Saturday, December 11, 2010

बदलते दौर में कांग्रेस की मुश्किल

कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत क्‍या है। स्पेक्ट्रम घोटाला। कारपोरेट घरानों का फंसना। सीवीसी की नियुक्ति पर अंगुली उठना। कॉमनवेल्थ से लेकर आदर्श सोसायटी का घपला, कांग्रेसी नेताओं की अगुवाई में होना। आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी का बगावत करना। करुणानिधि का चेताना कि गठबंधन का टूटना दोनों के लिये घातक होगा। या फिर शरद पवार का सरकार को धमकाना कि कारपोरेट जगत के खिलाफ भ्रष्टाचार के नाम पर कार्रवाई सही नहीं है। या फिर मुश्किलों के इस दौर में कांग्रेस पार्टी में ही वह एकजुटता ना होना जैसा अक्सर इससे पहले के मुश्किल भरे मौके पर नजर आती थी। जाहिर है सोनिया गांधी ने सोचा भी ऐसा ना होगा कि 2004 के जनादेश से कहीं ज्यादा मजबूत होकर जब 2009 का जनादेश कांग्रेस के पक्ष में आने के बाद एक साल में संकट कुछ इस तरह आयेगा कि मनमोहन की मि. क्लीन छवि हो या "काग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' का नारा भी टूटता सा दिखने लगेगा।

असल में कांग्रेस की मुश्किलों या देश के सामने आये भ्रष्टाचार के संकट को समझने के लिये जरुरी है कि इस दौर में सरकार के कामकाज के तरीके और राजनीतिक दलों के संगठन के तौर-तरीकों को समझा जाये। अब सवाल सिर्फ जनता के बीच से निकले नेता के प्रधानमंत्री बनने की जगह सीईओ सरीखे एक नौकरशाह के प्रधानमंत्री बनने का नहीं है। बल्कि हर मंत्री की अपनी सत्ता है। और हर मंत्रालय के जरिये कोई भी मंत्री अरबों-खरबों का खेल जिस आसानी से विकास के नाम पर कर सकता है, उसमें किसी भी मंत्री के लिये राजनीतिक दल की जरूरत एक तमगे से अलग नहीं होती है। और यह सच केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों का है। यानी इस दौर में खुले बाजार को जिस माल की जरूरत है और वह उपभोक्ता से लेकर खनिज संसधानों और सस्ते मजदूर से लेकर सस्ते इन्फ्रास्ट्रचर में सिमटा हुआ है, और यह सब पूरा करने में भारत सक्षम है तो फिर हर सत्ताधारी की अपनी सत्ता हो ही जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

यहां सवाल सिर्फ ए.राजा का नहीं है जिन्होंने स्पेक्ट्रम के जरिये देश को चूना लगाया लेकिन पूंजी का जुगाड़ कर डीएमके में अपना कद बढाया और राजनीतिक तौर पर अपने भविष्य को भी सुरक्षित कर लिया। बल्कि कांग्रेस के नेता जो भी मंत्री है या फिर पहले किसी ना किसी रूप में सत्ता संभाल चुके है, उनकी हैसियत पार्टी में कैसी है यह विलासराव देशमुख या गुलाम नबी आजाद या फिर दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं को देखकर समझा जा सकता है। क्या कोई यह सोच भी सकता कि महाराष्ट्र में शिवसेना की ही सत्ता क्यों ना आ जाये और मध्यप्रदेश में भाजपा की ही सत्ता क्यों ना हो लेकिन विलासराव देशमुख या दिग्विजय सिंह का काम उनके राज्यों में पूरा नहीं होगा। असल में सत्ता जिस तेजी से मंत्री या मुख्यमंत्री के लिये पूंजी की उगाही करती है और कारपोरेट के साथ नेटवर्किंग कराती हैं उसमें सत्ता जाने के बाद भी निजी सत्ता हर पूर्व मंत्री की बरकरार रहती है। यह सत्ता से आगे स्थायी सत्ता होती है।और बीते दस साल का सच यही है कि हर राजनीतिक दल ने सत्ता भोगी है। यानी सत्ताधारियों को लेकर विपक्ष के किसी नेता को देखकर यह सोचना भी बेमानी है कि विपक्षी नेता का काम आज की तारीख में हो नहीं सकता, क्योंकि वह सत्ता में नहीं है।

राजनीतिक गलियारे में हर कोई जानता है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अपने किसी भी काम को लेकर और किसी का नहीं बल्कि सुपर पीएम सोनिया गांधी या राहुल गांधी से बात करने की ताकत रखती है। साथ ही काम पूरा कराने की ताकत भी। इसी राजनीतिक गलियारे में हर काग्रेसी भी जानते है कि पी.चिदंबरम का बेटा अब राजनीतिक मैदान में कूदने के लिये तैयार है और चिदंबरम भी इस तैयारी में है कि तमिलनाडु में अब कांग्रेस उनके हिसाब से चले। और पूंजी की कमी है नहीं। यह ठीक वैसे ही है जैसे कर्नाटक में येदियुरप्पा आरएसएस से निकलकर सीएम बनने के बाद भाजपा की दिल्ली चौकड़ी को भी चेताने से नहीं घबराते कि उन्हें बेदखल किया तो वह भाजपा को ही बेदखल कर देंगे।

असल में यहीं से जगन रेड्डी का सवाल भी खड़ा होता है और 10 जनपथ की कोटरी का भी। जगन रेड्डी अगर आंध्र प्रदेश में अब कांग्रेस के लिये एक चेतावनी है तो फिर इसी तरीके से भविष्य में हरियाणा या पंजाब में भी कोई चेतावनी खडी हो सकती है, क्योंकि आंध्रप्रदेश में जब वायएसआर ने अपने बूते कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचा दिया तो वायएसआर सिर्फ सीएम नहीं थे बल्कि आंध्र प्रदेश में काग्रेस के संगठन भी वही थे। यानी काग्रेस ने कभी इसकी तैयारी नहीं कि संगठन भी साथ-साथ खडा होना चाहिये । लेकिन कांग्रेस इस हकीकत को भी जानती समझती है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही असल में पार्टी-सरकार-संगठन है, इसलिये सोनिया की खामोशी के वक्त सीताराम केसरी ने कैसे कांग्रेस का बंटाधार किया यह भी किसी से छुपा नहीं है। और सोनिया के खड़े होते ही कैसे झटके में बिखरी कांग्रेस एक लगने लगी यह भी कांग्रेसियो ने ही देखा है। मगर सरकार के कारपोरेटिकरण के दौर में पार्टी जनता से जुडे रहे और मंत्री-सीएम भी इसकी काट किसी के पास है नहीं, इसलिये राज्यो में सीएम का मतलब सिर्फ सरकार नहीं होता बल्कि बल्कि पार्टी-संगठन भी होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य की आकूत संपत्ति पर सीएम का बैठना होता है और राज्य के लिये पूंजी प्रवाह ही कैडर को नेता से जोड़ता है। यह वैसे ही है जैसे हरियाणा में फिलहाल भूपिन्दर सिंह हुड्डा सर्वोसर्वा है और पंजाब में अमरिन्दर सिंह। वही पार्टी के नेता भी हैं और संगठन भी। यानी कल कोई संकट यहां खडा होगा तो सत्ता ना मिलने पर कांग्रेस के सामानांतर इन्हीं का कोई दूसरा खड़ा हो जायेगा।

वहीं मुश्‍किल यह है कि सोनिया गांधी की कटोरी में कोई ऐसा है नहीं जिसने राज्य संभाला हो। इसलिये किचन कैबिनेट के सर्वेसर्वा अहमद पटेल के लिये किसी भी राज्य को कांग्रेस के लिये चैक एंड बैलेस करने का मतलब चंद चेहरों पर निगरानी रखना या सौदेबाजी करना ही होता है। ऐसे में जब चेहरे ही सत्ता और 10 जनपथ के प्रतीक बन जाये तो फिर संगठन गायब हो जाता है और टकराव की स्थिति में इन चेहरों के लिये बगावत का मतलब सिर्फ अपने चेहरों को बनाये रखना भर ही होता है क्योंकि उनके पीछे समर्थकों की ऐसी फौज होती है जो उसी नेता के पूंजी प्रवाह पर टिकी होती है। और इस भीड़ को गंवाने का मोह कोई नेता छोडना नहीं चाहता है। क्योंकि उसे पता होता है कि उसका चेहरा बना रहा तो पिर पार्टी खुद ब खुद उससे सौदेबाजी कर लेंगी। और जब तक टकराव नहीं होता इन्हीं समर्थकों को संगठन और कैडर माना जाता है। टकराव हुआ तो शरद पवार या ममता बनर्जी का उदाहरण तो सामने हैं ही। यानी राजनीतिक पार्टी जो पहले संगठन के बल पर खडी होती थी अब वह सत्ता और नेता को महत्व देने लगी हैं। जबकि इन परिस्थितियों के बीच मनमोहन सिंह के इक्नॉमिक्स के असर को भी समझना होगा जिसके जरिये हर मंत्रालय को संभालने वाले मंत्री की एक अपना इम्फ्रास्ट्क्चर खुद-ब-खुद उसके पद संभालते ही बन जाता है। और जनता के बीच से निकल कर लुटियन्स की दिल्ली में पहुंचते ही उसके मंत्रालय की कीमत किस योजना को लेकर कितनी है यह बाहरी ताकतें तय करने लगती हैं।

मसलन, पहली बार जब 2004 में टीआरएस के चंद्रशेखर राव मंत्री बने तो वह अपने मंत्रालय को समझ भी पाते उससे पहले ही गुजरात के अलग पोर्ट को लेकर उनसे सौदे करने कारपोरेट की एक टीम हैदराबाद पहुंच गयी और डेढ हजार करोड का खुला ऑफर भी दे आयी। सौदा हुआ या नहीं यह तो सामने नहीं आया लेकिन मंत्री पर छोड जब दोबारा चन्ध्रशेखर राव अपनी पार्टी को बिखरने से रोकने के लिये संघर्ष में उतरे तो उनके पास जनाधार से ज्यादा पूंजी थी। यह स्थिति देश के किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री को लेकर कैसे हो सकती है यह राजा, येदियुरुप्पा, जगन से लेकर सीएम पहकर शिवसेना छोड़ने वाले नारायण राणे तक से समझा जा सकता है। लेकिन नेता और मंत्री पद के पूंजी प्रवाह से कही ज्यादा ताकतवर इस दौर में कारपोरेट घराने हुये है, जो असल में देश को "बनाना रिपब्लिक" की तरफ ले जा रहे है, इससे कांग्रेस या सरकार कैसे निपटेंगी बड़ा सवाल यहीं पैदा हो गया है। यह तो संयोग है कि नीरा राडिया के टेप एक ऐसे दौर में सामने आये जब देश में भ्रष्‍टाचार को लेकर संघर्ष तूल पकड रहा है और लोकतंत्र का हर खम्भा दागदार भी नजर आ रहा है और अब भ्रष्‍टाचार के खिलाफ मैदान में हौले-हौले उतरने की कोशिश भी कर रहा है । इसमें सफलता कहां तक मिलेगी यह तो दूर की गोटी है, लेकिन कांग्रेस की अब बड़ी मुश्किल यह है कि जिस मनमोहन इक्नामिक्स ने कारोपरेट घरानों के लिये रेड कारपेट बिछायी वही कारपोरेट सत्ता-सरकार से लेकर पार्टी और संगठन तक में घुन की तरह जा मिला है। नौकरशाह की नियुक्ति से लेकर मंत्री बनाने और पार्टी में ओहदा दिलाने से लेकर संगठन खडा करने में चंदा देने तक में कारपोरेट शामिल हो चुका है।

सोनिया गांधी के लिये यह मुश्किल घड़ी इसलिये ज्यादा है क्योंकि उन्हें राजीव गांधी का वह दौर याद आ रहा होगा जब धीरुभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया के संघर्ष में सरकार और जांच एंजेसी भी भागीदार बन गयी थी। तब के वित्त मंत्री वीपी सिंह से लेकर इन्वोस्मेंट टायरेक्ट्रोरेट के भुरेलाल की भी एक भूमिका थी और उस दौर में कैसे कारपोरेट युद्ध में दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार पांच साल पूरे नहीं कर पायी और चुनाव हुये तो देश ने भ्रष्‍टाचार के खिलाफ एक नया नायक गढ दिया था। बाईस साल बाद कमोवेश वही स्थिति फिर फिर से खड़ी हो रही है क्योंकि कांग्रेस के सबसे कट्टर सहयोगी दुश्‍मन शरद पवार ही अब सरकार को पाठ पढा रहे है कि कारपोरेट घरानो को शक की बिला पर ना घेरें इससे गठबंधन की स्थायीतत्वता पर असर पड सकता है। यानी भ्रष्‍टाचार में फंसा कारपोरेट ही अब सियासत को ही अपनी बिसात बनाने की दिशा में ऐसे वक्त जा रहे हैं जब सोनिया गांधी या कहें काग्रेस राहुल गांधी को ताजपोशी के लिये तैयार कर रहा है। कारपोरेट अर्थव्यवस्था, चंदे पर टिका संगठन और चेहरों पर टिकी जो कांग्रेस कल तक मजबूत थी अब यही सब वजहें उसे को खोखला बना रही हैं।

4 comments:

सम्वेदना के स्वर said...

राडिया-एक्टिव पत्रकारिता के दौर में आपका यह विश्लेष्ण निरपेक्ष लगा।

हालाकिं कांगेस को परेशान होने के कोई खास कारण नहीं हैं, टाटा-अम्बानी जैसों के बिना कोई चुनावी सफलता फाईनैंशयली वाएबिल नहीं है..

स्पिन डाक्टर अपने काम में लगे हुये हैं..10 फीसदी सालाना भ्रष्टाचार की दर से इस देश को चलाते रहने पर तो आम सहमति है ही...इस दर को अधिक तेजी से न बड़ाया जाये इस बात पर सहमति देर सबेर हो ही जायेगी!

सत्यमेव जयते!

दीपक बाबा said...

आपका लेख पढ़ कर मन में एक प्रशन कौंधा.....
ये महान लोकतांत्रित देश - भारत कौन चला रहा है?

कारपोरेट घराने
सरकार
नौकरशाही

अगर कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन ये सवाल पूछे तो भी उत्तर नहीं मिलेगा.

दीपक बाबा said...

आपका लेख पढ़ कर मन में एक प्रशन कौंधा.....
ये महान लोकतांत्रित देश - भारत कौन चला रहा है?

कारपोरेट घराने
सरकार
नौकरशाही

अगर कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन ये सवाल पूछे तो भी उत्तर नहीं मिलेगा.

बवाल said...

बजा फ़रमाते हैं आप बाजपेई साहब।