Wednesday, September 22, 2010

सत्ता के नशे की खुमारी-पीएमओ, मीडिया और जेएनय़ू का कॉकटेल

यह पहली बार है कि पीएमओ आम आदमी से सीधे संपर्क बना रहा है। यह पहली बार है कि संसदीय राजनीति और जंगल में हथियार उठाये माओवादियों के बीच का कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा है। पहली बार समूचा पीएमओ देश के पत्रकारों के लिये उपलब्ध है। पहली बार लोकतंत्र के चारो खम्भे एक सरीखे बिके हुये लग रहे हैं। दो अलग-अलग जगहों पर दो अलग अलग आबो-हवा के बीच गूंजते यह सवाल 18 सितंबर की देर शाम से लेकर देर रात तक के है। पहली आबो-हवा दिल्ली के हैबिटेट सेंटर के सिल्वर ओक की है ,जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को छोड़ समूचा पीएमओ देर शाम आठ बजे जुटा। इसमें देश के नामी-गिरामी पत्रकारों को डिनर के लिये प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव ने बकायदा पत्र लिखकर आमंत्रित किया। तो दूसरी आबो-हवा जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की है। जिसमें जेएनयू के अलग-अलग हॉस्टल में रहने वाले छात्र-छात्रों का हूजुम रात साढ़े नौ बजे गोदावरी हॉस्टल के मेस में जुटा। इसमें छात्रों के एक समूह ने ग्रीन हंट और कारपोरेट मीडिया पर बहस के लिये पत्रकारों, शिक्षकों और कवियों को आमंत्रित किया।

पीएमओ के डिनर में संपादक स्तर के करीब तीस-पैंतीस पत्रकार पहुंचे और जेएनयू में करीब तीन-साढ़े तीन सौ छात्र-छात्रायें। देर शाम आठ बजे पीएमओ के डिनर के लिये सिल्वर ओक में घुसते ही हाथों में काकटेल का पैमाना ट्रे में उठाये वेटर से ही सामना हुआ। पहला ऑफर वेटर का...शराब का ही। जबकि प्रधान सचिव के हाथों लिखे पत्र में बेहद अपनत्वता का एहसास था कि 18 की शाम आपका स्वागत करने में हमें खुशी होगी। और हमारा आग्रह है कि आप हमारे साथ भोजन करें। वहीं जेएनयू के दरवाजे पर पहुंचते ही एक छात्रा एकाएक सामने आयी और सुरक्षाकर्मी के सवाल से पहले ही कहा यह हमारे मेहमान हैं। और फिर गाड़ी का टोकन ले हम सीधे गोदावरी हॉस्टल के पास पहुंचे । जहां गोदावरी और पेरियार के बीच में खाली जगह पर ढ़ाबे के सामने जमीन पर बैठ प्लास्टिक के कप में चाय पिलाकर स्वागत किया गया। इन छात्रों ने कोई लिखित आमंत्रण ना भेज सीधे मोबाइल पर ही सहमति ली थी। सिल्वर ओक में ज्यादा संवाद वेटरों का ही था जो बार बार जाम या कोल्ड ड्रिंक्र के साथ चखना का ऑफर करते और इन सबके बीच पीएमओ के अधिकारियों के साथ संवाद बनाने-मुसकुराने की आबो-हवा लगातार घुमड़ती रही। वहीं जेएनयू में घुसते ही छात्र-छात्रों का हुजुम कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही अपने-अपने सवालों पर चर्चा के लिये जुटने लगा। कोई कश्मीर, तो कोई नार्थ-ईस्ट, तो कोई सुप्रीम कोर्ट के अनाज बर्बाद होने दिये गये निर्देश को लेकर अपनी प्रतिक्रिया बता रहा था, तो कोई हमारी राय जानना चाह रहा था। सिल्वर ओक में अलग अलग घेरे में चर्चा करते धीरे-धीरे पीएमओ के अधिकारी खुलने लगे तो यह बताने से नहीं हिचके कि कैसे पहली बार आम आदमी को भी अपने साथ जोड़ने की पहल पीएमओ कर रहा है। कैसे पीएमओ का मीडिया सेल अपनी पहल से मुल्क से जुड़े अहम मुद्दों को उठा रहा है। देश में कोई प्रधानमंत्री इतना पारदर्शी है, इतना ईमानदार है और किस तरह विकास के काम को अंजाम देने में जुटा है।

वहीं जेएनयू में चर्चा के दौरान जब सुनने आये छात्रों ने सवाल दागने शुरू किये तो पहला सवाल ही संसदीय राजनीति और माओवाद के बीच क्या कोई रास्ता नहीं है, इसे लेकर ही उठा। क्या राजनीति का मतलब सिर्फ वही संसदीय राजनीति है जिसे अब आम आदमी भी कटघरे में खडा करना शुरू कर चुका है । किसान-आदिवासी के हक की बात जब संविधान में दर्ज है तो फिर सत्ता ही संविधान को अपनी सुविधानुसार परिभाषित क्यों कर रही है। मीडिया का विस्तार हुआ है या मीडिया तकनीक का। नयी पीढ़ी जो मीडिया से जुड़ रही है उसकी अहमियत कितनी है। राहुल गांधी अगर देश के भीतर दो देश का सवाल उठा रहे हैं, तो इसका मतलब क्या निकाला जाये। आखिर प्रधानमंत्री ने जानबूझकर सब कुछ बाजार के हवाले इसलिये कर दिया है जिससे संसदीय सत्ता पर दाग ना लगे...और आम आदमी पीने के साफ पानी से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सब कुछ के लिये बाजार का ही मुंह देखे । यह सारे छात्रों के सवाल थे। लेकिन इन सवालो को लेकर कोई बैचैनी सिल्वर ओक में शाम आठ बजे से सवा नौ बजे तक बिताये सवा घंटे के दौरान मैंने कहीं देखी-सुनी नहीं। पीएमओ के एक युवा अधिकारी से अनौपचारिक गुफ्तगू में जैसे ही विकास की नीतियों को लेकर मुल्क से इतर महज 15-20 करोड़ को ही देश मानने का सवाल उठाया...तो जबाव भी झटके के साथ आया, "डोंट टॉक लाइक अरुणधति " { अरुणघति राय की तरह बात मत कीजिये } समाधान बताइये...रास्ता बताइये। मीडिया में कहा जाता है पीएमओ संपर्क नहीं बनाता। तो लीजिये पहली बार पूरा पीएमओ ही मौजूद है। असल में सवाल उठाने पर पीएमओ को अगर अरुणधति का भूत नजर आता है तो जेएनयू में भी छात्र ऊर्जा के सामने सबसे बडा संकट यही है कि अगर वह तत्काल की व्यवस्था से खुश नहीं हैं तो उसे रास्ता भी नजर नहीं आता। सवाल-जवाब के आखिरी दौर में एक छात्र ने सीधे पूछा, अगर जेएनयू कैंपस के बाद राजनीति की लीक पकड़नी हो तो हमें करना क्या चाहिये। क्यों संसदीय राजनीति भी है और चुनाव में शामिल नहीं होना चाहते हैं, तो भी राजनीति के माध्यम हैं। लेकिन संसदीय राजनीति में शामिल होने का मतलब अगर भष्ट्र होना है और माओवादी रास्ते को ही जब गैर कानूनी करार दिया जा चुका है तो फिर राजनीति कहां-कैसे होगी।

लेकिन राजनीति रास्ता भी निकालती है और राजनीति के कोई भी तौर तरीके अपनाये जायें उनका मकसद कहीं ना कहीं बहुसंख्य जनता से जुड़ाव और उसका हित होना चाहिये। सही है, लेकिन हम जानना चाहते हैं कि जिस तरह किसी नौकरी को करने पर अगले दिन से पेमेंट मिलने लगता है, उसी तरह कोई ऐसा राजनीतिक मंच भी इस देश में है,जहां सत्ता के लिये राजनीति कर भष्ट्र होना भी ना पड़े और गैर कानूनी करार देकर सरकार जेल में भी ना ठूंस दे। यह सवाल जेएनयू में ही उठ सकता है। रास्ता आपको खुद तय करना होगा। लेकिन रास्ता हो क्या और काम करने की ऊर्जा किस रूप में निकले यह बडा सवाल कमोवेश जेएनयू के तमाम छात्रों में दिखायी दि‍या, जबकि पीएमओ रोजगार और देश की श्रमिक ऊर्जा को खपाने के लिये मनरेगा का गुणगाण हमेशा करता है और सिल्वर ओक में भी मीडिया के बीच उसकी आवाज आ रही थी। हालांकि मनरेगा भी लक्ष्‍यविहीन है और देश की कोई परियोजना मनरेगा के तहत पूरी नहीं हुई, इस पर अंगुली उठाने का मतलब था....डोंट टाक लाईक अरुणधति का जवाब सुनना।

लेकिन मीडिया को डील करने वाले पीएमओ के अधिकारियों से मिलने-सुनने से यह एहसास जरुर हुआ कि मानवीय सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर ठीक उसी तरह खींची जाती है जैसे सोनिया गांधी की अगुवाई वाली नेशनल एडवाइजरी काउसिंल यानी एनएसी में वाम सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर निकलती है। यानी देश की नीतियों का चेहरा चाहे विकास की अत्याधुनिक धारा में बहने को तैयार हो लेकिन उस पर मानवीय पहलुओं की पैकेजिंग अगर पीएमओ कर ही देता है तो एनएसी भी वाम सोच की पैकेजिंग करने में माहिर है। और यह दोनों गाहे-बगाहे टकराते भी है। पीएमओ एनएसी पर यह कहकर निशाना साधता है कि उसका काम कांग्रेस के वोट बैंक पर नजर रखना है तो एनएसी पीएमओ को सिर्फ मनमोहन इक्नामिक्स में खोये चेहरे के तौर पर देखता है। हालांकि हकीकत यह भी है कि इन दोनों ही जगहों पर तैनात अधिकारी या सलाहकार वाकई मानवीय गुणों से लबरेज या वामपंथी सोच के तहत कि‍सान-मजदूर और आदिवासियों के सवालो से जूझने वाले पुराने लोग हैं। लेकिन सत्ता की परिभाषा को परिभाषित करने में जिस तरह देश की ऊर्जा खपायी जा रही है उसमें जेएनयू से निकलने वाले सवाल क्या वाकई कल कोई मॉडल पेश कर पायेंगे या फिर इसी धारा में बह जायेंगे। यह सवाल इसलिये जरुरी है क्योंकि नौकरशाहों की टीम हो या मीडिया के घुरधरों का जमावड़ा। दोनों ही जगह जेएनयू से निकले छात्रों की कतार भी है जो फिलहाल कई डिनरों में व्यस्त हैं। सिल्वर ओक में पीएमओ का डिनर कबतक चला..यह तो पता नहीं लेकिन आधी रात के बाद जब वापस जेएनयू से घर के लिये निकला तो लगा यही कि सत्ता के नशे से कहीं ज्यादा नशा तो छात्रों की बैचैनी ने पाल रखी है और शायद रास्ता वहीं से निकलेगा। क्योंकि इन दोनों के बीच मीडिया भी सत्ता की खुमारी के नशे में है ।

5 comments:

सम्वेदना के स्वर said...

प्रसून जी!
जेएनयू और पीएओ की सोच के बीच हमें तो एकरूपता ही नज़र आती है।

जेएनयू की इस पौध को जब-जब सत्ता की खाद लगती है यह अमरबेल सी सत्ता प्रतिष्ठानों पर उसी तरह चढ़ जाती है जैसे आज का पीएमओ।

सोचने समझने वाले और भी लोग हैं इस देश में पर उन सभी को तरह-तरह के नाम देकर दुत्कारने की कला में निष्णात है, आज का सत्ता तंत्र (जो मीडिया की ताकत कब्जाने के बाद सर्वशकिमान हो गया है!

हाँ,यह बात आपने पते की कही कि, बीत सालों में,मीडिया का विकास हुआ है या मीडिया तकनीक का!

दीपक बाबा said...

राम राम दद्दा,

मेरी मोटी ग्रामीण बुद्धि में ये बात नहीं घुसती कि क्या कि‍सान-मजदूर और आदिवासियों का ठेका वामपंथियों ने ले रखा है?

आप सरीखे पत्रकार और बुद्धिजीवी जब भी मजदूर किसान की बात करते हैं तो वामपंथ का दर्शन ही अघाडा जाता है क्यों?


वामपंथ विचारधारा कि सरकारों के इन लोगों का क्या भला किया है. कभी इस बात पर भी सेमीनार हुवा है जे एन यू में.

नदीम अख़्तर said...

पीएमओ से लेकर जेएनयू तक सवाल तैर रहे हैं। कई हैं। जवाब सब को नहीं चाहिए। पीएमओ वाले चाहते हैं कि किसी प्रकार मीडिया के मुंह को शांत रखें। वे संपादकों को हाइ-प्रोफाइल डिनर कराकर हो सकता है कि कुछ हद तक कामयाब भी हो जायें, लेकिन जेएनयू के छात्र-छात्राओं के लिए तो सबसे सटीक जवाब ये हो सकता है कि वे संसदीय राजनीति में आयें और बिना भ्रष्ट हुए सत्ता के शीर्ष पर पहुंचें। अगर कैलिबर है, तो आपको कौन रोकेगा। और अगर वकार ही बुलंद नहीं है, तो आप भी भ्रष्ट हो जाइयेगा। फिर आपको यह हक कौन देता है कि आप संसदीय राजनीति की भ्रष्ट सत्ता की आलोचना करें। राजसत्ता स्थिर नहीं रहती। आप आगे आइये और अपने प्रताप से कमान संभालने लायक आभा का लोकार्पण कीजिए। आपकी अच्छाइयों का एक फायदा तो यह होगा कि जो राजनेता आज मीडिया के चुनिंदा संपादकों के लिए डिनर पार्टियां आयोजित कर रहे हैं, वैसा करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जब सत्ता मजबूती के साथ सर्वहारा विकास के लिए उद्देश्यपूर्ण उत्प्रेरक रहेगी, तो मजाल है कि मीडिया राजनीति की ऐसी-तैसी कर सके।

प्रवीण पाण्डेय said...

सत्ता के गलियारों में तो बैठे सब मदमाये हैं,
कहीं समझ न आये सुन लो, प्यार मिलेगा ढाबों में।

शैलेन्द्र कुमार said...

सवाल कठिन है लेकिन हमे संसदीय लोकतंत्र और माओवाद के बीच का रास्ता नहीं चाहिए हम लोकतंत्र से ही खुश है जरूरत है राजनैतिक शुचिता की और अच्छे लोगो को आगे लाने की जो की एक मुश्किल कार्य है मुझे लगता है की स्वामी रामदेव जी इस क्षेत्र में अच्छा कार्य कर रहें है अगर वो इसी तरह आगे बढ़ते रहें तो अन्य राजनीतिक दलों को अपने अन्दर सुधार करना आवश्यक हो जायेगा