Friday, September 16, 2011

अन्ना की पाठशाला में न मनमोहन फिट है न आडवाणी

पुणे से अहमदनगर की फर्राट दौड़ती करीब 147 किलोमीटर सड़क पर आधे किलोमीटर की भी जगह खाली नहीं जो यह एहसास कराये कि गांव भी बीच में पड़ते हैं। लेकिन इसी सड़क पर 87 किलोमीटर के बाद सड़क छोड़ बायीं तरफ का सिर्फ तीन किलोमीटर का रास्ता है। और इसे तय करते वक्त ही एहसास हो जाता है कि आखिर अन्ना हजारे में वह कौन सा जादू है, जिसने हावर्ड में पढ़े-लिखे नेताओ तक को राजनीति का ककहरा दोबारा पढ़ने को मजबूर कर दिया है। मुख्य सड़क से महज तीन किलोमीटर के बाद रालेगण सिद्दी गांव है। ऐसा गांव जो सड़क पर ही मौजूद है। ऐसा गांव जो सुबह से रात तक विकास का रास्ता पकड़े जिले के एमआईडीसी में भरे हुये भारी ट्रको की आवाजाही हर दिन देखता है। जिसे गांव को चीरती हुई सकड पर मर्सिडिज से लेकर टोयटा कार की रफ्तार की घूल तले बच्चे पढ़ते हैं। लेकिन गांव के चौराहे पर मासी की चाय दुकान श्री गणेश से लेकर गांव के बीच में काका के भैरवनाथ होटल की बैंच पर कहीं भी कभी भी बैठने पर इच्छा होती नहीं कि उठा जाये। बिना किसी जल्दबाजी या हड़बडाहट के जिस संयम और शांती से सोयाबिन की फसल से लेकर अन्ना के आंदोलन की महक को हर कोई बिखेरता है, उसमें समाने पर पहला सवाल हर नये व्यक्ति में यही घुमड़ता है कि कैसे यह गांव अपने आप को जीता है।

असल में अन्ना की ताकत यही गांव है और गांव में अपनी मेहनत से जिस वातावरण को अन्ना के पैदा किया है अब वह इतना मजबूत हो चुका है कि 1975 के बाद की तीसरी पीढ़ी भी विकास के सड़क फार्मूले को अपने भीतर समाने नहीं देती। दरअसल, दिल्ली में जिन्दगी की जद्दोजहद से लेकर सियासत की बिसात पर शह और मात का खेल जिस तरह मुनाफे के बाजार मंत्र को समेटे हुये भागते दौड़ते नजर आता है, उसमें अन्ना हजारे की दूसरी आजादी का बिगुल क्यों मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था को खारिज कर किसान से लेकर युवा तक को अपने साथ समेट लेता है, यह भी गांव के भीतर ही छुपा ही सच है। रालेगण सिद्दी में स्कूल की ड्योढी में बच्चे पास या फेल होने का पाठ नहीं पढ़ते बल्कि सरकारी मिजाज में फेल होकर अन्ना के स्कूल में अव्वल हो जाते हैं। यह कमाल लग सकता है कि गांव के इर्द गिर्द तीन स्कूलों में जो बच्चो फेल हो जाते हैं, उनके लिये अन्ना के यादवबाबा के मंदिर के पीछे गांव के बीचो बीचे फेल बच्चों के लिये पास बच्चो से ज्यादा उम्दा शिक्षा देने की ऐसा अद्भूत व्यवस्था कर रखी है, जहां पढ़ाई नंबर पाने के लिये नहीं होती है बल्कि उम्र के लिहाज से हर जानकारी हासिल करते हुये किताबी शिक्षा को समझने भर की। और स्कूल की नींव से लेकर खडी इमारत में एक ईंट से लेकर खेल मैदान बनाने तक में सरकारी अर्थव्यवस्था के सामानांतर पढने वाले बच्चो के माता-पिता के आर्थिक मदद से सबकुछ जोड़ा-बनाया गया। और हर मदद स्कूल की दीवार पर अंकित है। यानी अन्ना हजारे के जो सवाल संसदीय चुनाव के लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाते है और दिल्ली में सांसदो को यह एहसास होता है कि संसद की सुपरमेसी को ही अन्ना चुनौती दे रहे हैं।

असल में उसके पीछे का सच यही है कि अन्ना हजारे ने वैकल्पिक व्यवस्था का जो खाका जीने के लिये तैयार किया है उसमे सुपरमेसी पंचायत की हो सकती है। आम गांववालों की ही हो सकती है। सामूहिकता का बोध लिये गांव के निर्णय की हो सकती है। लेकिन रालेगण सिद्दी में यह एहसास है ही नही कि जिसे पंचायत चुनाव में चुन लिया वही सबकुछ हो गया। इसका दूसरा चेहरा भैरवनाथ होटल चलाने वाले भाउसाहेब गजरे का है। जिन्हें सब काका के नाम से ही जानते हैं। जो हर किसी को उसकी इच्छानुसार तुरंत अंगुली चाटने वाले जायके के साथ सबकुछ बनाकर परोसता है। लेकिन खाने के बाद रसीदबुक और कलम देकर कहता है कि जो खाया है आप ही लिख दो। यानी बिल भी आप बना दो। अन्ना हजारे इससे पहले भी कई बार अनशन कर महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्ट नेता से लेकर बाबूओं तक को बर्खास्त करवा चुके हैं। पहली बार अन्ना के अनशन ने दिल्ली में किसी को बर्खास्त नहीं करवाया लेकिन बिना पढे-लिखे इमानदारी को घोंट पीये होटल के काका को भी इसका एहसास है कि इस बार अन्ना ने रास्ता व्यवस्था परिवर्तन का पकड़ा है, जिसमें भ्रष्ट चेहरे दिखायी नहीं देंगे बल्कि जीवन जीने के तरीके ही बदलने होंगे।

यह एहसास रालेगण सिद्दी में कितना गहरा है, यह उन युवाओं की टोली से भी समझा जा सकता है और उन बुजुर्गो से भी जो युवा अन्ना के आंदोलन के वालेन्टिर होकर अब देश नापने को तैयार हो रहे हैं या फिर जिन्होने 70-80 के दशक में अन्ना को घर की रोटिया ला लाकर मंदिर में खिलायी और आज वही पीढी यह देख रही कि अन्ना से मिलना भी उनके लिये मुश्किल हो चला है। लेकिन दोनों परिस्थितयों में युवा हो या बुजुर्ग एक पसीना बहा रहा है तो दूसरा आंखों में आंसू लिये अपने अन्ना के बढते कदमों के संघर्ष को और आगे बढने देने के लिये गेट के बाहर खड़ा रहकर भी संतुष्ट है। असल में अन्ना हजारे की ताकत वही है, जिन्हें अपने प्रयोग से उन्होंने कभी ताकत दी। इसलिये अन्ना के जेहन में अब सवाल संसदीय व्यवसस्था को पाक-साफ बनाने का ज्यादा हो चला है। क्योंकि अन्ना इस मर्म को समझ रहे है कि जनलोकपाल का रास्ता भी उन्हीं सांसदों और स्टेडिंग कमेटी के सदस्यों की चौखट पर जा रहा है, जिनके भ्रष्टाचार को लेकर वह राईट टू रिजेक्ट और राईट टू रिकाल का सवाल खड़ा कर रहे हैं।

अन्ना इस हकीकत को भी समझ रहे है कि अगर गांव में फेल बच्चों को जिन्दगी में पास कराने के उनके पाठ का लाभ उठाने के लिये कई राजनेताओ ने मदद की गुहार लगायी तो उसी तर्ज पर भ्रष्टाचार की मुहिम का राजनीतिक लाभ उठाने के लिये लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा निकालते है तो उन्हें ठीक वैसा ही पाठ अब आडवाणी को भी पढ़ाना होगा जैसे गांव में स्कूल को आर्थिक मदद देने के लिये नेताओ ने बढ़ाये। गांव में कांग्रेस,एनसीपी से लेकर शिवसेना और बीजेपी के पंचायत स्तर से लेकर संसद का रास्ता पकड़ने वाले नेताओं को अन्ना की हर मुहिम में जब जब लाभ उठाने की चुनावी चाल चली तब तब अन्ना ने हर किसी को पुणे से लेकर अहमदनगर तक की उसी सड़क को दिखाया जिसपर विकास के नाम पर खेती खत्म दी गयी। को-ओपरेटिव के नाम पर किसान से लेकर आम लोगो का पैसा लूटा गया। चीनी मिलों के जरीये गन्ना किसान को फकीर बनाया गया। सोयाबिन से लेकर कपास उपजाने के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार नहीं किया गया। और महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम के नाम पर पुणे के चिंचवाड से लेकर अहमदनगर तक की जमीन रियल इस्टेट के कब्जे में भेजी जाती रही। इसलिये अन्ना हजारे का रास्ता अब मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी को भी आइने दिखाने से नहीं चुक रहा और बीजेपी को भी जमीन पर खड़े होकर देश के सच को समझने की नसीहत दे रहा है और इसके लिये एक ऐसे फ्रंट की दिशा के संकेत देने से भी नहीं चुक रहा जो चुनाव में जीत के लिये अन्ना की मुहिम को अभी भी अपनी सियासत की बिसात पर प्यादा माने हुये है। जबकि रालेगण सिद्दी में अन्ना के संघर्ष को देखती अब चौथी पीढी भी मां के गोदी से यही पाठ देख-समझ रही है कि देश और गांव का मतलब ठहर कर सबको साथ लेकर चलना होता है ना कि सत्ता की खातिर किसी को हराना। विकास के लिये किसी दूसरे से ज्यादा मुनाफा बनाना। और जिन्दगी की पाठशाला में किसी का फेल ना होना। इसलिये अब सवाल यही है कि अन्ना हजारे इस बार जब रालेगण सिद्दी से निकलेंगे तो वह रास्ता जंतर-मंतर या रामलीला मैदान नहीं जायेगा बल्कि जनता के बीच उस मर्म को पकड़ेगा जिसे संसदीय सत्ता तले खारिज किया जा चुका है।

2 comments:

सतीश कुमार चौहान said...

लोकपाल बिल के नाम पर हुई मुहिम से कुछ हो ना हो पर इस की परिभाषा पर चिन्तपन तो जरूर हो रहा हैं और हर कोई अपनी कमीज को झक सफेद कह कर दूसरे में दाग खोज रहा, आश्चपर्य तो ये हैं कि कुछ महाभष्टाचारी तो हजारे फैन क्लबब भी बना रहे हैं दरअसल मीडियापरस्तर लोगो के लिेऐ अपनी पहचान को मान्य ता देने के लिऐ अन्ना एक सरल माध्यम बन गया हैं, अन्ना के साथ के लोगो पर जो कुछ कहा जा रहा हैं वह तथ्योप से अलग नही हैं, जाहिर सी बात हैं कि अन्ना् टीम का सदस्य बन कर कोई अपने को पाक साफ नही कह सकता, ये अलग बात हैं की इस टीम पर उगली उठाने से पहले हर कोई अपनी करतूतो से बचने का साहस नही जुटा पा रहा हैं, जन्तयर मन्तकर से शुरूवात के साथ तमाम उतार चाव के बाद अन्नास खेमे का इण्डिया गेट पर विजय जश्नी तक की भीड ये जरूर कह रही थी कि भष्टाजचार हैं, पर कोई एक्‍ भी अपने को भष्टा चारी बताने का साहस न जुटा सका, कुछ ऐसा ही संसद की बहस में था, वह भी किसी एक को भी भष्टा चारी कहने का साहस न दिखा सकी, फिर ये सवाल साफ है कि कौन हैं जिसके खिलाफ से रस्महअदायगी हो रही हैं,चार रूपये की सब्जीा लेते हुऐ भी, सब्जीा वाले से कांटा अपने तरफ झुका कर खरीदारी करना या फिर समय और ओहदे की बात कह कर शार्टकट और सुविधाशुल्क जैसे रास्तोह से काम निकालने वाले हम सब, क्या अपेक्षाकंत कमजोर लोगो के लिऐ भष्टाचारी नमूने नही हैं और फिर जब अपनी जेब इसी सुविधाशुल्क के लिऐ साथ न दे तो हाय तौबा

L k Jha said...

Mr Punya Prasun Bajpai Aap Mahan Patrakar hai AAj Yah media ki den hai ki anna Hazare Ki maag Par sarkar ne kuch aswasan diya hai isme aapka coverage our coments dimag ki Batti jalane wale the .