जरा कल्पना कीजिये सौ बरस बाद जब भारत के इतिहास के पन्नों को कोई पलटेगा तो मौजूदा दौर को कैसे याद करेगा। नेहरु-गांधी परिवार का जिम्मेदारी से मुक्त हो सत्ता चलाना-भोगना। मनमोहन सिंह का बिना चुनाव लड़े बतौर प्रधानमंत्री भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश से दुनिया के सबसे बड़े बाजार में बदलना। आरएसएस का हिन्दुत्व का एकला चलो का राग छोड़ मुस्लिम प्रेम जागना। संघ के स्वयंसेवक नरेन्द्र मोदी का देश में सबसे लोकप्रिय होकर भी धर्मनिरपेक्षता की परछाई से भी दूर रहना। या फिर कारपोरेट और अंडरवर्ल्ड के शिकंजे में फंसे जेंटलमैन गेम यानी क्रिकेट के सबसे लंबे वक्त तक बतौर हुनरमंद के तौर पर टिके रहने वाले सचिन तेदूलकर को भारत रत्न मानना। या फिर जन सरोकार और सियासी ताल्लुकात की जगह हर संवाद के लिये मीडिया यानी टीवी युग। और जब सत्ता के निर्णय तले देश को संवारने का या देश के भविष्य को निखारने का सवाल उठेगा तो इतिहास के पन्नों पर मौजूदा दौर को सिर्फ वर्तमान में जीते देश और भावनाओं में बहते देश के तौर पर जरुर आंका जायेगा। क्यों? तो टीवी युग को आजादी से पहले के दौर में जी कर देख-समझ लें। तब समझ में आयेगा सचिन तेदुलकर के भारत रत्न होने और हाकी के जादूगर ध्यानचंद का खामोशी से दिल्ली के एम्स में मरना और देश में कोई घड़कन का ना सुना जाना। तो टीवी युग तले लिये चलते है 1926 से 1947 के दौर में। 21 बरस। जी सचिन के 24 तो ध्यानचंद के 21 बरस। सचिन के कुल जमा 15921 रन । तो ध्यानचंद के 1076 गोल। तो कुछ देर के लिये सचिन और अब के दौर को भूल जाइये । अब कल्पना की उड़ान भरें और टीवी युग से पहुंच जाइये गुलाम भारत में संघर्ष करते कांग्रेस और मुस्लिम लीग से इतर हॉकी के मैदान में। 1936 का बर्लिन ओलंपिक । दुनिया के सबसे ताकतवर तानाशाह एडोल्फ हिटलर की देख-रेख में बर्लिन ओलंपिक के लिये तैयार है। बर्लिन ओलंपिक को लेकर हिटलर कोई कोताही बरतना नहीं चाहते हैं। बर्लिन शहर को दुल्हन की तरह सजाया गया है।
और बर्लिन इंतजार कर रहा है हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का। जर्मनी के आखबारों में ध्यानचंद का नाम एक ऐसे सेनापति की तरह छापा गया है जो अंग्रेजों का गुलाम होकर भी अंग्रेजों को उनके घर में मात देता है। पहली बार 1928 में भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक में हिस्सा लेने ब्रिटेन पहुंचती है और 10 मार्च 1928 को आर्मस्टडम में फोल्कस्टोन फेस्टीवल। ओलंपिक से ठीक पहले फोल्कस्टोन फेस्टीवल में जिस ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज डूबता नहीं था उस देश की राष्ट्रीय टीम के खिलाफ भारत की हॉकी टीम मैदान में उतरती है।
और भारत ब्रिटेन की राष्ट्रीय हॉकी टीम को इस तरह पराजित करती है कि अपने ही गुलाम देश से हार की कसमसाहट ऐसी होती है कि ओलंपिक में ब्रिटेन खेलने से इंकार कर देता है। और हर किसी का ध्यान ध्यानचंद पर जाता है, जो महज 16 बरस में सेना में शामिल होने के बाद रेजिमेंट और फिर भारतीय सेना की हॉकी टीम में चुना जाता है और सिर्फ 21 बरस की उम्र में यानी 1926 में न्यूजीलैड जाने वाली टीम में शरीक होता है। और जब हॉकी टीम न्यूजीलैड से लौटती है तो ब्रिटिश सैनिकअधिकारी ध्यानचंद का ओहदा बढाते हुये उसे लांस-नायक बना देते हैं। क्योंकि न्यूजीलैंड में ध्यानचंद की स्टिक कुछ ऐसी चलती है कि भारत 21 में से 18 मैच जीतता है। 2 मैच ड्रा होते हैं और एक में हार मिलती है। और हॉकी टीम के भारत लौटने पर जब कर्नल जार्ज ध्यानचंद से पूछते हैं कि भारत की टीम एक मैच क्यों हार गयी तो ध्यानचंद का जबाब होता है कि उन्हें लगा कि उनके पीछे बाकी 10 खिलाडी भी है तो आगे क्या होगा।
किसी से हारेंगे नहीं। और ध्यानचंद लांस नायक बना दिये गये। तो बर्लिन ओलंपिक एक ऐसे जादूगर का इंतजार कर रहा है, जिसने सिर्फ 21 बरस में दिये गये वादे को ना सिर्फ निभाया बल्कि मैदान में जब भी उतरा अपनी टीम को हारने नहीं दिया। चाहे आर्मस्टम में 1928 का ओलंपिक हो या सैन फ्रांसिस्को में 1932 का ओलंपिक। और अब 1936 में क्या होगा जब हिटलर के सामने भारत खेलेगा। क्या जर्मनी की टीम के सामने हिटलर की मौजूदगी में ध्यानचंद की जादूगरी चलेगी। जैसे जैसे बर्लिन ओलंपिक की तारीख करीब आ रही है वैसे वैसे जर्मनी के अखबारो में ध्यानचंद के किस्से किसी सितारे की तरह यह कहकर तमकने लगे है कि."चांद" का खेल देखने के लिये पूरा जर्मनी बेताब है।
क्योंकि हर किसी को याद आ रहा है 1928 का ओलंपिक । आस्ट्रिया को 6-0, बेल्जियम को 9-0, डेनमार्क को 5-0, स्वीटजरलैंड को 6-0 और नीदरलैंड को 3-0 से हराकर भारत ने गोल्ड मेडल जीता तो समूची ब्रिटिश मीडिया ने लिखा। यह हॉकी का खेल नहीं जादू था और ध्यानचंद यकीनन हॉकी के जादूगर। लेकिन बर्लिन ओलंपिक का इंतजार कर रहे हिटलर की नज़र 1928 के ओलंपिक से पहले प्रि ओलपिंक में डच, बेल्जीयम के साथ जर्मनी की हार पर थी। और जर्मनी के अखबार 1936 में लगातार यह छाप रहे थे जिस ध्यानचंद ने कभी भी जर्मनी टीम को मैदान पर बख्शा नहीं चाहे वह 1928 का ओलंपिक हो या 1932 का तो फिर 1936 में क्या होगा। क्योंकि हिटलर तो जीतने का नाम है। तो क्या बर्लिन ओलपिंक पहली बार हिटलर की मौजूदगी में जर्मनी की हार का तमगा ठोकेगी। और इधर मुंबई में बर्लिन जाने के लिये तैयार हुई भारतीय टीम में भी हिटलर को लेकर किस्से चल पड़े थे। पत्रकार टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता और कप्तान ध्यानचंद से लेकर लगातार सवाल कर रहे थे कि क्या 1928 में जब ओलपिंक में गोल्ड लेकर भारतीय हॉकी टीम बंबई हारबर पहुंची थी तो पेशावर से लेकर केरल तक से लोग विजेता टीम के एक दर्शन करने और ध्यान चंद को देखने भर के लिये पहुंचे थे।
उस दिन बंबई के डाकयार्ड पर मालवाहक जहाजों को समुद्र में ही रोक दिया गया था। जहाजों की आवाजाही भी 24 घंटे नहीं हो पायी थी क्योंकि ध्यानचंद की एक झलक के लिये हजारों हजार लोग बंबई हारबर में जुटे। और ओलंपिक खेल लौटे ध्यानचंद का तबादला 1928 में नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस वजीरिस्तान [ फिलहाल पाकिस्तान ] में कर दिया गया, जहां हाकी खेलना मुश्किल था। पहाड़ी इलाका था । मैदान था नहीं। लेकिन ओलंपिक में सबसे ज्यादा गोल [5 मैच में 14 गोल] करने वाले ध्यानचंद का नाम 1932 में सबसे पहले ओलंपिक टीम के खिलाडियों में यहकहकर लिखा गया कि सेंट फ्रांसिस्को ओलंपिक से पहले प्रैक्टिस मैच के
लिये टीम को सिलोन यानी मौजूदा वक्त में श्रीलंका भेज दिया जाये। और दो प्रैक्टिस मैच में भारत की ओलंपिक टीम ने सिलोन को 20-0 और 10-0 से हराया । ध्यानचंद ने अकेले डेढ दर्जन गोल ठोंके। और उसके बाद 30 जुलाई 1932 में शुरु होने वाले लास-एंजेल्स ओलंपिक के लिये भारत की टीम 30 मई को मुंबई से रवाना हुई। लगातार 17 दिन के सफर के बाद 4 अगस्त 1932 को अपने पहले मैच में भारत की टीम ने जापान को 11-1 से हराया। ध्यामचंद ने 3 गोल किये और फाइनल में मेजबान देश अमेरिका से ही सामना था। और माना जा रहा था कि मेजबान देश को मैच में अपने दर्शकों का लाभ मिलेगा। लेकिन फाइनल में भारत ने अमेरिकी टीम को दो दर्ज गोल। जी भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया। इस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किये। लेकिन पहली बार ध्यानचंद को गोल ठोंकने में अपने भाई रुप सिंह से यहा मात मिली। क्योंकि रुप सिंह ने 10 गोल ठोंके। लेकिन 1936 में तो बर्लिन ओलंपिक को लेकर जर्मनी के अखबारों में यही सवाल बड़ा था कि जर्मनी मेजबानी करते हुये भारत से हार जायेगा। या फिर बुरी तरह हारेगा और ध्यानचंद का जादू चल गया तो क्या होगा। क्योंकि 1932 के ओलंपिक में भारत ने कुल 35 गोल ठोंके थे और खाये महज 2 गोल थे। और तो और ध्यान चंद और उनके भाई रुपचंद ने 35 में से 25 गोल ठोंके थे।
तो बर्लिन ओलपिक का वक्त जैसे जैसे नजदीक आ रहा था, वैसे वैसे जर्मनी में ध्यानचंद को लेकर जितने सवाल लगातार अखबारों की सुर्खियों में चल रहे थे उसमें पहली बार लग कुछ ऐसा रहा था जैसे हिटलर के खिलाफ भारत को खेलना है और जर्मनी हार देखने के तैयार नहीं है। लेकिन ध्यानचंद के हॉकी को जादू के तौर पर लगातार देखा जा रहा था। और 1932 के ओलंपिक के बाद और 1936 के बर्लिन ओलंपिक से पहले यानी इन चार बरस के दौरान भारत ने 37 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले जिसमें 34 भारत ने जीते, 2 ड्रा हुये और 2 रद्द हो गये। यानी भारत एक मैच भी नहीं हारा। इस दौर में भारत ने 338 गोल किये जिसमें अकेले ध्यानचंद ने 133 गोल किये। तो बर्लिन ओलंपिक से पहले ध्यानचंद के हॉकी के सफर का लेखा-जोखा कुछ इस तरह जर्मनी में छाने लगा कि हिटलर की तानाशाही भी ध्यानचंद की जादूगरी में छुप गयी। क्योंकि सभा याद करने लगे। जब 1926 में पहला टूर न्यूजीलैंड का ध्यानचंद ने किया था तब 48 में से 43 मैच भारत ने जीते थे। और कुल 584 गोल में से ध्यानचंद ने 201 गोल ठोंके थे। खैर इतिहास हिटलर के सामने कैसे दोहराया जायेगा शायद इतिहास बदलने वाले हिटलर को भी इसका इंतजार था। इसलिये बर्लिन ओलंपिक की शान ही यही थी कि किसी मेले की तरह ओलंपिक की तैयारी जर्मनी ने की थी। ओलंपिक ग्राउंड में ही मनोरंजन के साधन भी थे। और दर्शकों की आवाजाही जबरदस्त थी । तो ओलपिंक शुरु होने से 13 दिन पहले 17 जुलाई 1936 को जर्मनी के साथ प्रैक्टिस मैच भारत को खेलना था। 17 दिन के सफर के बाद पहुंची टीम थकी हुई थी। बावजूद इसके भारत ने जर्मनी को 4-1 से हराया। और उसके बाद ओलंपिक में बिना गोल खाये हर देश को बिलकुल रौदते हुये भारत आगे बढ़ रहा था और जर्मनी के अखबारों में छप रहा था कि हॉकी नहीं जादू देखने पहुंचे। क्योंकि हॉकी का जादूगर ध्यानचंद पूरी तरह एक्टिव है। लोग भी ध्यानचंद का जादू देखने ही ओलपिंक ग्राउंड में पहुंच रहे थे। पहले मैच में हंगरी को 4-0, फिर अमेरिका को 7-0, जापान को 9-0, सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 । और भारत बिना गोल खाये हर किसी को हराकर फाइनल में पहुंचा। जहां पहले से ही जर्मनी फाइनल में भारत का इंतजार कर रही थी। संयोग देखिये भारत को
जर्मनी के खिलाफ फाइनल मैच 15 अगस्त 1936 को पड़ा। भारतीय टीम में खलबली थी कि फाइनल देखने एडोल्फ हिटलर भी आ रहे थे। और मैदान में हिटलर की मौजूदगी से ही भारतीय टीम सहमी हुई थी। ड्रेसिंग रुम में सहमी टीम के सामने टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने गुलाम भारत में आजादी का संघर्ष करते कांग्रेस के तिरंगे को अपने बैग से निकाला और ध्यानचंद समेत हर खिलाडी को उस वक्त तिंरगे की कसम खिलायी कि हिटलर की मौजूदगी में घबराना नहीं है। यह कल्पना का परे था। लेकिन सच था कि आजादी से पहले जिस भारत को अंग्रेजों से मु्क्ति के बाद राष्ट्रीय ध्वज तो दूर संघर्ष के किसी प्रतीक की जानकरी पूरी दुनिया को नहीं थी और संघर्ष देश के बाहर गया नहीं था। उस वक्त भारतीय हॉकी टीम ने तिरंगे को दिल में लहराया और जर्मनी की टीम के खिलाफ मैदान में उतरी। हिटलर स्टोडियम में ही मौजूद थे। टीम ने खेलना शुरु किया और दनादन गोल दागने भी। हाफ टाइम तक भारत 2 गोल ठोंक
चुका था। 14 अगस्त को बारिश हुई थी तो मैदान गीला था। और बिना स्पाइक वाले रबड़ के जूते लगातार फिसल रहे थे। उस वक्त ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद जूते उतार कर नंगे पांव ही खेलना शुरु किया। जर्मनी को हारता देख हिटलर मैदान छोड़ जा चुके थे। और नंगे पांव ही ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद गोल दागने शुरु किया।
भारत 8-1 से जर्मनी को हरा चुका था।
बर्लिन ओलपिंक में भारत की टीम पर जर्मनी ने ही एकमात्र गोल ठोका था लेकिन संयोग से यह गोल भी भारतीय खिलाडी तपसेल की गलती से हुआ तो जर्मनी इस एक गोल पर गर्व भी नहीं कर सकता था। लेकिन तमगा देने का दिन 16 अगस्त तय हुआ और ऐलान हुआ कि हिटलर खुद ध्यानचंद को तमगा देंगे। इस ऐलान के बाद तो ध्यानचंद की आंखो की नींद रफूचक्कर हो गयी। समूची रात ध्यानचंद इस तनाव में ही ना सो पाये कि हिटलर कहेंगे क्या और कहीं जर्मनी की टीम को हराने पर कोई कदम उठाने का निर्देश ना दे दें। इधर भारत में भी जैसे ही खबर आयी कि कि 16 अगस्त को हिटलर ओलंपिक स्टेडियम में ध्यानचंद से मिलेंगे वैसे ही भारतीय अखबारो में हिटलर के उजूल-फिजूल निर्णयों के बारे में छपने लगा। और एक तरह की आंशका हर दिल में बैठने लगी कि हिटलर जब ध्यानचंद से मिलेंगे तो पता नहीं क्या कहेंगे। खैर वह वक्त भी आ गया। हिटलर के सामने ध्यानचंद खड़े थे। हिटलर ने ध्यामचंद की पीठ ठोंकी। नजरें उपर से नीचे तक की। हिटलर की नजर ध्यानचंद के जूतों में अटक गयी । जूते अंगूठे के पास फटे हुये थे। हिटलर ने पूछा इंडिया में क्या करते हो। सेना में हूं। सेना शब्द सुनते ही हिटलर ने ध्यानचंद की पीठ ठोंकी। क्या करते हो सेना में। पंजाब रेजिमेंट में लांस-नायक हूं। हिटलर ने तुरंत कहा जर्मनी में रह जाओ। यहां सेना में कर्नल का पद मिलेगा। ध्यानचंद ने कहा नहीं पंजाब रेजिमेंट पर मुझे गर्व है और भारत ही मेरा देश है। जैसी तुम्हारी इच्छा। और हिटलर ने सोने का तमगा ध्यानचंद को दिया और तुरंत मुड़ कर स्टेडियम से निकल गये। ध्यानचंद की सांस में सांस आयी और दुनियाभर के अखबारों में पहली बार हिटलर के सामने किसी के नतमस्तक ना होने की खबर छपी। यह कल्पना के परे है कि उस वक्त टीवी युग होता तो क्या होता । उस वक्त भी भावनाओ में देश बह रहा होता तो क्या होता। उस वक्त अगर सिर्फ वर्तमान को ही इंडिया का वजूद माना जाता तो महात्मा गांधी का संघर्ष भी ध्यानचंद के जादुई खेल के सामने काफूर हो चुका होता। हो सकता है अब के टीवी युग की तरह उस वक्त ध्यानचंद को आजादी के बाद पीएम की कुर्सी का ही ऑफर तो नहीं कर दिया जाता। और अगर मौजूदा वक्त में वाकई कोई ऐसा खिलाडी निकल आये तो क्या होगा। सवाल सचिन तेदुलकर को भारत रत्न मानने से आगे का है। क्योंकि बर्लिन से जब हाकी टीम लौटी तो ध्यानचंद को देखने और छूने के लिये पूरे देश में जुनून सा था। और ध्यानचंद जहां जाते वहीं हजारों लोग उमड़ते। रेजिमेंट में भी ध्यानचंद जीवित किस्सा बन गये। क्योंकि हिटलर से मिलकर और जर्मनी में रहने के हिटलर के ऑफर को ठुकरा कर ध्यानचंद लौटे थे। तो कल्पना कीजिये ध्यानचंद का कद क्या रहा होगा। ध्यानचंद को 1937 में लेफ्टिनेंट का दर्जा दिया गया। ध्यानचंद के तबादले
होते रहे। सेना में वह काम करते रहे। द्वितीय विश्व युद्द शुरु हुआ और 1945 में जब युद्द थमा तो खुद को 40 की उम्र का बता कर और नये लड़कों को हॉकी खेलने के लिये आगे लाने के लिये पहली बार ध्यनचंद ने हॉकी से रिटायरमेंट की बात की। लेकिन देश के दबाव में ध्यानचंद हॉकी खेलते रहे और किसी भी देश से ना हारने की जो बात उन्होने 1926 में की थी उसे 1947 तक बेधड़क निभाते रहे। और तो और आजादी के बाद जब भारतीय हॉकी फेडरेशन ने एशिय़न स्पोर्ट्रस एसोशियसन { इस्ट अफ्रिका } से गुहार लगायी की उन्हें खेलने का मौका दे, जिससे विभाजन की आंच हॉकी पर ना आये तो एशियाई स्पोर्टस एशोशियन ने साफ कहा कि अगर ध्यानचंद खेलने आयेंगे तो ही भारतीय टीम आये। और यह भी अपने आप में इतिहास है कि 23 नवंबर 1947 को जब ध्यानचंद ने 42 बरस की उम्र में टीम को जोड़ा तो उसमें दो पाकिस्तानी खिलाड़ी भी थे। और उस वक्त देश में दंगों और बहते लहू के बीच भी ध्यानचंद
भारतीय हॉकी टीम को लेकर अफ्रीका पहुंचे और यह ऐसी टीम थी जो विभाजन से परे थी। लाहौर, कराची और पेशावर के खिलाडी ध्यानचंद के साथ अफ्रीका जाने को तैयार थे। और वह टीम गयी भी। और उसने 22 मैच खेले। 61 गोल ठोंके। हारे किसी मैच में नहीं। ध्यानचंद ने लौट कर खुद की उम्र 40 पार बताते हुये और हॉकी ना खेलने की बात कही लेकिन देश में सहमति बनी नहीं और ध्यानंचद लगातार खेलते रहे। 51 बरस की उम्र में 1956 में आखिरकार ध्यानचंद रिटायर हुये तो सरकार ने पद्मविभूषण से उन्हें सम्मानित किया और रिटायरमेंट के महज 23 बरस बाद ही यह देश ध्यानचंद को भूल गया। इलाज की तंगी से जुझते ध्यानचंद की मौत 3 दिसबंर 1979 को दिल्ली के एम्स में हुई । और ध्यानचंद की मौत पर देश या सरकार नहीं बल्कि पंजाब रेजिमेंट के जवान निकल कर आये, जिसमें काम करते हुये ध्यानचंद ने उम्र गुजार दी थी और उस वक्त हिटलर के सामने पंजाब रेजिमेंट पर गर्व किया था जब हिटलर के सामने समूचा विश्व कुछ बोलने की ताकत नहीं रखता था। पंजाब रेजिमेंट ने सेना के सम्मान के साथ ध्यानचंद को आखिरी विदाई थी।
मौका मिले तो झांसी में ध्यानचंद की उस आखिरी जमीन पर जरुर जाइएगा, जहां टीवी युग में मीडिया नहीं पहुंचा है। वहां अब भी दूर से ही हॉकी स्टिक के साथ ध्यानचंद दिखायी दे जायेंगे। और जैसे ही ध्यानचंद की वह मूर्ति दिखायी दे तो सोचियेगा अगर ध्यानचंद के वक्त टीवी युग होता और हमने ध्यानचंद को खेलते हुये देखा होता तो ध्यानचंद आज कहां होते। लेकिन हमने तो ध्यानचंद को खेलते हुये देखा ही नहीं।
Monday, November 18, 2013
हमने ध्यानचंद को खेलते हुये नहीं देखा
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:53 PM
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21 comments:
kya adbhut khiladi the dhyanchand
kya adbhut khiladi the major dhyanchand , sharm ki baat hai ki hum unhe bhul gaye hai
किसी बहाने, ध्यानचंद के उस गौरवमयी इतिहास को याद तो क्या गया...
bahaut mahaan khiladi the Major Dhyanchand.
Sachin shud refuse the bharat ratna award - and shud say that before him dhyanchand shud be confeered the bharat ratna
than why our governmen both congress and bjp does not showing courage to facilitate 'Bharat Ratna" to dhyanchand..it wont benifit them politically i guess
हमें शर्मसार होना चाहिए कि ऐसे व्यक्ति को देश ने इतनी आसानी से भूला दिया। ऐसे कई लोग होंगे। मिडिया जब "जो बीके वही दिखे" के तौर पर काम करता रहेगा तो दोष केवल भारत कि जनता का नहीं है।
nice information got.thank you Sir.new generation should be must know about Dyanchand.
प्रसून जी ये बहुत शानदार और जरूरी लेख है जितने लोगों तक पहुंचे। ब्रांड, बाजार, टीवी, टीआरपी, मुंबई और राजनीति इतने तत्वों को मिलाकर मिला है सचिन रमेश तेंदुलकर को भारत रत्न। सचिन की काबिलियत पर सवाल नहीं लेकिन, 24 घंटे का टीवी होता तो खेल के महानायक नायक इस लिटिल मास्टर से बहुत पहले से होते। 24 घटे के टीवी, टीआरपी के बाद भी मुंबई का दबाव न होता और 3 साल लगातार बहुत अच्छा न खेलने के बाद सचिन टीम से बाहर हो गए होते तो कहानी कुछ और होती।
Sir,
Plz Dhyanchand k liya bhi bharat ratna ka news dikhya ar ek zordar koshis ap kary taqi sarkar ki neend khuly ar dhyanchand ke liya sochy apki news me sincerity hoti hi apki news content ko respect milta hi plzz start muhim for dhyanchand
सूचना से भरपूर ज्ञान वर्धक लेख के लिए धन्यवाद। पढ़ते पढ़ते ना जाने कब आँखें नम हो गयीं और लगा जैसे "रत्न" भारत से जुदा हो गया.
बहुत बढ़िया लेख। ध्यानचंद भारत रन्त तो है ही सरकार चांहे घोषित करे या न करे।
ye desh ka durbhagy hai ki dhyanchand jaise suraj ko bhi gumnamiyon ke andheron me apne jivan ki akhiri sanse leni padi, agar dhyan chand ke sath sachin ko dete to vote bhi aur bad jaate sarkar ke , haayri vote baink ki raajniti
ye desh ka durbhagy hai ki dhyanchand jaise suraj ko bhi gumnamiyon ke andheron me apne jivan ki akhiri sanse leni padi, agar dhyan chand ke sath sachin ko dete to vote bhi aur bad jaate sarkar ke , haayri vote baink ki raajniti
ye desh ka durbhagy hai ki dhyanchand jaise suraj ko bhi gumnamiyon ke andheron me apne jivan ki akhiri sanse leni padi, agar dhyan chand ke sath sachin ko dete to vote bhi aur bad jaate sarkar ke , haayri vote baink ki raajniti
आपके अन्य आलेखो कि तरह यह भी एक उम्दा लेख था.आपने ध्यानचंद के बारे में इतनी अच्छी जानकारी दी उसके लिए धन्यवाद
Adhbhut... Adamya... aur Anokha lekh hai yeh. Bahot-Bahot Dhanywad aapka Prasoon Sir..!
प्रसून जी,
मेरा यह विनम्र विचार है की टीवी -विहीन युग की इस अन्यतम विभूति को अब टीवी के ज़रिये ही प्रतिष्ठा दिलाई जाए । ध्यानचंद
जी का खेल मात्र जादूगरी नहीं, बल्कि उससे भे कही ऊंचा था। आश्चर्यजनक ... अविश्वसनीय .... अद्भुत !!!
सच में, क्या जानकारी जुटाई है आपने !!! बहुत -बहुत धन्यवाद ।
Mujhe nahi lagta k dhyanchand ko bhatat ratn Milne par hi wo mahan honge balki dukh is baat ka h k hum unhe bhool kyun gaye
Mujhe nahi lagta k dhyanchand ko bhatat ratn Milne par hi wo mahan honge balki dukh is baat ka h k hum unhe bhool kyun gaye
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