Monday, March 12, 2012

मुलायम की समाजवादी चौसर पर अखिलेश को सत्ता

लखनऊ के 5 कालिदास मार्ग में चाहे अखिलेश यादव रहें लेकिन जो बिसात मुलायम ने अपनी मौजूदगी से बिछायी है उसकी आंच अब 5 विक्रमादित्य मार्ग से ही नजर आयेगी। 15 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ अखिलेश यादव लेंगे और समूचे प्रदेश की नज़रें सबसे कम उम्र के अखिलेश के सीएम बनने पर होगी लेकिन इसी
शपथ-ग्रहण समारोह में दिल्ली की नजर मुलायम पर होगी। क्योंकि मुलायम की अगली बिसात के संकेत शपथ-ग्रहण समरोह के वक्त आमंत्रित नेतओं की कतार के चेहरों से मिलेगी। जिसमें तीसरे मोर्चे की संभवना दिख सकती है। क्योंकि ममता बनर्जी से लेकर बीजू पटनायक और नीतीश कुमार से लेकर जयललिता नजर आ सकती है। यानी एक साथ दो डोर को पकड़ मुलायम अब समाजवाद की सत्ता की वह परिभाषा गढ़ने को तैयार हो रहे हैं, जहां लोहिया का गैर कांग्रेसवाद और मौलाना मुलायम का गैर भाजपावाद एक साथ चले। उसकी छांव में अखिलेश की सत्ता उत्तरप्रदेश में युवा लीक भी बना दे। और मुलायम के पुराने समाजवादी साथी देश की सियासत में उस लीक को गढ़ने में लग जायें, जिसे यूपी के वोटर ने कांग्रेस को खारिज कर अपना जनादेश दिया है। मुलायम समझ रहे हैं कि राहुल गांधी ने भट्टा परसौल के जरीये भूमि अधिग्रहण के सवाल उठाये।

एफडीआई के जरीये चकाचौंध दिखाने की कोशिश की। बुंदेलखंड से लेकर बुनकरों के सवालों को आर्थिक पैकेज में ढाला और मुस्लिमों को आरक्षण का चुग्गा फेंक बटला हाउस पर दोहरी तलवार का खेल खेला। अगर यूपी ने कांग्रेस या राहुल के इन मुद्दो को खारिज किया है तो फिर यह मुद्दे क्षत्रपों के लिये ऑक्सीजन का काम कर सकते हैं जो कांग्रेस से टक्कर ले रहे हैं या फिर जो केन्द्र में भी तीसरे मोर्चे के जरीये अपनी शिरकत की धार समझ रहे हैं। यानी अर्से बाद मुलायम सिंह यादव की बिसात ऐसे राजनीति अखाड़े को बना रही है, जहां वह सियासत के दांव पेंच सीधे खेलें। और इसका पहला पाठ जो विधायक दल की बैठक में आजम खान के प्रस्ताव के मजमून से सामने आया उसने जतला दिया कि समाजवाद का नया चेहरा सत्ता पाने के बाद रचा जा सकता है ना कि सत्ता से पाने से पहले। विधायक दल की बैठक में मुलायम कुछ नही बोले सिर्फ बेटे को नेता चुने जाने के बाद आजम को गले लगाकर ताल ठोंकी। और आजम खान ने भी स्पीकर की जगह खुद को सक्रिय राजनीति में रखने की मंशा साफ करते हुये मुलायम सिंह को भी याद दिलाया कि मुलायम सिंह यादव भूलें नहीं कि वह वही मुलायम हैं जिन्हे रतन सिंह, अभय सिंह, राजपाल और शिवपाल की जगह अखाडे में ले जाने के लिये पिता ने चुना था। और मुलायम को भी पिता की याद आयी कि खुद पिता ही मुलायम की वर्जिश कराते और दंगल में जब मुलायम बड़े बड़े पहलवानों को चित्त कर देते तो बेटे की मिट्टी से सनी देह से लिपट जाते और उसमें से आती पसीने की गंध को ही मुलायम की असल पूंजी बताते।

कुछ इसी
तर्ज पर अखिलेश यादव के सिर पर मुलायम ने यह कहकर हाथ फेरा कि संघर्ष और संगठन पूंजी होती है। दरअसल इस पूंजी का एहसास लोहिया ने 1954 में मुलायम को तब करवाया जब उत्तर प्रदेश में सिंचाई दर बढ़वाने के लिये किसान आंदोलन छेड़ा। लोहिया इटावा पहुंचे और वहां स्कूली छात्र भी मोर्चा निकालने लगे। मुलायम स्कूली बच्चों में सबसे आगे रहते। लोहिया ने स्कूली बच्चों को समझाया कि पढ़ाई जरुरी है लेकिन जब किसान को पूरा हक ही नहीं मिलेगा तो पढ़ाई कर के क्या होगा। इसलिये पसीना तो बहाना ही होगा। लेकिन लोहिया से मुलायम की सीधी मुलाकात 1966 में हुई। तब राजनीतिक कद बना चुके मुलायम को देखकर लोहिया ने कल का भविष्य बताते हुये उनकी पीठ ठोंकी और कांग्रेस के खिलाफ जारी आंदोलन को तेज करने का पाठ यह कह कर पढ़ाया कि कांग्रेस को साधना जिस दिन सीख लोगे उस दिन आगे बढने से कोई रोक नहीं सकेगा। मुलायम ने 1967 में जसवंतनगर विधानसभा में कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चुनाव में चित्त कर कांग्रेस को साधना भी साबित भी कर दिया। कांग्रेस को साधने का यही पाठ अखिलेश यादव ने अब याद किया है। इसलिये काग्रेस को लेकर तल्खी अगर एक तरफ अखिलेश समेत तमाम युवा समाजवादी विधायकों में हो तो दूसरी तरफ आजम खान के जरीये मुलायम गैर भाजपावाद के पाठ को दुबारा नयी तरीके से परिभाषित करना चाहते हैं। मुलायम सिंह ने 1992 में यह कहते हुये लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की थ्योरी को बदला था कि "..अब राजनीति में गैरकांग्रेसवाद के लिये कोई गुजाइंश नहीं रह गई है। कांग्रेस की चौधराहट खत्म करने के लिये डां लोहिया ने यह कार्यनीतिक औजार 1967 में विकसित किया था।....अब कांग्रेस की सत्ता पर इजारेदारी का क्षय हो चुका है। इसलिये राजनीति में गैर कांग्रेसवाद की कोई जगह नहीं है। इसका स्थान गैरभाजपावाद ने ले लिया है।" लेकिन तब उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जमीन पर समाजवादी पार्टी के जरीये बीजेपी को शिकस्त देकर बीएसपी के साथ सत्ता
पाने के खेल में जातिय राजनीति को खुलकर हवा देते हुये मुलायम ने उस जातीय राजनीति में सेंध लगाने की कोशिश भी कि जो जातीय आधार पर बीएसपी को मजबूत किये हुये थी। उस वक्त मुलायम ने अतिपिछड़ी जातियों मसलन गडरिया,नाई,सैनी,कश्यप और जुलाहों से एकजुट हो जाने की अपील करते हुये बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर और चरण सिंह सरीखे नेताओं का नाम लेकर कहा, " कर्पूरी ठाकुर की जात के कितने लोग बिहार में रहे होंगे लेकिन वह सबसे बड़े नेता बने। दो बार सीएम भी बने। चरण सिंह तो सीएम-पीएम दोनो बनें। वजह उनकी जाति नहीं थी। बाबू राजेन्द् प्रसाद अपने बूते राष्ट्पति बने। जेपी हो या लोहिया कोई अपनी जाति के भरोसे नेता नहीं बना। राजनारायण भी जाति से परे थे।"

मुलायम उस दौर में
समझ रहे थे कि एक तरफ बीजेपी है दूसरी तरफ बीएसपी यानी जातियों की राजनीतिक गोलबंदी करते हुये उन्हे राष्ट्रीय राजनीति के लिये जातियों की गोलबंदी से परे जाने की राजनीति को भी समझना और समझाना होगा। लेकिन अब मुलायम के सामने मुस्लिमों को साधने के लिये कांग्रेस के ही वह हथियार है जो रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से निकले हैं। मुलायम मुस्लिमों की डोर थामकर आजम खान के जरीये दलितों से भी बदतर हालात में जी रहे तबकों के भीतर पैठ बनाना चाहते हैं। और इसके लिये अखिलेश की सत्ता और आजम की तकरीर कैसे काम करेगी यह तो आने वाले वक्त में पता चलेगा लेकिन आजम खान ने विधायक दल की बैठक के बाद जब एक रिपोर्टर के सवाल पर यह कहा कि वह अब ऐसा कम करेंगे जो कोई नहीं कर रहा तो सकेत यह भी निकले कि मुलायम सिंह यादव अब मुस्लिमों को लेकर कांग्रेस के तुष्टिकरण की सोच से आगे निकलना चाहते हैं। यानी न्यूनतम जरुरतों से लकर विकास के मॉडल को अगर यूपी में अखिलेश नये सिरे से खड़ा करते है तो फिर कांग्रेस को लेकर मुसलमानों को फिर सोचना होगा उन्हें लगातार धोखा दिया गया है। इसलिये अब हर मोर्चे पर मैदान साफ हो गया है। अब सेक्यूलर और कम्यूनल शक्तियों की लड़ाई नहीं बल्कि भूख-रोजगार और साख की लड़ाई है। लखनऊ से दिल्ली के लिये लकीर खींचने की ख्वाहिश पाले मुलायम अब अपने संघर्ष को भी पैना करना चाहते हैं। जिसमें मकसद साफ नजर आये। इसलिये यूपी के प्यादो से इतर राष्ट्रीय बिसात पर प्यादा बने राजनीतिक दलो के जरीये भी मुलायम दो तरफा खेल खेलना चाहते हैं। जिससे अखिलेश यादव की सत्ता को केन्द्र से मदद भी मिलती रहे और केन्द्र को क्षत्रपों की सत्ता के जरीये घेरा भी जा सके। यानी संसदीय राजनीति में विचारधारा से इतर समीकरण को ही वैचारिक आधार दे कर सत्ता कैसे बनायी जा सकती है, इसका पाठ पढाने में कोई चूक मुलायम नेना विधायक दल की बैठक में की और ना ही यह चूक 15 मार्च को अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह के वक्त करना चाहते हैं। यानी मुलायम का राजनीतिक प्रयोग राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों का ऐसा आइना है, जिसमें अखिलेश को सत्ता सौंपने के बाद भी परिवारवाद नहीं बल्कि समाजवादी संघर्ष ही दिखायी दे।

6 comments:

Atul Shrivastava said...

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है।
चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं....
आपकी एक टिप्पिणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......

अनूप शुक्ल said...

ऊपर बीजू पटनायक का नाम लिखा है आपने। सही कर लीजिये।

बाकी तो आने वाला समय बतायेगा।

सतीश कुमार चौहान said...

निश्‍चय ही आने वाला समय बतायेगा, पर राम की नगरी अयोध्‍या में भा ज पा की दुर्गति ....
तीसरे मार्चे के विकल्‍प की बात अभी जल्‍दबाजी हैं
जब माया राज आया था तब भी मीडिया कुछ इसी तरह की बात कर रहा था..

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

इन सभी राजनीतिक लोगों से एक बार यह भी पूछ लीजियेगा कि एक सामान्य आदमी राजनीति में आकार इतना दौलतमंद कैसे बन जाता है. यदि वह फार्मूला सब को पता चल जाए तो कितना अच्छा हो.

Sarita Chaturvedi said...

KUCH BHUL RAHE HAI AAP. WO TALKHI WO TEWAR JO KABHI "KASMKAS" ME NAJAR AATA THA. PLZ KUCH WAISE HI NAJAR AAIYE. BAHUT JAROORAT HAI KI AAP APNE US ANDAJ KO DUBARA JIYE..PHILHAL MEDIA KO AAPKA YAHI CHEHRA PASAND HAI,AAGE AAPKI MARJI..

vijay said...

to kya iska matlab bsp up me hashiye par chali gayi hai?