Monday, November 12, 2018

पूंजी निवेश के जरीय उपनिवेश बनाने की सोच का प्रतिक है श्रीलंका का संकट



पडौसी देशो के कतार में पहली बार श्रीलंका में राजनीतिक संकट के पीछे जिस तरह चीन के विस्तार को देखा जा रहा है , वह एक नये संकट की आहट भी है और संकेत भी कि अब वाकई युद्द विश्व बाजार पर कब्जा करने के लिये पूंजी के जरीये होगें ना कि हथियारो के जरीये । ये सवाल इसलिये क्योकि श्रीलंका के ऱाष्ट्रपति सिरीसेना ने जिस तरह प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिघें को बर्खास्त कर पूर्व राष्ट्रपति महिन्दा राजपक्षे को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया । जबकि रानिल विक्रमसिंघे के पास राजपक्षे से ज्यादा सीट है । और उसके बाद के घटनाक्रम में संसद को ही भंग कर नये चुनाव के एलान की तरफ बढना पडा । इन हालातो को सिर्फ श्रीलंका के राजनीतिक धटनाक्रम के तहत देखना अब भूल होगी । क्योकि राष्ट्रपति सिरीसेना और राजपक्षे दोनो ही चीन के प्रोजेक्ट के लकितने हिमायती है ये किसी से छुपा नहीं है । और जिसतरह चीन ने श्रीलंका में पूंजी के जरीये अपना विस्तार किया वह भारत के लिये नये संकट की आहट इसलिये है क्योकि दुनिया एक बार फिर उस उपनिवेशी सोच के दायरे में लौट रही है जिसके लिये पहला विश्वयुद्द हुआ । ये लकीर बेहद महीन है लेकिन आधुनिक वक्त में या कहे इक्ससवी सदी में उपनिवेश बनाने के लिये किसी भी देश को कैसे कर्ज तले दबाया जाता है और पिर मनमानी की जाती है ये एक के बाद एक कई घटनाओ से साफ से होने लगा है । और भारत की विदेश नीति इस दौड में ना सिर्फ चुकी है बल्कि चीन का सामना करने में इतने मुश्किल हालात भी पैदा हुये है कि एक वक्त बिना किसी एंजेडे के सबंध ठीक करने भर के लिये प्रधानमंत्री मोदी दो दिन की चीन यात्रा पर चले जाते है ।
दरअसल बात श्रीलंका से ही शुरु करें तो भारत और चीन दोनो ही श्रीलंका में भारी पूंजी निवेश की दौड लगा रहे है । और राजनीतिक उठापटक की स्थिति श्रीलंका में तभी गहराती है जब कोलबो पोर्ट को लेकर कैबिनेट की बैठक में भारत -जापान के साथ साझा वेंचर को खारिज कर चीन को परियोजना देने की बात होती है । तब श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे इसका विरोध करते है । और उसके बाद राष्ट्रपति सिरीसेना 26 अक्टूबर को प्रधानमंत्री रानिल को ही बर्खास्त कर चीन के हिमायती रहे राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना देते है । और मौजूदा सच तो यही है कि कोलबो पोर्ट ही नहीं बल्कि कोलबो में करीब डेढ बिलियन डालर का निवेश चीन होटल , जहाज , मोटर रेसिंग ट्रैक तक बना रहा है ।  इसके मतलब मायने दो तरह से समझे जा सकते है । पहला, इससे पहले श्रीलंका चीन के सरकारी बैको का कर्ज चुका नहीं पाया तो उसे हम्बनटोटा बंदरगाह सौ बरस के लिये चीन के हवाले करना पडा और अब कोलबो पोर्ट भी अगर उस दिसा में जा रहा है तो दूसरे हालात सामरिक संकट के है । क्योकि भारत के लिये चीन उस संकट की तरह है जहा वह अपने मिलिट्री बेस का विस्तार पडौसी देशो में कर रहा है । कोलबों तक अगर चीन पहुंचता है तो भारत के लिये संकट कई स्तर पर होगा । यानी श्रीलंका के राजनीतिक संकट को सिर्फ श्रीलंका के दायरे में देखना अब मूर्खतापूर्ण ही होगा । ठीक वैसे ही जैसे चीन मालदीव में घुस चुका है । नेपाल में चीन हिमालय तक सडक के जरीये दस्तक देने को तैयार हो रहा है । भूटान में नई वाम सोच वाली सत्ता के साथ निकटता के जरीये डोकलाम की जमीन के बदले दूसरी जमीन देने पर सहमति बनाने की दिशा में काम कर रहा है । और बांगलादेश जिस तरह हथियारो को लेकर चीन पर निर्भर है । करीब 31 अरब डालर लगाकर बांग्लादेश की दर्जन भल परियोजनाओ पर काम कर रहा है । हालाकि पहली बार बांग्लादेश ने पद्मा नदी पर बनने वाले 20 किलोमिटर लंबे पुल समेत कई अन्य परियोजनाओ को लेकर 2015 में हुये चीन के साथ समझौते से अब पांव पीछे खिंचे है । लेकिन जिस तरह बांग्लादेश ने ढाका स्टाक एक्सचेंस को 11.99 करोड डालर में चीन को बेच दिया । और इसी के सामानातंर पाकिस्तान की इक्नामी भी अब चीन ही संभाले हुये है । तो क्या पाकिस्तन चीन का नया उपनिवेश है । और नये हालात में क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है चीन की विस्तारवादी नीति पूंजी निवेश कर कई देशो को उपनिवेश बनाने की ही दिशा में जा रही है । 
दरअसल ये पूरी प्रक्रिया भारत के लिये खतरनाक है । लेकिन समझना ये भी होगा कि इसी दौर में भारत की विदेश नीति ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को खत्म कर दिया । पडौसियो के साथ तालमेल बनाये रखने के लिये सार्क मंच भी ठप कर दिया । यानी जिस गुटनिरपेक्ष मंच के जरीये भारत दुनिया के ताकतवर देशो के सामने खडा हो सकता था । अपनी वैदेशिक सौदेबाजी के दायरे को विस्तार दे सकता था उसे अमेरिकी राह पर चलते हुये खत्म कर गया । तो क्या भारत की विदेश नीति आर्थिक हितो को पाने के लिये अमेरिकी उपनिवेश बनेन की दिशा में जाने लगी है । ये सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है कि आज भारत की इक्नामी तो खासी बडी है । लेकिन अमेरिका तय करता है कि भारत ईरान से तेल ले या नहीं । या फिर रुस के साथ हथियारो के समझौते पर उस विरोध भारत के लिये महत्वपूर्ण हो जाता है । जबकि एक सच तो ये भी है कि इंदिरा गांधी के दौर में भारत की अर्थव्यवस्था आज सरीखे मजबूत भी नहीं थी । लेकिन तब इंदिरा गांधी अमेरिका से भी टकरा रही थी । वाजपेयी के दौर में भी परमाणु परिक्षण अमेरिका को दरकिनार करने की सोच के साथ हुये ।
तो आखिरी सवाल ये खडा हो सकता है कि अब रास्ता क्या है । दरअसल भारत का संकट भी राजनीतिक सत्ता को पाने या गंवाने पर जिस तरह जा टिका है उससे सारी नीतिया किस तरह प्रभावित हो रही है ये सभी के सामने है । क्योकि हम ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र में विदेश पूंजी और विदेशी ताकतो पर निर्भर होते जा रहे है । ताजा मिसाल रिजर्व बैक की है । जो देश के आर्थिक संकट का एक नायाब चेहरा है । चुनावी बरस होने की वजह से सत्ता चाहती है रिजर्व बैक 3 लाख करोड रिजर्व राशी मार्केट में झोके । यानी इतनी बडी राशी के बाजार में आने से तीन असर साफ पडेगें । पहला , डालर और मंहगा होगा । दूसरा मंहगाई बढगी । तीसरा पेट्रोल की किमते और बढेगी । यानी सत्ता में बने रहने की तिकडम अगर देश की इक्नामी से खिलवाड करें तो ये सवाल आने वाले वक्त में किसी भी सत्ता से पूछा जा सकता है कि विदेशी निवेश के जरीये राजनीतिक सत्ता जब उपनिवेश बन जाती है तो फिर देश को उपनिवेश बनाने से कोई कैसे रोकेगा । 

8 comments:

VikasValecha said...

Aap ki awaz sunne ko taras gaya hai..Sir..
From vikas valecha Kanker...

Ehtisham Ahmad said...

aAp aise he kaam karte raheyee etihas apko hamesha mahan rakhegi

Charanjit Singh said...

Join kr lijiye sir koi bda news channel kuch time ke liye,chunavi samaye aa gya hai, desh kis hatho mein jaye uske liye desh ko jagruk kr dijiye. Chunavi time pr to news channel join krna chahiye sir.

कुमार अभिषेक said...

Sir aap negative kr देते हो हम भी थोड़ी कम है जिद पर आ जाए तो कुछ भी कर जाए.. ❤

Unknown said...

बहुशंख्य जनता को इन सब बातों की बारीकियाँ और दूरगामी परिणाम की समझ ही नहीं,स्कूल कॉलेज में सिक्षक ही नहीं क्युकी आज पार्टयों के प्रवक्ता ही sc/st एक्ट, राम मन्दिर, हिन्दू मुस्लिम और गाय भैस पढ़ाने बैठे हैं, रही सही कसर दो कौड़ी के मीडिया हाउस और उसके थूकचटते पत्रकार पूरा कर दे रहे हैं.महोदाय आपको धन्यबाद.

Anita said...

महत्वपूर्ण जानकारी देती पोस्ट..किन्तु भारत के पास जो आंतरिक शक्ति है वह विश्व में किसी भी देश के पास नहीं..

Unknown said...

Very informative article Bajpai Sir.
Missing Our Favourite Show 'DASTAK'.

आर्य मुसाफिर said...

वाजपेयी जी नमस्ते। हमारे पड़ोसी देशों में सत्ता के संकट का कारण है- हमारे देश में गणतन्त्र । गणतन्त्र का अर्थ है- गनतन्त्र = बंदूकराज, गुट्टतन्त्र, गुण्डातन्त्र = गुन्डाराज, पार्टीतन्त्र = दलतन्त्र, परिवारतन्त्र = वंशपरम्परातन्त्र, गठबन्धन सरकार = दल-दलतन्त्र = कीचड़तन्त्र, धर्मनिरपेक्षतन्त्र = अधर्मतन्त्र, आरक्षणतन्त्र = अन्यायतन्त्र, (अवैध) पूंजीतन्त्र = (अवैध) उद्योगतन्त्र, (अवैध) व्यापारतन्त्र, (अवैध) व्यवसायतन्त्र अर्थात् तस्करतन्त्र, माफियातन्त्र; फिक्सतन्त्र, जुमलातन्त्र, प्रचारतन्त्र, अफवाहतन्त्र, झूठतन्त्र, लूटतन्त्र, वोटबैंकतन्त्र, भीड़तन्त्र, भेड़तन्त्र, भाड़ातन्त्र, गोहत्यातन्त्र, घोटालातन्त्र, दंगातन्त्र, जड़पूजातन्त्र (मूर्ति और कब्र पूजा को प्रोत्साहित करने वाला शासन) आदि। इस गणतन्त्र में ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तक सभी नेता पूर्णतः अयोग्य होते हैं। निर्दलीय हो या किसी पार्टी का - जो व्यक्ति नामांकन, जमानत राशि और चुनाव प्रचार द्वारा नेता बनेगा उसका बेईमान, कामचोर, पक्षपाती, विश्वासघाती, दलबदलू, अविद्वान्, असभ्य, अशिष्ट, अहंकारी, अपराधी, जड़पूजक (मूर्ति और कब्र पूजा करने वाला) तथा देशद्रोही होना सुनिश्चित है। अयोग्य नेताओ के कारण देश निरन्तर पतन की ओर जा रहा है जब देश की आन्तरिक नीतियां ही खराब है तो विदेश नीति कैसे अच्छी हो सकती है। सभी राजनैतिक दल देश को बर्बाद कर रहे हैं । श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान, बंगलादश, नेपाल आदि देशों में भी गणतन्त्र है। इसलिये वहां भी वही सब समस्याएं हैं जो हमारे देश में है। हमारे देश में सत्तर वर्ष से गणतन्त्र है। गणतन्त्र में देश की सभी राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक, भौगोलिक, भाषायी, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है ।
लगभग छः हजार वर्ष से हमारे देश में लोकतन्त्र / प्रजातन्त्र / जनतन्त्र / जनता का शासन नहीं है।