जो 60 साल में नहीं हुआ वह 60 महीने में होगा। कुछ इसी उम्मीद के आसरे मई 2014 की शुरुआत हुई थी। और 40 महीने बीतने के बाद अक्टूबर 2017 में राहुल गांधी गुजरात को जब चुनावी तौर पर नाप रहे हैं तो अंदाज वही है जो 2013-14 में मोदी का था। तो क्या इसी उम्मीद के आसरे गुजरात में दिसंबर 2017 की शुरुआत होगी, जैसे 2014 मई में मोदी सरकार की शुरुआत हुई थी। तो फिर भारत कितना बदल चुका है। बदल रहा है या अब न्यू इंडिया के नारे तले युवा भारत स्वर्णिम भविष्य देख रहा है। यानी हर चुनावी दौर में सत्ता के खिलाफ विपक्ष का नारा चाहे अनचाहे फैज की नज्म याद करा ही देता है ..सब ताज उछाले जाएंगे...सब तख्त गिराए जाएंगे..हम देखेंगे। तो क्या विरोध और विद्रोह की ये अवाज चुनाव के वक्त अच्छी लगती है। क्योंकि सत्ता से उम्मीद खत्म होती है तो विपक्ष जनता बनकर सत्ता पर काबिज होने की मश्क्कत करती है। और चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र का राग बाखूबी जी लेती है। तो क्या चुनाव सत्ता-सियासत -राजनीति से खत्म होती जनता की उम्मीदों को बरकरार रखने का एक तरीका मात्र है। संसद से भरोसा ना डिगे। लोकतंत्र काराग बरकरार रहे। ये सारे सवाल इसलिये क्योकि श्रम व रोजगार मंत्रालय की 2016 की रिपोर्ट कहती है देश में 4,85,00,000 युवा बेरोजगार हैं। बेरोजगारी दर 12.90 फिसदी हो चुकी है। देश में सिर्फ 2,96,50,000 लोगों के पास रोजगार है। 9,26,76,000 किसान परिवारों की आय देश की औसत आय से आधी से भी कम है। 11,90,98.000 मजदूर परिवारों की आय किसानो की औसत आय के आधे से कम है। यानी कौन सा भारत किस चुनावी उम्मीद और आस के साथ बनाया जा रहा है। ये सवाल हर चुनाव को जीने के बाद देश के सामने कहीं ज्यादा बड़ा क्यों हो जाता है। जबकि चुनावी लोकतंत्र का अनूठा सच तो यही है कि हर पांच बरस में देश और गरीब होता है। नेता रईस होते हैं। चुनावी खर्च बढ़ते चले जाता है। राजनीतिक पार्टियों का खजाना भरता चला जाता है।
यानी दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोगों के देश में चुनाव पर सबसे ज्यादा रईसी के साथ खर्च कैसे किया जाता है और देश ही राजनीतिक सत्ता की हथेलियों पर नाचता हुआ दिखायी क्यों देता है जरा इसे चुनाव आयोग के अपने आंकडों से ही समझ लें। देश के पहले आम चुनाव 1951-52 में 10 करोड 45 लाख रुपये खर्च हुये। आर्थिक सुधार से एन पहले 1991 के आम चुनाव में 3 अरब 59 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुये। 2004 के चुनाव में 13 अरब 20 करोड 55 लाख रुपयेखर्च हुये। और पिछले चुनाव यानी 2014 के चुनाव में 34 अरब 26 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुये। यानी ये कल्पना के परे है कि देश की इक्नामी में जितना उछाल आया। लोगों की आय में जितनी बढोतरी हुई। मजदूर-किसान को दो जून की रोटी के लिये जितना मिला, उससे हजार से कई लाख गुना ज्यादा की बढोतरी देश में चुनावी लोकतंत्र को जीने में खर्च हो गई। और इस तंत्र को जीने के लिये अब हिमाचल और गुजरात तैयार हैं। जहां चुनाव कराने में जो भी खर्चा होगा उससे विकास की कितनी झडी लग जाती इस दिशा में ना भी सोचे तो भी 19 करोड भूखे नागरिको का पेट तो भरा ही जा सकता है । क्योंकि सिर्फ गुजरात में ही चुनाव कराने में ढाई अरब रुपये से ज्यादा देश के खर्च होगें । और चुनाव प्रचार में जब हर उम्मीदवार को 28 लाख रुपये खर्च करने इजाजत है तो दो अरब से ज्यादा सिर्फ उम्मीदवार अपने प्रचार में खपा देगें । क्योकि गुजरात की प्रति सीट पर अगर चार उम्मीदवारो के 28-28 लाख खर्च को जोडकर अगर चार उम्मीदवारो को ही माने तो एक करोड 12 लाख रुपये हो जाते है । और 182 सीट का मतलब है 2 अरब तीन करोड से ज्यादा ।
तो क्या वाकई चुनावी तंत्र इतना मजबूत हो चुका है कि वह लोकतंत्र पर हावी है या फिर लोकतंत्र के असल मिजाज को खारिज कर चुनाव को ही जानबूझ कर लोकतंत्र करार दिया गया है। क्योंकि सत्ता परिवर्तन की ताकत को ही लोकतंत्र मान लिया गया है। और बराबरी के वोट को ही गैर बराबरी की रोटी से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मान लिया गया है ।
Friday, October 27, 2017
गैर बराबरी की रोटी पर बराबरी का वोट ही है लोकतंत्र ?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:49 PM
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3 comments:
गैर बराबरी की रोटी पर बराबरी का वोट ही है लोकतंत्र ? बेहद सटीक और मार्मिक आंकड़ों से आपने अवगत कराया है। इस देश का दुर्भाग्य है चुनावों पर अरबों रुपय खर्च कर दिए जाते है और किसी व्यक्ति को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पाती है।
गैर बराबरी की रोटी पर बराबरी का वोट ही है लोकतंत्र ? बेहद सटीक और मार्मिक आंकड़ों से आपने अवगत कराया है। इस देश का दुर्भाग्य है चुनावों पर अरबों रुपय खर्च कर दिए जाते है और किसी व्यक्ति को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पाती है।
बहुत जरूरी बात याद दिला दी प्रसून जी आपने। भूख और रोटी के सवाल अक्सर ड्रामे की चकाचौंध में पीछे रह जाते हैं।
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