Thursday, May 3, 2012

सौ बरस का सिनेमा और चंद हीरे


सौ बरस के सिनेमा को कहीं से भी शुरु तो कर सकते हैं लेकिन यह खत्म नहीं हो सकता। क्योंकि सिनेमा का मतलब अब चाहे बाजार और मुनाफा हो लेकिन इसकी शुरुआत परिवार और समाज से होती है। जहां सिनेमायी पर्दें का हर चरित्र हर घर और समाज के भीतर का हिस्सा होता। इसलिये घर की चारदीवारी और समाजिक सरोकार   इतर जैसे ही भारतीय सिनेमा धंधे की रफ्तार पकड़ता है तो सिनेमा के उस स्वर्ण दौर को जीने की इच्छा या कहें डूबने की चाहत बढ़ती जाती है। यह कुछ वैसा ही है  से फिल्म मिर्जा गालिब एक शायर की आपबीती कम, उसकीशा यरी और दिलकश फसाने की दास्तान ज्यादा थी। सोहराब मोदी ने तब परदे पर इस शायर के वक्त की नाजुक मिजाजी और तासीर को यकीन में बदल दिया। लेकिन सिनेमा का मतलब संगीत और गीत भी है। इसलिये मिर्ज़ा गालिब की पांच गजलों को जब सुरैया की आवाज मिली तो सुनने वालो में से एक जवाहर लाल नेहरु ने एक महफिल में सुरैया से कहा, तुमने गालिब की रुह को जिन्दा कर दिया। असल में फिल्म मिर्जा गालिब में एक शाइस्ता किरदार था सुरैया का। और सुरैया की आंखों में कुछ ऐसा था कि जो भी देखता, उसमें कैद हो जाता। इसलिये जब सुरैया ने गाया, नुक्ता ची है गमे दिल, आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, ये ना थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता। तो यह हर सुनने वाले दिल को भेदती चली गई।

लेकिन हिन्दी सिनेमा का असल स्वर्ण दौर तो मुगल-ए-आजम है। जहा तंज संवाद सिर्फ दिलों को नहीं भेदते बल्कि इतिहास को आंखों के सामने इस खूबसूरती से ला देते है कि नाजुक पल भी हुनर खोजने को बैचेन हो जाते हैं। ...शाहंशाह बाप का भेष बदल कर आया है। शहंशाह रोया नहीं करते शोखू, ये एक बाप के आंसू हैं। कहां से पैदा  गा अब ये खालिसपन। क्योंकि कहते हैं मुगल-ए-आजम बनाने वाले के आसिफ हर संवाद को दिल में कुछ इस तरह उतरते हुये देखना चाहते थे जिसे निगलना आसान ना   और उगलना तो नामुमकिन हो। शायद इसीलिये अकबर और अनारकली का संवाद आज भी दर दिल अजीज है। ....अंधेरे बढ़ा दिये जायेंगे....। आरजुएं और बढ़ जायेंगी...।  और बढ़ती हुई आरजुओं को कुचल दिया जायेगा....। और जिल्ले-इलाही का इंसाफ। गजब का नशा है इन संवादों में जो सियासी रंगत को भी सरलता के साथ नश्तर में पेश करती है। एक कनीज ने हिन्दुस्तान की मल्लिका बनने की आरजू की और इसके लिये मोह्ब्बत का बहाना ढूढ लिया। ऐस संवाद किसी नूर की चाहत में नहीं लिखे गये।  बल्कि किरदारों को उनके आसन पर बैठाने की ईमानदारी की मेहनत है। इसलिये तो के आसिफ ने जब बड़े गुलाम अली को मुगल-ए-आजम से जोड़ने का सोचा तो नौशाद  मना करने के बावजूद जयपुर जाकर कर बड़े गुलाम अली के सामने अपने प्रस्ताव को इस तरह रखा, जिसे नकारने के लिये बड़े गुलाम अली साहब ने भी 40 हजार की  ग रख यह जता दिया कि उनकी कीमत लगाना किसी की हैसियत नहीं और सिनेमाई पर्दे पर वह अपना जादू बिखेरना चाहते नहीं। लेकिन के आसिफ तो इतिहास को सिल्वर स्क्रीन पर जीवंत करने का जुनुन पाल कर बड़े गुलाम अली के दरवाजे पर दस्तक देने पहुंचे थे। तो जवाब में कहा, खां साहब । मैं तो और ज्यादा सोच कर आया था। इस तरह एक बड़े गायक की बेमिसाल कला हमेशा के लिये सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गई और खां साहब की खुद्दरी को आंच भी नहीं आयी। असल में बड़े गुलाम अली खां ने दो मिनट की एक ठुमरी ..प्रेम जोगन बन के ... के लिये 25 हजार रुपये लिये थे। परदे पर लहराती वही ठुमरी मुगले-आजम का नायाब नगीना है। जिसने मौसीकी की क्लासिकी पैदा की। हम आप कह सकते हैं , ऐसे उस्ताद और ऐसी उपज अब कहां।

लेकिन सौ बरस के सिनेमा में एक मील का पत्थर फिल्म पाकीजा है, जो मीना कुमारी को तन्हाई और भटकाव से मुक्त करने का कमाल अमरोही साहब का सबसे खूबसूरत तोहफा है। कोई सोच भी सकता है कि जो मीना कुमारी साहब,बीबी और गुलाम में छोटी बहु के किरदार को निभाते हुये सिनेमाई संवाद को खुमारी में कह दें। वह मीना कुमारी की जिन्दगी का सच हो और कमाल अमरोही उसी सौगात को देने के लिये पाकीजा को सिनेमाइ पर्दे पर उकेरने का जादू पाल बैठें। छोटी बहु के किरदार को जीती मीना कुमारी कहती है, जब मैं मर जाउ तो मुझे खूब सजाना और मेरी मांग सिंदूर से भर देना। इसी में मेरा मोक्ष है । तो क्या पाकीजा मीना कुमारी का मोक्ष है। यकीनन सिनेमा अगर सांसों के साथ जीने लगे तो क्या हो सकता है यह पाकीजा में मीना कुमारी से कमाल अमरोही का काम करवाना। और हर पल मरते हुये पाकीजा के लिये जीने में मोक्ष को देखना शायद सिनेमाई इतिहास का अनमोल पन्ना है। साहिबजान के किरदार को जीती मीना कुमारी कब साहिबजान है और कब मीना कुमारी इस महीन लकीर को कमाल अमरोही ही समझ पाये। इसीलिये तन्हा जिन्दगी साहिबजान के जरीये जिन्दगी और मौत दोनों को एक साथ छूती है। यानी एक अनहोनी और बगावती बैचेनी का ऐसा नशा जिसे मुस्लिम सिनेमा के पहरेदारी में कभी कोई देख नहीं सकता लेकिन कमाल अमरोही घर की अस्मत को तवायफ के कोठे से उतारते भी है और हवेली के दलदल को जिन्दा भी ऱखना चाहते हैं। यह फंतासी नहीं जिन्दगी की वह खुरदुरी जमीनी है जो कमाल अमरोही और मीना कुमारी की जिन्दगी की हकीकत थी। और कमाल अमरोही जिन्दगी में ना सही लेकिन सिनामाई पर्दे पर साहिबजान के जरीये मीना कुमारी के साथ न्याय करना चाहते थे। तो उन गर्म सांसो में खून की डूबकी लगाने का माद्दा भी सिनेमाई इतिहास के पन्नों में दर्ज है। अगर उन सुहरे पन्नों को पलटेंगे तो आंखों के सामने साहिबजान के रुह में मीनाकुमारी की गुम हुई तस्वीरों की तलाश में पाकीजा सुपर-डुपर हिट होती चली गई। सोचिये कैसा मंजर रहा होगा। एक तरफ मीनाकुमारी की मौत। दुसरी तरफ सिनेमाघरो में टूटता लोगो का सैलाब। और सिनेमाई पर्दे पर उभरता गीत....चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो .....या फिर  इन्हीं लोगों ने ले लीना दुप्पटा मेरा....यानी आधी हकीकत और पूरे फसाने की रुहानी फिल्म पाकीजा को दर्शकों ने तो देखा लेकिन मीना कुमारी को आखिरी सांस तक कमाल अमरोही ने पाकीजा के रशेज भी देखने नहीं दिये। लेकिन जरा सोचिये 1964 में बस शाईरी के नोट थामे मीना कुमारी ने कमाल अमरोही का घर छोड़ा....जिसमें दर्द बयां था, चांद तन्हा है आस्मां तन्हा, दिल मिला है कहां-कहां तन्हा , जिन्दगी क्या इसी को कहते है, जिस्म तन्हा है, जां तन्हा।

और उसी मीना कुमारी को पाकीजा में साहिबजान बनाकर कमाल अमरोही खुद सलीम[राजकुमार] बन बैठते है और कहते है,...आपके पांव देखे , बहुत खूबसूरत है । इन्हें जमीन पर मत रखियेगा....मैले हो जायेंगे। जहां मीना कुमारी की तन्हाई ठहरती है। सिल्वर स्क्रीन पर गुरुदत्त उसी तन्हाई को देवदास से भी कही आगे ले जाकर जमाने की चौखट पर इस कदर पटकते है कि जिन्दगी और फिल्म की दूरिया खत्म होती सी लगती है। जिसकी तह में सफलता का शिखर पाना नहीं बल्कि असफलता और अतृप्ती की कड़वी मगर दिव्य अनुभूतियां है। ...ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है...गुरुदत्त के नवयथार्थ का चरम है। समाज में महानता और तुच्छता का ढोंग एक साथ एक लकीर पर चलते हुये सबकुछ कैसे मटियामेट कर सकता है, इसे अपनी ही आंखों और चेहरे के खालीपन में अंधकार से बाहर झांकने की कुलबुलाहट गुरुदत्त सिल्वर स्क्रीन पर दिखा गये। आज भी हर कोई गुरुदत्त की मंशा को टटोलना चाहते हैं। कोई पिगमेलियन प्रेम से आगे नहीं जा पाता। तो कोई अवांगार्द शैली में भटकाव खोजता है। लेकिन कागज के फूल और प्यासा जिस तरह कैनवास पर बेरंग की आकृति उभारते हैं, वह रंगों पर भारी पड़ जाती है। और यह सवाल सौ बरस के सिनेमा के सामने बार बार खड़ा करती है, ....जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला....और इसे सुनकर आवाक शायर यह फिरका करने से नहीं कतराते....वाह भाई वाह...आपके यहा तो नौकर-चाकर भी शायरी करते है। लेकिन गुरुदत्त रुकते नहीं..वह कागज के फूल में जमाने का सच जमाने के सामने लाकर कहते है...देखी जमाने की यारी, बिछडे सभी बारी बारी....।

सिनेमाई दौर के एक कोहिनूर फिल्म आवारा है। राजकपूर का ऐसा मेटाफर, जो रुमानियत और हकीकत को फर्क को जानबूझकर झुठलाता है। बे-ख्याली और मसखरेपन में दिल के दर्द को छुपाकर बडबोले अमीर या गरीब गंवई की तंज पर सबको बहलाता है। लेकिन आवारा का राजू कुलीनता को आइना भी दिखाता है, और जमाने के फंसाने में जिन्दगी की प्रेम गाथा लिखने से भी नहीं हिचकता। इसलिये शक्तिशाली समाज का मूलमंत्र--अच्छा आदमी बनाया नहीं जा सकता, वह एक संस्कारवान समाज में ही बनता है, पैदा होता। इसे फिल्म में न्यायाधीश के जरिये फैसला देते हुये जब कह जाता है, शरीफो की औलाद हमेशा शरीफ, और चोर-डाकुओं की औलाद हमेशा चोर डाकू होती हैं तो अंधेरे में बैठे राजकपूर के सपनों को बिनते हर आंख में आक्रोश की झलक से ज्यादा आवारा राजू की बेबसी रेंगती है। जो व्यवस्था का सच है। लेकिन यह फिल्म सिर्फ
राजकपूर के अधूरे या कहे आवारा ख्वाब भर नहीं है बल्कि नर्गिसी जादू भी फिल्म में रेंगता है। इसलिये याद कीजिये राजकपूर के एक हाथ में वायलिन और दूसरे हाथ में नर्गिस। और फिर पाल वाली नौका में नर्गिस की तरफ बढ़ते राजकपूर को अपनी अठखेलियों से लुभाती नर्गिस का संवाद, आगे ना बढ़ो, किश्ती डूब जायगी.....लेकिन आगे बढ़ते राजकपूर.....और अब......इसे डूब जाने दो। यह प्यार की ऐसी तस्वीर है जो उत्तेजक है लेकिन अश्लील नहीं है। लेकिन यह राजकपूर ही है जो प्यार को पर्दे पर हर रंग में जीते हैं। आवारा, बरसात, आग, अंदाज को याद कीजिये तो पारदर्शी गाउन से आगे बात बढ़ी नहीं। लेकिन पद्मिनी, सिम्मी ग्रेवाल, जीनत अमान और मंदाकनी के साथ अधखुले दरवाजों को पूरी तरह खोल कर भी प्यार की तस्वीर को स्क्रीन पर जिलाये रखा । अब तो प्यार सैक्स में तब्दील हो चुका है। जहां यौन कमनीयता स्क्रीन पर रेंग कर प्यार को मिटा देती है। इसलिये आज की नायिका खूबसूरत होकर भी नखलिस्तान में खडी लगती है और राजकपूर इसी लिये शो मैन रहे क्योकि उन्होंने स्क्रीन पर प्यार को भी प्रयोगशाला में बदल दिया। असल में रोमांस राजकपूर की शिराओ में दौड़ता था। आवारा और श्री 420 राजकपूर की ख्याति के शिखर हैं। माओत्से तुंग तक को आवारा पंसद आई।

दरअसल, सौ बरस के सिनेमा का सफर हर दौर की दास्तान भी है और जीने का मिजाज भी। लेकिन अंधेरे में बैठकर चालीस फिट के पर्दे पर जिन्दगी से बड़ी तस्वीर देखने का एक मतलब अगर देवानंद की गाइड है तो दूसरी तस्वीर शोले है । गाइड जिन्दगी के तमाम गांठो को खोलने का प्रयास है तो शोले हिन्दी सिनेमा के रंगीन उजाड़ में एक ऐसा पुनराविष्कार है जहां बतकही है। मौन विलाप के एंकात क्षण हैं। क्रूरता से उपजी अमानवीयता की लकीर है। वहीं इसी सौ बरस के दौर में समाज से आगे सिनेमा कैसे निकलता है, यह फिल्म निकाह जतलाती है। औरत का वजूद, उसकी अस्मत मुसलिम समाज की ताकतवर पुरुषों के हाथ में महज एक खूबसूरत खिलौना है, जिसे तलाक के जरीये जब चाहे तोड़ा जा सकता है। फिल्म निकाह इसी बदगुमानी से टकराने की जुर्रत करती है। असल में यह एक ऐसे भयावह विडम्बना की होरतजदा तस्वीर है जिसे समाज, सत्ता दोनो छुना तक नहीं चाहते लेकिन फिल्म निकाह यह कहने से नहीं चुकती , ....दिल के अरमा आसूंओ में बह गये...।

लेकिन सिनेमा अब जिस रफतार को पकड धंधे में खो चुका है, वहां सौ बरस का इतिहास यह हिम्मत भी दिलाता है कि जब आधुनिकता को ओढ़ हर कोई संग चल पड़ा
है तो फिर सिनेमा ही इस रफ्तार से टकरायेगा। जो अंधेरे में रौशनी दिखायेगा।

9 comments:

प्रवीण विस्टन जैदी said...

क्या बात है सर जी ... आपने फिर से वो पुरानी बातो को आँखों के सामने ला दिया ... जो कही न कही जीवन और उसके पार देखने की अलग दृष्टि देती है

dr.dharmendra gupta said...

sir, u missed to mention some more diamonds, like
do beegha jameen
do aankhe barah haath
bandini
tapasya
anand
and pran......

rohit khandelwal said...

mujhe umeed thi ki aapl hrishikesh mukharjee ke bare me jarur kuch kaheenge kyonki mujhe lagta hai wo bhi hindi cinema ke heere to hain.

waise aapka article kafi accha hai

Priyadarshan Sharma said...

सौ बरस के सिनेमा को कहीं से भी शुरु तो कर सकते हैं लेकिन यह खत्म नहीं हो सकता।............
नाम तो कई और का भी इसमें जुटा देखना चाहते है... पर बस आपकी इस एक पंक्ति ने सब कुछ बया कर दिया...

बेहतरीन प्रस्तुति..

Hirendra Jha said...

Infact i was expecting this article since last month...Thank u!

AMBRISH MISRA ( अम्बरीष मिश्रा ) said...

अति सुन्दर ...

कहते है कि ... जब जब समाज मे जिस नई चीज का विरोध होता है ... आने वाले समय मे समाज उसी का गुलाम हो जाता है ........

सौ साल के सिनेमा ने आज (आर्थिक युग)कुछ किर्तीमान ले लिये हों पर .... कुछ दिनो पहले तक

समाजिक उपेक्षा से भी सारोकार होना पड़ा है । लोगों ने इसका विरोध भी किया है औरदेखने वाले खुब कोसे भी जाते थे ..... कुछ यही हाल विदेशी चैनलओ को लेकर हुआ तब mtv आदि को लेकर हाय तौबा हुयी ........ और बही चैनल एक नयी जनरेशन को पागल किये हुये है .....

कुछ भी हो .....जिन फिल्मो ने विपरीत हवाओ मे अपने को ढाल लिया .....
जिन अभिनेता अभिनेत्रीयों ने विपरीत परस्थीतियों मे काम किया ........ उनका लोहा आज भी उतना ही खरा है जितना पहले था ......

लेकिन एक खतरा भी है आज के सिनेमा मे वंशवाद भाई भतिजावाद....... आगया है ...
और ये हर उस ...कलाकार को रोकता है जिसका जन्म अभिनय के लिये हुआ है और कही न कही उसे एक दलदल मे भी धकेलता है जिसका कोई मन्जिल नहीं होती ......

सौ साल ....... बाद सिनेमा किस रंग मे रंग रहा है ...... और इसकी कहानियाँ क्या कह रही है एक तरफ़ सिविक्ल का दौर है ..... मतलब कहानियों का टोटा .....

और दुसरी तरफ़ .... बरबरा ... लिओन .. जैसे लोगों को .... बालिबुड मे जडें जमाने के लिये जमीन दी जा रही है ...

क्या सतीश कौशिक ... रजनीकांत .. जैसे सुपर कलाकार ने जो मुकाम हासिल किया ...उसके लिये शारिरिक सुन्दरता चाहिये... ?

जाने भी दो यारों ... की लोकप्रियता क्या कोई
तोड नही है और तो और ... महंगी से महगी फ़िल्म वो मिठास नही दे सकती जो जाने भी दो यारो ने दिया.....

अतत: -.. रीयल्टी शो को रीयल होना पडे़गा ... और सिनेमा को व्यबसाय से हटकर .. व्यव्हारिक होना पडेगा...... फ़िल्मी भविष्यव्क्ता कुछ भी कहे ...... पर आने वाला समय ... बहुत कुछ कहने वाला है ........

Deepak said...

बहुत ही बढियां पोस्ट है लेकिन मुझे लगता है की आप को कम से कम मेरा नाम जोकर, दोस्ती (१९६४), बूट पालिश, जाग्रति और हकीकत का भी जिक्र करना चाहिए था

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

वाजपेयी जी! आपका यह आलेख मैने पूजा जी को भेजा था ...वे आजकल गुरुदत्त की डायरियों को खंगालने में लगी हैं। पढ़ने के बाद उनकी त्वरित टिप्पणी कुछ इस तरह थी-
"फीचर वाकई बेहद खूबसूरती से लिखा गया है और सौ साल के सिनेमा को चंद शब्दों में समेटने की एक अच्छी कोशिश करता है।"
मैं तो आपकी वाक्शैली और लेखन शैली दोनो का प्रशंसक रहा हूँ। भारतीय सिनेमा के जिन नाज़ुक पहलुओं को स्पर्श किया है आपने और जिस ख़ूबसूरती से पेश किया है वह वाकई काबिले तारीफ़ है।

Unknown said...

पुण्य प्रसून जी, आपके बोलने तथा उसको प्रस्तुत करने का अंदाज बड़ा प्यारा है ।
वाकई....... लाजबाब.. क्योंकि सीनेमा जगत अपने में संसार है और आप "यद्सारभूतं तदूपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमद्यात् ।।" यह उक्ति आपके उपर बहुत सटीक बैठती है.......... keep it UP.....