजेडी, ठाकरे की शिवसेना , करुणानिधि की डीएमके, पटनायक की बीजेडी, मायावती की बीएसपी। यानी नब्बे फीसदी राजनीतिक पार्टियां ऐसी हैं जिनके सांगठनिक ढांचे को बनाने में ही परिवार की तानाशाही चलती है। यानी मुश्किल यह नहीं है कि लोकतंत्र पर भरोसा राजनीतिक दलों के भीतर भी नहीं है । मुश्किल यह है कि परिवार ही लोकतंत्र का पर्याय बन चुका है और देश को चलाने में लोकतंत्र की यही परिभाषा काम कर रही है। जिसके विरोध का मतलब कहीं पार्टी विरोधी होना है तो कहीं गैरकानूनी।
14 मार्च 1998 को कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने वाली सोनिया गांधी के खिलाफ एक बार ही.... प्रसाद ने चुनाव लड़ा और तब से आज तक यानी बीते एक दशक में कांग्रेस में जब जब अध्यक्ष पद के चुनाव का वक्त आता है तब तब यही कहा जाता है कि है कोई ....प्रसाद जो चुनाव लड़ना चाहता है। और प्रसाद कोई बनना नहीं चाहता। कमोवेश अध्यक्ष को लेकर भाजपा में भी कुछ ऐसा ही रूप आरएसएस का है। नितिन गडकरी पर कितनी सहमति भाजपा की रही , यह इससे ही समझा जा सकता है कि दिल्ली की चौकड़ी को पहले सरसंघचालक ने खारिज किया और फिर पूछा है कोई मैदान में। यानी भाजपा में लोकतंत्र का मतलब नागपुर के संघ मुख्यालय में मत्था टेकना है तो कांग्रेस में 10 जनपथ में। यह लकीर कोई आज की हो ऐसा भी नहीं है मोतीलाल नेहरु के दौर से गांधी-नेहरु परिवार और जनसंघ के बनाने के पीछे खड़ा संघ परिवार। बीते 60 सालो में लोकतंत्र की जिस घुट्टी को देश की संसदीय राजनीति ने पीया और पिलाया है अगर उसके बाद कोई नेता इस देश में यह कहे कि विकास या देश चलाने को लेकर लोकतंत्र के पैमाने पर ही सारे काम होते हैं तो उससे बडा झूठ और क्या हो सकता है। और अगर ऐसे में यह कहा जाये कि राजनीतिक दलों की तर्ज पर ही आम जनता के सामने भी इसी तरह किसी ना किसी 'परिवार" की चलती है और उसकी खामोशी में हीं भारत को दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश का तमगा देकर संसदीय राजनीति अपनी तानाशाही में सबकुछ समेट लेती है , तो इसमें गलत क्या होगा।
इसलिये किसान, आदिवासी, मजदूर, बीपीएल, नक्सलवाद से लेकर विकास के नाम पर बनते दो भारत का सवाल खडा करने से पहले जरुरी है कि जिस चुनावी तंत्र पर संसदीय राजनीति इठलाती है और संसद के भीतर अक्सर सांसद यह कहने से नहीं चूकते कि सांसदों की महत्ता बरकार ना रही तो संसद जैसा संविधान ढह जायेगा और लोकतंत्र खतरे में पड जायेगा...तो पहले उसकी हकीकत असल जमीन को जानना जरुरी है। फिलहाल सत्ता की मदहोशी में जो कांग्रेस इठलाती है कि उसे जनता ने दोबारा चुना है जरा उसके पक्ष में पड़े वोटरों की तादाद देख लें। समूचे देश में कांग्रेस को 11 करोड 91 लाख 11हजार 19 वोट मिले। यानी देश के कुल वोटरों का महज 16.61 फीसदी। वहीं विपक्ष के हैसियत को लेकर इठलाती भाजपा को सिर्फ 7 करोड 84 लाख 35 हजार 381 वोट मिले। जो देश के कुल वोटरों का 10.94 फीसदी है। और अगर इन दो राजनीतिक दलों के अलावे किसी भी राजनीतिक दल के गिरेबां में झाकेंगे तो किसी की अधिकतम हैसियत देश के कुल वोटरो में से साढे तीन फिसदी समर्थन से ज्यादा की हैसियत नहीं है। इतना ही नहीं देश की सातों राष्ट्रीय हैसियत वाली पार्टियां यानी कांग्रेस, भाजपा, बसपा, एनसीपी, सीपीआई, सीपीएम और आरजेडी में अगर सपा, शिवसेना और डीएमके को भी मिला दें तो भी इनको देने वाले वोटरो से ज्यादा तादाद इस देश में किसी को भी वोट ना देने वालो की संख्या की है। जिस चुनाव के जरीय लोकतंत्र के गीत गाये जाते है उसमें देश के 29 करोड 98 लाख 25 हजार 820 नागरिक वोट डालते ही नहीं है और संसद के भीतर के सभी 543 सांसदो को मिलने वाले नागरिकों के वोट अगर जोड़ भी दिये जाते हैं तो उनकी संख्या 25 करोड़ पार नहीं कर पाती।
असल में देश का सवाल शुरू यहीं से होता है । मुश्किल यह नहीं है कि जिन नियम कायदों पर देश के लोकतंत्र के गीत गाये जाते हैं वह सवा सौ साल पुराने है। या कहें अंग्रेजों के दौर के हैं। पुलिस मैनवल हो या जेल मैनुवल या फिर भूमि सुधार अधिनियम हों या आदिवासी एक्ट अगर वह अठारहवीं सदी का है और बार बार संसद में ही सांसद यह दोहराते है कि 1894 के मैनुवल को बदले बगैर रास्ता नहीं निकल सकता तो फिर एक सवाल संसदीय राजनीति के तौर तरीको को लेकर कोई क्यों नहीं उठा पाता है। अगर संसदीय राजनीति के चुनावी आईने में ही दोष के मुद्दों की परछाई देखें तो असल हकीकत भी समझ में आ सकती है। 15वीं लोकसभा में देश के 71 करोड़ वोटरों में से 30 करोड़ वोटरों ने किसी को चुना ही नहीं। इवीएम को लेकर तो भाजपा सत्ता से अपनी बेदखली देखती है मगर तीस करोड़ वोटरों के लिये कोई विकल्प इस देश में खडा हो उसे कानूनी दर्जा देने की हिमायती कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है । देश में विकास के नाम पर खडे होते रियल इस्टेट या कहे कंक्रीट के जंगल की वजह से खेती की जमीन से पांच करोड किसान मजदूर , आदिवासी परिवार बेदखल हो गये । उन्हें बेदखल करने में तो राजनीतिक दलों की सहमति थी लेकिन इन राजनीतिक दलों से इतर व्यवस्था बनाने के लिये अगर यह आंदोलन खडा कर दें तो वह तत्काल गैरकानूनी हो जायेगा । उड़ीसा के पास्को में मारे गये 28 आदिवासी इसकी एक छोटा सा चेहरा है । ऐसे कई चेहरे बंगाल-झारखंड से लेकर विदर्भ-तेलागंना तक बिखरे पड़े हैं । लेकिन इन्हें कोई मान्यता नहीं है क्योंकि इसका कोई सिरा संसदीय राजनीति को नहीं सालता।
सवाल है देश सवा सौ करोड नागरिकों में से 47 करोड़ गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों के लिये इसी संसदीय सत्ता के पास सर्वसम्मति से 30 किलोग्राम अनाज बांटने के अलावे और कोई नीति है ही नहीं। देश के तीस करोड़ गरीबों के बीच दो से तीन रुपये किलो गेंहू-चावल देने के अलावे और कोई ठोस पालिसी किसी भी सत्ता के पास नहीं है । देश के तीस करोड किसान परिवारो के लिये खेती का इन्फ्रस्ट्रक्चर है ही नहीं। देश के करीब बीस करोड़ आदिवासियों को जो हक संविधान में लिखकर दिये गये हैं उनकी धज्जियां और कोई नहीं बल्कि लोकतंत्र को बनाये रखने की जिम्मेदारी निभाने वाले संसदीय खम्भे ही उड़ाते हैं। सत्ता की बाजीगरी में ही न्यायपालिका और कार्यपालिका पहले वेंदाता सरीखे बहुराष्ट्रीय कंपनी को खनन के लिये हरी झंडी देती है फिर सत्ता अपने वोटरों की संख्या बढ़ाने के लिये एनओसी को ही खारिज कर देती है। पहले खनन पर सहमति में राज्य की हां में हां ना मिलाना उग्रवादी होना होता है और फिर राजनीतिक निर्णय में समाजवाद के सपने ना देखना अलोकतांत्रिक बनना होता है। लेकिन इस उहा-पोह में ना फंसकर अगर सीधे दोबारा राष्ट्रीय पार्टियों में परिवारों के दम पर बने अध्यक्ष सोनिया गांधी और नितिन गडकरी पर ही लौटें तो फिर तानाशाही तले लोकतंत्र की लकीर खिंचने का मजा लिया जा सकता है। अगर सोनिया को कांग्रेस के जरिये परिभाषित करना हो तो बीते 12 सालो का खाका तीन स्तर पर खींचा जा सकता है। पहले स्तर में कांग्रेस को किसी भी तरह सत्ता में लाना। जो 2004 में सफल हुआ। फिर वामपंथियो से पिंड छुडाना और अब अकेले अपने बूते सरकार बनाने की दिशा में कांग्रेस को ले जाने का प्रयास। लेकिन देश के नजरिये से अगर इस दौर में सरकार को परिभाषित किया जाये तो पहले देश बेचना, फिर देश की फिक्र करना और अब फिक्र करते हुये देश को अपनी अंगुलियो पर नचाना ही सरकार का राजनीतिक हुनर है। इसे समझने के लिये 2004 से 2007 तक के दौर में मनमोहन सिंह की नीतियो पर मूक सहमति। 2008-09 के दौर में मनमोहन की आर्तिक नीतियों पर नकेल कांग्रेस के जरिये कसने की पहल और 2010 में सरकार और कांग्रेस से भी एक कदम आगे बढते हुये राहुल गांधी के लिये बनती पगडंडी को राजमार्ग में बदलने की कवायद से भी समझा जा सकता है।
लेकिन परिवारवाद का यह लोकतंत्र हर कांग्रेसी में अपनी विरासत को ही भविष्य की सत्ता सौपने की जद्दोजहद में लगाता है । यानी पारिवारिक सत्ता में ही लोकतंत्र का अक्स अगर मान लिया गया है तो फिर देश के स्तर पर लोकतंत्र का मतलब वही नीतियां बन चुकी हैं जो देश के पच्चीस करोड़ लोगों के हित के आगे जाती नहीं । लेकिन ऐसे लोकतंत्र पर सहमति कैसे बनती जाती है और संसदीय सत्ता किस तरह विकल्प को खत्म करती है इसका नायाब चेहरा भी संसदीय लोकतंत्र के सबसे मजबूत पिलर यानी विपक्ष को देखकर भी लगाया जा सकता है । भाजपा शासित राज्य हों या फिर केन्द्र में बतौर विपक्ष भाजपा । नीतियों को लेकर कांग्रेस से अलग दिखना तो दूर उसी रास्ते पर कई कदम आगे बढाकर संसदीय सत्ता में अपनी दखल जमाने पर समूचा चिंतन टिकाये हुये है । और व्यक्तिगत तौर पर इसका बेहतरीन उदाहरण भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी हैं। जो राजनीति से इतर समाज के मुनाफे के लिये कार्यक्रम चलाते है। मसलन किसानों की विधवाओ और उनके बच्चो के लिये पिछले चार साल से अन्नदाता सुखी भव कार्यक्रम चला रहे हैं। और इसी दौर में नागपुर में उस महान परियोजना को पूरा कराने में भी जुटे हैं जिसके घेरे में चार हजार से ज्यादा किसान अपनी जमीन से बेदखल किये गये और दर्जन भर किसानों ने खुदकुशी कर ली। महाराष्ट्र के ग्रामीण आदिवासियों को हैंडलूम और हैंडीक्राफ्ट से लेकर बंबू के सामानों को बनवा कर उनकी रोजी रोटी की व्यवस्था कराने के लिये "वेदा"और हस्तकला ध्यानपीठ तक चलाते है । वहीं आदिवासियो को जंगल से बेदखल कर उनके जंगलो को ही खत्म कर विकास परियोजनाओं को हरी झंडी देने में सबसे आगे भी है। यानी लोकतंत्र की अनूठी सोच चाहे परिवारिक लोकतंत्र के दायरे में संसदीय सत्ता को ही पहले बेदखल और फिर स्थापित करने की इजाजत देती है। और मुक्तभोगियों ने कहीं अपनी लड़ाई अपने तरीके से लड़ने का मन बनाया तो वह इस देश में अलोकतांत्रिक है। यह देश का अलिखित संविधान है ,चाहे तो आजमा कर देख लें।
Thursday, September 9, 2010
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माओवादियों के पॉलिटिकल ड्राफ्ट के मायने |
कांग्रेस के पास पूंजीवादी राज्य नहीं है और आदिवासी-ग्रामीणों को लेकर जो प्रेम सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी दिखला रहे हैं, उसके पीछे खनिज संसाधनों से परिपूर्ण राज्यों की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। कांग्रेस की रणनीति उड़ीसा, छत्तीसगढ,झारखंड,मध्यप्रदेश और कर्नाटक को लेकर है। चूंकि अब राज्यसत्ता का महत्व खनिज और उसके इर्द-गिर्द की जमीन पर कब्जा करना ही रह गया है, इसलिये कांग्रेस की राजनीति अब मनमोहन सरकार की नीतियों को ही खुली चुनौती दे रही है, जिससे इन तमाम राज्यों में बहुसंख्य ग्रामीण-आदिवासियों को यह महसूस हो सके कि भाजपा की सत्ता हो या मनमोहन की इकनॉमिक्स कांग्रेस यानी सोनिया-राहुल इससे इत्तेफाक नहीं रखते।" यह वक्तव्य किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं बल्कि सीपीआई (माओवादी) का पॉलिटिकल ड्राफ्ट है।
माओवादियों की समूची पहल चाहे सामाजिक आर्थिक मुद्दों को लेकर हो लेकिन पहली बार हर मुद्दे का आंकलन राजनीतिक तौर पर किया गया है। जिसमें खासकर किसान और आदिवासियों के सवाल को अलग-अलग कर राजनीतिक समाधान का जोर ठीक उसी तरह दिया गया है जैसे संविधान में आदिवासियो के हक के सवाल दर्ज हैं। सरकार और राजनीतिक दलों की पहल पर यह कह कर सवालिया निशान लगाया गया है कि जब 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के अधिकारों का जिक्र संविधान में ही दर्ज है, तो कोई सत्ता इसे लागू करने से क्यों हिचकिचाती है। इतना ही नहीं किसानों की जमीन और आदिवासियों के जंगल-जमीन पर अलग-अलग नीति बनाते हुये माओवादी अब अपने संघर्ष में परिवर्तन लाने को भी तैयार हैं। और इसकी बडी वजह संसदीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की नयी राजनीतिक प्राथमिकताओं को ही माना गया है ।
माओवादियों का पॉलिटिकल ड्रॉफ्ट इस मायने में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि संसदीय राजनीति को खारिज करने के बावजूद संसदीय राजनीति के तौर तरीकों पर ही इसमें ज्यादा बहस की गयी है। ड्राफ्ट में माना गया है कि आर्थिक सुधार का जो पैटर्न 1991 में शुरू हुआ अब उसका अगला चरण पिछड़े क्षेत्रों की जमीन और खनिज संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ने का है। और चूंकि इस दौर में चुनाव लड़ने से लेकर सत्ता बनाना भी खासा महंगा हो चला है तो हर राजनीतिक दल उन क्षेत्रों में अपनी सत्ता चाहता है जहां उसे सबसे ज्यादा मुनाफा हो सके। आदिवासियों का सवाल इसी वजह से हर राजनीतिक दल की प्राथमिकता बना हुआ है क्योंकि आदिवासी प्रभावित इलाकों में गैर आदिवासी नेताओं की घुसपैठ तभी हो सकती है जब वहां के प्रभावी आदिवासी या तो राजनीतिक दलों के सामने बिक जायें या फिर आदिवासियों को उनके हक दिलाने के लिये कोई पार्टी या नेता आगे आये।
माओवादियो का मानना है कि कांग्रेस अगर अभी आदिवासियों के हक का सवाल उठा रही है तो उसकी वजह वहां की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। क्योंकि उड़ीसा के नियामगिरी के आदिवासियों की तरह वह महाराष्ट्र के आदिवासियों को हक नहीं दिलाती है क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी सत्ता बरकरार है। माओवादियों का मानना है कि आर्थिक सुधार के इस दूसरे चरण में सत्ता से उनका टकराव इसलिये तेज हो रहा है क्योंकि राज्य को जो पूंजी अब मुनाफे के लिये चाहिये वह शहरों में नहीं ग्रामीण इलाकों में है। और माओवादियों का समूचा काम ही ग्रामीण इलाकों में है। इसलिये सवाल माओवादियों का सरकार पर हमले का नहीं है बल्कि सत्ता ही लगातार हमले कर रही है। लेकिन इस पॉलीटिकल ड्रॉफ्ट में अगर सरकार की प्राथमिकता ग्रामीण किसान आदिवासी बताये गये हैं तो दूसरी तरफ माओवादियों ने अपनी प्रथामिकता में भी परिवर्तन के संकेत दिये हैं। यानी देहाती क्षेत्रों से इतर शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में अपने प्रभाव को फैलाने की बात कही गयी है।
माओवादियों ने माना है कि शहरी क्षेत्रों में मजदूर आंदोलन में उनकी शिरकत नहीं के बराबर है। इसी तरह शहरी मध्य वर्ग की मुश्किलों से भी उसका कोई वास्ता नहीं है। जबकि संसदीय राजनीति के बोझ तले सबसे ज्यादा प्रभावित शहरी मध्य वर्ग ही है। खुद की जमीन को व्यापक बनाने के लिये माओवादी अगर एक तरफ किसान-आदिवासी के सवाल को अलग कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ किसानों से शहरी मजदूरों को जोड़ने पर भी जोर दे रहे हैं। यानी माओवादियों की नजर गांव से पलायन कर रहे उन किसानों पर कहीं ज्यादा है जो जमीन से बेदखल होने के बाद शहरों में बतौर मजदूर जी रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि बीते दस वर्षों में 5 करोड़ से ज्यादा किसान अपनी जमीन से बेदखल हुये हैं। और रेड कोरिडोर के इलाके में जितनी योजनाओं को मंजूरी दी गयी है अगर उन पर काम शुरू हो गया तो 5 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण-किसान-आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल हो जायेंगे । जाहिर है माओवादियों का ड्राफ्ट इन आंकडों के दायरे में सामाजिक-आर्थिक समस्या को भी समझ रहा होगा और राजनीतिक दल भी इस नये शहरी मजदूरों के दायरे में अपनी राजनीतिक नीतियों को भी तौल रहे होंगे । लेकिन, माओवादियों के पॉलीटिकल ड्राफ्ट और राज्य सरकारों की विकास नीतियों के बीच कितनी महीन रेखा है इसका अंदाजा भी शहरीकरण की सोच और शहरी गरीबों की बढ़ती तादाद से समझा जा सकता है।
कांग्रेस और भाजपा के मुताबिक महाराष्ट्र, गुजरात दो ऐसे राज्य हैं जहा सबसे ज्यादा नये शहर बने। यानी विकास की असल धारा इन दो राज्यो में दिखायी दी। जबकि बाकी राज्यों में भी बीते एक दशक के दौरान गांवो को शहरों में बदलने की कवायद हर राजनीतिक दल ने की। लेकिन माओवादियों की राजनीतिक थ्योरी इसमें गरीबो की बढ़ती संख्या को माप रही है। माओवादियों के मुताबिक गांव की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर जिस तरीके से शहरी विकास का खांचा खींचा जा रहा है , उसमें मुनाफा ना सिर्फ चंद हाथो में सिमट रहा है बल्कि इन चंद हाथों के जरिये ही राज्यों में सत्ता निर्धारित हो रही है जिससे गरीबी और मुफलिसी का कारण भी राजनीतिकरण बन चुका है। माओवादियों के इस ड्राफ्ट में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं पर टिकी येदुरप्पा सरकार का जिक्र उदाहरण दे कर किया गया है। यूं भी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी मानती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा शहरी गरीब महाराष्ट्र में है, जिसे कांग्रेस शहरीकरण के दौर में सबसे उपलब्धि भरा राज्य मानती है। खास बात यह है कि माओवादियों के इस पॉलिटिकल ड्राफ्ट में कही भी हिंसा का जिक्र नही किया गया है। उसकी जगह क्रांतिकारी आंदोलन शब्द का जिक्र यह कह कर किया गया है कि साम्राज्यवाद के खिलाफ संशोधनवादी पार्टियां या एनजीओ जो कुछ कर रहे है, वह धोखाधड़़ी के सिवाय और कुछ नहीं है। ऐसे में माओवादी अगर मजदूर-किसान मैत्री की स्थापना पर बल देते हुये धैर्यपूर्वक अपने क्रांतिकारी जन आधार को मजबूत बना पाने में सक्षम हो पायेंगे तो साम्राज्यवाद-फासीवाद दोनों के खिलाफ वास्तविक आंदोलन सही दिशा में चल पायेगा ।
Thursday, September 2, 2010
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पीपली लाइव से लुटियन लाइव |
12 अगस्त को विदर्भ के तीन किसानों ने खुदकुशी की। 54 साल के नाना ठाकरे यवतमाल जिले के मांडवा गांव में रहते थे। 27 साल का विजय अढे वाशिम जिले के जुनुना गांव का रहने वाला था। 50 साल का मनगा माने बुलढाणा का रहने वाला था। यूं विदर्भ के लिये खुदकुशी करने वाले यह तीन नाम कोई मायने नहीं रखते क्योंकि औसतन हर महीने विदर्भ में 65 किसान खुदकुशी करते ही हैं। लेकिन 12 अगस्त का जिक्र इसलिये जरुरी है क्योंकि इसी दिन मुंबई में आमिर खान फिल्म ‘पीपली लाइव’ का प्रीमियर कर रहे थे, जिसे देखकर अमिताभ बच्चन को अपना गांव याद आ गया और बॉलीवुड के कई कलाकारों को किसानो की दुर्दशा देखकर कुछ करने की इच्छा जागृत हुई।
लेकिन पीपली लाइव के किसान नत्था को किसी नायक की तरह निरीह और अकेलेपन के दर्द में ढाल बनाकर बचा लिया गया। मगर संयोग से विदर्भ के किसानों को बचाने के लिये सरकार की अभी तक कोई योजना काम नहीं आयी है। यह अलग बात है कि साढ़े तीन साल पहले प्रधानमंत्री के राहत पैकेज के बाद खुदकुशी करते किसानों की संख्या प्रति महीने 57 से 64 जा पहुंची। तो किसानों को लेकर सरकार भी पीपली लाइव है या पीपली लाइव को भी सरकार की दृष्टि लगी हुई है....कहा कुछ भी जा सकता है, लेकिन असल में इस सच को जानने के बाद ही पीपली लाइव समझ में आ सकती है। न्यूज चैनलों की दिवालिया मानसिकता में गोता लगाती फिल्म ने चैनलों के उन्हीं मीडिया चरित्रों को पकड़ा है, जिनकी अपनी एक इमेज है। और मीडिया के इन पुरुष और महिला चरित्रों की हैसियत कितनी है, इसका अंदाज इससे भी लगाया जा सकता है कि पुरुष फिल्मी चरित्र अगर हकीकत में अपने असली चरित्र में आ जाये तो लालकृष्ण आडवाणी सबसे पहले इंटरव्यू के लिये किसी टीवी मीडिया पर्सन को चुनेंगे तो वह यही शख्स होगा। वहीं मीडिया चरित्र को जीने वाली महिला भी फिल्मी मीडिया पर्सन की भूमिका छोड़ हकीकत में आ जाये तो यकीन जानिए इस वक्त देश की सर्वेसर्वा....दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक सोनिया गांधी भी सबसे पहले इसी टीवी महिला मीडिया पर्सन को इंटरव्यू देना पसंद करेंगी। तो क्या देश की राजनीति के प्रतीक बने नेताओं को लेकर भी अगर कोई लुटियन लाइव बना दी जाये तो न्यूज चैनलों की टीआरपी की तर्ज पर सत्ता बनाने और बचाये रखने के लिये गठबंधन फार्मूला दिखाया जायेगा। जिसमें कभी सीबीआई तो कभी हिन्दुत्व का लेप तो कभी आर्थिक सुधार में घायल होती विचारधारा उभरेगी। और राजनीति के शिखर पर एक खास पहचान बनाकर पहुंचे नेताओं को भी फिल्मी चरित्रों में ढलते ही योजनाओं के ऐलान और उसे लागू कराने की जद्दोजहद में सत्ता की मलाई चखते हुये ही दिखाया जायेगा।
हो कुछ भी सकता है और आश्चर्य किसी को नहीं होगा, बल्कि इसके उलट लोग ठहाका लगाते हुये फिल्म देखेंगे। हो सकता है लुटियन लाइव का प्रीमियर संसद के सेन्ट्रल हॉल में हो और सांसद उसी तरह ठहाका लगाएं जैसे एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल में जब पीपली लाइव दिखायी गयी तो टिप्पणी और फुसफुसाहट यही उभरी की फिल्म ने नब्ज पकड़ी तो है लेकिन धड़कन छूट गयी। हो सकता है लुटियन लाइव में यह फुसफुसाहट नेताओं से निकले। लेकिन सच इतना खतरनाक हो जायेगा कि उस पर फिल्मी पटकथा कमजोर लगेगी और सच को पर्दे पर उकेरने वाले गंभीर कलाकार सिनेमायी पर्दे पर कमजोर लगेंगे और राजनीति के शिखर पर बैठे नेता फिल्मी पर्दे सरीखे हो जायेंगे, यह भी किसने सोचा होगा।
पीपली लाइव की सबसे कमजोर कड़ी बॉलीवुड का सबसे दमदार कलाकार नसीरुद्दीन शाह है। जो फिल्म में देश का कृषि मंत्री बना है। चूंकि इस दौर में सिल्वर स्क्रीन से इतर हकीकत में देश के कृषि मंत्री शरद पवार की भूमिका नसीर के हर डायलॉग से भारी है...इसलिये नसीर का घाघ नेता बनना भी कमजोर लगता है और सिनेमायी पर्दें पर यह संवाद कायम नहीं कर पाता की नसीर ने शानदार एक्टिंग की। पीपली लाइव के कृषि मंत्री की समूची सौदेबाजी मोनसेंटो बीज के संकेत पर बना सोनसेंटो बीज और खाद के कमीशन में ही खो जाती है। लेकिन देश का सच यह है कि कृषि मंत्री शरद पवार पर संसद में आरोप लगते हैं कि शुगर लॉबी को लाभ पहुंचाने के लिये उन्होंने चीनी की कीमत का कंट्रोल भी लॉबी के हाथ में ही दे दिया। चावल की कालाबाजारी और जमाखोरों को राहत देने के लिये कीमतों में बढ़ोत्तरी के संकेत पहले दे दिये। महंगाई की जिम्मेदारी से खुद को हमेशा मुक्त रखा और खुदकुशी करते किसानों की जिम्मेदारी राज्यों पर मढ़ कर अपनी राजनीतिक पूंजी बनायी रखी जो उन्हीं लॉबियों से आती है, जिनके लिये पवार कृषि मंत्री हैं।
संसद के भीतर लगे ऐसे आरोपों के सामने नसीर की एक्टिंग क्या मायने रख पायेगी और नसीर सरीखा संजीदा कलाकार कितना बौना है इस राजनीति के इस सच के सामने...और यह सच कितना खतरनाक है जो नौकरशाही के नियम कायदों में देश के लोकतंत्र को संविधान से बांधता चला जाता है। अगर सिल्वर स्क्रीन की पटकथा को देखें तो किसानों की मौत में भी नौकरशाही अदालत के निर्देशों का इंतजार करती है या फिर कानून मंत्रालय से नियमों की जानकारी मांग कर खामोश रहती है। वहीं हकीकत में किसान-आदिवासियों के जंगल-जमीन का मामला जब आता है, गृहमंत्रालय के सबसे बड़े नौकरशाह को संविधान की वह धारायें याद नहीं आतीं, जिसमें आदिवासियों के हक के सवाल पर विकास की सारी लकीर असंवैधानिक करार दी गयी हैं। उल्टे नौकरशाही संविधान को अंगूठा दिखाकर लोकतंत्र का अनूठा पाठ यह कह कर पढ़ाती है कि विकास के विरोध का मतलब आतंकवादी होना है और इसके लिये बकायदा कानून अपना काम करेगा। रायपुर, कांकेर, बिलासपुर, बस्तर, नागपुर, चन्द्रपुर, सरीखे दो दर्जन से ज्यादा शहरों में इसी कानून का खौफ दिखाकर साढ़े तीन सौ से ज्यादा लोग जेलों में बंद हैं। अगर शहर छोड़ गांव की तरफ कदम बढ़ाएं तो विरोध के लिये कदम बढ़ाते कमोवेश पांच राज्यों के तीन सौ से ज्यादा गांव के साढ़े सात सौ लोगों के खिलाफ अलग अलग धारायें लगी हुई हैं। जबकि इनके खिलाफ किसी ने कोई शिकायत नहीं की बल्कि पुलिस को लगा और उसने अपनी सफलता का तमगा बड़े अधिकारियों से यह कह कर पा लिया कि अब बड़े अफसरों की सरकारी रिपोर्ट भी माओवादियों पर नकेल कसने के नाम पर ग्रामीण-मासूमों के नामों को लिखकर मजबूत की जा सकती है । यानी लगेगा कुछ काम पुलिस प्रशासन कर रहा है। इसलिये सिल्वर स्क्रीन का सिपाही भी पीपली लाइव में कमजोर लगता है क्योंकि वह नत्था की सुरक्षा में लग उसके सुबह खेत में निवृत होने पर नजर रखने से लेकर नत्था का अपहरण गांव के जमींदार के लिये करता है या फिर सो कर ड्यूटी बजाता है।
जबकि सिल्वर स्क्रीन से परे उड़ीसा के पास्को में बकायदा सरकार की जांच समिति वेदांता पर फॉरेस्ट कंसरवेशन एक्ट, फॉरेस्ट राइट एक्ट, इन्वायरमेंट प्रोटेक्शन एक्ट और पंचायत कानून के उल्लंघन का आरोप लगाती है और उड़ीसा सरकार या वेदांता के किसी अदने से अधिकारी को पुलिस-प्रशासन छू नही पाता। जबकि इन चारों कानून के उल्लंघन करने पर सिर्फ उड़ीसा में ढाई हजार से ज्यादा ग्रामीण आदिवासी जेल में बंद हैं। और महाराष्ट्र-छत्तीसगढ़ में तो सबसे ज्यादा नौ हजार ग्रामीण आदिवासियों पर पर्यावरण और वन कानून तोड़ने की अलग अलग धारायें लगी हुई हैं। जिसमें बस्तर से लेकर चन्द्रपुर तक के सैकड़ों आदिवासियों का तो चालान काट कर आज भी 50 से सौ रुपये फॉरेस्ट वाले इस बिनाह पर वसूलते हैं कि उन्होंने संरक्षित इलाके में पेड़ काटा या टहनी तोड़ी।
हो सकता है कि लुटियन लाइव में यह सारे चरित्र खुलकर अपनी अदा दिखायें। लेकिन नत्था की लाइव खुदकुशी अगर न्यूज चैनलों को टीआरपी दे सकती है तो फिर नत्था को बचाने के चक्कर में ग्रामीण पत्रकार की मौत भी इसी मीडिया को क्रेडेबल यानी विश्वसनीय बनाती है, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। खबरों को लेकर मीडिया की विश्वसनीयता इस मायने में ज्यादा है कि वह नेताओं से ज्यादा तीक्ष्ण दृष्ठी रखती है और पिछड़े इलाकों की हर खबर को भी आपके ड्राइंग-बेड रुम तक पहुंचा देते हैं। लेकिन इसमें भी उसी मीडिया पर्सन का नाम हो जाता है जो पीपली लाइव में लाइव करते हैं और हकीकत में कद्दावर नेताओ को लाइव बैठाते हैं। लुटियन की दिल्ली में रहते हुये न्यूज चैनलों के नामी मीडिया पर्सन अगर वाकई छोटे शहरों की खबरों को अपने औरा तले खपा कर स्ट्रिंगरों या रिपोर्टरों के पेट भरने का इंतजाम नौकरी या रिपोर्ट चलवाकर दिला देते है तो फिर यह पीपली लाइव से ज्यादा लुटियन लाइव के करीब हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स में योजनाओं के तहत पंचायत तक पहुंचने वाला पैसा रुपये में दस पैसे से ज्यादा होता नहीं है और बीच में गायब हुये नब्बे पैसे के जरीये ही राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ता या कैडर को पालते-पोसते हैं। यानी लुटियन की दिल्ली में टिके रहने के लिये मीडिया और राजनीति के गुर अगर अपने अपने घेरे में एक सरीखे हैं तो फिर मनमोहनमिक्स को ही विकास का आखिरी इक्नामिक्स क्यों ना मान लिया जाये। जहां किसानों की खुदकुशी के दर्द में मलहम शहरों में चकाचौंघ के लिये क्रंक्रीट के जंगलों को बनाने में गांव से भाग आये नत्था सरीखे मजदूर होते हैं। और नत्था को खोजने का काम मीडिया करता है। उसे शहर लाकर मजदूर बनाने का काम विकास की राजनीति। और विकास दर का आंकड़ा बताता है कि दो-तीन दशक पहले से किसान आज ज्यादा पाता है और देश के मजदूर की न्यूनतम मजदूरी में सौ फिसदी तक की बढोतरी हुई है। उन सब लोगों में खरीदने की क्षमता बढी है, जिससे देश में अनाज का संकट आ गया है। इसलिये गांव में खुदकुशी करने के वादे से मुड़ कर भाग कर शहर आया नत्था मजदूर बन कर गांव से बेहतर जिन्दगी जीता है। क्या यह मंत्र भारत जैसे बृहद देश में विकास के तौर पर नहीं देखा जा सकता। क्योंकि खुदकुशी रोकने के लिये और मीडिया से लेकर पुलिस प्रशासन और पंचायत से लेकर संसद के राजनेताओं की सौदेबाजी का तोड़ भी यही है। हो सकता है लुटियन लाइव में यह और ज्यादा खुलकर उभरे। लेकिन लुटियन लाइव का अंत वाकई सच को पर्दे पर उभारेगा। क्योंकि वह पीपली लाइव के नत्था की जगह पीएम होंगे। जो गांव से शहर नहीं इंडिया से वर्ल्ड पर राज करेंगे और दुनिया के सबसे बेहतर पीएम माने जायेंगे। और उनकी शेरवानी, उनकी मुस्कुराहट,उनके हाथ उठाने के अंदाज से लेकर हर मुद्दे पर देर तक खामोशी के बीच शोले में ए के हंगल का वह डायलॉग उभरेगा, यहां इतना सन्नाटा क्यों है भाई।