पुण्य प्रसून वाजपेयी
उभनती नदी और उजाड केदारनाथ। टुकडो में फंसे श्रद्धालु और पर्यटक। जमीन से आसमान तक मार्च करती सेना।उत्तराखंड में बीते सात दिनो का सच यही है। लेकिन इस सच से इतर एक दूसरा खौफनाक सच अब भी त्रासदी की चादर में ही लिपटा हुआ है। क्योकि यह ना तो केदारनाथ के दर्शन करने आये और ना ही इन्हे दर्शन करके लौटना था। यह पर्यटक भी नहीं है जो खुली आबो-हवा मे जिन्दगी तर कर लौटे। इनका सच ही इनकी त्रासदी है और इन्हे कही लौटना नहीं है तो अभी तक किसी की नजर यहा गई भी नहीं है। खासकर उत्तराखंड में गढवाल इलाके के तीन जिले उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चामोली। और इन तीन जिलो के करीब 250 से ज्यादा गांव। -औसतन हर गांव की आबादी 300 से 400 लोगो की। और सौ से कम आबादी वाले करीब 500 से ज्यादा गांव। अब ना छत है और ना ही सपाट जमीन। जिस जमीन पर गांववाले खडे है उस जमीन पर दो जून का अनाज भी बचा नहीं है जो पेट भर सके। इन तीन जिलो के करीब करीब पचास हजार लोगो के सामने संकट यह है कि बादल के फटने से लेकर नदी के उफान और पहाडो के टूट कर गिरने के बाद जिन्दगी जीने का हर रास्ता बंद हो गया है। जो गांव तबाह हुये है। जहा जिन्दगी अब दो जून की रोटी के लिये तरस रही है उसके सामने सबसे बडा संकट यह है कि अगले 15- 20 दिनो में फंसे लोगो को तो निकाल लिया जायेगा लेकिन उसके बाद शुरु होगी मौतो से होने वाली बीमारी की त्रासदी। साथ ही बीतते वक्त के साथ जिन्दगी जीये कैसे यह संकट गहरायेगा और अभी तक मदद के लिये कोई हाथ गांववालो के लिये उठा नहीं है। क्योकि खेती की जमीन पर गाद भर चुकी है तो खेती हो नहीं सकती। तीन महिनो के लिये चार घाम के खुलने वाले कपाट पर अब ताला लग चुका है। और इसी दौर में पर्यटन से होने वाली कमाई रास्तो के टूटने से ठप हो चुकी है। यानी पहाड का जीवन जो यूं भी संघर्ष के आसरे चलता है उसपर शहरी विकास की अनूठी दास्तान ने स्वाहा कर दिया है। प्रकृतिक त्रासदी ने इन तीन जिलो में खेती लायक करीब सौ स्कावयर किलोमिटर जमीन को पूरी तरह खत्म कर दिया है। करीब दस हजार परिवार जो पूरी तरह पर्यटन और चार घाम को सफल बनाने के दौरान साल भर की कमाई दो-तीन महिनो में करता है वह बंद हो चुकी है।
असल में कैसे उताराखंड को दोहा गया और जिन्दगी की अनदेखी की गई यह अपने आप में मिसाल है। क्योकि केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपने पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए. गांव के गांव इसलिये बहे है क्योकि पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल सबकुछ बना दिए गए हैं.। ऐसे गाव के लोग चारधाम करने आये लोगो से कमाते और घर चलाते। लेकिन अब घरवाले को प्रलय ने लील लिया तो गांव में बचे है सिर्फ आंसू।
और अब इन आंसूओ को भी सरकार से ही आस है उसी सरकार से जिसने पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया है.लेकिन यह नहीं देखा कि ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं। भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं. ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते.। लेकिन सरकार, राजनेता, इंजिनियर, ठेकेदार सभी ने आसान रास्ता बना कर मौत को ही आसान कर दिया।
जबकि इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते। उसमें मुश्किल आती क्योकि चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है यानी कमाई नहीं होती लेकिन जिन्दगी मजबूत होती। लेकिन इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय तक नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था रपट्टा की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी। अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके. लेकिन कुछ नहीं किया गया। इसके उलट पर्यटकों से कमाई के कारण दुर्गम इलाकों में होटल खोलने की इजाजत सरकार ने दी तो रईसो के लिये बालकोनी खोल कर नदी और खुली हवा का मजा लेने का धंधा पैदा किया गया।ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने जो मलबों से बना थी। नदी ने मलबो को बहाया तो जिन्दगी बह गयी।
और इस दौर में वहा तक किसी बचाववाले की नजर अभी तक गई नही है क्योकि यह लोग बाहर से आकर फंसे नहीं है बल्कि यही रहते हुये कभी पेड को बचाने के लिये चिपको आंदोलन तो कभी अलग और अपना राज्य बनाने के लिये संघर्ष कर चुके है। लेकिन अब इनके हाथ और हथेली दोनो खाली है। बावजूद सबके इन्हे यही रहना है। जो दुनिया के मानचित्र में सबसे भयावह प्रकृतिक विपदा का ग्राउड जीरो बन चुका है।
उभनती नदी और उजाड केदारनाथ। टुकडो में फंसे श्रद्धालु और पर्यटक। जमीन से आसमान तक मार्च करती सेना।उत्तराखंड में बीते सात दिनो का सच यही है। लेकिन इस सच से इतर एक दूसरा खौफनाक सच अब भी त्रासदी की चादर में ही लिपटा हुआ है। क्योकि यह ना तो केदारनाथ के दर्शन करने आये और ना ही इन्हे दर्शन करके लौटना था। यह पर्यटक भी नहीं है जो खुली आबो-हवा मे जिन्दगी तर कर लौटे। इनका सच ही इनकी त्रासदी है और इन्हे कही लौटना नहीं है तो अभी तक किसी की नजर यहा गई भी नहीं है। खासकर उत्तराखंड में गढवाल इलाके के तीन जिले उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चामोली। और इन तीन जिलो के करीब 250 से ज्यादा गांव। -औसतन हर गांव की आबादी 300 से 400 लोगो की। और सौ से कम आबादी वाले करीब 500 से ज्यादा गांव। अब ना छत है और ना ही सपाट जमीन। जिस जमीन पर गांववाले खडे है उस जमीन पर दो जून का अनाज भी बचा नहीं है जो पेट भर सके। इन तीन जिलो के करीब करीब पचास हजार लोगो के सामने संकट यह है कि बादल के फटने से लेकर नदी के उफान और पहाडो के टूट कर गिरने के बाद जिन्दगी जीने का हर रास्ता बंद हो गया है। जो गांव तबाह हुये है। जहा जिन्दगी अब दो जून की रोटी के लिये तरस रही है उसके सामने सबसे बडा संकट यह है कि अगले 15- 20 दिनो में फंसे लोगो को तो निकाल लिया जायेगा लेकिन उसके बाद शुरु होगी मौतो से होने वाली बीमारी की त्रासदी। साथ ही बीतते वक्त के साथ जिन्दगी जीये कैसे यह संकट गहरायेगा और अभी तक मदद के लिये कोई हाथ गांववालो के लिये उठा नहीं है। क्योकि खेती की जमीन पर गाद भर चुकी है तो खेती हो नहीं सकती। तीन महिनो के लिये चार घाम के खुलने वाले कपाट पर अब ताला लग चुका है। और इसी दौर में पर्यटन से होने वाली कमाई रास्तो के टूटने से ठप हो चुकी है। यानी पहाड का जीवन जो यूं भी संघर्ष के आसरे चलता है उसपर शहरी विकास की अनूठी दास्तान ने स्वाहा कर दिया है। प्रकृतिक त्रासदी ने इन तीन जिलो में खेती लायक करीब सौ स्कावयर किलोमिटर जमीन को पूरी तरह खत्म कर दिया है। करीब दस हजार परिवार जो पूरी तरह पर्यटन और चार घाम को सफल बनाने के दौरान साल भर की कमाई दो-तीन महिनो में करता है वह बंद हो चुकी है।
असल में कैसे उताराखंड को दोहा गया और जिन्दगी की अनदेखी की गई यह अपने आप में मिसाल है। क्योकि केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपने पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए. गांव के गांव इसलिये बहे है क्योकि पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल सबकुछ बना दिए गए हैं.। ऐसे गाव के लोग चारधाम करने आये लोगो से कमाते और घर चलाते। लेकिन अब घरवाले को प्रलय ने लील लिया तो गांव में बचे है सिर्फ आंसू।
और अब इन आंसूओ को भी सरकार से ही आस है उसी सरकार से जिसने पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया है.लेकिन यह नहीं देखा कि ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं। भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं. ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते.। लेकिन सरकार, राजनेता, इंजिनियर, ठेकेदार सभी ने आसान रास्ता बना कर मौत को ही आसान कर दिया।
जबकि इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते। उसमें मुश्किल आती क्योकि चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है यानी कमाई नहीं होती लेकिन जिन्दगी मजबूत होती। लेकिन इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय तक नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था रपट्टा की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी। अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके. लेकिन कुछ नहीं किया गया। इसके उलट पर्यटकों से कमाई के कारण दुर्गम इलाकों में होटल खोलने की इजाजत सरकार ने दी तो रईसो के लिये बालकोनी खोल कर नदी और खुली हवा का मजा लेने का धंधा पैदा किया गया।ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने जो मलबों से बना थी। नदी ने मलबो को बहाया तो जिन्दगी बह गयी।
और इस दौर में वहा तक किसी बचाववाले की नजर अभी तक गई नही है क्योकि यह लोग बाहर से आकर फंसे नहीं है बल्कि यही रहते हुये कभी पेड को बचाने के लिये चिपको आंदोलन तो कभी अलग और अपना राज्य बनाने के लिये संघर्ष कर चुके है। लेकिन अब इनके हाथ और हथेली दोनो खाली है। बावजूद सबके इन्हे यही रहना है। जो दुनिया के मानचित्र में सबसे भयावह प्रकृतिक विपदा का ग्राउड जीरो बन चुका है।
7 comments:
bahut badiya,sir......poori corporate media line se hatke hmesha ki tarah aaj bhi bahut nayab chitran pesh kiya hai...padte-padte jehan me tasveeren rengane lgi...dhanyabad....
सरजी नमस्कार, यह आपही है जो चष्मेके बाहर का सोच सकते है.. जब यह खबर दसतक पर देखी उसी वक्त लगा की गाववालों की त्रासदी कीसीने ना सुनी होगी ना सोची होगी,, शायद आपकी इस खबर से कोई उनके बारेमे भी सोचेंगे... सर एक बात पुछनी थी क्या आप उतराखंड गऐ थे क्योकी आप कुछ दीन चैनलपर दिखे नही सोचा आप ग्राऊंड झिरोपर जाकर शायद वहा के हालात देख रहे हो.. खैर धन्यवाद...
सरजी नमस्कार, यह आपही है जो चष्मेके बाहर का सोच सकते है.. जब यह खबर दसतक पर देखी उसी वक्त लगा की गाववालों की त्रासदी कीसीने ना सुनी होगी ना सोची होगी,, शायद आपकी इस खबर से कोई उनके बारेमे भी सोचेंगे... सर एक बात पुछनी थी क्या आप उतराखंड गऐ थे क्योकी आप कुछ दीन चैनलपर दिखे नही सोचा आप ग्राऊंड झिरोपर जाकर शायद वहा के हालात देख रहे हो.. खैर धन्यवाद...
u r the great sirji. brilliant thoughts
आप ने दो महत्वपुर्ण सवाल उठाऐ...धन्यवाद.
काश नदिया , पहाड वोट देते तो देश की राजनीति से मीडिया की तरह इनका भी मामला सेट रहता....
bilkul sahi hai aapki baat jinki jaden vaha judi thi us dharti ko hi pralay leel gaya ..kai saal lag jayenge in logon ko isase ubarne me ..
ab sarkaar ko pahadon par nirmaan par sakht ankush rakhna chahiye ...
http://kavita-verma.blogspot.in/
http://kavita-verma.blogspot.in/2013/06/blog-post_20.html
बिल्कुल रेणू की मौला आंचल की तरह, कोसी मैयया गोसा गई हो जैसे,, वैसे ही मंदाकनी.....
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