Thursday, November 8, 2018

स्वंयसेवक की किस्सागोई में बीजेपी का भविष्य अंधकारमय तो नहीं.......


कह नहीं सकता देश बीस बरस पीछे चला गया बीजेपी । क्यों ? क्योकि समझ दिशाहीन है । झटके में चाय की चुस्कियो के बीच संघ को बरसो बरस से नाप रहे और खुद संवयसेवक से सियासी चालो में माहिर तो नहीं कहे लेकिन समझदार शख्स की जुबां से जब ये बात नितली तो मै भी चौक गया । दीपावली का दिन और दोपहर में ग्रीन टी । बात तो इसी से शुरु हुई कि स्वयसेवको को भी ग्रीन टी पंसद आती है जबकि दिल्ली का  झंडेवालान हो या नागपुर का रेशमबाग । कुल्हड में चाय तो दूध के साथ उबाल कर कडक ही मिलती है । फिर जायका कैसे बदल रहा है । और शायद जायके बदलने की टिप्पणी ने ही वरिष्ट संवयसेवक को अंदर से हिला दिया और वह एकाएक बोल पडे कल तक फैजाबाद में अयोध्या थी । अब अयोध्या में फैजाबाद होगा । पर पता नहीं योगी जी फैजाबाद को कितना जानते है । दरअसल मुगलिया सल्तनत के वक्त से ही फैजाबाद नवाबो के लिये बाजार के तौर पर स्थापित किया गया । और बीते ढाई सौ बरस से फैजाबाद में अयोध्या गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतिक बना रहा । लेकिन नया सवाल है कि फैजाबाद के भीतर अयोध्या की मौजूदगी अपनी संस्कृति-सम्यता को समेटे रही । लेकिन अब अयोध्या में जब फैजाबाद होगा तो संस्कृतियो की विवधता को कैसे संभालेगा या बैलेंस होगा ।
क्यों अयोध्या अगर फैजाबाद में ना होता तो फिर मौजूदा वक्त में फैजाबाद की पहचान भी क्या होती । या कहे कौन पूछता फैजाबाद को ।
ठीक कह रहे है आप । पर इसका एक मतलब तो यह भी देश के सामाजिक-आर्थिक हालातो पर दौर करने की स्थिति में सत्ता तभी आती है जब वहा कोई ऐसा मुद्दा हो जिसके आसरे सियासत साधी जा सकती है ।
कह सकते है ।
कह नहीं सकते । बल्कि यूपी में ही घूम घूम कर देख लिजिये । चलिये बनारस ही देख लिजिये । वहा रहने वाले लोगो के हालात बेहतर हो क्या इस पर कभी किसी ने गौर किया । जबकि इस सच को हर कोई जानता है कि संकटमोचन मंदिर के बाहर फूल-माला , रुद्दाक्ष तक की दुकान को मुस्लिम चलाते है । यही हाला अयोध्या का भी है ।
पर नाम बदलने से अंतर क्या होगा । जो है वह रहेगा सिर्फ नाम ही तो बदला है ।
मान्यवर , आप चाय भी पिजिये ....आपने ऐसा गंभीर मुद्दा छेड दिया है कि कई कप चाय हम पी जाये तो भी नतीजे पर नहीं पहुंचेगे ।
नतीजा ना सही लेकिन आप खुद क्या सोचते है ये तो आपको कहना ही चाहिये ।
कह तो रहा है । क्योकि मै संघ के विस्तार की जगह संघ को सिमटते हुये देख रहा है । और मेरी चिन्ता यही है कि रहने वाले लोग ही अगर दशहत में रहेगें तो कल कोई दुसरी सत्ता होगी तो वह हमें डरायेगी । और फिर इसी तरह सियासत तो बांट कर चल पडेगी लेकिन संघ की नींव बांटने वाली तो कभी नहीं रही ।
तो क्या आप योगी जी को दोषी मानते है ।
मै योगी या मोदी की बात नहीं कर रहा हूं । मै सिर्फ हालातो को जिक्र कर आपका ध्यान उस दिशा में ले जाना चाह रहा हूं , जहा आप ये समझ पाये कि जब देश को कोई दृश्टि नहीं होगी तो उसके परिणाम ऐसे ही निकलेगे , जैसे आज निकल रहे है ।
तो क्या मौजूदा वक्त अतित के फैसलो का परिणाम है ।
अतित मत कहिये...अतित से लगता है जैसे हम इतिहा के पन्नो को खंगाल रहे है । जरा समझने की कोशिश किजिये । आडवाणी की रथयात्रा से क्या निकला ।
मुझे तो लगता है रथयात्रा ने बीजेपी को राजनीतिक तौर पर स्थापित कर दिया । और उसके बाद संघ के स्वयसेवक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बन गये । और वाजपेयी ने राजनीति को इस तरह मथा कि अमरजेन्सी के बाद जो जनता पार्टी आधे दर्जन राजनीतिक दलो से निकले नेताओ को ना जोड सकी , वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी दो दर्जन से ज्यादा दलो को साथ लेकर काग्रेस का विकल्प बनने लगी ।
हां, कुछ गलत नहीं कहा आपने । सही कह रहे है लेकिन इसी लकीर को हमारी दृश्टी से भी समझे कि रथयात्रा संघ की नहीं राजनीति की जरुरत थी । संघ तो धर्म के नाम पर समाज को बांटना ही नहीं  चाहता था । फिर समाज बंटा । वोट बंटे । और हुआ क्या । 1992 के बाद चुनाव में बीजेपी को कहा कहा सत्ता मिल गई । 1996 में सत्ता मिली भी तो सिर्फ तेरह दिन के लिये । और 1998 में भी लडखडा रही थी । वो तो करगिल ने राहत दी । पर ध्यान दिजिये रथयात्रा बीजेपी को पीछे ले गई । वाजपेयी जब सत्ता के बाहर थे और बीजेपी को सत्ता में लाने के लिये कार्य कर रहे थे तब उनके बोल और सत्ता चलाते समय उनके बोल अलग अलग क्यो हो गया । आपने ये कभी सोचा ।
हां, वाजपेयी सत्ता बरकरार रखना चाहते थे तो संघ के एंजेडे को उन्होने सत्ता के लिये त्याग दिया ।
वाह ...तब तो नरेन्द्र मोदी के पास तो पांच बरस के लिये बहुमत के साथ सत्ता है । फिर उन्होने संघ के उन्ही एंजेडे पर आंख क्यो मूंद ली । जिन मुद्दो को आप संघ का एंजेडा कह रहे है ।
ये सवाल तो है । लेकिन मोदी के दौर में सत्ता समीकरण उन्हे दूसरी वजहो से इजाजत नहीं देते है कि वह संघ के एंजेडे को लागू कराने में लग जाये ।
तब तो हर काल में आप सत्ता की वजहो को ही परखेगें । और फिर एंजेडा क्या मायना रखता है । वैसे ये आपके लिये एंजेडा होगा पर हमारे लिये जनमानस से जुडा मुद्दा होता है । और वोटर भी जनमानस ही होता है ।
फिर संघ और सत्ता में अंतर क्या है । दोनो ही जनमानस को ध्यान में रखते है ।
देखिये आप स्थिति को उलझाइये मत । अपने मत पर स्पष्ट रहिये । क्योकि बात ये हो रही है कि पूर्व की परिस्थितयो ने ही मौदूदा वक्त को परिणाम के कटघरे में ला खडा कर दिया है । और इसे कौन कैसे संभालेगा ये सबसे बडा सवाल बनता जा रहा है ।
और बातचीत के बीच में ही दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कालेज के प्रिसीपल आ गये तो उन्हे भी विषय दिलचस्प लगने लगा और झटके में ये कहते हुये बीच में कूद पडे कि कुछ बात डीयू और जेएनयू की भी करनी चाहिये ।
क्यों ? झटके में हम दोनो ही बोल पडे ?
विशलेषण आपलोग किजिये लेकिन मेरी बातो पर गौर किजिये । जेएनयू और डीयू दोनो में मौजूदा सत्ता ने अपनी विचारधारा के लिहाज से वाइस चासलंर नियुक्त किया । जेएनयू के वाइस चासलर ने तो जेएनयू का ट्रासंफारमेशन बीजेपी के अनुकुल कर दिया । पर डीयू के वाइसचासलर ने कुछ भी नहीं किया । और डीयू का आलम तो ये है कि बीते तीन बरस से सबकुछ जस का तस यानी स्टैंडसिट्ल है । यहा तक की कोई नियुक्ति नहीं । केन्द्र से आया रुपया भी लौटा देते है । यानी एक तरफ जो चाहते थे कि वाइसचांसलर त्यागी जी सत्तानुकुल कुछ निर्णय लें । वह भी उन्होने नहीं लिया ।
वजह ? 
सवाल वजह का नहीं । आपलोग जिन बातो को कह रहे है कि कैसे धीरे धीरे हालात और खराब हो रहे है ...मै उसे माइक्रो लेवल पर बताना चाह रहा हूं । कि डीयू इतना बडा है और उसमें विचारो का समावेश शिक्षको के स्तर पर इतना व्यापक है कि सत्ता के करीबियो के अंतरेविरोध ही किसी भी निर्णय पर आपस में ज्यादा तीखे स्तर पर टकराते है । यानी आपकी बहस उसी दिशा में जा रही है कि सत्ता के  अंतर्विरोध कोई काम होने नहीं देते । और होते है तो वह सत्ता के शीर्ष का निर्णय होता है । और उसी निर्णय के अक्स तले सत्ता बरकरार रहती है या फिर चली जाती है । और उसी मुताबिक उससे जुडे सामाजिक राजनीतिक संगठनो का विश्लेषण होता है ।
नहीं मेरा ये कहना नहीं है । मै बताना चाह रहा हूं कि वाजपेयी ने अपने सत्ता काल में बीजेपी को काग्रेस की तर्ज पर एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर गढा । जहा काग्रेस की जगह बीजेपी लेने को तैयार हो रही थी । किसी भी राजनीतिक दल को तब बीजेपी के साथ आने में परहेज नहीं था । ये समझे की हर नेता वाजपेयी के साथ खडा नजर आता था । और याद किजिये ये हालात देश को दो पार्टी की दिसा में ले जा रहे थे । यानी एक तरफ काग्रेस और दूसी तरफ बीजेपी ।
पर अंडगा तो संघ ने ही डाला ।
देखिये कुछ हालातो को समझे । संघ का मतलब सिर्फ सरसंघचालक नहीं होता . जैसे बीजेपी का मतलब सिर्फ बीजेपी का अध्यक्ष नहीं होता । पर धीरे धीरे नेतृत्व को ही पार्टी या संगठन मान लिया गया तो उसके परिणाम तो सामने आयेगें ही । मान लिजिये वाजपेयी के दौर में संघ नेतडत्व की तरफ से कोई गलती हुई । तो क्या उसे बाद में संघ ने सुधारा नहीं । पिछले दिने सरसंघचालक मोहन भागवत ने तो गुरुगोलवरकर तक की थ्योरी को उस वक्त की जरुरत बता दिया ।
तो आप ये कह रहे है कि मोहन भागवत ने संघ के कंघे पर पडे पुराने बस्ते को उतार दिया । जिसेस बिना बैग एंड बैगेज वह किसी भी रास्ते बिना जवाब दिये जा सकता है ।
आप ऐसा भी सोच सकते है । लेकिन जो बात डीयू-जेएनयू के संदर्भ से निकली उसे भी समझे । जेएनयू हमेशा से वाम धारा के साथ रहा । लेकिन उसके साथ रिसर्च विंग भी था । और अब राइट सोच है लेकिन रिसर्च गायब है । तो आजादी के नारो से जेएनयू को गढना या ढहना शुर हो गया । यानी थिकिंग प्रोसेस गायब है ।
यही हालात तो राजनीति में भी है ।
हां , अब आप पटरी पर लौटे । दरअसल नया संकट क्या है । थ्योरी बहुत सारी है लेकिन रोई रिसर्च नही है । जैसे वाजपेयी के दौर में काग्रेस एक विचार के तौर पर स्थापित था तो उसे वाजपेयी ने खारिज नहीं किया बल्कि उसके सामानातांर बीजेपी की सत्ता को उसी से निकले एलीमेंट को जोड कर दिखा दिया । लेकिन अब योगी जो कर रहे है या मोदी जो कर रहे है उसका कोई ओर-छोर आप पकड नहीं पायेगें । यानी दोनो पूर्ण बहुमत के साथ ताकतवर तरीके से मौजूद है । दोनो चाहे तो क्या नही कर सकते । लेकिन वाजपेयी के दौर में जो फ्रिज एलीमेंट अलग थलग पड गये थे अब के दौर में वहीं फ्रिज एलीमेंट प्रभावी हो चले है । यानी बीजेपी 2019 के बाद कितनी पीछे जायेगी ये उसके अंतर्विरोध ही तय करेगें । क्योकि अब बीजेपी की पहचान फिर वहीं 1990 वाली हो चली है । और दूसरी तरफ काग्रेस भी इस हालात को समझी है तो काग्रेस की सोच लेफ्ट होते हुये वाजपेयी के बीजेपी वाले हालात से मेल खाने लगी है । तो ऐसे में काग्रेस को पटरी पर आने के लिये अब ज्यादा मशख्कत करनी नहीं पडेगी । लेकिन बीजेपी और अगर आगे जाना है तो उसके भीतर से कौन सा नया नेतृत्व निकलेगा अब सबका ध्यान इसी पर रहेगा ।
तो क्या इसके लिये मौजूदा सत्ता ही जिम्मेदार है ।
देखिये सत्ता बडा ही वृहत शब्द है । आपको मानना होगा कि इसके लिये जिम्मेदार नेतृत्व ही होता है । और नेतृत्व नरेन्द्र मोदी के हाथ में है । जो बीजेपी को कैसे नये तरीके से गढ रहे है या गढना चाह रहे है ये समझने के लिये उनके निर्णयो या उनके पुराने करीबियो के जरीये समझा जा सकता है ।
ये करीबी क्या गुजरात के है ।
गुजरात तो नहीं कहूंगा लेकिन गुजरात के वक्त से है ये कहा जा सकता है ।  खास तौर से तब का वक्त जब गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी अमेरिका के ब्लैक लिस्ट में थे । पर एक शख्स उन्हे जापान ले जाता है । और वहीं शख्स मोदी के निशाने पर आ जाता है ।
तो पहले ग्रीन टी और बनवाता हूं ...फिर बताउगा
जारी......

8 comments:

Unknown said...

इस समय सब से बड़ा सवाल ये है कि संघ और मोदी क्या चाहते है। दोनों एक है दिशा में सोच रहे है या अलग। काफी चीज़ों पर तो लगता है संघ और मोदी दोने एक है पटरी पर चल रहे है।

Unknown said...
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Ratneshwar thakur said...

संघ मोदी और योगी कहीं जायें पर देश को रसातल में नहीं ले जायें।

Unknown said...

पूण्य भैया कमाल की बात कही संघ के आसरे भाजपा और भाजपा के आसरे संघ वाकई इस अन्यर्विरोधो के बीच कांग्रेस धोती पहन कर वाजपेयी जी वाली भाजपा के करीब पहुंच रही है -- मुस्तफा हुसैन

Unknown said...

Ek din RSS Bharat ko Le dubega samay rahte RSS ko uske धर्मांधता रोकना जरूरी है

महेश शुक्ला said...

यह तो नियति है.... एकाएक जो उड़ता है, वह गिरता जरूर है । फिर उसे उठने में वक्त लगता है देखिएगा यही होने वाला है तब पुन: पुराने बजीर याद आएंगे

Unknown said...

Prasun ji tv channel me kab se nai pari suru kar rhe hain

Unknown said...

शानदार लेख सर