बैंक का मुनाफा दर देश के महंगाई दर के आगे घुटने टेके हुये हैं। न्यूनतम जरुरतों की कीमत देश के औसत प्रति व्यक्ति आय पर भारी पड़ रही है। पैसे की कीमत बनाये रखने के लिये सोना का उछाल और फिर एकदम धड़ाम की स्थिति ने भरोसा यहां भी डिगा दिया है। फिर रियल-इस्टेट और भूमि कब्जा का रास्ता हवाला और मनी-लॉंडरिंग के हाथों हर दिन नया उछाल दर्ज कर रहा है। और इन परिस्थितियों के बीच कैबिनेट मंत्रियों की जमात देश को छोड़ कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिये जिस तरह सरकारी नियमों की धज्जियों को उड़ाते दिख रही है, उसमें पहली बार सरकार भी फंसी है और सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस भी। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था फेल दिख रही है तो कांग्रेस का हाथ भी आमआदमी पर पकड़ बना नहीं पा रहा है। और चूंकि दोनों के आगे-पीछे 10 जनपथ है, तो क्या यह सोनिया गांधी की हार है। चूंकि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होने और अभी तक बने रहने के पीछे सोनिया गांधी है और 4 अगस्त से 8 सितंबर तक सोनिया की गैर मौजूदगी में सोनिया का नाम लेकर कांग्रेस को संभालने वाले ए के एंटोनी,जनार्दन द्विवेदी और अहमद पटेल की तिकड़ी फेल रही तो फेल तो सोनिया गांधी ही मानी जायेगी।
लेकिन कांग्रेस का मतलब ही जब गांधी परिवार है तो सोनिया गांधी कैसे हार सकती है। संयोग से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मतलब भी सोनिया गांधी है। तो कौन किसे फेल कहेगा। यानी सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी का मतलब अगर सरकार और कांग्रेस की असफलता है, तो यह 10 जनपथ की सबसे बड़ी जीत हैं। तो क्या असफलता का सेहरा जीत में बदल सकता है। खासकर तब जब देश पटरी पर दौड़ नहीं रहा। सार्वजनिक संस्थान कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियो के आगे नतमस्तक है । अन्ना हजारे की दुबारा वापसी का खौफ सरकार के भीतर है और कांग्रेस भी सियासी जमीन खिसकती देख रही है तो सोनिया गांधी इस दौर में कर क्या रही है,यह उन्हीं के हारे प्यादों के खेल समझना होगा। सरकार बीजेपी की पहचान को कटघरे में खड़ा करना चाहते है। तो 10 जनपथ अन्ना हजारे की सफलता को तिलक के तौर पर अपने माथे पर लगाना चाहता है। सांप्रदायिक विधेयक के आसरे हिन्दुत्व की पहचान समेटे बीजेपी पर अब मनमोहन सिंह सीधी चोट करने को तैयार हैं, जिससे मुद्दों में उलझी सरकार को सियासी जगह मिल सके। वही दूसरी तरफ 10 जनपथ के पटेल अब जनलोकपाल पर सहमति बनाने के उपर सोनिया गांधी का ही सिक्का चलाने का खेल खेलना चाहते हैं। यानी सोनिया की गैरमौजूदगी में सोनिया के हारे प्यादो को अब लगने लगा है कि जिस दौर में वह कमजोर या असफल साबित हुये, उसकी वजह अगर सोनिया के निर्देशों को नजरअंदाज करने पर टिका दिया जाये तो उनका खेल आगे बढ़ सकता है।
तीन स्तर पर इस खेल को अंजाम देने में लगे मनमोहन सिंह एक बार फिर 'क्रोनी कैपटलिज्म' का सवाल उठा कर अपने मंत्रिमंडल को संवारना चाहते हैं। खासकर पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये मुरली देवडा के रिलायंस को लाभ पहुंचाने और उड्डयन मंत्री रहते हुये प्रफुल्ल पटेल का इंडियन एयरलाईन्स को चूना लगाकर निजी एयरलाइन्सों को लाभ पहुंचाने का खेल जिस तरह सीएजी रिपोर्ट में आमने आया उसमें अब मनमोहन सिंह यह सवाल खड़ा कर रहे हैं कि उन नेताओ को पार्टी मंत्री बनाने का दवाब ना बनायें, जिससे क्रोनी कैपटलिज्म को बढ़ावा मिले। और आम लोग खुले तौर पर सरकार की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगायें। यानी कांग्रेस के भीतर जो खांटी कांग्रेसी मनमोहन सिंह पर आरोप लगाते हैं कि राजनीतिक सरोकार ना होने की वजह से सरकार बार बार हर मुद्दे पर फेल नजर आती है तो उसकी काट मनमोहन सिंह फिर ईमानदारी और कॉरपोरेट से मंत्रियो की दूरी तय कर अपनी ठसक बरकरार रखना चहते हैं। वहीं दूसरे स्तर पर सरकार के भीतर के सत्ता संघर्ष को लगाम लगाने के लिये मनमोहन सिंह अब चिदबरंम और प्रणव मुखर्जी को भी उनके दायरे में बांधना चाहते हैं। आंतरिक सुरक्षा के दायरे में दिल्ली घमाके से पहले जिस तरह हवाला और मनीलॉडरिंग का सवाल खडा कर गृह-मंत्रालय ने ईडी और सीबीडीटी में ताक-झांक शुरु की उससे परेशान प्रणव मुखर्जी और एके एंटोनी के सवालो से ही चिदंबरम को अब सोनिया के माध्यम से शांत किया जा रहा है। वहीं वित्त मंत्रालय ने जिस तरह सीबीडीटी के जरीये दागी निजी कंपनियों की निशानदेही तो की है लेकिन शिकंजे में कसना शुरु नही किया है और कालेधन को लेकर कोई ठोस पहल अबतक नहीं की है, उस पर भी मनमोहन सिंह अपने हाथ खड़े कर खुद को पाक साफ दिखलाने की कोशिश ही कर रहे है।
वहीं दूसरी तरफ 10 जनपथ का खेल निराला है। एक वक्त सोनिया गांधी के सलाहकार के तौर पर गुलाम नहीं आजाद, अंबिका सोनी और अहमद पटेल की तिकड़ी काम करती थी। और यह तिकड़ी समूची पार्टी और सरकार को अपनी अंगुली पर रखती रही, इसे भी हर कांग्रेसी जानता है। लेकिन जिस तरह गुलाम नबी आजाद को कश्मीर भेजा गया और फिर अंबिका सोनी को कैबिनेट मंत्री बनवाकर 10 जनपथ पर अकेला राज अहमद पटेल का हुआ, उसका नया संकट सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी में तब उभरा जब किसी भी मुश्किल वक्त में अहमद पटेल ने ना तो पहल की और ना ही सरकार या पार्टी की तरफ से किसी ने 10 जनपथ के दरवाजे पर दस्तक दी। लेकिन सोनिया लौटी तो अहमद पटेल ने भी अपने सफल को कद बरकरार रखने के लिये अन्ना हजारे के जरीये लाभ उठाती बीजेपी की राजनीतिक जमीन में सेंध लगाने की व्यूह रचना भी शुरु की। विलासराव देशमुख सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि रालेगण सिद्दी में भी अपने प्यादो के जरीये अन्ना हजारे को सोनिया गांधी के दरवाजे पर लाने के लिये बिसात बिछा रहे हैं तो दिल्ली में अहमद पटेल सरकार के भीतर इसके संकेत दे रहे हैं कि जनलोकपाल को लेकर ऐसा रास्ता बनाया जाये जिससे स्टैडिंग कमेटी से लेकर संसद के भीतर वोटिंग तक की स्थिति में सिर्फ सोनिया की चलती दिखे। यानी जिस रास्ते आरटीआई कानून बना और वाहवाही सोनिया गांधी की हुई, वैसा ही रास्ता जनलोकपाल को लेकर भी बनना चाहिये। हालांकि हारे हुये प्यादो की यह सारी मशक्कत अपने कद को बरकरार रखने की भी है और सोनिया गांधी के सामने यह संकेत देना भी है कि उनसे बेहतर प्यादे कोई दूसरे हो नहीं सकते। लेकिन कांग्रेस का खेल अब सरकार से ज्यादा उस राजनीति पर जा टिका है, जिसकी बिसात पर मनमोहन सिंह हारे सिपाही लग रहे हैं, इसे सोनिया गांधी बखूबी समझ रही हैं। इसलिये कांग्रेस को यूपी से लेकर पंजाब तक के विधानसभा चुनाव में कैसे खड़ा किया जाये यह सवाल कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। यूपी में मुलायम सिंह के साथ खड़े होने का मतलब है मायावती की जीत और अकेले खडे होने का मतलब है तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी बन त्रिंशकु विधानमभा के जोड़ तोड़ को देखना। कांग्रेस की इस हकीकत की काट सोनिया गांधी, राहुल गांधी में दिखलाना चाहती है। सोनिया इस हकीकत को समझ रही हैं कि राहुल गांधी की चमक अगर फीकी पड़ी है तो उसकी वजह बीजेपी या कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि अन्ना हजारे की वह गैर राजनीतिक सियासत है, जिसने राहुल की जमीनी चमक पर देश के सच की घूल डाल दी और मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि को भी लपेटे में ले लिया। ऐसे में तैयारी इसकी भी है कि संसद के विंटर सेशन में जनलोकपाल पर सोनिया का ठप्पा लगकर पहुंचे तो राहुल के जनलोकपाल पर उठाये सवाल की लोकपाल को संवैधानिक बॉडी के तौर पर होना चाहिये, को भी बिल के तौर पर संसद में लाया जाये और उसे सरकार व्हीप जारी करके पास करा दे। इसके सामांनातर किसानों के सवालो को नये भूमि अधिग्रहण बिल के जरीये भी विंटर सेशन में भी निपटा दिया जाये। और तीसरे स्तर पर यूपी की यूनिवर्सिटी में रुके चुनावो को आंदोलन के तौर पर कांग्रेसी पहल हो जिससे युवा ताकत राहुल के पीछे जुड़े।
जाहिर है 10 जनपथ की कवायद हर मुद्दे पर सरकर को साथ लेकर चल रही है। लेकिन सोनिया गांधी के सामने सबसे बडा संकट मनमोहन सिंड्रोम का है। खांटी कांग्रेसियों का मानना है कि बीजेपी जिस तरह अपने सत्ता संघर्ष में फंसी है, ऐसे में उसे ताड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी के उपवास मिशन ने ही बता दिया विपक्ष का रास्ता कांग्रेसीकरण के जरीये ही सत्ता तक पहुंच सकता है। तो फिर कांग्रेस को अपनी राजनीतिक बिसात बिछाने में कोई परेशानी है नहीं। लेकिन जिस देश का अर्थशास्त्र ईमानदार नागरिक को भी यह बता दे कि उसकी गाढी कमाई महंगाई दर तले लगातार कम होती जायेगी चाहे वह बैंक में जमा कराये या कही भी निवेश करें। और जो दिहाडी या महीनेवारी पर टिके हैं, अगर उन्हें दो जून की रोटी जुगाडने का संकट पैदा हो चुका है तो फिर सारा दोष तो अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के मथ्थे ही आयेगा, जिसकी काट किसी खांटी कांग्रेसी के पास भी नहीं है।
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Tuesday, September 20, 2011
कांग्रेस के भीतर 10 जनपथ की कंपन
Posted by Punya Prasun Bajpai at 5:14 PM
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कांग्रेस
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3 comments:
प्रसून जी एक तरफ आप 10 जनपथ को स्थापित कर रहें हैं दूसरी ओर बकौल सुब्रामनियन स्वामी खबरें आ रहीं हैं कि मैडम वाकई बहुत बीमार हैं। जिस तरह चापलूस मीडिया उनकी उपस्थिति की एलिबाई दे रहा, शक होना लाज़िमी है।
देश की बामारी से पहले देश चलाने वालॉं की बीमारी के बारे में बतायें!
पुलक चटर्जी 3 अक्टूबर को पीएमओं में बैठकर नज़र रखेंगे, 10 जनपथ की कमज़ोरी इसमें भी दिखती है।
प्रसून जी, मंहगाई दरअसल एक लोकलुभापना नारा बन गई,हैं जिसकी आड में हर गैरकाग्रेसी अपना दांव खेल रहा हैं,केन्द्र और राज्य में परस्पर विरोधी सरकार का खामियाजा भी हैं वैट टैक्स पैट्रोल पर दिल्ली में 12 प्रतिशत, उडिसा में 18 प्रतिशत, म प्र में 23 प्रतिशत और हमारे छतीसगढ में 25 प्रतिशत जहां शराब पर सिर्फ 8 प्रतिशत,तम्बाकू पर 4 प्रतिशत और सोने पर 1 प्रतिशत वैट टैक्स ही लगता हैं, हमारे छ ग में गैरकाग्रेसी सरकार हैं जो आधी आबादी को 2/ 3 रूपये चांवल चना इस लिऐ बांट रही हैं कि वोट बैंक बना रहे, वो किसके हिस्से का हैं पर आप तो बस आप ही हैं ,
कभी अन्ना, कभी आडवानी तो कभी रामदेव के लिऐ कैमरा लिऐ चलोगे............
राजनिति मेरी जान...
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