Friday, October 20, 2017

राजधर्म के रास्ते पर भटक तो नहीं गये मोदी-योगी ?

धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म । यूं तो ये कथन लोहिया का है । पर मौजूदा सियासत जिस राजधर्म पर चल पड़ी है, उसमें कह सकते है कि बीते 25 बरस की राजनीति में राम मंदिर का निर्माण ना होना धर्म की दीर्घकालीन राजनीति है । या फिर मंदिर मंदिर सीएम पीएम ही नहीं अब तो राहुल गांधी भी मस्तक पर लाल टिका लगाकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं तो राजनीति अल्पकालीन धर्म है । या फिर पहली बार भारतीय राजनीति हिन्दुत्व के चोगे तले सत्ता पाने या बनाये रखने के ऐसे दौर में पहुंच चुकी है, जहां सिर्फ मंदिर है । यानी धर्म को बांटने की नहीं धर्म को सहेजकर साथ खड़ा होकर खुद को धार्मिक बताने की जरुरत ही हिन्दुत्व है । क्योंकि पहली बार राजधर्म गिरजाधर हो या गुरुद्वारा या फिर मस्जिद पर नहीं टिका है । यानी हिन्दु मुस्लिम के बीच लकीर खिंचने की जरुरत अब नहीं है । बल्कि हिन्दू संस्कृति से कौन कितने करीब से जुड़ा है राजनीति का अल्पकालीन धर्म इसे ही परिभाषित करने पर जा टिका है । इसलिये जिस गुजरात में अटल बिहारी वाजपेयी मोदी की सत्ता को राजधर्म का पाठ पढ़ा रहे थे । उसी गुजरात में राहुल गांधी को अब मंदिर मंदिर जाना पड़ रहा है । तो क्या हिन्दुत्व की गुजरात प्रयोगशाला राजनीतिक मिजाज इतना बदल चुका है कि मंदिर ही धर्म है । मंदिर ही सियासत ।

यानी नई राजनीतिक चुनावी लड़ाई हिन्दू वोट बैंक में साफ्ट-हार्ड हिन्दुत्व के आसरे सेंध लगाने की है । या फिर जाति-संप्रदाय की राजनीति पर लगाम लगती धर्म की राजनीति को नये सिरे से परिभाषित करने की कोशिश । क्योकि यूपी ने 1992 में राममंदिर के नाम पर जिस उबाल को देखा । और हिन्दु-मुस्लिम बंट गये । और 25 बरस बाद अयोध्या में ही जब बिना राम मंदिर निर्माण दीपावली मनी तो खटास कहीं थी । बल्कि समूचे पूर्वाचल में हर्षोउल्लास था । तो क्या हिन्दुत्व की राजनीतिक प्रयोगशाला में सियासत का ये नया घोल है जहा हिन्दु मुस्लिम के बीच लकीर खिंचने से आगे हिन्दुत्व की बडी लकीर खिंच कर सियासत को मंदिर की उस चौखट पर ले आया गया है जहा सुप्रीम कोर्ट का हिन्दुत्व को लेकर 1995 की थ्योरी फिट बैठती है पर 2017 की थ्योरी फिट नहीं बैठती। क्योंकि याद कीजिये सुप्रीम कोर्ट में जब हिन्दु धर्म और राजनीति में धर्म के प्रयोग को लेकर मामला पहुंचा तो दिसबर 1995 में जस्टिस वर्मा ने कहा , ' हिंदुत्व शब्द भारत यों की जीवन शैली की ओर इंगित करता है। इसे सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं किया जा सकता। " और याद किजिये 22 बरस बाद जब एक बार पिर सुप्रीम कोर्ट में चुनाव प्रचार में धर्म के प्रयोग को लेकर मामला पहुंचा तो सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 1995 की परिभाषा से इतर कहा , "धर्म इंसान और भगवान के बीच का निजी रिश्ता है और न सिर्फ सरकार को बल्कि सरकार बनाने की समूची प्रक्रिया को भी इससे अलग रखा जाना चाहिए। " तो सुप्रीम कोर्ट ने राजसत्ता के मद्देनजर धर्म की जो व्याख्या 1995 में की कमोवेश उससे इतर 22 बरस बाद 2017 में परिभाषित किया । पर 1995 के फैसले का असर अयोध्या में बीजेपी दिखा नहीं सकी । और जनवरी 2017 के पैसले के खिलाफ पहले यूपी में तो अब गुजरात के चुनावी प्रचार में हर नजारा उभर रहा है ।

और संयोग ऐसा है कि गुरात हो या अयोध्या । दोनो जगहो पर राजधर्म का मिजाज बीते डेढ से ढाई दशक के
दौर में बदल गया । ये सवाल वाकई बडा है कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद सोनिया गांधी ने द्वारका या सोमनाथ में उसी तरह पूजा अर्चना क्यों नहीं की जैसी अब राहुल गांधी कर रहे है । 2002 के बाद पहली बार है कि काग्रेस नेता मंदिर मंदिर जा रहे हैं। और 1992 के बाद से अयोध्या में बीजेपी के किसी नेता ने दीपावली मनाने की क्यो नहीं सोची जैसे अब यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने दीपावली मनायी जबकि बीजेपी के कल्याण सिंह , रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह सीएम रहे । और कल्याण सिंह ने तो 1992 में बतौर सीएम धर्म की राजनीति की नींव रखी । तो तब कल्याण सिंह के मिजाज और अब योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक मिजाज । अंतर खासा आ गया है । लेकिन मुश्किल ये नहीं कि राजनीति बदल रही है । मुश्किल ये है कि -कल्याण सिंह हार्ड हिन्दुत्व के प्रतीक रहे । योगी आदित्यनाथ हिन्दुत्व का टोकनइज्म यानी प्रतिकात्मक हिन्दुत्व कर रहे है । और समझना ये भी होगा कि पीएम बनने के साढे तीन बरस बाद भी पीएम मोदी अयोध्या नहीं गये । पर सीएम बनने के छह महीने पुरे होते होते योगी अयोध्या में दीपावली मना आये । यानी एक तरफ राहुल गांधी भी मंदिर मंदिर घूम कर साफ्ट हिन्दुत्व को दिखा रहे हैं। और दूसरी तरफ केदारनाथ जाकर पीएम मोदी तो अयोध्या में योगी हिन्दुत्व का टोकनइज्म कर रहे है । तो कौन सी राजनीति किसके लिये फायदेमंद या घाटे का सौदा समझना ये भी जरुरी है । क्योकि जनता सत्ता से परिणाम चाहती है। और गुजरात से लेकर 2019 तक के आम चुनाव के दौर में अगर कांग्रेस या कहे राहुल गांधी भी टोकनइज्म के हिन्दुत्व को पकड चुके है । तो मुश्किल बीजेपी के सामने कितनी गहरी होगी ये इससे भी समझा जा सकता है कि योगी का हिन्दुत्व और मोदी का विकास ही आपस में टकरायेगा । क्योंकि संयोग से दोनों का रास्ता टोकनइज्म का है । और गुजरात में बीजेपी के सामने उलझन यही है कि गुजरात माडल का टोकनइज्म टूट रहा है । औोर हिन्दुत्व के टोकनइज्म की सत्ता अभी बरकरार है ।

2 comments:

राष्ट्रीय कवच said...

कथन सही सही हैं आपका ।

Kuldeep patel said...

बहुत शानदार सर आप जेसे पत्रकारों की बहुत जरूरत है इस देश को सर तब जा कर सिस्टम मैं कुछ सुधार आये तो आये वरना दलाल पत्रकार के माध्यम् से तो यह देश बिकने मैं टाइम नही लगेगा सर।