Thursday, November 8, 2012

विसर्जन के फूल हो चुके हैं गडकरी


क्या भाजपा एक बार फिर 360 डिग्री में घूम कर लालकृष्ण आडवाणी के ही दरवाजे पर आ खड़ी हुई है। क्या आरएसएस एक बार फिर भाजपा अध्यक्ष पर फैसले के लिये आडवाणी को ही जिम्मदारी सौप आरोपमुक्त होना चाहता है। और इस घटनाक्रम में गुरुमूर्ति के शामिल होने का मतलब है कि इस बार आडवाणी के हर फैसले पर संघ की तरफ से मुहर गुरुमूर्ति ही लगायेंगे। यानी संकेत आरएसएस का, फैसला आडवाणी का और मुहर गुरुमूर्ति की। क्योंकि जिस तेजी से भाजपा के भीतर नीतिन गडकरी को अध्यक्ष पद से हटाने को लेकर चौसर बिछी और उसी तेजी से गडकरी के पीछे दिल्ली की चौकडी ही खड़ी हो गई तो समझना यह भी होगा कि संघ अब फूलों के निर्वाल्य के लिये तैयार है। यानी जिन फूलों को उसने सम्मान में चढ़ाया अब उसे विसर्जित करने को वह तैयार है।

लेकिन विसर्जन के फूल का भी सम्मान होता है तो गडकरी एक सम्मानित नेता के तौर पर ही अध्यक्ष पद छोड़ें तो ज्यादा अछ्छा होगा। यानी गडकरी को लेकर जो बहस गुजरात चुनाव तक थमनी थी, उसे 40 दिन [ 21 दिसबंर को दूसरा टर्न शुरु होगा ] पहले ही हवा देकर संकेत दे दिये गये कि नीतिन गडकरी की उल्टी गिनती
शुरु हो चुकी है। जाहिर है यह बात ना तो भाजपा के भीतर कोई कहेगा और ना ही संघ इसे कह पायेगा। लेकिन संघ की परंपरा बताती है कि वह भार लेकर साथ चलना नहीं चाहता है। यह आरएसएस की परंपरा ही है कि संघ ने एक वक्त कुप्प सी सुदर्शन तक को किनारे लगाया। यानी पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को लेकर संघ परिवार के भीतर ही सवाल उठे और संघ में सरसंघचालक बदल गये। विहिप के प्रवीण तोगडिया और मनमोहन वैघ को नरेन्द्र मोदी के लिये किनारे किया गया । जिन्ना मुद्दे पर आडवाणी के खिलाफ सबसे सक्रिय प्रवीण तोगडिया को मोदी के आड़े आने पर संघ ने ही खामोश किया और मनमोहन वैघ को गुजरात से हटाकर नागपुर लाया गया। गडकरी नगपुर से ही आने वाले संजय जोशी को भाजपा में लाने के लिये भिड़े रहे लेकिन संघ कभी संजय जोशी के मुद्दे पर गडकरी के साथ खड़ा नहीं हुआ। तो परंपरा के लिहाज से संघ के लिये कॉरपोरेट फिलास्फी मायने रखती है, उसके लिये व्यक्ति का महत्व नहीं है। इसी परंपरा को निभाते हुये ही संघ के सामने उसी नीतिन गडकरी का सवाल आया, जिसे नागपुर के रास्ते दिल्ली भेजा। और दिल्ली में भाजपा की राजनीति करने वालो ने माना कि गडकरी भाजपा के नहीं आरएसएस की पंसद है। और संघ से पंगा कौन ले। इसलिये गडकरी अध्यक्ष पद पर भी रहे और भाजप के पारंपरिक राजनीति से अलग भी दिखायी देते रहे। यह अलग दिखायी देने को नीतिन गडकरी ने संघ की परंपरा से खुद को जोड़ने के लिये इस्तेमाल किया।

लेकिन उस दौर को भी याद करें तो सरसंघचालक मोहन भागवत ने बार बार यही कहा कि नीतिन गडकरी का नाम लालकृष्ण आडवाणी ने ही सुझाया था। संघ ने सिर्फ इतना ही कहा था कि अब कोई बुजुर्ग अध्यक्ष नहीं चलेगा। और इस कडी में लालकृष्ण आडवाणी ने एक एक कर कई नाम सुझाये। और चौथा नाम गडकरी का था, जिस पर संघ ने मुहर ला दी। तीन बरस पहले की इस गाथा के पन्नो को दोबारा टटोलना इसलिये जरुरी हो गया है क्योंकि एक बार फिर संघ और भाजपा दोनो ही उसी मुहाने पर आ खड़े हुये हुये हैं, जहां तीन बरस पहले खड़े थे। अंतर सिर्फ इतना है कि इस बार अध्यक्ष को 2014 के चुनाव में अगुवाई करने वाले चेहरे के साथ जोड़कर देखना है। तो संघ ने लालकृष्ण आडवाणी को ही भाजपा में फैसले की जिम्मेदारी सौपी है। क्योंकि संघ भाजपा के भीतर मच रहे घमासान में फंसना नहीं चाहता है। और दूसरी बड़ी बात यह है कि भाजपा के फैसले पर संघ का कोई असर ना पड़े इसलिये नीतिन गडकरी से आरएसएस ने खुद को बाजू यानी अलग कर लिया है। संघ के भीतर सरसंघचालक मोहन भागवत का गडकरी से सिर्फ इतना ही प्रेम बचा है कि वह गडकरी को लेकर "चलेगा" शब्द का इस्तेमाल इसलिये कर रहे हैं क्योंकि वह गडकरी के हटने के बाद भाजपा में होने वाले घमासान से बचना चाहते हैं। लेकिन भैयाजी जोशी , दत्तात्रेय होसबोले , सुरेश सोनी और मनमोहन वैद्य दोबारा नीतिन गडकरी को भाजपा अध्यक्ष पद पर बैठाने के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन भाजपा में गडकरी जैसा कोई प्रिय स्वयंसेवक मौजूदा वक्त में हैं भी नहीं तो गडकरी के मूल को बचाने के लिये ही गुरुमूर्ति को लगाया गया। क्योंकि नागपुर में स्वयंसेवकों के बीच नीतिन गडकरी को लेकर एक मान्यता यह भी बनी है कि अध्यक्ष पद हडकरी को बोनस के तौर पर मिला। क्योंकि गडकरी अपने धंधे को बढ़ाने में ही लगे थे। यानी एक बिजनेस-मैन की तरह गडकरी का राजनीतिक व्यक्तित्व भी नागपुर में बना और पूर्ति उघोग का मामला सामने आने के बाद राष्ट्रीय छवि भी राजनेता से ज्यादा बिजनेस-मैन वाली ही रही। सच यह भी है कि भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद भी पूर्ति इंडस्ट्री के चैयरमैन के पद पर गडकरी बने हुये थे। और दो बरस पहले गडकरी ने शरद पवार के इस सुझाव के बाद ही पूर्ति इंडस्ट्री के चैयरमैन पद से इस्तीफा दिया, जब पवार ने राजकाज करते हुये धंधे को ना करने का सुझाव दिया। यानी नागपुर में यह मान्यता आम है कि गडकरी ने खुद को राजनीतिक तौर पर तैयार सिर्फ इस रुप में किया, जहां पार्टी और संगठन चलाने का मतलब पैसो का जुगाड़ हो जाये। समूचा ध्यान हर सभा सम्मेलन को लेकर पूंजी से खुद को सफल बनाने में ही लगाया। संघ के भीतर भी इस सवाल की गूंज हुई कि राजनीतिक तौर पर कोई स्वयंसेवक भाजपा के अध्यक्ष पद पर रह कर कैसी सोच वाला होना चाहिये। आरएसएस के भीतर गडकरी को लेकर मचे इसी घमासान में संघ के संकेत के बाद ही नरेन्द्र मोदी को 2014 के लिये तैयार कर रहे एस गुरुमूर्ति दिल्ली पहुंचे । और लालकृष्ण आडवाणी की बिसात बिछनी भी शुरु हुई। तीन दिन पहले रविवार यानी 4 नंवबंर को यशंवत सिन्हा ने जब आडवाणी से मुलाकात की और बाद में शत्रुघ्न सिन्हा भी आडवाणी से मिलने पहुंचे और भाजपा अध्यक्ष गडकरी को लेकर
अपनी नाखुशी जाहिर की तो आडवाणी ने खुद कुछ कहने के बदले इस मुद्दे पर गुरुमूर्ति से मुलाकात का सुझाव यशंवत सिन्हा को दिया। जहां गुरुमूर्ति ने सिर्फ विरोध और नाखुशी की थाह ली। जबकि इससे पहले नीतिन गडकरी ने आडवाणी से मुलाकात की थी। तब आडवाणी को लगा कि गडकरी इस्तीफे की बात कहेंगे लेकिन गडकरी ना सिर्फ पूर्ति इंडस्ट्री के तमाम दस्तावेज बल्कि पूर्ति के तीन डायरेक्टरों को साथ लेकर लालकृष्ण आडवाणी से मिले और खुद को पाक साफ करार दिया। जाहिर है उस बैठक में गडकरी को लेकर भाजपा के भीतर बनते माहौल पर आडवाणी भी कुछ नहीं बोले। क्योंकि पूर्ति के डायरेक्टर भी मौजूद थे। कुछ ऐसा ही सुषमा स्वराज के साथ अनौपचारिक बैठक में हुआ। सुषमा ने कुछ भी नहीं कहा। जेटली ने भी इस मुद्दे पर खामोशी बरती। क्योंकि गडकरी की जगह भाजपा का अध्यक्ष होगा कौन इसपर ना तो आडवाणी अभी तक सहमति बना पाये है और ना ही गुरुमूर्ति समझ पाये हैं कि आखिर किस नाम पर सहमति होगी।

असल में दिल्ली की चकडी अगर गडकरी के पीछे खड़ी हो गई दिख रही है तो उसकी वजह संघ का अनुशासन भी है और खुद अध्यक्ष बनने की लालसा भी। और विरोध करने वाली चौकड़ी [जेठमलानी, जसवंत, यशवंत, शत्रुघ्न] में कोई नमस्ते सदा वतस्ले...कहकर भाजपा में आया नहीं है। इसीलिये ना संघ को इनकी परवाह है ना ही भाजपा में बैठे स्वयंसेवकों को। यह महज हथियार बने हैं गडकरी के खिलाफ नाखुशी को सतह पर लाकर गुरुमूर्ति को दिल्ली लाने के लिये। अब इनका काम खत्म हुआ। तो इंतजार किजिये 17 दिसंबर तक। जब गुजरात चुनाव में वोटिंग खत्म होते ही कोई नया युवा चेहरा मनोहर पारिकर की तर्ज वाला भाजपा अध्यक्ष होगा।

1 comment:

सम्वेदना के स्वर said...

कमाल की पत्रकारिता !
भाजपा और संघ पर डाक्टेरेट और कांग्रेस और 10 जनपथ से फटरेट !!