जिस दौर में नेताओ की छवि नेहरु युग के नेताओं जैसी चमकदार, आम तौर पर ईमानदार, विवादों से परे और राजनीति से उपर उठ राष्ट्र-निर्माण की चितांओं के प्रतीक के तौर पर रही हो। उसी दौर में कोई अपनी छवि विवादों में ढालकर कर समाज में कड़वाहट भरते हुये लोकतंत्र के प्रति अविशवास कर संसदीय राजनीति का ही उपहास करें और बावजूद सबके लोगों के दिलो में राज करने लगे । तो उसे कौन से नाम से पुकारेंगे। जी, यह नाम बाल केशव ठाकरे है।
बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी। नेहरु क्षेत्रीयता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रीयता का भाव महाराष्ट्र में तेलुलूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था। और इसकी सबसे बड़ी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बाते बार बारह हिचकोले मारती। पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लडने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठों को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरीये जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास,संसदीय राजनीति के प्रति उपहास,राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा,प्रांतीय संकीर्णता,प्रांतिय सांप्रदायिकता,शिवाजी के मराठपन,हिन्दु पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव। बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुंबई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था। लिखायी-पढायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियों का रुतबा था। भवन निर्माण में सिंधियों का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे। ऐसे में मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था "आमची मुंबई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुंबई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयों और उत्तर भारतीयों के लिये मराठी सिखना जरुरी नही था। हिन्दी-अंग्रेजी से काम चल सकता था। उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था।
फिर 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजी प्रधान क्षेत्रों में हुआ जिससे रोजगार के मौके कम हुये। फिर साक्षरता बढ़ने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयनों की ही थी। इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था। बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपनी पत्रिका मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुंबई के किन रोजगार में कितने मराठी हैं, इसका आंकड़ा रखना शुरु किया। ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुये। अपनी पत्रिका मार्मिक में कार्टून और लेख के जरीये मराठियों में किस तरीके बैचेनी ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश की--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खींचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट हैं.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्टीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो। " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी। और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखाये। ठाकरे की ठसक का ही कमाल था कि महाराष्ट्र और देश के प्रतीकों पर उन्होने सीधा हमला बोला और खुद को तलवार की उस धार पर ला खड़ा किया, जहां खारिज करने वालों के केन्द्र में भी ठाकरे और खारिज करने वालों के खिलाफ खड़े मराठी मानुष के केन्द्र में भी ठाकरे।
मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है, जो कभी फ्लोरा फाउन्टेन के नाम से जाना जाता था लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया। वहीं गेटवे आफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गांधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी। गांधी जी के बारे में मराठी मानुस की समझ निजी बातचीत में समझी जा सकती है, गांधी मराठियों की एकजुटता से घबराते थे कि कहीं फिर मराठे सूरत को ना लूट लें। एक तरह से गांधी को सिर्फ गुजराती बनिये के तौर पर सीमित कर मराठी मानुस आज भी मराठों के विगत साम्राज्य को याद कर लेता है। असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह कुछ इस तरह का था, जिसमें साजिश की बू आती। यानी मुंबई में मराठी लोगों की हैसियत अगर सिर्फ क्लर्क, मजदूर, अध्यापक और घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं थी तो वह साजिश के तहत की गयी। बालासाहेब की राजनीति के दौर में गुजराती,पारसी,पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुंबई में था और शिवसेना इसे साजिश बताते हुये दुश्मन भी बना रही थी और उनसे लड़ने के लिये मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी।
बाल ठाकरे को नब्बे के दशक में लगने लगा था कि महाराष्ट्र के बाहर चाहे उनकी पैठ ना हो लेकिन केन्द्र की सत्ता जिस तरह गठबंधन के आसरे लूली–लंगडी हो चली, उसमें महाराष्ट्र में केन्द्रित रहते हुये भी वह दखल दे सकते हैं। एनडीए की सरकार में दिया भी। उस राजनीति को राज ठाकरे भी समझते हैं। सांसदों के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र दूसरा बड़ा राज्य है। किसी भी राष्ट्रीय दल की नजर महाराष्ट्र पर होगी ही। ऐसे में कोई भी ऐसी राजनीति जो जितने के लिये नहीं दूसरों को हराने के लिये की जा रही हो तो राजनीतिक सौदेबाजी में उससे बड़ा सौदागर कोई हो नहीं सकता है। इसे राज ठाकरे भी समझ रहे हैं और कांग्रेस-एनसीपी की सत्ता भी और भाजपा-शिवसेना गठबंधन भी। महाराष्ट् की यह त्रासदी भी रही है कि यहां आंदोलनों की भूमिका अगर सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक रही है तो उसी आंदोलन की पीठ पर सवार हो कर संसदीय राजनीति नकारात्मक रही है। बालासाहेब ठाकरे तो हद तक नकारात्मक हुये। बाल ठाकरे यह कहने से नही घबराये कि "मतपेठी के माध्यम से हमेशा जनतंत्र का सही रुप प्रगट नहीं हो पाता।...मैं अपने विचार तब तक नहीं बदलूंगा जब तक एक नई, हर तरह से सुरक्षित जनतांत्रिक पद्दति के परिणाम नहीं मिलते, जो मैं स्वीकार कर सकूं। हमारे देश में जनतंत्र जड़े नही जमा सका है और जब तक यह नहीं हो जाता, मेरी राय में इस देश में उदार तानाशाही की जरुरत है।" बालासाहेब ठाकरे का यह बयान 1967 के चुनाव के वक्त का है, जिसे 19 अगस्त 1967 को नवकाल ने छापा था। लेकिन बाल ठाकरे यहीं नहीं रुके थे,उन्होंने कहा , " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है? आज भारत को तो हिटलर की आवश्यकता है।..भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहां तो हमें हिटलर चाहिये। " नकारात्मक तरीके से राजनीति पकड़ने में माहिर बाल ठाकरे ने आपातकाल में इंदिरा गांधी का साथ दिया। बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुंचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी। जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरीय बनायी संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वहीं रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है। लेकिन याद किजिये 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति। शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा। विधानसभा में हंगामा हुआ। विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की। मुख्यमंत्री शरद पवार ने मामला टालने के लिये और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी। पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया। लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाउद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिये उस इटरव्यू को खूब उछाला जिसमें दाउद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था। फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना ने जमकर फोड़ा। परिणाम यही हुआ मुंबई के मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया। और शपथ समारोह में मंच पर और कोई नहीं, वही खैरनार अतिथि के तौर पर आंमत्रित थे जिन्होंने पवार के खिलाफ भ्रष्टाचार की मुहिम चलायी थी।
लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है। रोजगार और क्षेत्रीयता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2012 में वही क्षेत्रीयता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है। शिवेसना की लुंपन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिको को भष्ट होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका जिसे न्यूनतम के जुगाड़ के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड़ के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलों के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमों में लगे उघोगों के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वही भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में कांग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुंचा, जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी। इस बड़े तबके
को कैसे सड़क पर उतार कर उसकी भावनाओं को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में गुजारे चालीस साल में बखूबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के समानांतर दो सवाल थांबा लोकतंत्र के नाम पर खड़े होते हैं कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है। जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है। जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है। जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां हैं। जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है।
लेकिन ठाकरे ने मुंबई की चकाचौंध को भी अपनी राजनीति तले ला खड़ा किया। बाल ठाकरे राजनीति करते हुये स्टार वेल्यू के महत्व को भी बाखूबी समझते थे। बालासाहेब ने युसुफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था। बाला साहेब से समझौता करने एक वक्त शत्रुघ्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातोश्री जाना पड़ा था। यानी दुश्मन हर वक्त ठाकरे ने बनाया और सेना को मजबूत किया। बालासाहेब ने तो बकायदा चित्रपट शाखा खोली। जहां शुरुआती दौर में मराठी कलाकारों को आगे बढ़ाने की बात कही गयी लेकिन बाद में यह बालठाकरे की स्टार वेल्यू से जुड़ गया। यानी महाराष्ट्र की जमीन पर पड़े सियासी सिक्कों को उठाने के बदले सिक्कों को ढालने वाली टकसाल लगाने में ठाकरे की राजनीति चली।
इस राजनीति को आगे बढ़ाने में आर्थिक उदारीकरण की भूमिका को भी पहले शिवसेना और अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बाखूबी अपनी राजनीति का हिस्सा बनाये हुये है। नब्बे के दशक में जो काम शिवसेना कर रही थी अब उसी लकीर पर राज ठाकरे चल पड़े हैं। औघोगिक घरानों के कारखानों में कोई यूनियन मजदूरों को एकजुट ना कर पाये यह काम शिवसेना की कामगार सेना ने बखूबी किया। विदेशी निवेश रोजगार पूरक है, इसे एनरान के जरीये ठाकरे बता चुके हैं। खास बात है कि बीजेपी की यूनियन भारतीय मजदूर संघ को पूजीपतियों का एजेंट दिखना गंवारा नहीं था लेकिन कामगार सेना को इससे कोइ गुरेज नही थी। लेकिन नयी आर्थिक स्थितियो में राजठाकरे के सामने भू-माफिया का खासा बड़ा काम है । महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी की जमीन बिल्डरों के पास पहुंच रही है। जमीन पर कब्जे का मतलब बडी तादाद में बोरोजगार युवकों को कैडर के लिये जुगाड़ने की जद्दोजहद से बच जाना। असल में सभी राजनीतिक दल इसमे जुटे हुये हैं लेकिन हालात दुबारा साठ के दशक के ही लौट रहे हैं लेकिन अब बाल केशवराव ठाकरे नहीं है। तो सवाल यह भी है कि आखिर 19 अगस्त 1967 को जो बात कही थी अब उसे कोई कहने की हिम्मत नहीं रखता या फिर हालात बदल चुके हैं क्योंकि ठाकरे एक ही था जो कहता था उस पर मराठी मानुष भरोसा रखता, -- " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है ? आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहा तो हमें हिटलर चाहिये।" तो कौन कहेगा लोकतंत्र थांबा।
Sunday, November 18, 2012
लोकतंत्र थांबा !
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:25 AM
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