9 कोच की बुलेट ट्रेन की कीमत है 60 हजार करोड़ और 17 कोच की राजधानी एक्स प्रेस का खर्च है 75 करोड़। यानी एक बुलेट ट्रेन के बजट में 800 राजधानी एक्सप्रेस चल सकती हैं। तो फिर तेज रफ्तार किसे चाहिये और अगर चाहिये तो एक हजार करोड के रेल बजट में सिर्फ बुलेट ट्रेन के लिये बाकि 59 हजार करोड़ रुपये कहां से आयेंगे। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि मौजूदा वक्त में ट्रेक ठीक करने और नये रेलवे ट्रैक के जरिये रेलवे को विस्तार देने के लिये बीते तीस साल से सरकारों के पास 20 हजार करोड़ से लेकर 50 हजार करोड़ रुपये कभी नहीं रहे। जिसका असर है कि -हर दिन 95 लाख लोग बिना सीट मिले ही रेलगाड़ी में सफर करते हैं।
30 हजार किलोमीटर ट्रैक सुधारने की जरुरत है और 40 हजार किलोमीटर नया रेलवे ट्रैक बीते 10 बरस से एलान तले ही दबा हुआ है। यानी कोई भी रेल की हालात देख कर कह सकता है कि आजादी के बाद से ही रेल
इन्फ्रास्ट्क्चर को देश के विकास के साथ जोड़ने की दिशा में किसी ने सोचा ही नहीं। लेकिन अब प्रधाननमंत्री मोदी यह कहने से नहीं चुके कि रेल बजट गति, आधुनिकता और सुविधा के जरीये देश के विकास से जुड़ रहा है। तो पहला सवाल मोदी सरकार ने जैसे ही रेल विस्तार को देश के विकास से जोड़ने की सोची वैसे ही यह भेद भी खुल गया कि रेलवे ट्रेक में विस्तार के लिये पैसा आयेगा कहां से। और वह पैसा नहीं तो क्या इसलिये दुनिया के बाजार को लुभाने के लिये बुलेट ट्रेन से लेकर हाई स्पीड ट्रेन का जिक्र पीपीपी मॉडल या विदेशी निवेश के नजरिये की वजह से किया गया। हो जो भी देश का असल सच तो यही है कि देश का विकास एकतरफा और शहरी केन्द्रीकृत है । जिसकी वजह से ट्रेन में हर सफर करने वाले ज्यादातर लोग वो ग्रामीण और मजदूर तबका है जो गांव छोड काम की खोज में भटक रहा है। और इनकी तादाद हर दिन सवा करोड़ के करीब है। वजह भी यही है कि भारतीय रेल की तस्वीर जब भी आंकड़ों में उभरती है तो ऊपर से नीचे तक ठसाठस भरे यात्री और रफ्तार करीब 50 से 60 किलोमीटर प्रतिघंटे की।
ऐसे में हर कोई यह पूछ सकता है कि बुलेट ट्रेन की रफ्तार या हाई स्पीड की खोज भारतीय रेल की कितनी जरुरत है । या फिर ठसाठस भरे लोगों को रेलगाडी में बैठने भर के लिये सीट मुहैया कराना भारतीय रेल की पहली जरुरत है। इन दो सवालों को लेकर पहली बार राजीव गांधी उलझे थे जब उन्होंने भारत में बुलेट ट्रेन का सपना देखा था। लेकिन बुलेट ट्रेन भारत के लिये एक सपना बनकर रह गयी और ठसाठस लदे लोगों को भारत का सच मान लिया गया तो इसे सुधारने का सपना किसी ने देखा ही नहीं। लेकिन मोदी सरकार ने माना सपना सोचने के लिये पूरा करने के लिये होता है तो 60 हजार करोड़ की एक बुलेट ट्रेन मुंब्ई-अहमदाबाद के बीच अगले आम चुनाव से पहले यानी 2019 तक जरुर चल जायेगी। और यह तब हो रहा है जब अहमदाबाद से मंबुई तक के बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट 3 बरस पहले ही तैयार हो चुकी है। दरअसल 19 जुलाई 2011 में ही फ्रेंच रेल ट्रांसपोर्ट कंपनी ने 634 किलोमीटर की इस यात्रा को दो घंटे में पूरा करने की बात कही थी। और डीपीआर में 56 हजार करोड़ का बजट बताया गया था। जो उस वक्त 50 हजार करोडं में पूरा करने की संबावना जतायी गयी थी। लेकिन रेल मंत्री ने बजट में इसकी लागत 60 हजार करोड़ बतायी। दरअसल फ्रेंच कंपनी ने अहमदाबाद से मुंबई होते हुये पुणे के बीच तक बुलेट ट्रेन का सपान दिखाया था। और इसकी डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी तैयार है। इसी तर्ज पर दिसबंर 2012 में ही केरल में कसराडोह और थिरुअंनतपुरम के बीच बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट सरकार को सौपी जा चुकी है । यानी देश में बुलेट ट्रेन को लेकर जो रोमांच है उसपर अभी तक अमल में लाने का बीडा मनमोहन सरकार ने क्यों नहीं उठाया जबकि खुले बाजार और उपभोक्ताओ के लिये मनमोहन से ज्यादा कसमें किसी ने नहीं खायीं। हो जो भी भारत का सच यही है कि हर सरकार रेलवे की तमाम समस्याओं के हल के लिए कड़े क़दम उठाने से हिचकिचाती रही हैं. जिसकी वजह से एशिया के सबसे पुराने रेल इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास नहीं हो सका ।
Tuesday, July 8, 2014
एक बुलेट ट्रेन चाहिये या 800 राजधानी एक्सप्रेस ?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:00 PM
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6 comments:
पुण्य प्रसून वाजपयी जी
क्या पारखी नज़र पत्रकारिता की.........
क्या लेखन,क्या विश्लेषण...........
आपको .........आपके लेखन को सलाम।
रजनीश सैनी,देहरादून
कुछ ऐसी ही सोच चौ.चरण सिंह की थी, थोड़ा सोच को विस्तार दीजिए...याद रखिए कि आप जिस गरीब तबके की दुहाई देते हैं उसके पास आज 5,000 रुपये तक मोबाइल भी होता है। लक्ज़री की रेखा नीचे और गरीबी की रेखा ऊपर जा रही है...आपको भी दिख सकती है,बशर्ते आप देखने की इच्छा रखें...बकिया माले मुफ्त दिले बेरहम वाले तो हर मुल्क में हर परिस्थितियों में काम न करके हाय सरकार हाय सरकार करके विलाप करते हीं रहेंगे....
Revamping infraustrure doesn't provide ample scope to start sale of the Railways to private. Privatization is the central idea. I see it as the 2ND phase of loot. It will unfold itself via such designs.
क्या दिल्ली में मेट्रो ट्रेन चलाने की जगह हर आदमी को एक मोटरसाइकिल दे देनी चाहिए सरकारी खर्चे पर क्योंकि उसमें पैसा कम लगेगा?? अगर येही सोच है तो तालिबान की सोच को तो आप और भी बेहतर कहोगे जो दुनियां को 21वी सदी से मध्ययुगीन इस्लाम की तरफ ले जाना चाहती है??
Accha hai sir aam aadmi ab bullet train ki sawari to karega.
Badhai ho acche din aa gaye.
आपके इस आलेख से एक हिंदी फिल्म "नया दौर" का याद आता है. जिसमे फिल्म का नायक बस चलने का विरोध करता है और सिद्ध करता है की घोडा गाड़ी आधुनिक बस से बेहतर है. ये फिल्म भी काफी हित हुआ था. लेकिन मै अब तक समझ नहीं पाया की वाकिया घोडा गाड़ी बेहतर था की आज हम जो बस,कार, ट्रेन, जहाज आदि साधन से लम्बी दुरी जल्दी से पहुच जाते है वो. आरम्भ से जब भी बदलाव की बात आती है तो इसी तरह के तुलात्मक बाते होती है. क्या हम बदलाव से डरते है?
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