Sunday, June 15, 2014

सामाजिक शुद्दिकरण और मुनाफाकरण का नायाब मोदी मॉडल

सरकार के गलियारे में प्रधानमंत्री मोदी की तूती पहली बार इंदिरा गांधी के दौर से ही ज्यादा डर के साथ गूंज रही है। हर मंत्री के निजी स्टाफ से लेकर फाइल उठाने वाले तक की नियुक्ति पर अगर पीएमओ की नजर है या फिर हर नियुक्ती से पहले प्रधानमंत्री का कलीरियेंस चाहिये तो संकेत साफ है। इंदिरा गांधी के दौर में काउंसिल आफ मिनिस्टर से ताकतवर किचन कैबिनेट थी। किचन कैबिनेट पर पीएमओ हावी था। और पीएमओ के भीतर सिर्फ इंदिरा गांधी। लेकिन मोदी के दौर में किचन कैबिनेट भी गायब हो चुका है। यानी प्रधानमंत्री मोदी के दौर में कोई शॉक ऑब्जरवर नहीं है। पहली बार केन्द्र में सामाजिक-सांस्कृतिक शॉक ट्रीटमेंट के साथ जनादेश को राजनीतिक अंजाम देने की दिशा में प्रधानमंत्री मोदी बढ़ चुके हैं। यह शॉक ट्रीटमेंट क्यों हर किसी को बर्दाश्त है कभी बीजेपी के महारथी रहे नेताओं का कद भी अदना सा क्यों हो चला है इसे समझने से पहले जाट राजा यानी चौधरी चरण सिंह का एक किस्सा सुन लीजिये। सत्तर के दशक में चौधरी चरण सिंह की दूसरी बार सरकार बनी। मंत्रियों को शपथ दिलायी गयी। शपथ लेकर एक मंत्री मुंशीलाल चमार अपने विधानसभा क्षेत्र करहल पहुंचे। चाहने वालो ने पूछा , मुंशीलाल जी कौन सा पोर्टफोलियो मिला है। सादगी जी भरे मुंशीलालजी बोले चौधरी जी ने हाथ में कुछ दिया तो नहीं। तब लोगों ने कहा मंत्री की शपथ लिये है तो कौन सा विभाग मिला है। मुंशीलाल ने कहा यह तो पता नहीं लेकिन चौधरी जी से पूछ लेते हैं। सभी लोगो के बीच ही लखनऊ फोन लगाया और कहा, चौधरी जी गांव लौटे है तो लोग पूछ रहे है कौन सा विभाग हमें मिला है। उधर से चौधरी जी कि आवाज फोन पर थी। कडकती आवाज हर बैठे शख्स को सुनायी दे रही थी। लेकिन बड़े प्यार से चौधरी चरण सिंह ने पूछा, मुंशीजी लाल बत्ती मिल गयी। जी । बंगला मिल गया है । जी । तो फिर विभाग कोई भी हो काम तो हमें ही करना है। आप निश्चित रहे। जी । और फोन तो रख दिया गया। लेकिन मुंशीलाल चमार के उस बैठकी में उस वक्त मौजूद भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय से डेढ दशक पहले रिटायर हुये व्यक्ति ने यह किस्सा सुनाते हुये जब मुझसे पूछा कि क्या सारा काम प्रधानमंत्री मोदी ही करने वाले हैं तो मुझे कहना पड़ा कि तब मुंशीलाल चमार ने फोन तो कर लिया था।

लेकिन इस वक्त तो कोई फोन करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। बुजुर्ग शख्स जोर से ठहाका लगाकर हंसे जरुर। और बोले तब तो मोदी जी को संघ परिवार चन्द्रभानु गुप्ता की तरह देखती होगी। क्यों। क्योंकि चन्द्रभानु गुप्ता ने राजनीति कांग्रेस की की। १९२९ में लखनऊ शहर के कांग्रेस अध्यक्ष बने।  काकोरी डकैती के नायकों को कानूनी मदद की । लेकिन नेहरु के काम करने का खुला विरोध किया । चमचा राजनीति का खुला विरोध किया । और १९६७ में जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो चन्द्रभानु गुप्ता सीएम बने । जनसंघ ही नहीं आरएसएस को भी सीबी गुप्ता बहुत भाये क्योंकि वह अकेले थे । परिवार था नहीं। तो भ्रष्ट हो नहीं सकते हैं। और सच यही है कि सीबी गुप्ता का खर्च कुछ भी नहीं था। सरकारी खादी दुकान से धोती खरीदकर उसे पजामे बदलवाते। बाकी जीवन यायवरी में चलता। तो क्या नरेन्द्र मोदी को आप ऐसे ही देख रहे हैं। देख नही रहा, लग रहा है। क्योंकि अपने ही मंत्रियो को संपत्ति। परिजनो से दूर रहने की सलाह। जो संभव नहीं है। क्यों। क्योंकि समाज लोभी है और युवा पीढी नागरिक नहीं उपभोक्ता बनने को तैयार है। और दोनो एक साथ चल नहीं सकता। या तो गैर शादी शुदा या प्रचारको की जमात से ही सरकार चलाये य़ा फिर समाज ऐसा बनाये जिसमें नैतिक बल इमानदारी को लेकर हो। सादगी को लेकर हो। चलो देखते है, कहने के बाद बुजुर्ग पूर्व अधिकारी तो चले गये, लेकिन उस तार को छोड गये जिसे प्रधानमंत्री मोदी पकडेंगे कैसे और नहीं पकडेंगे तो मनमोहन सरकार की गड्डे वाली नीतियों से उबकाई जनता का जनादेश कबतक नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा रहेगा। असल इम्तिहान इसी का है। क्योंकि मनमोहन सरकार के दौर में जिन योजनाओं पर काम शुरु हुआ। लेकिन सत्ता के दो पावर सेंटर , सत्ता के राजनीतिक गलियारों के दलालों और खामोश नौकरशाही की वजह से पूरे नहीं हो पाये उसे ही पहली खेप में मोदी पूरा कराना चाहते हैं। इसीलिये सचिवों से रिपोर्ट बटोरी। और अंजाम में पहले कालेधन पर एसआईटी, फिर फ्राइट कारीडोर, आईआईटी , आईआईएम, दागी सांसदों पर नकेल जैसे मुद्दो को ही सामने रख दिया । लेकिन अब दो सवाल हर जहन में है । पहला जिन्हें मंत्री बनाया गया  प्रधानमंत्री मोदी उन्हें कर्मठता सीखा रहे है या फिर मंत्री पद का तमगा लगाकर देकर किसी कलर्क की तरह काम करने की सीख दे रहे है। और दूसरा सत्ता के राजनीतिक तौर तरीको को बदलकर नरेन्द्र मोदी लुटियन्स की दिल्ली
की उस आबो-हवा को बदलने में लगे है जिसने बीते बारह बारस उन्हे कटघरे में खड़ा कर रखा था। या फिर तीसरी परिस्थिति हो सकती है कि जनादेश से जिम्मेदारी का एहसास इस दौर में बड़ा हो चला हो जिसे पूरा करने के लिये सबकुछ अपने कंधे पर उठाना मजबूरी हो। पहली दो परिस्थितियों तो पीएम के कामकाज से जुड़ी हैं लेकिन जनादेश की जिम्मेदारी का भाव देश की उस जनता से जुडा है जिसमें एक तरफ राष्ट्रीयता का भाव जो संघ परिवार की सोच के नजदीक है और बुजुर्ग पीढ़ी में हिलोरे भी मारता है कि चीन के विस्तार को कौन रोकेगा। पाकिस्तान को पाठ कौन पढायेगा। भारत अपनी ताकत का एहसास सामरिक तौर पर कब करायेगा। तो दूसरी तरफ युवा भारत की समझ । उसके लिये ऱाष्ट्रीयता का शब्द उपबोक्ता बनकर देश की चौकाचौंध का लुत्फ उठाना कहीं ज्यादा जरुरी है बनिस्पत नागरिक बनकर संघर्ष और कठिनायी के हालातों से रुबरु होना। जिस युवा पीढी ने नरेन्द्र मोदी को कंधे पर बैठाया उसके सपनों की उम्र इतनी ज्यादा नहीं है कि वह मोदी सरकार के दो बजट तक भी इंतजार करें। फिर चुनाव के वक्त की मोदी ब्रिग्रेड के पांव इस वक्त आसमान पर है। जिस रवानगी के साथ उसने सड़क से लेकर सोशल मीडिया को मोदीमय बना दिया और शालीनों को डरा दिया उसके एहसास उसे अब कुछ करने देने की ताकत दे चुके है। उसे थामना भी है और दो करोड़ के करीब रजिस्ट्रड बेरोजगारों के रोजगार के सपनो को पूरा भी करना है। लेकिन जिस आदर्श रास्ते को
प्रधानमंत्री मोदी ने पकड़ा है उसमें गांव, पंचायत, जिला या राज्य स्तर पर राजनीतिक पदों को बांटना भी मुश्किल है क्योंकि संघ परिवार खुद के विस्तार के लिये जमीनी स्तर पर राजनीतिक काम कर रहा है । और पहली बार राजनीतिक सक्रियता चुनाव में जीत के बाद कही तेजी से दिखायी देने लगी है । यानी अयोध्या कांड के बाद वाजपेयी सरकार बनने के बाद जिस संघ परिवार ने वाजपेयी सरकार की नीतियों की तारफ ताकना शुरु किया था वही इस बार सरकार को ताकने की जगह खुद को सक्रिय रखकर सरकार पर लगातार दबाब बनाने की समझ है ।

यानी सरकार पर ही संघ परिवार का दबाब काम कर रहा है,जो कई मायने में मोदी के लिये लाभदायक भी साबित हो रहा है। क्योंकि कांग्रेसी मनरेगा को मोदी के मनरेगा में कैसे बदला जाये इसके लिये गांव गांव की रिपोर्ट स्वयंसेवक से बेहतर कोई दे नहीं सकता। तो मनरेगा को मशीन से जोड़कर गांव की सीमारेखा को मिटाने की नीति पर काम शुरु हो गया है। मनमोहन सरकार के दौर में शिक्षा को बाजार से जोडकर जिस तरह शैक्षणिक बंटाधार किया गया उसे कोई मंत्री या कोई नौकरशाह कैसे और कितना समझ कर किस तेजी से बदल पायेगा इसके लिये संघ परिवार के शिक्षा बचाओ आंदोलन चलाने वाले दीनानाथ बतरा से ज्यादा कौन समझ सकता है, जो देश भर में आरएसएस के विधा भारती स्कूलों को चला रहे हैं। इसी तर्ज पर ग्रामीण भारत के लिये नीतियों को बनाने का इंतजार आदिवासी कल्याण मंत्री या नौकरशाहों के आसरे हो नहीं सकता । जबकि तमाम आंकडो से लेकर हालातों को तेजी से बताने के लिये आरएसएस का वनवासी कल्याण
आश्रम सक्षम हैं। क्योंकि देश के छह सौ जिले में से सवा तीन सौ जिलों में आदिवासी कल्याण आश्रम स्वास्थय , शिक्षा,आदिवासी खेल, संस्कृति पर १९५२ से काम कर रहा है। तो पहली बार संघ का नजरिया आदिवासी बहुल इलाकों में ही ग्रामीण भारत में भी नजर आयेगा। अधिकतर मंत्रालयों के कामकाज को लेकर अब यह बहस बहुत छुपी हुई नहीं है कि मंत्री और नौकरशाह के जरीये प्रधानमंत्री को क्या काम कराना है और संघ परिवार कैसे हर काम को अंजाम में कितनी शिरकत करेगा। असल सवाल यह है कि भारत को देखने का नजरिया युवा ,शहरी और उपभोक्ता समाज के नजरिये से होगा या ग्रामीण और पारंपरिक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजते हुये आर्थिक स्वावलंबन के नजरिये से । क्योंकि दोनो रास्ते दो अलग अलग मॉडल हैं। जैसे उमा भारती चाहती हैं गंगा को स्वच्छ करने के लिये आंदोलन हों और मेधा पाटकर चाहती हैं कि नर्मदा बांध की उंचाई रोकने के लिये आंदोलन हो। सरकार चाहती है नदिया बची भी रहें और नदियों को दोहन भी करे। दोनो हालात विकास के किसी एक मॉडल का हिस्सा हो नहीं सकते। जैसे गंगा पर बांध भी बने और गंगा अविरल भी बहे। यह संभव नहीं है । जैसे शिक्षा सामाजिक मूल्यों की भी हो और युवा पीढी विकास की चकाचौंध में उपभोक्ता भी बने रहें। जैसे समाज लोभी भी रहे और पद मिलते ही लोभ छोड़ भी दें। तो फिर प्रधानमंत्री मोदी किस नाव पर सवार हैं। या फिर दो नाव पर सवार हैं। एक नाव संघ परिवार के सामाजिक शुद्दिकरण की है और दूसरी गुजारात मॉडल के मुनाफाकरण की। वैसे यह खेल प्रिंसिपल सेक्रेटरी के सामानांतर एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी की नियुक्ती से भी समझा जा सकता है । और कद्दावरों को मंत्री बनाकर क्लर्की करवाने से भी। क्योंकि इस दौर की रवायत यही है।

3 comments:

Unknown said...

Prasun ji pranaam!
Baat darasal ye hai ki desh mein rajniti ka wo khel log barso se dekhte aur sunte aa rahe hai ki ab garibi door hogi berojgari door hogi law and order kanoon vyavastha layege. Darasal ye bolne sunne mein accha lagta hai practical nahi hai. Brashtachar desh ki koi aisi jagah nahi hai jaha na ho.to phir is mahan desh mein kisi ek ko ram nahi balki har ek nagrik ko ram banna padega sirf baato se kaam chalne wala hai nahi.kuch karke bhi batana hoga.
Dhanyawaad!

Anonymous said...

आप जनाब कौन सी दुनियां में जीते हो पता नहीं। संघ का मॉडल है आधुनिकीकरण लेकिन बगैर पाश्चत्य करण। कभी उन लोगों से मिलो जो संघ की विचारधारा के हैं, अमेरिका में रहते हैं लेकिन दिल्ली-मुंबई वालों से ज्यादा भारतीय हैं। और भाई अगर कोई कंपनी मुनाफा न बनाये तो करे क्या?? आप ही सुझा दो। जितना गाँव और गरीब का विकास ज़रूरी है, उतना ही उद्योग धंधो का भी। नहीं तो आपने तो वामपंथियों का भी शासन देखा होगा बंगाल में, कितना उद्योगों का विकास हुआ और कितना गरीबों का भला हुआ? जरा हिसाब लगा लो। अगर थोडा भी अर्थशास्त्र जानते हो तो मालूम होगा की कंपनी के मुनाफे से अगर प्रति व्यक्ति आय बढती है तो उसका असर सारे समाज पर होता है, न की सिर्फ उद्योगपतियों के बैंक बैलेंस पर। आप ये वामपंथी विचारधारा छोड़ दो क्योंकि वामपंथ का ढिंढोरा पीटने वाले चीन और रूस भी इसको त्याग चुके हैं, लेकिन दुर्भाग्य से भारत के वामपंथी विदेशी पैसे से पोषित हो कर भारत के विकास का ही बेडा गर्क करने में लगे हुए हैं। एक उदहारण मेधा पाटकर का तो आपने दे ही दिया, और भी कई हैं जो टोपी लगाकर कभी दिल्ली तो कभी काशी में मोक्ष्य की तलाश में प्रेत की तरह भटक रहे हैं।

सतीश कुमार चौहान said...

वैसे हर घोडे पर लगाम होनी ही चाहिये