Monday, August 27, 2012

जेएनयू और आईआईटी की बहस में है खामोश लुटियन्स की दिल्ली


लुटियन्स की दिल्ली में आम आदमी की आवाजाही रोक दी गई। मुख्यधारा की मीडिया को सरकार की एडवाइजरी मिली कि अन्ना-रामदेव को तरजीह ना दें। सोशल मीडिया की बेखौफ उड़ान रोकने के लिये ट्विटर-फेसबुक को नोटिस दिया गया। और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत का नारा लगाते युवाओ की टोली को जंतर-मंतर में सीमित कर समूची दिल्ली में धारा 144 लगा दी गई। जाहिर है यह इमरजेन्सी नहीं है। लेकिन दिल्ली में घूमते-फिरते, चाय-ठेले पर चर्चा करते और कम्प्यूटर पर चैट करते वक्त हर किसी को क्यों लग रहा है कि कही तो बंदिश है। कहीं तो आजादी छिन रही है। कही तो राजनीति मनमानी पर उतर आयी है। यानी सरकार के काम-आराम में दखल ना हो इसके लिये दिल्ली में मुगलकालीन शासकों के नाम वाली सडकों पर आवाम की आवाजाही रोक दी जायेगी। संसद में हंगामा कर शान से हर राजनीतिक दल का नेता और सरकार के मंत्रियों का झुंड गलबहिया डाल कर राजपथ से लेकर जनपथ पर लाल बत्ती की गाड़ियों से निकलेंगे। लेकिन कहीं आह भी नहीं निकलेगी। आह निकलेगी तो घोटाले के खिलाफ आवाज उठाने पर।

यह सवाल दक्षिणी दिल्ली के बाबा गंगनाथ बाजार के काफी हाउस में छात्रों के बीच गूंजता सवाल है। आर के पुरम और जेएनयू के बीच मुनिरका के इस काफी हाउस की खासियत है रविवार को छात्र-छात्राओं का जमावड़ा। जेएनयू में रविवार रात बंद रहता है तो दोपहर बाद से छात्रों का जमावडा मुनिरका के इस बाजार में होता है। कल तक बात एजुकेशन को लेकर कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल के ए-बी-सी ग्रेड प्रयोग को लेकर होती थी तो आज बात सोशल मीडिया की उड़ान को रोकने को लेकर सरकारी कौअे की हो रही है। बचपन में सुना था कौआ कान ले गया तो कौअे को नहीं कान को देखें। और तकनीक को लेकर तो यही समझे कि तकनीक के जरीये खुद को नहीं बल्कि खुद के लिये तकनीक देखें। लेकिन सरकार तो सोशल मीडिया से भी हलकी हो गई। खुद को ठीक ना कर सोशल मीडिया को कसना चाहती है। अंतराष्ट्रीय राजनीति [ एसआईएस ]के छात्र संजीव बिहार के सहरसा के है और उनके सहयोही मोहनीश टाकले महाराष्ट्र के हैं, जो 127 बरस पुरानी कांग्रेस को महज छह बरस पुराने ट्विटर के सामने नतमस्तक होते देख रहे हैं। कहते भी है 2006 में जैक डार्सी ने पहली बार ट्विटर नाम की चिड़िया को इंटरनेट के खुले आसमान में उड़ने के लिये छोडा तो उन्हे उस वक्त इसका एहसास भी नहीं होगा कि यह नन्ही सी चिड़िया कू कू करते हुये दुनियाभर की कई सरकारों की जान आफत में डाल देगी। और यहां तो चिड़िया को बांधने के लिये सरकार कौआ बन रही है। छात्रों में घोटालों की फेहरिस्तसे लेकर कानून-व्यवस्था के राजनीतिकरण को लेकर भी सवाल हैं और संसद के ठप होने से लेकर अन्ना टीम की नयी पहल को लेकर भी जवाब है। आईआईटी गेट के ठीक सामने हौसखास के हाई-प्रोफाइल मार्केट की पहचान है आधुनिक काफी बार और मोमोज। आईआईटी के छात्रों के जमावड़े में अरविन्द केजरीवाल नायक हैं। कांग्रेस को तो कोई भी आइना दिखा सकता है लेकिन बीजेपी को भी उसी कटघरे में खड़ा कर विकल्प की राजनीति की नायाब पहल है पीएम और बीजेपी अध्यक्ष के घर की एक साथ घेराबंदीं। किरण बेदी तो बीजेपी का दिल्ली का चेहरा बनने को बेताब है। दिल्ली का पुलिस कमिश्नर ना बन सकी तो दिल्ली का सीएम बनकर काग्रेस से लेकर पुलिस महकमे में अपनी सियासत का संदेश देना चाहती हैं। लेकिन केजरीवाल राजनेताओं को पाठ पढ़ाना चाहते हैं। हो सकता है लेकिन किरण बेदी हाफती सरकार को बीजेपी के विरोध के जरीये आक्सीजन नहीं देना चहती हो। यह भी हो सकता है लेकिन तब दिल्ली में तो समूची राजनीति केन्द्रित नहीं की सकती। कैनवास तो बढ़ाना ही होगा । यह आईआईटी छात्रों की चर्चा है। यानी राजनीति साधने का रास्ता सिर्फ दिल्ली से नहीं निकलेगा यह कहने वाले फर्स्ट इयर के छात्र मानुष तो केजरीवाल के जरीये सोनभद्र के हालात को सुधारना चाहते हैं। केजरीवाल आईआईटी से निकल कर आंदोलन कर रहे है तो पहली बार आईआईटी के छात्रों की चर्चा भी कभी जेएनयू कैपंस के भीतर होने वाली बहस सरीखी हो चली है। पालिटिक्स और अल्ट्रा लेफ्ट के शब्द भी आईआईटी छात्र बोलने लगे हैं। औघोगिक तौर पर यूपी का हब है सोनभद्र है। लेकिन माओवाद की दस्तक भी वही पर है। और सोनभद्र से सटे सिंगरौली में नक्सली लगातार पहल बढ़ा रहे हैं। वहां सबसे ज्यादा स्थानीय किसान, आदिवासियों का शोषण है। अगर वहां केजरीवाल राजनीति पार्टियों के बदलाव नहीं बल्कि सत्ता के बदलाव का सवाल उठाये तो शायद इन इलाकों से कोई राजनीतिक विकल्प निकल सकता है। मानुष के ऐसे सवालों पर फर्स्ट इयर के कई छात्रों को अपने अपने गांव और वहां के हालात याद आते हैं। और किसानी खत्म कर विकास की अंधी गली में जाते हालात को लेकर कोस्टा या बरिस्ता की सत्तर रुपये की काफी में चर्चा गरम भी होती है और इंजिनियरिंग की पढ़ाई से देश के मौजूदा हालात पर टिप्पणी भी होती है।

लेकिन पहली बार दिल्ली की हर चर्चा में कांग्रेस की सियासत के हर दौर की महक सूघंने की कोशिश भी दिखायी दे रही है। शायद इसीलिये छात्रों से इतर आईआईएस यानी इंडियन इन्फारमेशन सर्विस के रिटायर अधिकारियों का जमावड़ा भी अंदर से हिला देता है। एनसीआर में रहने वाले पूर्व नौकरशाहों के जमावड़े के बीच बैठने से कैसे अब के दौर में खत्म होती सृजनता और इमरजेन्सी के दौर की ठोस समझ उभरती है, वह अदभूत है। किसे याद है कि इमरजेन्सी के दौर में सूचना प्रसारण मंत्रालय किस तरह काम कर रहा था। और कैसे इमरजेन्सी खत्म हुई तो डीएवी के प्रमुख सेठी साहब अपने दफ्तर में ही मृत पाये गये। सहयोगियों ने माना इमरजेन्सी में डीएवी के जरीये सरकार की छवि को सुधारने या ना बिगडने देने का हुनर ही इमरजेन्सी के बाद सेठी के पश्चाताप पर भारी पड़ गया। और उन्होंने खुदकुशी कर ली। याद कीजिये तो तब के दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर आईसीएस कृष्णचंदर ने भी खुदकुशी की। क्योंकि शाह कमीशन के वक्त जो पूछताछ होती और उस वक्त जिन सवालों को जस्टिस शाह लगातार कृष्णचंदर से पूछ रहे थे उसका जवाब दिल्ली के लेफ्टि गर्वनर के पास नहीं था। दिल्ली में जहा बुलडोजर चला उसके आदेश किसने दिये। उपर से आदेश था
।  उपर का मतलब [इंदिरा गांधी] तो मैं समझ रहा हूं। आपने लिखित तौर पर क्यों नहीं लिया। यह कैसे संभव है। असल में सत्ता कैसे किस तरह लोकतंत्र की पीठ पर सवार होकर ही लोकतंत्र का गला घोटती है, इसका एक उदाहदरण तो संजय गांधी और तबके राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का भी है। और इन पूर्व नौकरशाहों के पास ऐसे किस्सों की भरमार है। दिल्ली में संजय गांधी के निर्णयों से परेशान राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने जब संजय गांधी से पूछा कि तुर्कमान गेट पर बुलडोजर क्यों चलवा दिया । तो संजय गांधी का जवाब था जब करोलबाग में बुलडोजर चला तब आपने सवाल क्यों नहीं किया। संजय गांधी का अपना पांच सूत्रीय कार्यक्रम था, जिसे वह हर सभा में रखते। और यह पांच सूत्रीय भी समाजसुधार से जुड़ा था। पेड़ लगाना हो या दहेज ना लेना या फिर नसबंदी। संजय गांधी सभी का जिक्र करते। लेकिन इमरजेन्सी में इंडियन इन्फारमेशन सर्विस में बतौर काम करते इन नौकरशाहों की माने तो इमरजेन्सी सही थी लेकिन दो काम गलत हुये, जिसे इंदिरा गांधी को भी बाद में यह एहसास हुआ कि अगर मीडिया पर पांबदी ना लगायी जाती और सभी बड़े नेताओ को जेल में एकसाथ ना ठूंसा जाता तो देश नियम-कायदे की रफ्तार पकड़ चुका था। 10 बजते बजते हर बाबू अपने दफ्तर की सीट पर दिखायी देता। रेलगाडी वक्त पर चलने लगी। सरकारी कामकाज में रफ्तार आ गई। यह अलग मसला है कि नाई से लेकर मोची भी अपनी दुकान पर इंदिरा के 20 सूत्रीय कार्यक्रम का बोर्ड टांग कर काम करता, जिस पर लिखा होता यहा बीस सूत्रीय कार्यक्रम के तहत बाल काटे जाते है या फिर जूते बनाये जाते हैं। उस दौर में दिल्ली में आकाशवाणी के लिये रिपोर्टिंग करते पूर्व नौकरशाह की मानें तो अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध इंदिरा को कितना भारी पड़ा यह 1977 में चुनाव के वक्त चुनावी यूपी की चुनावी रैलियो में सिर्फ सौ-डेढ सौ लोगों की मौजूदगी ने इंदिरा को दिखा दिया, जहां कोई अखबारवाला पहुंचता भी तो हार की रिपोर्ट तैयार करने के लिये और खाली मैदान की तस्वीरों को उतारने के लिये। इसलिये 1977 में जब इंदिरा हारी तो कमलापति त्रिपाठी ने तुलसीदास को याद कर कहा , "रहा न कुल कोई रोउ निहारा" [अब कुल में कोई रोने वाला भी नहीं रहा] । तो क्या देश 1977 की दिशा में जा रहा है। कह नहीं सकते लेकिन जो पीढ़ी सड़क पर संघर्ष कर रही है उसका जन्म भी 1977 के बाद ही हुआ है। और जेएनयू से लेकर आईआईटी तक में जो सवाल उठ रहे है उसका ताल्लुक सीधे मनमोहन के आर्थिक सुधार के  द के हालात से जुड़े हैं। इसलिये अतीत के सवाल के जरीये वर्तमान के जवाब तो टटोले नहीं जा सकते लेकिन मौजूदा वक्त में अगर दिल्ली की चर्चा में प्रतिबंध, संघर्ष
और सियासत आम है तो फिर इसे खास होने में वक्त भी नहीं लगेगा।

2 comments:

Brajesh said...

आदरणीय प्रसूनजी,

भारत में करीब 10 करोड़ इन्टरनेट उपभोक्ता हैं, लगभग उतना ही जितना 2009 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मत मिले थे। इसमें करीब 5 करोड़ 35लाख facebook users हैं और करीब 1करोड़ 30लाख twitter users हैं । मतलब कुल 6करोड़ 65 लाख लोग हैं जो आपना स्वतंत्र आवाज़ इन्टरनेट पर डालते हैं । मतलब करीब 10 में 7 फसबूक या ट्विट्टर से जुड़े हुए हैं और अगर कूल फसबूक और ट्विट्टर के users का 20 परसेंट भी मानलें की वो लोग हैं जो सर्कार के खिलाफ कुछ बोलते हैं तो बे ये आंकड़ा 1करोड़ से ज्यादा होगा । मतलब मोटा-मोटी हर 10 में 1 जो इन्टरनेट की दुनिया में है वो सरकार को कोस रहा है। और शायद इसलिए सरकार के कान खड़े हो जाते है और इन्टरनेट रूपी आजाद घोड़े पर सरकार को कोड़े बरसाने पड़ रहे हैं ।

2G घोटालों के बाद बहोत सरे पोपुलर टीवी journalist के नाम आये जिन्होंने राजा को मंत्री बनाने में बहोत मेहनत की और अब वो compromised स्टेट में हैं, मतलब ना तो सारी सच्चाई बतला सकते हैं और ना चुप रह सकते हैं । इसलिए आजकल टीवी पर हर घटना का सिर्फ रुन्निंग कमेन्ट्री होता है । इस मंत्री ने ये कहा , उसने ये कहा और पता नहीं क्या क्या उलूल जुलूल चलते रहता है । मतलब ये की टीवी मीडिया सिर्फ और सिर्फ रुन्निंग कमेन्ट्री दिखला सकता है पर कोई सही सही रिपोर्ट नहीं दिखा सकता एकाद प्रोग्राम को छोड़ कर । टीवी पर तो सरकार ने advisory भी बना राखी है मतलब ये की टीवी मीडिया में तो सरकार पहले से कोड़े बरसा रही है और लगाम भी लगाये हुए है । पर फिर भी ये आवाज़ नहीं उठाते ।

प्रिंट मीडिया में तो हम कबसे paid news के बारे में सुन रहे हैं । एक नेता, एक पार्टी, एक पूंजीपति दुसरे नेता, पार्टी और पूंजीपति के खिलाफ कहानियां प्लांट कर रहा है ।

इन सारी बातों को कहने का मतलब ये था कि, आज जो मीडिया का ये हाल है उसके लिए मीडिया खुद जिम्मेदार है जिसने अपने को राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के हाथ का कठपुतली बनने दिया है । दुःख तो तब होता है जब मीडिया खुद पर पाबंदी को अच्छा मानती है । बहोत से ऐसे journalist हैं tv पे जो sarkar के उठाये गए sensorship का समर्थन करते है । इनमे वो लोग भी है जिनके खिलाफ लोग प्रायः baised होने का आरोप लगाया करते है और जिनके खिलाफ काफी आपत्ति जनक शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ है facebook और twitter पर । और ये ही journalist सरकार के साथ सुर में सुर मिलाते नज़र आते हैं । लगता है इनका मकसद journalism नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाना है।

ऐसे कठिन वक़्त में आप जैसे अच्छे पत्रकारों की देश को बहोत जरुरत है और लोगों में जागरूकता फ़ैलाने की आवश्यकता है ।

ब्रजेश
मुंबई

dr.dharmendra gupta said...

there is no representation of resentment of students for current political crisis in media.....