नये बरस का आगाज सवालो के साथ हो रहा है । ऐसे सवाल जो अतीत को खंगाल रहे है और भविष्य का ताना-बाना अतित के साये में ही बुन रहे है । देश लूट या टूट के मझधार में आकर फंसा हुआ है । देश संसदीय राजनीतिक बिसात में मंडल-कमंडल की थ्योरी को पलटने के लिये तैयार बैठा है । देश के सामने आर्थिक चुनौतिया 1991 के आर्थिक सुधार को चुनौती देते हुये नई लकीर खिंचने को तैयार है । देश प्रधानमंत्री पद की गरिमा और ताकत को लेकर नई परिभाषा गढने को तैयार है । और बदलाव के दौर से गुजरते हिन्दुस्तान की रगो में पहली बार भविष्य को गढने के लिये अतित को ही स्वर्णिम मानना दौड रहा है । ध्यान दे तो बरस बीतते बीतते एक्सीडेंटल प्राइम मनिस्टर मनमोहन सिंह की राजनीति और अर्थशास्त्र को उस सियासत के केन्द्र खडा कर गया जो सियासत आज सर्वोच्च ताकत रखती है ।
सिलसिलेवार तरीके से 2019 में उलझते हालातो को समझे तो देश के सामने पहली सबसे बडी चुनौती भ्रष्टाचार की लूट और सामाजिक तौर पर देश की टूट के बीच से किसी को एक को चुनने की है । काग्रेसी सत्ता 2014 में इसलिये खत्म हुई क्योकि घोटालो की फेरहसित देश के सामने इस संकट को उभार रही थी कि उसका भविष्य अंधकार में है । पर 2018 के बीतते बीतते देश के सामने भ्रष्ट्रचार की लूट से कही बडी लकीर सामाजिक तौर पर देश की टूट ही चुनौती बन खडी हो गई । संविधान से नागरिक होने के अधिकार वोटर की ताकत तले इस तरह दब गये कि देश के 17 करोड मुस्लिम नागरिक की जरुरत सत्ता को है ही नहीं इसका खुला एहसास लोकतंत्र के गीत गाकर सत्ता भी कराने से नहीं चुकी । नागरिक के समान अधिकार भी वोटर की ताकत तले कैसे दब जाते है इसे 14 करोड दलित आबादी के खुल कर महसूस किया । यानी संविधान के आधार पर खडे लोकतांत्रिक देश में नागरिक शब्द गायब हो गया और वोटर शब्द हावी हो गया । 2019 में इसे कौन पाटेगा ये कोई नहीं जानता ।
2019 की दूसरी चुनौती 27 बरस पहले अपनाये गये आर्थिक सुधार के विकल्प के तौर पर राजनीतिक सत्ता पाने के लिये अर्थवयवस्था के पूरे ढांचे को ही बदलने की है । और ये चुनौती उस लोकतंत्रिक सत्ता से उभरी है जिसमें नागरिक , संविधान, और लोकतंत्र भी सत्ता बगैर महत्वहीन है । यानी किसान का संकट , मजदूर की बेबसी , महिलाओ के अधिकार , बेरोजगारी और सामाजिक टूटन सरीखे हर मुद्दे सत्ता पाने या ना गंवाने की बिसात पर इतने छोटे हो चुके है कि भविष्य का रास्ता सिर्फ सत्ता पाने से इसलिये जा जुडा है क्योकि 2018 का पाठ अलोकतांत्रिक होकर खुद को लोकतांत्रिक बताने से जा जुडा । यानी देश बचेगा तो ही मुद्दे संभलेगें । और देश बचाने की चाबी सिर्फ राजनीतिक सत्ता के पास होती है । यानी सत्ता के सामने संविधान की बिसात पर लोकतंत्र का हर पाया बेमानी है । और लोकतंत्र के हर पाये के संवैधानिक अधिकारो को बचाने के लिये राजनितक सत्ता होनी चाहिये । 2019 में देश के सामने ये चुनौती है कि लोकतंत्र के किस नैरेटिव को वह पंसद करती है । क्योकि मोनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की राह पर मोदी सत्ता है और संघ परिवार के स्वदेशी, खेती, किसानी और मजदूर की राह पर काग्रेस है । नौरेटिव साफ है काग्रेस ने मनमोहन सिंह के इक्नामी का रास्ता छोडा है लेकिन पोस्टर ब्याय मनमोहन सिंह को ही रखा है । तो दूसरी तरफ मोदी सत्ता अर्थवयवस्था के उस चक्रव्यूह में जा फंसी है जहा खजाना खाली है पर वोटरो पर लुटाने की मजबूरी है । यानी राजकोषिय घाटे को नजरअंदाज कर सत्ता को बरकरार रखने के लिये ग्रामीण भारत के लिये लुटाने की मजबूरी है ।
इस कडी में सबसे महत्वपूर्ण और आखरी चुनौती है सत्ता के लिये बनती 2019 की वह बिसात जो 2014 की तुलना में 360 डिग्री में घुम चुकी है । इसकी परते एक्सीडेटल प्राइम मनीस्टर मनमोहन सिंह से ही निकली है । मनमोहन सिंह या नरेन्द्र मोदी , दोनो दो ध्रूव की तरह राजनीतिक बिसात बता रहे है । क्योकि एक तरफ एक्सडेटल पीएम मनमोहन सिंह को लेकर उस थ्योरी का उभरना है जहा पीएम होकर भी मनमोहन सिंह काग्रेस पार्टी के सामने कुछ भी नहीं थे । यानी हर निर्णय काग्रेस पार्टी-संगठन चला रही सोनिया और राहुल गांधी थे । तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी की थ्योरी है जहा पीएम के सामने ना पार्टी का कोई महत्व है ना ही सांसदो का और ना ही कैबिनेट मनीस्टरो का । तो अपने ही वोटरो से कट चुके बीजेपी सांसद या मंत्री की भूमिका 2019 में होगी क्या ये भी सवाल है । यानी एक तरफ सत्ता और पार्टी का बैलेस है तो दूसरी तरफ सत्ता का एकाधिकार है । तो 2018 बीतेत बीतते ये संदेश भी दे चुका है कि 2019 के चुनाव में बीजेपी ही नहीं संघ परिवार के सामने भी ये चुनौती है कि उसे सत्ता गंवानी है या बीजेपी को बचाना है । गडकरी की आवाज इसी की प्रतिध्वनी है । तो दूसरी तरफ सोशल इंजिनियरिंग की जो थ्योरी काग्रेस से निकल कर बीजेपी में समायी अब वह भी आखरी सांस ले रही है । क्षत्रपो के सामने खुद को बचाने के लिये बीजेपी के खिलाफ एकजूट होकर काग्रेस की जमीन को मजबूत करना भी है । और आखिर तक मोदी सत्ता से जुडकर अपनी जमीन को खत्म करना भी है । यानी चाहे अनचाहे मोदी काल ने 2019 के लिये एक ऐसी लकीर खिंच दी है जहा लोकतंत्र का मतलब भी देश को समझना है और संविधान को भी परिभाषित करना है । इक्नामी को भी संभालना है और राजनीति सत्ता को भी जन-सरोकार से जोडना है ।
Sunday, December 30, 2018
[+/-] |
2014 में लूट या 2018 में टूट ... 2019 के सामने चुनौतियां |
Thursday, December 27, 2018
[+/-] |
पहाडो के सौन्दर्य तले नये बरस के इंतजार में सुलगते सवाल |
साल खत्म होने को है और सत्ताधारी जनता को मूर्ख मान कर फिर से सत्ता की दौड को ही नये बरस का एंजेडा बनाने पर तुले है । सौ वाट का बल्ब फ्यूज हो रहा है तो जीरो वाट के कई वल्ब भी एकसाथ सोचने लगे है कि रोशनी तो वह भी दे देगें । हमने ही तो इन्हे अपने ही अधिकारो को खत्म करने का लाइसेंस दे दिया है , वर्ना इनकी क्या हैसियत । ये गुस्सा है या बेबसी । या फिर देश के बिगडते हालात पर बोलने भर का अंदाज । हो जो भी लेकिन हिमाचल की ठंडी वादियो में क्रिसमस और नये बरस के बीच सैलानियो के संमदर में घूमते-फिरते हर चर्चा दो ही मुद्दो पर आ कर टिक जाती है । पहला सियासत और दूसरा प्रकृति से छेडछाड । शिमला, चैल, कुफरी,फागू का एहसास यही है कि रात होते होते तापमान जीरो से नीचे चला ही जाता है तो बर्फ तक के रंग को बदरंग करते गाडियो का रेला कैसे शहर से बहाड के जीवन को रौद रहा है । और दिन में धूप से बदन गर्म करते वक्त जुबा पर सिय़ासत के घाव हर किसी में बैचेनी पैदा कर ही देते हैा हां, शिमला में दिल्ली वालो का जमघट जरुर इस एहसास को जगाता है कि सत्ताधारी कैसे खुद को जन सेवक बताकर जनता के लिये ना साफ पानी ना साफ हवा मुहैया करा पाते है । लेकिन शिमला से 40 किलोमिटर दूर चैल में चाहे आप पैलेस होटल में हो या देश के सबसे उपरी क्रिकेट ग्राउंड पर । या फिर पर्वत की चोटी पर काली मंदिर में । गाहे बगाहे कोई ना कोई ये बात कह ही देता है हालात ऐसे बनाये जा रहे है कि 2019 में देश अस्त हो जायेगा या देश में कुछ उदय हो जायेगा । और सीधे ना कहते हुये उपमाओ के जरीये पहाड से दिल्ली की सियासत को समझते समझाते हुये जो बात कह दी जाती है वह आपके दिल को भेद सकती है । बिजनेस फलो का है । बिजनेस फलो के रस का है । बिजनेस गर्म कपडो को लुधियाने से लाकर बेच मुनाफा बनाने का हो या मैगी की दुकान खोलकर जिन्दगी की गाडी खिंचने का है या फिर पहाड पर दो चार रात गुजारने वालो की भीड को सहुलियत देकर या कहे रास्ता बताकर जिन्दगी जीने का है..हर जुबां पर दर्द ज्यादा है । और दर्द की निशानदेही उसी सत्ता और उसी लोकतंत्र के खिलाफ उठती आवाज है जिसे चुनते वह खुद है । या फिर जो जनता ने खुद के लिये ही बनाया है । 80 बरस की बूढी मां की अधबूझी आंखो को दिखाकर 50 बरस का बेटा ही जब ये कहे कि इन आंखो ने तो देश को बनते हुये देखा पर लगता है अब दोनो एक साथ ही देश को बिगाडने वाले हालातो के बीच चले जायेगें । पहाडो पर जमीन के पैसे वालो ने कब्जा कर लिया । तो ना जमीन बची ना पहाड । और पहाड भी जब तक पैसे उगल रहे है जब तक इन पहाडो को और घायल किया जायेगा । कुल जमा चार महीने कमाई होती है पहाडो पर रहने वालो की । तीन महीने गर्मी । और महीने भर की ठंड । लेकिन पहाडो को खत्म कर मुनाफा बनाने का धंधा बारहो महीने चलता है । आप तो दिल्ली से आये है पर क्या आप जानते है दिल्ली में कमाई करने वाले पहाडो के मालिक हो गये । किसी ने घर बना लिया । किसी ने होटल । कोई पडाह को ही खरीद लेने के लिये उतावला है । तो कोई नीचे से खडे होकर ये कहने से नहीं चूकता जब तक पहाड साफ हवा दे रहे है तब तक तो कमाई हो ही सकती है । गुरुग्राम में रहने वाले पहाड में काटेज - होटल बनाकर गुरुग्राम से ही रेट तय करते है । और कमाई से दुनिया की सैर पर निकल जाते है । और हम खुद को ही घायल कर मलहम नहीं रोटी का जुगाड करते है । जरा समझने की कोशिश किजिये हमारे पहाडो को बर्बाद करने वालो का इंतजार हम ही करते है जिससे हमारी घर का चुल्हा जल सके । और संयोग ऐसा है कि कुफरी में माइनस पांच डिग्री के बीच भी देश में गर्म होती सियासत के केन्द्र में दिल्ली की सत्ता को फ्यूज होते बल्ब के तौर पर देखा तो जा रहा है लेकिन जिस तरह जीरो और पांच पांच वाट के बल्ब रोशनी देने के लिये मचल रहे है उसपर खूब चर्चा होती है । कौन है राजभर । कौन है कुशवाहा । कौन हैा पासवान । कौन है यादव । कौन है मायावती । कौन है गडकरी । कौन है मोदी । कौन है शाह । कौन है ममता । कौन है तेजस्वी ।कौन है चन्द्रबाबू । कौन है स्टालिन ।ये देश से बडे हो चुके है । इसलिये पहाड पर हर किसी के लिये परिभाषा है । हर किसी को एक नाम दिया जा चुका है । और साफ हवा- शुद्द पानी- दाल रोटी सबकुछ कैसे इन्ही परिभाषित लोगो ने लूट लिया या लूटकर अपने उपर सभी को निर्भर करने की बेताबी दिखा रहे है इसपर जितनी पैनी नजर संसद की बहस में नहीं हो सकती उससे कही ज्यादा पैनापन पहाड के दर्द के साथ हर क्षण आपके सामने है । आंकडे भी डराने वाले है । एक हजार करोड का मुनाफा एक महीने में और कई लाख करोड का धाटा सिर्फ इसी महीने में । जी , दुनिया भर में प्रकृति बचाने ही होड है और हमारे यहा प्रकृति से खिलवाड कर या बर्बाद कर कमाने की होड है । शिमला में रहने वाले पर्यावरणविद बेहद निराश दिखते है तो खुल कर बोलते है । लेकिन आम शख्स तभी खुलता है जब वह मान लें कि आप सत्ताधारी नहीं है । और इस तरह की चर्चा में मुद्दो को लेकर बैचेनी वाकई कुछ नये सवालो को जन्म दे ही देची है । और ये सवाल बेहद सादगी से पहाड पर पिढियो से जिन्दगी बिता चुके किसी भी परिवार से मिल लिजिये , बातचीत का लब्बोलुआब यही निकलेगा कि पत्रकार आखिर क्यो पत्रकारिता कर नहीं पा रहा है । सत्ताधारी आखिर क्यो जनता के दर्द को समझ नहीं पा रहे है । या फिर विपक्ष की सियासत करने वालो से भी जनता का कोई लगाव क्यो नहीं है । सभी फरेबी है । सभी अपनी जमीन को बचाये रखने के खेल में ही मशगूल है । सभी के आधार मुनाफा खोजते है । क्योकि हर आम शख्स ने मान लिया है कि उसकी मौत ही इस खेल को मुनाफा दे सकती है । और मरने वाले के लिये जिन्दा रहने का एकमात्र उपाय मौत देने वालो की बिसात को ही लोकतंत्र या सत्तातंत्र मान लेना है । गजब की सोच फागू जैसे ढंडे इलाके में पर्यटन विभाग के होटल में जली हुई लकडियो को चुनते पति-पत्नी ने ये कह परोस दी कि आप आये है तो रोजी रोटी चलेगी । चले जायेगें तो रोजी रोटी के लाले पड जायेगें । पर आपके आने और जाने से पहाड की उम्र एक बरस तो कम हो ही गई । गाडियो का रेला आता है । सडक चाहिये । और शिमला से दिल्ली तक के सियासतदान लगे हुये है गाडियो वालो के लिये काली कारपेट बिछाने में । चाहे पेड कटे । चाहे पहाड घंसे । चाहे पानी खत्म हो । बेफ्रिक है सभी । तो क्या मौत का सामान समेटे हुये हम पहाड पर आ रहे है और मौत समेटे जिन्दगी पहाडी जी रहा है । हो जो भी लेकिन शिमला के माल रोड पर चर्चा यही मिलेगी देश का बल्ब फ्यूज होने को है । त्यौहारो या उत्सवो में चमकने वाली शौशनी समेटे छोटी छोटी लडियां ही अब खुद को सौ वाट का बव्ब मान चुकी है । तो आप भी मान लिजिये 70 बरस के लोकतंत्र की उम्र पूरी हो चली है , नहीं चेते तो उत्सव के साथ देश को ही दफ्न वही सियासत करेगी जिसे लोकतंत्र का जामा पहना कर नई नवेले दुल्हे की तरह हर पांच बरस में सजाया समाया जाता है । फिक्र है तो माल रोड पर तफरी में ना घुमिये बल्कि देश के शहर दर शहर की सडको पर घुम घुम कर बताइये हालात क्यो हो चले है ऐसे है और एक नयी फौज की जरुरत देश को क्यो है । प्रोफेशन कोई भी हो । डाक्टर बन कर क्या कर लिजियेगा । इंजिनियर हो जाइयेगा तो क्या होगा । पत्रकार ही बन जाइयेगा तो कौन सा कमाल कर लिजियेगा । फिल्मी सितारा होकर डरे या गुस्से में आये ये कहने भर से क्या होगा । अरे उतरिये मैदान में । भगाइये सत्ता सेवको को । माल रोड पर अखरोट-बदाम बेचने वाला बुजर्ग की तल्खी इस एहसास को जगाने के लिये काफी थी कि पर्यटक चाहे नये बरस के इंतजार में पहाडो के सौन्दर्य के बीच पहुंच कर सुकुन पा लें लेकिन पहाड पर रहने वालो के मन दर्द से सुलग रहे है ।
Monday, December 24, 2018
[+/-] |
जनवरी में बीजेपी का संविधान संशोधन होगा या अमित शाह अध्यक्ष पद की कुर्सी छोड देगें .. |
गुजरात में काग्रेस नाक के करीब पहुंच गई । कर्नाटक में बीजेपी जीत नहीं पाई । काग्रेस को देवेगौडा का साथ मिल गया । मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ में पन्द्रह बरस की सत्ता बीजेपी ने गंवा दी । राजस्थान में बीजेपी हार गई । तेलगाना में हिन्दुत्व की छतरी तले भी बीजेपी की कोई पहचान नहीं और नार्थ इस्ट में संघ की शाखाओ के विस्तार के बावजूद मिजोरम में बीजेपी की कोई राजनीतिक जमीन नहीं । तो फिर पन्ने पन्ने थमा कर पन्ना प्रमुख बनाना । या बूथ बूथ बांट कर रणनीति की सोचना । या मोटरसाईकिल थमा कर कार्यकत्ता में रफ्तार ला देना । या फिर संगठन के लिये अथाह पूंजी खर्च कर हर रैली को सफल बना देना । और बेरोजगारी के दौर में नारो के शोर को ही रोजगार में बदलने का खेल कर देना । फिर भी जीत ना मिले तो क्या बीजेपी के चाणक्य फेल हो गये है या जिस रणनीति को साध कर लोकतंत्र को ही अपनी हथेलियो पर नचाने का सपना अपनो में बांटा अब उसके दिन पूरे हो गये है । क्योकि अर्से बाद संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने भी ये सवाल तेजी से पनप रहा है कि अमित शाह की अध्यक्ष के तौर पर नौकरी अब पूरी हो चली है और जनवरी में अमित साह को स्वत ही अद्यक्ष की कुर्सी खाली कर देनी चाहिये । यानी बीजेपी के संविधान में संशोधन कर अब जितने दिन अमित शाह अध्यक्ष बने रहे तो फिर बीजेपी में अनुशासन । संघ के राजनीतिक शुद्दिकरण की ही धज्जियां उडती चली जायेगी । यानी जो सवाल 2015 में बिहार के चुनाव में हार के बाद उठा था और तब अमित शाह ने तो हार पर ना बोलने की कसम खाकर खामोशी बरत ली थी । पर तब राजनाथ सिंह ने मोदी-शाह की उडान को देखते हुये कहा था कि अगले छह बरस तक शाह बीजेपी अध्यक्ष बने रहेगें । लेकिन संयोग से 2014 में 22 सीटे जीतने वाली बीजेपी के पर उसकी अपनी रणनीति के तहत अमित साह ने ही कतर कर 17 सीटो पर समझौता कर लिया । तो उससे संकेत साफ उभरे कि अमित शाह के ही वक्त रणनीति ही नहीं बिसात भी कमजोर हो चली है । जो रामविलास पासवान से कही ज्यादा बडा दांव खेल कर अमित शाह किसी तरह गंठबंधन के साथियो को साथ खडा रखना चाहते है । क्योकि हार की ठिकरा समूह के बीच फूटेगा तो दोष किसे दिया जाये इसपर तर्क गढे जा सकते है लेकिन अपने बूते चुनाव लडना । अपने बूते चुनाव ल़डकर जीतने का दावा करना । और हार होने पर खामोशी बरत कर अगली रणनीति में जुट जाना । ये सब 2014 की सबसे बडी मोदी जीत के साथ 2018 तक तो चलता रहा । लेकिन 2019 में बेडा पार कैसे लगेगा । इसपर अब संघ में चिंतन मनन तो बीजेपी के भीतरी कंकडो की आवाज सुनाई देने लगी है । और साथी सहयोगी तो खुल कर बीजेपी के ही एंजेडे की बोली लगाने लगे है । शिवसेना को लगने लगा है कि जब बीजेपी की धार ही कुंद हो चली है तो फिर बीजेपी हिन्दुत्व का बोझ भी नहीं उठा पायेगी और राम मंदिर तो कंघो को ही झुका देगा । तो शिवसेना खुद को अयोध्या का द्वारपाल बताने से चुक नहीं रही है । और खुद को ही राममंदिर का सबेस बडा हिमायती बताते वक्त ये ध्यान दे रही है कि बीजेपी का बंटाधार हिन्दुत्व तले ही हो जाये । जिससे एक वक्त शिवसेना को वसूली पार्टी कहने वाले गुजरातियो को वह दो तरफा मार दे सके । यानी एक तरफ मुबंई में रहने वाले गुजरातियो को बता सके कि अब मोदी-शाह की जोडी चलेगी नहीं तो शिवसेना की छांव तले सभी को आना होगा और दूसरा धारा-370 से लेकर अयोध्या तक के मुद्दे को जब शिवसेना ज्यादा तेवर के साथ उठा सकने में सक्षम है तो फिर सरसंघचालक मोहन भागवत सिर्फ प्रणव मुखर्जी पर प्रेम दिखाकर अपना विस्तार क्यो कर रहे है । उनसे तो बेहतर है कि शिवसेना के साथ संघ भी खडा हो जाये यानी अमित शाह का बोरिया बिस्तर बांध कर उनकी जगह नीतिन गडकरी को ले आये । जिनकी ना सिर्फ शिवसेना से बल्कि राजठाकरे से भी पटती है और भगोडे कारपोरेट को भी समेटने में गडकरी कही ज्यादा माहिर है । और गडकरी की चाल से फडनवीस को भी पटरी पर लाया जा सकता है जो अभी भी मोदी-शाह की शह पर गडकरी को टिकने नहीं देते और लडाई मुबंई से नागपुर तक खुले तौर पर नजर आती है ।
यू ये सवाल संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने भी कुलाचे मारने लगा है कि मोदी-शाह की जोडी चेहरे और आईने वाली है । यानी कभी सामाजिक-आर्थिक या राडनीतिक तौर पर भी बैलेस करने की जरुरत आ पडी तो हालात संभलेगें नहीं । लेकिन अब अगर अमित साह की जगह गडकरी को अध्यक्ष की कुर्सी सौप दी जाती है तो उससे एनडीए के पुराने साथियो में भी अच्छा मैसेज जायेगा । क्योकि जिस तरह काग्रेस तीन राज्यो में जीत के बाद समूचे विपक्ष को समेट रही है और विपक्ष जो क्षत्रपो का समूह है वह भी हर हाल में मोदी-शाह की हराने के लिये काग्रेस से अपने अंतर्विरोधो का भी दरकिनार कर काग्रेस के पीछ खडा हो रहा है । उसे अगर साधा जा सकता है तो शाह की जगह गडकरी को लाने का वक्त यही है । क्योकि ममता बनर्जी हो या चन्द्रबाबू नायडू , डीएमके हो या टीआर एस या बीजू जनता दल । सभी वाजपेयी-आडवाानी -जोशी के दौर में बीजेपी के साथ इस लिये गये क्योकि बीजेपी ने इन्हे साथ लिया और इन्होने साथ इसलिये दिया क्योकि सभी को काग्रे से अपनी राजनीतिक जमीन के छिनने का खतरा था । लेकिन मोदी-शाह की राजनाीतिक सोच ने तो क्षत्रपो को ही खत्म करने की ठान ली । और पैसा, जांच एंजेसी , कानूनी कार्वराई के जरीये क्षत्रपो का हुक्का-पानी तक बंद कर दिया । पासवान भी अपने अंतर्विरोधो की गठरी उटाये बीजेपी के साथ खडे है । सत्ता से हटते ही कानूनी कार्वाई के खतरे उन्हे भी है । और सत्ता छोडने के बाद सत्ता में भागेदारी का हिस्सा सूई की नोंक से भी कम हो सकता है । लेकिन यहा सवाल सत्ता के लिये बिक कर राजनीति करने वाले क्षत्रपो की कतार भी कितनी पाररदर्शी हो चुकी है और वोटर भी कैसे इस हकीकत को समझ चुका है ये मायावती के सिमटते आधार तले मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तिसगढ में बाखूबी उभ गया । लेकिन आखरी सवाल यही है कि क्या नये बरस में बीजेपी और संघ अपनी ही बिसात जो मोदी-शाह पर टिकी है उसे बदल कर नई बिसात बिछाने की ताकत रखती है या नहीं । उहापोह इस बात को लेकर है कि शाह हटते तो नैतिक तौर पर बीजेपी कार्यकत्ता इसे बीजेपी की हार मान लेगा या रणनीति बदलने को जश्न के तौर पर लेगा । क्योकि इसे तो हर कोई जान रहा है कि 2019 में जीत के लिये बिसात बदलने की जरुरत आ चुकी है । अन्यथा मोदी की हार बीजेपी को बीस बरस पीछे ले जायेगी ।
Wednesday, December 19, 2018
[+/-] |
स्वयंसेवक की बेबाक चाय : चुनाव का एलान 25 दिसबंर को हो जाये या मोदी अयोध्या चले जाये जाये तो ........ |
इस बार तो चाय कही ज्यादा ही गर्म है ।
क्यों चाय तो हर बार गर्म ही रहती है ।
न न गर्म चाय का मतलब चाय का मिजाज नहीं पिलाने वाले की गर्माहट है ।
क्यों ऐसे क्या कह दिया हमने ।
आप जिस तरह पानी पर लकीरे खिंच रहे है .... मुझे लगता नहीं है कि ये लकीरे टिकेगी ।
आपको इसलिये नहीं लगता क्योकि आप भीतर नहीं है बल्कि बाहर से देख रहे है ।
ऐसा क्या देख लिये आपने ....
मेरे और स्वयसेवक महोदय की गोल -मोल बातो पर प्रोफेसर साहेब सीधें बोल पडे...आप जो देख रहे है वह कहा तक सही होगा कह नहीं सकता लेकिन 15 बरस की सत्ता जिस अंदाज में बीजेपी ने मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ में गंवायी है उसने झटके में शिवराज और रमन सिंह की काबिलियत को मोदी-शाह से बेहतर करार दे दिया है ।
दरअसल चाय पर जिस तरह स्वयसेवक महोदय ने पहली बार 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर अलग अलग कयास का जिक्र किया वह वाकई चौकाने वाला था । क्योकि स्वयसेवक के कयास में हार को जीत में बदलने के लिये मोदी-शाह की ऐसी ऐसी बिसात थी जो इस बात का एहसास करा रही थी कि पांच राज्यो में चुनावी हार ने सत्ता को अंदर से हिला दिया है ...और अब जीत के लिये कोई भी रास्ता पकडने की दिशा में चिंतन मनन हो रहा है । और जैसे ही मंगलवार की शाम चाय पर बैठे वैसे ही स्वयसेवक महोदय ने ये कहकर हालात गंभीर कर दिये कि मान लिजिये अटलबिहारी वाजपेयी की जन्मतिथि के दिन यानी 25 दिंसबर को ही आम चुनाव का एलान हो जाये तब आप क्या कहेगें ।
जाहिर है इस वक्तव्य ने चैकाया भी और चौकाने से ज्यादा इस सोच का कोई मतलब भी नहीं लगा । लेकिन स्वयसेवक महोदय एक के बाद एक कर तर्क गढने लगें ।
देखिये काग्रेस ने किसानो की कर्ज माफी का जो दाव फेका है उसका जवाब मोदी सत्ता कैसे दे सकती है । सरकार का खजाना तो खाली है । और अगर किसानो को राहत देने के लिये तीन लाख करोड रुपये लुटा भी देती है तो भी मैसेज तो यही जायेगा कि काग्रेस ने किया तो मोदी सत्ता को भी करना पडा ।
तो क्या सिर्फ इसी डर से जल्द चुनाव कराने का एलान हो जायेगा । मेरे ये कहते ही स्वयसेवक महोदय बोल पडे । आप सवा ना करें तो हालात को समझे । बात सिर्फ कर्ज माफी की नहीं है । चुनाव में जीत के लिये वह कौन सा पर्सेप्शन है जो बीजेपी के पारंपरिक वोटरो के जहन में रेग सकता है और वह मोदी की सत्ता के जीत के लिये कमर कस लें ।
राम मंदिर है ना ।
देखिये आप बीच में ना टोके । इस बार प्रोफेसर साहेब को स्वयसेवक महोदय ने टोका । और फिर बोल पडे ..राम मंदिर ही है लेकिन पहले ये हालात समझे...सरकार को अंतरिम बजट देश के सामने रखना है । उससे पहले आर्थिक समीक्षा आयेगी । जो विकास दर के संकेत देगी । या कहे देश की माली हालत को बतायेगी । जाहिर है जो हालात पांच राज्यो के चुनाव में उभरे । खासकर ग्रामिण वोटरो के वोट बीजेपी को सिर्फ 35 फिसदी ही मिले औकर काग्रेस को 55 फिसदी वोट मिले । फिर शहरी वोटरो में भी काग्रेस से बीजेपी पिछड गई । तो इसके मतलब समझे । एक तरफ बजट में बताने-दिखाने के लिये कुछ भी नहीं है तो दूसरी तरफ जिस लिबरल इक्नामी को मोदी सत्ता अपनाये हुये है वह राजनीतिक तौर पर फेल हो चली है । और राहुल गांधी की राजनीति ने अब आर्थिक खेल में भी मोदी को फंसा दिया है ।
यानी
यानी जो खेल बीचे चार बरस से अलग अलग रियायत या सुविधा के नाम पर मोदी सत्ता केल रही थी । पांचवे बरस या कहे चुनावी बरस में उसी खेल को अपनी बिसात पर खेलने के लिये काग्रेस ने मोदी को मजबूर कर दिया है । लेकिन फिर सवाल वहीं है कि 2013-14 में मोदी कुछ भी कहने के लिये खुले आसमान में उडा रहे थे । क्योकि वह सत्ता में नहीं थे । तो अब राहुल गांधी उसी भूमिका में है और मोदी सत्ता में है तो वह जवाबदेही के लिये बाध्य है ।
पर मोदी किसी भी जवाबदेही को अपने मत्थे कहा लेते है । वह तो काग्रेस को ही निशाने पर लेकर अतित के हालातो को ज्यादा जोर शोर से उठाते है ।
ठीक कह रहे है प्रोपेसर साहेब....लेकिन पांच राज्योके चुनाव परिणाम ने बता दिया आपका काम ही मायने रखता है । और तेलगना इसका एक बेहतरीन उदाहरण है । जहा ना राहुल - चन्द्रबाबू की दाल गली ना ही हिन्दुत्व की बासुरी बजाते योगी आदित्यनाथ की । फिर तुरंत चुनाव मैदान में कूदने के हालात विपक्ष को एकजूट होने भी नहीं देगें । खासकर यूपी में गढबंधन बनेगा नही ।
जल्दी चुनाव बेहद घातक साबित हो सकता है महोदय । अब प्रोफेसर बोले तो तथ्यो को गिनाने के लिहाज से बोले । और तल्खी भरे अंदाज में कहा बंगाल में ममता काग्रेस के साथ नहीं आये तो मुस्लिम वोट बैक क्या सोचेगा । यूपी में अखिलेश-मायावती काग्रेस के साथ ना आये तो दलित-मुस्लिम वोट बैक क्या सोचेगा । अजित सिंह अगर काग्रेस के साथ ना आये तो जाट वोट बैंक क्या राजस्थान में काग्रेस के साथ जाकर यूपी में काग्रेस के विरोध में खडा हो पायेगा । यानी खाप भी बंटेगी क्या । नवीन पटनायक को उडीसा में बीजेपी से ही दो दो हाथ करने है तो रणनीति के तौर पर वह काग्रेस का विरोध कैसे करेगें । चन्द्रशेखर राव की भूमिका ममता के साथ खडे होकर काग्रेस विरोध की कैसी होगी । 2019 के लिये बिछती बिसात में गठबंधन की जरुरत क्षत्रपो को है या फिर काग्रेस को । और जनादेश का मिजाज ही जब बीजेपी विरोध का ये हो चला है कि 15-15 बरस पुरानी बीजेपी सत्ता हवा हवाई हो रही है तो फिर क्षत्रपो की सत्ता कैसे टिकेगी अगर ये मैसेज जनता के बीच जाता है कि काग्रेस का विरोध बीजेपी को लाभ पहुंचा सकता है । तो क्या जिन हालातो में मोदी सत्ता चली उसने अपने आप को एक ऐसी धुरी बना लिया जहां तमाम विपक्ष तमाम अंतर्विरोधो के बावजूद मोदी सत्ता के खिलाफ एकजूट होगा ही । और मोदी सत्ता बीजेपी या संघ परिवार के तमाम अंतरविरोध के बीच भी अपनी 4 बरस से खिंच रही लीक छोडेगी नहीं तो चुनाव भी जल्द कैसे होगें ।
...आपको तो ये बताना चाहिये कि अब मोदी-शाह के पास कौन सा ब्रमास्त्र है । जिसका प्रयोग 2019 के चुनाव से एन पहले होगा ।
हा हा हाल हा ....ठहके लगाते हुये स्वयसेवक बोले ... जब जनता को सपना बेच सकते है तो खुद के लिये भी सपना बुन सकते है । और सपने की ही कडी में 25 दिसबंर के चुनाव में जाने का एलान हो सकता है ।
और ना हुआ तो ....
प्रोफेसर जैसे ही बोले वैसे ही स्वयसेवक महोदय भी बोल पडे ...तब तो किसी दिन प्रधानमंत्री मोदी ही अयोध्या में राम मंदिर की ईट को उठाते-जोडते नजर आ जायेगें .... तब आप क्या सोचियेगा ।
क्या कह रहे आप । प्रधानमंत्री तो सबका साथ सबका विकास का नारा लगाते हुये चल रहे है । और पीएम बनने के बाद अयोध्या गये भी नहीं है । मेरा सवाल खत्म होता उससे पहले ही स्वयसेवक महोदय बोल पडे ...
तो हो सकता है प्रधानमंत्री मोदी एलान कर दें राम मंदिर बनेगा । और खुद ही कार सेवक के तौर पर नजर आ जाये..तब क्या होगा ।
होगा क्या ...हंगामा मच जायेगा....
और क्या चाहिये ..... संघ परिवार मोदी के पीछे एकजूट खडा हो जायेगा । वोटो का नहीं बल्कि समाज का ही ध्रुवीकरण हो जायेगा । झटके में किसान-मजदूर , बेरोजगारी या आर्थिक बदहाली के सवाल हाशिये पर चले जायेगें ।
बात हजम हो नहीं पा रही है मान्यवर .... अब मुझे टोकना पडा । 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वस के बाद क्या हुआ था । 1996 में सत्ता मिली तो 13 दिन में ही गिर गई । बीजेपी तब अनट्चबेल हो गई थी । और 1996 में बतौर प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा भी था कि बीजेपी कोई अछूत नहीं है जो उसके साथ कोई खडा नहीं है । लेकिन फिर याद किजिये 1998-99 में तमाम राजनीतिक दल साथ तभी आये जब राम मंदिर, धारा 370 और कामन सिविल कोड को ठंडे बस्ते में डालने का निर्णय बीजेपी ने लिया ।
जो कहना है कह लिजिये ...लेकिन इस सच को तो समझे क्षत्रपो की फौज सत्ता चाहती है । और सत्ता किसी की भी रहे । कौन सी भी मुद्दे रहे । क्या फर्क पडता है । कश्मीर में महबूबा बीजेपी के साथ सत्ता के लिये ही आई । पासवान ने अतित में बीजेपी को क्या कुछ नहीं कहा है । लेकिन आज वह बीजेपी के साथ सत्ता में है ना । नीतिश कुमार ने ही बीजेपी छोडिये मोदी को लेकर क्या क्या नहीं कहा लेकिन आज वह मोदी के मुरिद बने हुये है क्योकि सत्ता में रहना है । तो अब हालात बदल चुके है । सत्ता होगी तो सभी साथ होगें । और सत्ता नहीं तो फिर कोई साथ ना होगा । अभी तो कुशवाहा ने छोडा है इंतजार किजिये असम से खबर जल्द ही आयेगी ...मंहत ने भी बीजेपी का साथ छोड दिया ।
देखिये आप जो कह रहे है वह असभव सा है । जिसे कोई मानेंगा नहीं लेकिन आपकी बातो से ये तो महसूस हो रहा है कि मोदी-शाह की सत्ता पर खतरा मंडरा रहा है और वह कोई तुरप का पत्ता खोज रहे है जिससे सत्ता बची रह जाये ।
मेरे ये कहते ही प्रोफेसर साहेब बीच में कूद पडे....जी ठीक कह रहे है आप आजही तो नागपुर से खबर आई कि कोई किसान नेता किशोर तिवारी है उन्होने बकायदा सरसंघचालक मोहन भागवत और भैयाजी जोशी को खत लिखकर कहा है कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नीतिन गडकरी को बनाये ।
तो आप क्या कहना है कि बीजेपी या संघ के भीतर भी आवाज उठ रही है ।
क्या वाकई ऐसा हो रहा है ..मुझे स्वयसेवक महोदय से पूछना पडा ।
आप कह रहे है तो हवा कास रुख बदला है ये संकेत तो है ...लेकिन नया सवाल यही है कि सत्ता कोई छोडना चाहता नहीं है और सत्ता बरकरार रहे इसके लिये तमाम ताने-बाने तो बुले ही जायगें...
जारी....
Tuesday, December 18, 2018
[+/-] |
दस घंटे के भीतर कर्ज माफी के एलान का मतलब.... |
ना मंत्रियों का शपथ ग्रहण ना कैबिनेट की बैठक । सत्ता बदली और मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही किसानो की कर्ज माफी के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये । ये वाकई पहली बार है कि राजनीति ने इक्नामी को हडप लिया या फिर राजनीतिक अर्थशास्त्र ही भारत का सच हो चला है । और राजनीतिक सत्ता के लिये देश की इक्नामी से जो खिलावाड बीते चार बरस में किया गया उसने विपक्ष को नये संकेत यही दे दिये कि इक्नामी संभलती रहेगी पहले सत्ता पाने और फिर संभालने के हालात पैदा करना जरुरी है । हुआ भी यही कर्ज में डूबे मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ की सत्ता पन्द्रह बरस बाद काग्रेस को मिली तो बिना लाग लपेट दस दिनो में कर्ज माफी के एलान को दस घंटे के भीतर कर दिखाया और वह सारे पारंपरिक सवाल हवा हवाई हो गये कि राज्य का बजट इसकी इजाजत देता है कि नहीं । दरअसल , मोदी सत्ता ने जिस तरह सरकार चलायी है उसमें कोई सामान्यजन भी आंखे बंद कर कह सकता है कि नोटबंदी आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक फैसला था । जीएसटी जिस तरह लागू किया गया वह आर्थिक नहीं राजनीतिक फैसला है । रिजर्व बैक में जमा तीन लाख करोड रुपया बाजार में लगाने के लिये माग करना भी आर्थिक नहीं राजनीतिक जरुरत है । पहले दो फैसलो ने देश की आर्थिक कमर को तोडा तो रिजर्व बैक के फैसले ने ढहते इकनामी को खुला इजहार किया । फिर बकायदा नोटबंदी और जीएसटी के वक्त मोदी सरकार के मुख्यआर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रमणयम ने जब पद छोडा तो बकायदा किताब [ आफ काउसंल, द चैलेज आफ मोदी-जेटली इक्नामी ] लिखकर दुनिया को बताया कि नोटबंदी का फैसला आर्थिक विकास के लिये कितना घातक था । और जीएसटी ने इक्नामी को कैसे उलझा दिया । तो दूसरी तरफ काग्रेस के करीबी माने जाने वाले रिजर्व बैक के पूर्व गर्वनर रधुरामराजन का मानना है कि किसानो की कर्ज माफी से किसानो के संकट दूर नहीं होगें । और संयोग से जिस दिन रधुरामराजन ये कह रहे थे उसी दिन मध्यप्रदेश में कमलनाथ तो छत्तिसगढ में भूपेश बधेल सीएम पद की शपथ लेते ही कर्ज माफी के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर रहे थे । तो सवाल तीन है । पहला , क्या राजनीति और इक्नामी की लकीर मिट चुकी है । दूसरा , क्या 1991 की लिबरल इक्नामी की उम्र अब पूरी हो चुकी है । तीसरा , क्या ग्रामिण भारत के मुश्किल हालात अब मुख्यधारा की राजनीति को चलाने की स्थिति में आ गये है । ये तीनो सवाल ही 2019 की राजनीतिक बिसात कुछ इस तरह बिछा रहे है जिसमें देश अब पिछे मुडकर देखने की स्थिति में नहीं है । और इस बिसात पर सिर्फ 1991 के आर्थिक सुधार ही नहीं बल्कि मंडल-कंमडल से निकले क्षत्रपो की राजनीति भी सिमट रही है । पर कैसे राजनीति और अर्थव्यवस्था की लकीर मिटी है और वैकल्पिक राजनीतिक अर्थसास्त्र कीा दिशा में भारत बढ रहा है ये काग्रेस के जरीये बाखूबी समझा जा सकता है । काग्रेस मोदी सत्ता के कारपोरेट प्रेम को राजनीतिक मुद्दा बनाती है । किसानो की कर्ज माफी और छोटे और मझौले उघोगो के लिये जमीन बढाने और मजदूरो के हितो के सवाल को मनरेगा से आगे देखने का प्रयास कर रही है । जबकि इन आधारो का विरोध मनमोहनइक्नामिक्स ने किया । लेकिन अब काग्रेस कृर्षि आर्थसास्त्र को समझ रही है लेकिन उसके पोस्टर ब्याय और कोई नही मनमोहन सिंह ही है ।
यानी तीन राज्यो में जीत के बाद करवट लेती राजनीति को एक साथ कई स्तर पर देश की राजनीति को नायाब प्रयोग करने की इजाजत दी है । या कहे खुद को बदलने की सोच पैदा की है । पहले स्तर पर काग्रेस रोजगार के साथ ग्रोथ को अपनाने की दिशा में बढना चाह रही है । क्योकि लिबरल इक्नामी के ढाचे को मोदी सत्ता ने जिस तरह अपनाया उसमें ' ग्रोथ विदाउट जाब ' वाले हालात बन गये । दूसरे स्तर पर विपक्ष की राजनीति के केन्द्र में काग्रेस जिस तरह आ खडी हुई उसमें क्षत्रपो के सामने ये सवाल पैदा हो चुका है कि वह बीजेपी विरोध करते हुये भी बाजी जीत नहीं सकते । उन्हे काग्रेस के साथ खडा होना ही होगा । और तीसरे स्तर पर हालात ऐसे बने है कि तमाम अंतर्विरोध को समेटे एनडीए था जिसकी जरुरत सत्ता थी पर अब यूपीए बन रहा है जिसकी जरुर सत्ता से ज्यादा खुद की राजनीतिक जमीन को बचाना है । और ये नजारा तीन राज्यो में काग्रेस के शपथ ग्रहण के दौरान विपक्ष की एक बस में सवार होने से भी उभरा और मायावती, अखिलेश और ममता के ना आने से भी उभरा ।
दरअसल, मोदी-शाह की बीजेपी ममता बर क्षत्रपो की राजनीतिक जमीन को सत्ता की मलाई और जांच एंजेसियो की धमकी के जरीये तरह खत्म करना शुरु किया । तो क्षत्रपो के सामने संकट है कि वह बीजेपी के साथ जा नहीं सकते और काग्रेस को अनदेखा कर नहीं सकते । लेकिन इस कडी में समझना ये भी होगा कि काग्रेस का मोदी सत्ता या कहे बीजेपी विरोध पर ही तीन राज्यो में काग्रेस की जीत का जनादेश है । और इस जीत के भीतर मुस्लिम वोट बैक का खामोश दर्द भी छुपा है । कर्ज माफी से ओबीसी व एससी-एसटी समुदाय की राजत भी छुपी है और राजस्थान में जाटो का पूर्ण रुप से काग्रेस के साथ आना भी छुपा है । और इसी कैनवास को अगर 2019 की बिसात पर परखे तो क्षत्रपो के सामने ये संकट तो है कि वह कैसे काग्रेस के साथ काग्रेस की शर्ते पर नहीं जायेगें । क्योकि काग्रेस जब मोदी सत्ता के विरोध को जनादेश में अपने अनुकुल बदलने में सफल हो रही है तो फिर क्षत्रपो के सामने ये चुनौती भी है कि अगर वह काग्रेस के खिलाफ रहते है तो चाहे अनचाहे माना यही जायेगा कि वह बीजेपी के साथ है । उस हालात में मुस्लिम , दलित , जाट या कर्ज माफी से लाभ पाने वाला तबको क्षत्रपो का साथ क्यो देगा । यानी तमाम विपक्षी दलो की जनवरी में होने वाली अगली बैठक में ममता , माया और अखिलेश भी नजर आयेगें । और अब बीजेपी के सामने चुनौती है कि वह कैसे अपने सहयोगियो को साथ रखे और कैसे लिबरल इक्नामी का रास्ता छोड वैकल्पिक आर्थिक माडल को लागू करने के लिये बढे । यानी 2019 का राजनीतिक अर्थशास्त्र अब इबारत पर साफ साफ लिखी जा रही है कि कारपोरेट को मिलने वाली सुविधा या रियायत अब ग्रमीण भारत की तरफ मुडेगी । यानी अब ये नहीं चलेगा कि उर्जित पटेल ने रिजर्व बैक के गवर्नर पद से इस्तिफा दिया तो शेयर बाजार सेसंक्स को कारपोरेट ने राजनीतिक तौर पर शक्तिकांत दास के गवर्नर बनते ही संभाल लिया क्योकि वह मोदी सत्ता के इशारे पर चल निकले । और देश को ये मैसेज दे दिया गया कि सरकार की इक्नामिक सोच पटरी ठीक है उर्जित पटेल ही पटरी पर नहीं थे ।
Sunday, December 16, 2018
[+/-] |
डी-कोड बीजेपी ! पार्ट-2.... 25 दिसबंर को 25 करोड घरो में दीये जलाकर कहेगें हम तो सफल है ! |
होना तो ये चाहिये था कि चुनावी हार के बाद मोदी कहते कि शिवराज, रमन सिंह और वसुंधरा भी एक वजह थे कि 2014 में हमें जीत मिली । तीनो ने अपने अपने राज्य में विकास के लिये काफी कुछ किया । तीनो के गवर्नेंस का कोई सानी नहीं । हां , केन्द्र से कुछ भूल हुई । खासकर किसान-मजदूर और छोटे व्यापारियो को लेकर । गवर्नेंस के तौर तरीके भी केन्द्र की नीतियो को अमल में ला नहीं पाये । लेकिन हमें मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तिसगढ में चुनाी हार से सबक मिला है । हम जल्द ही खुद को दुरस्त कर लेंगे । लेकिन हो उल्टा रहा है । बताया जा रहा है कि मोदी-शाह ना होते तो हार का अंतर कहीं बडा होता । मोदी का चमत्कारी व्यक्तित्व और शाह की चाणक्य नीति ने ही मध्यप्रदेश और राजस्थान में पूरी तरह ढहने वाले किले को काफी हद तक बचा लिया । यानी हार के बाद मोदी-शाह से निकले तीन मैसेज साफ है । पहला, शिवराज, रमन सिंह, वसुधरा का अब कोई काम उनके अपने अपने राज्य में नहीं है । उन्हे केन्द्र में ला कर इस तरह सिमटा दिया जायेगा कि मोदी का लारजर दैन लाइफ वाला कद बरकरार रहे । दूसरा, संघ का जो विस्तार मोदी दौर में [पिछले साढे चार बरस ] हुआ उसमें भी वह काबिलियत बची नहीं है कि वह चुनावी जीत दिला सके । यानी संघ ये ना सोचे कि चुनाव जिताने में उसका कद मोदी से बडा हो गया है । तीसरा , मोदी-शाह के नेतृत्व को चुनौती देने के हालात भी बीजेपी में पैदा होने नहीं दिया जायेगें ।
लेकिन इस होने या बताने के सामानांतर हर किसी की नजर इसपर ही अब जा टिकी है कि आखिर 2019 के लिये मोदी-शाह की योजना है ? क्योकि 2014 में तो आंखो पर पट्टी बांध कर मोदी-शाह की बिछायी पटरी पर स्वयसेवक या बीजेपी कार्यकत्ता दौडने को तैयार था लेकिन 2018 बीतते बीतते हालात जब मोदी के चमत्कारिक नेतृत्व और शाह की चाणक्य नीति ही फेल नजर आ रही है तो वाकई होगा क्या ? क्या अमित शाह कार्यकत्ताओ में और पैसा बांटेगें जिससे उनमें जीत के लिये उर्जा भर जाये । यानी रुपयो के बल पर मर-मिटने वाले कार्यकत्ता खडे होते है या नौकरी या कमाई के तर्ज पर पार्टी के हाईकमान की तरफ कार्यकत्ता देखने लगता है । या फिर चुनावी हार के बाद ये महसूस करेगें कि जिनके हाथ में पन्ना प्रमुख से लेकर बूथ मैनेजमेंट और पंचायत से लेकर जिला प्रमुख के तौर पर नियुक्ति कर दी गई उन्हे ही बदलने का वक्त आ गया है । तो जो अभी तक काम कर रहे थे उनका क्या क्या होगा या अलग अलग राज्यो के जिन सिपहसलाहरो को मोदी ने कैबिनेट में चुना और शाह ने संगठन चलाने के लिये अपना शागिर्द बनाया उनकी ठसक भी अपने अपने दायरे में कही मोदी तो कही शाह के तौर पर ही काम करते हुये उभरी । तो खुद को बदले बगैर बीजेपी की कार्यसंस्कृति को कैसे बदलेगें । क्योकि महाराष्ट्र की अगुवाई मोदी की चौखट पर पियूष गोयल करते है । तमिलनाडु की अगुवाई निर्माला सितारमण करती है । उडिसा की अगुलाई धर्मेन्द्र प्रधान करते है । जेटली राज्यसभा में जाने के लिये कभी गुजरात तो कभी किसी भी प्रांत के हो जाते है । गडकरी की महत्ता फडनवीस के जरीये नागपुर तक में सिमटाने की कोशिश मोदी-शाह ही करते है । यूपी में राजनाथ के पर काट कर योगी को स्थापित भी किया जाता है । और योगी को मंदिर राग में लपेट कर गवर्नेंस को फेल कराने से चुकते भी नहीं ।
अब 2019 में सफल होने के लिये दूसरी कतार के नेताओ के ना होने की बात उठती है । और उसमें भी केन्द्र यानी मोदी-शाह की चौखट पर सवाल नहीं उठते बल्कि तीन राज्यो को गंवाने के बाद इन्ही तीन राज्यो में दूसरी कतार के ना होने की बात होती है । तो फिर कोई भी सवाल कर सकता है कि जब मोदी-शाह की सत्ता तले कोई लकीर खिंची ही नहीं गई तो दूसरी कतार कहां से बनेगी । यानी मैदान में ग्यारह खिलाडी खेलते हुये नजर तो आने चाहिये तभी तो बेंच पर बैठने वाले या जरुरत के वक्त खेलने के लिये तैयार रहने वाले खिलाडिया को ट्रंनिग दी जा सकती है । मुसीबत तो ये है कि मोदी खुद में सारी लकीर है और कोई दूसरी लकीर ही ना खिंचे तो इसके लिये अमित शाह है । क्योकि दूसरी कतार का सवाल होगा या जिस तरह राज्यो में शिवराज , रमन सिंह या वसुंधरा को केन्द्र में ला कर दूसरी कतार तैयार करने की बात हो रही है उसका सीधा मतलब यही है कि इन तेनाओ को जड से काट देना । और अगर वाकई दूसरी कतार की फिक्र है तो मोदी का विक्लप और बीजेपी अध्यक्ष के विकल्प के तौर पर कौन है और इनकी असफलता के बाद किस चेहरे को कमान दी जा सकती है ये सवाल भी उठेगा या उठना चाहिये । जाहिर है ये होगा नहीं क्योकि जिस ताने बाने को बीते चाढे चार बरस में बनाया गया वह खुद को सबसे सुरक्षित बनाने की दिशा में ही था तो अगले तीन महिनो में सुधार का कोई भी ऐसा तरीका कैसे मोदी-शाह अपना सकते है जो उन्हे ही बेदखल कर दें ।
तो असफलता को सफलता के तौर पर दिखाने की शुरुआत भी होनी है । मोदी मानते है कि उनकी नीतियो से देश के 25 करोड घरो में उजियारा आ गया है । यानी प्रधानमंत्री आवास योजना हो या उज्जवला योजना । शौचालय हो या बिजली । या फिर 106 योजनाओ का एलान । तो 25 करोड घरो में अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन यानी 25 दिसबंर को बीजेपी कार्यकत्ता उनके घर जाकर दिया जलाये तो उसकी रौशनी से दिल्ली की सत्ता जगमग होने लगेगी । यानी असफल होने के हालात को छुपाते हुये उसे सफल बताने के प्रोपगेंडा में ही अगर बीजेपी कार्यकत्ता लगेगा तो उसके भीतर क्या वाकई बीजेपी को सफल बनाने के लिये कार्य करने के एहसास पैदा होगें । या फिर मोदी-शाह को सफल बताने के लिये अपने ही इलाके में परेशान ग्रामिणो से दो चार होकर पहले खुद को फिर बीजेपी को ही खत्म करने की दिशा में कदम बढ जायेगें । ये सारे सवाल है जिसे वह बीजेपी मथ रही है जो वाकई चाल चरित्र चेहरा के अलग होने जीने पर भरोसा करती थी । लेकिन मोदी - शाह की सबसे बडी मुश्किल यही है कि उन्होने लोकतंत्र को चुनाव में जीत तले देखा है । चुनावी जीत के बाद ज्ञान-चिंतन का सारा भंडार उन्ही के पास है ये समझा है । कारपोरेट की पूंजी की महत्ता को सत्ता के लिये वरदान माना है । पूंजी के आसरे कल्याणरकारी योजनाओ को नीतियो से एलान भर करने की सोच को पाला है । और देश में व्यवस्था का मतलब चुनी हुई सत्ता के अनुकुल काम करने के हालात को ही बनाना या फिर मानना रहा है । इसीलिये राजनीतिक तौर पर चाहे अनचाहे ये सत्ता प्रप्त कर सत्ता ना गंवाने की नई सोच है । जिसमें लोकतंत्र या संविधान मायने नहीं रखता है बल्कि सत्ता के बोल ही संविधान है और सत्ता की हर पहल ही लोकतंत्र है ।
Saturday, December 15, 2018
[+/-] |
डी-कोड बीजेपी |
संसदीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि केन्द्र में पूर्ण
बहुमत के साथ कोई राजनीतिक दल सत्ता संभाले हुये हो और पांच राज्यो की
विधानसभा में ना सिर्फ जीत ना पाये बल्कि तीन बीजेपी शासित राज्य को गंवा
बैठे । और लोकसभा चुनाव में वक्त सिर्फ चार महीने का बचा हो । जबकि इन
पांच राज्यो में लोकसभा की 83 सीटे आती है और 2014 की तुलना में 22 सीटो
में कमी आ गई यानी 2014 में 83 में से 53 सीट पर मिली जीत घटकर 31 हो गई
तो क्या इसे सिर्फ विधानसभा चुनाव कहकर केन्द्र की सत्ता को बचाया जा
सकता है । या फिर बीते चार बरस में जब सिर्फ केन्द्र की नीतियो के ही
प्रचार प्रसार में बीजेपी शासित हर राज्य ना सिर्फ लगा रहा हो बल्कि ऐसा
करने का दवाब भी हो । तो मुद्दे भी कही ना कही केन्द्र के ही हावी हुये
और बीजेपी अब अपने तीन सबसे पहचान वाले क्षत्रपो [ शिवराज, वसुधंरा, रमन
सिंह ] की कुर्सी को जब गंवा चुकी है तब क्या बीजेपी शासित राज्यो के
मुख्यमंत्रियो की बची हुई फौज [ महाराष्ट्र में फडनवीस, हरियाणा में
खट्टर , झरखंड में रधुवर दास , यूपी में योगी , उत्तराखंड में
त्रिवेन्द्र सिंह रावत या गुजरात में रुपानी ] के जरीये 2019 को देखा जा
सकता है या फिर केन्द्र की सत्ता के केन्द्र में बैठे नरेन्द्र मोदी-अमित
शाह के रहस्यमयी सत्ता को डि-कोड कर ही बीजेपी के सच को जाना जा सकता है
। क्योकि तीन राज्यो की हार ने बीजेपी के उन चार खम्मो को ही हिला दिया
है जिसपर मोदी-शाह की बीजेपी सवार रही । पहला , अमित शाह चुनावी जीत के
चाणक्य नहीं है । दूसरा , नरेन्द्र मोदी राज्यो को अपने प्रचार से जीतने
वाले चद्रगुप्त मोर्य नहीं है । तीसरा , हिन्दुत्व या राम मंदिर को योगी
या संघ भरोसे जनता ढोने को तैयार नहीं है । चौथा , गर्वनेंस सिर्फ नारो
से नही चलती और सत्ता सिर्फ जातिय आधार वाले नेताओ को साथ समेट कर पायी
नहीं जा सकती है । यानी पांच राज्यो के जनादेश ने बीजेपी के उस आधार पर
ही सीधी चोट की है जिस बीजेपी ना सिर्फ अपनी जीत का मंत्र मान चुकी थी
बल्कि मंत्र को ही बीजेपी मान गया । यानी मोदी-शाह के बगैर बीजेपी की
कल्पना हो नहीं सकती । यानी चाहे अनचाहे मोदी-शाह ने बीजेपी को काग्रेस
की तर्ज पर बना दिया । और मोदी शाह खुद नेहरु गांधी परिवार की तरह नहीं
है इसे वह समझ ही नहीं पा रहे है । यानी काग्रेस का मतलब ही नेहरु गांधी
परिवार है ये सर्वव्यापी सच है । लेकिन बीजेपी का मतलब अगर मोदी-शाह हो
गया तो फिर संघ परिवार के राजनीतिक शुद्दिकरण से निकले स्वयसेवको का
राजनीतिक होना और संघ के राजनीतिक संगठन के तौर पर बीजेपी का निर्माण भी
बेमानी हो जायेगा । ध्यान दें तो जिस तरह क्षत्रपो के अधीन राजनीति पार्टिया है जिसमें पार्टी का पूरा ढांचा ही नेता के इर्द गिर्द रहता है या कहे सिमटजाता है । जिसमें नेता जी के जो खिलाफ गया उसकी जरुरत पार्टी को नहीं होती । कुछ इसी तरह 38 बरस पुरानी बीजेपी या 93 बरस पुराने संघ की सोच से बनी जनसंघ और सके बाद
बीजेपी का ढांचा भी “आप” की ही तर्ज पर आ टिका । और मोदी-शाह के बगैर अगर
बीजेपी का कोई अर्थ नहीं है तो बिना इनके सहमति के कोई ना आगे बढ सकता है
ना ही पार्टी में टिक सकता है । आडवाणी, जोशी या यशंवत सिंह का दरकिनार
होना भी सच नहीं है बल्कि जो कद्दावर पदो पर है उनकी राजनीतिक पहचान ही
जब मोदी-शाह से जुडी है तो फिर बीजेपी को डिकोड कैसे किया जाये । क्योकि
पियूष गोयल, धर्मेन्द्र प्रधान , प्रकाश जावडेकर , निर्माला सीतारमण या
अरुण जेटली संसदीय चुनावी गणित में कही फिट बैठते नहीं है और बीजेपी का
सांगठनिक ढांचे सिवाय संख्या के बचता नहीं है । इसीलिये कारपोरेट की पीठ
पर सवार होकर 2014 की चकाचौंध अगर नरेन्द्र मोदी ना फैलाते तो 2014 में
काग्रेस जिस गर्त में बढ चुकी थी उसमें बीजेपी की जीत तय थी । लेकिन मोदी
के जरीये जिस रास्ते को संघ और तब के बीजेपी धुरंधरो ने चुना उसमें
बीजेपी और संघ ही धीरे धीरे मोदी-शाह में समा गये । लेकिन तीन राज्यो की
हार ने बीजेपी को जगाना भी चाहा तो कौन जागा और किस रुप में जागा । यशंवत
सिन्हा बीजेपी छोड चुके है लेकिन बीजेपी को लेकर उनका प्रेम छूटा नहीं है
तो वह हार के बाद बीजेपी को मुर्दो की पार्टी कहने से नहीं चुकते । तो सर
संघ चालक के सबसे करीबी नीतिन गडकरी कारपोरेट के भगौडो को [ माल्या, नीरव
मोदी, चौकसी ] ये कहकर भरोसा दिलाते है कि वह चोर नहीं है । तो सवाल दो
उठते है , पहला, क्या वह कारपोरेट के नये डार्लिग होने को बेताब है और
दूसरा , ऐसे वक्त वह भगौडे कारपोरेट को इमानदार कहते है जब मोदी-शाह की
जोडी जनता को भरोसा दिला रही है कि आज नहीं तो कल भगौडो का प्रत्यापर्ण
कर भारत लाया जायेगा । और इस कतार में बीजेपी के भीतर की तीसरी आवाज बंद
कमरो में सुनायी देती है जहा बीजेपी सांसदो की सांसे थमी हुई है कि उन्हे
2019 का टिकट मिलेगा या नहीं । और टिकट का मतलब ही मोदी-शाह की नजरो में
रहना है तो फिर बीजेपी का प्रचार प्रसार किसी विचारधारा पर नहीं बल्कि
मोदी-शाह के ही प्रचार पर टिका होगा । यानी तीन राज्यो के हार के बाद
मोदी-शाह की लगातार तीन बैठके जो हार के आंकलन और जीत की रणनीति बनाने के
लिये की गई उसमें बीजेपी फिर कही नहीं थी । तो आखरी सवाल यही है कि क्या
वाकई 2019 में जीत के लिये बीजेपी के पास कोई सोच है जिसमें हार के लिये
जिम्मेदार लोगो को दरकिनार कर नये तरीके से बीजेपी को मथने की सोची जाये
या फिर बीजेपी पूरी तरह मोदी-शाह के जादुई मंत्र पर ही टिकी है । चूकि
जादुई मंत्र से मुक्ति के लिये सत्ता मोह संभावनाओ को भी त्यागना होगा जो
संभव नहीं है तो फिर जीत के लिये कैसे कैसे नायब प्रयोग होगें जिसे
भुगतना देश को ही पडेगा वह सिर्फ संवैधानिक संस्थाओ के ढहने के प्रक्रिया
भर में नही छुपा है बल्कि देश को दुनिया के कतार में कई कदम पीछे ढकेलते
हुये देश के भीतर के उथल-पुथल में भी जा छिपा है । और संयोग से नई सीख
बीजेपी को पांच राज्यो में हार से मिल तो जानी ही चाहिये । क्योकि
तेलगाना में ओवैसी को राज्य से बाहर करने के एलान के बाद भी अगर हिन्दुओ
के वोट बीजेपी को नहीं मिली । नार्थ-इस्ट को लेकर संघ की अवधारणा के साथ
बीजेपी का चुनावी पैंतरा भी मिजोरम में नहीं चला । जीएसटी ने शहरी वोटरो
को बीजेपी से छिटका दिया तो नोटबंदी ने ग्रामिण जनता को बीजेपी से अलग
थलग कर दिया । और किसान-मजदूर-युवा बेरोजगारो की कतार ने केन्द्र की
नीतियो को कटघरे में खडा कर दिया । और इसके समाधान के लिये रिजर्तोव बैक
से अब जब तीन लाख करोड रुपये निकाल ही लिये गये है तो फिर आखरी सवाल ये
भी होगा कि क्या रुठे वोटरो को मनाने के लिये रिजव्र वैक में जमा पूंजी
को राजनीतिक सत्ता के लिये बंदर बांट की सोच ही बीजेपी के पास आखरी
हथियार है । यानी अब सवाल ये नहीं है कि काग्रेस जीत गई और बीजेपी हार गई
। सवाल है कि देश के सामने कोई सामाजिक-राजनीतिक नैरेटिव अभी भी नही है ।
और देश के लिये नैरेटिव बनाने वाले बौद्दिक जगत के सामने भी मोदी-शाह एक
संकट की तरह उभरे है । यानी बीजेपी की सरोकार राजनीति कहीं है ही नही ।
संघ की राजनीतिक शुद्दिकरण की सोच कही है ही नहीं । तो अगले तीन महीनो
में कई और सियासी बलंडर सामने भी आयेगें और देश को उससे दो चार होना भी
पडेगा । क्योकि सत्ता की डोर थामे रहना ही जब जिन्दगी है तो फिर गलतियां
मानी नहीं जाती बल्कि गलतिया दोहरायी जाती है ।
Friday, December 14, 2018
[+/-] |
राहुल गांधी ने काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को खोल दिया.... |
अगर काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को खोल दिया जाये तो क्या होगा । ये सवाल करीब दस बरस पहले राहुल गांधी ने ही सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक से पूछा था । और तब उस विश्वलेषक महोदय ने अपने मित्रो से बातचीत में इसका जिक्र करते हुये कहा कि राहुल गांधी राजनीति में रेवोल्शूशनरी परिवर्तन लाना चाहते है । लेकिन अगर अब काग्रेस के मुख्यमंत्री के चयन को लेकर राहुल गांधी के तरीके को समझे तो लगता यही है कि वाकई बोतल में बंद काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को उन्होने खोल दिया है । और चूंकि ये पहली बार हो रहा है तो ना पारंपरिक काग्रेस इसे पचा पा रही है ना ही मीडिया के ये गले उतर रहा है । और बार बार जिस तरह मोदी शाह की युगलबंदी ने इंदिरा के दौर की काग्रेस के तौर तरीको ज्यादा कठोर तरीको से अपना लिया है उसमें दूसरे राजनीतिक दल भी इस हकीकत को समझ नहीं पा रहे है कि राहुल की काग्रेस बदलाव की राह पर है । और ये रास्ता काग्रेस की जरुरत इसलिये हो चला है क्योकि काग्रेस मौजूदा वक्त में सबसे कमजोर है । पारंपरिक वोट बैक खिसक चुके है । पुरानो बुजुर्ग व अनुभवी काग्रेसियो के सामानातंर युवा काग्रेस की एक नई पीढी तैयार हो चुकी है । और संगठन से लेकर राज्य और केन्द्र तक के हालातो को उस धागे में पिरोना है जहा काग्रेस का मंच सबके लिये खुल जाये । यानी सिर्फ किसानो के बीच काम करने वालो में से कोई नेता निकलता है तो उसके लिये भी काग्रेस में जगह हो और दलित या आदिवासियो के बीच से कोई निकलता है तो उसके लिये भी अहम जगह हो । और तो और बीजेपी में भी जब किसी जनाधार वाले नेता को ये लगेगा कि अमित शाह की तानाशाही तो उसके जनाधार को ही खत्म कर उसे बौना कर देगी तो उसके लिये भी काग्रेस में आना आसान हो जायेगा । महत्वपूर्ण ये है कि इन सारी संभावनाओ को अपनाना काग्रेस की मजबूरी भी है और जरुरत भी है । क्योकि राहुल गांधी इस हकीकत को भी समझ रहे है कि काग्रेस को खत्म करने के लिये मोदी-शाह उसी काग्रेसी रास्ते पर चले जहा निर्णय हाईकमान के हाथ में होता है और हाईकमान की बिसात उनके अपने कारिन्दे नेताओ के जरीये बिछायी गई होती है । तो राहुल ने हाईकमान के ढक्कन को काग्रेस पर ये कहकर उठा दिया कि सीएम वही होगा जिसे कार्यकत्ता और विधायक पंसद करेगे । और ध्यान दें तो "शक्ति एप " के जरीये जब राहुल गांधी ने विधायक-कायकत्ताओ के पास ये संदेश भेजा कि वह किसे मुख्यमंत्री के तौर पर पंसद करते है तो शुरुआत में मीडिया ने इसपर ठहाके ही लगाये । राजनीतिक विश्लेषक हो या दूसरे दल हर किसी के लिये ये एक मजाक हो गया कि लाखो कार्यकत्ताओ के जवाब के बाद कोई कैसे मुख्यमंत्री का चयन करेगा । दरअसल डाटा का खेल यही है । डाटा हमेशा ब्लैक-एंड वाइट में होता है । यानी उसपर शक करने की गुंजाइश सिर्फ इतनी भर होती है कि जवाब भेजने वाले को किसी ने प्रभावित कर दिया हो । लेकिन एक बार डाटा आ गया तो मुख्यमंत्री पद के अनेको दावेदार के सामने उस डाटा को रखकर पूछा तो जा ही सकता है कि उसकी लोकप्रियता का पैमाना डाटा के अनुकुल या प्रतिकुल है । मध्यप्रदेश में कमलनाथ को भी मुख्यमंत्री पद के लिये चुने जाने की जरुरत होनी नहीं चाहिये थी । क्योकि ये हर कोई जानता है कि कमलनाथ ने चुनाव में पैसा भी लगाया और उनके पीछे दिग्विजिय सिंह भी खडे थे । यानी सिधिया के सीएम बनने का सवाल ही नहीं था । लेकिन " शक्ति एप" के जरीये जमा किया जाटा जब सिंधिया को दिखाया गया तो सिंधिया के पास भी दावे के लिये कोई तर्क था नहीं । दरअसल यही स्थिति राजस्थान की है । पहली नजर में लग सकता है कि बीचे चार बरस से जिस तरह सचिन पायलय ने राजस्थान में काग्रेस को खडा करने के लिये जान डाल रहे थे उस वक्त असोक गहलोत केन्द्र की राजनीति में सक्रिय थे । याद किजिये गुजरात-कर्नाटक में गहलोत की सक्रियता । लेकिन यहा फिर सवाल डाटा का है । और पायलट के सामने गहलोत आ खडे हो गया तो उसकी सबसे बडी वजह गहलोत की अपनी लोकप्रियता जो उन्होने मुख्यमंत्री रहते ही बनायी [ माना जाता है कि गहलोत के वक्त बीजेपी नेताओ के भी काम हो जाते थे और वसुंधरा के दौर में बीजेपी नेताओ को भी दुष्यतं के दरबार में चढावा देना पडता था ] उसे सचिन का राजनीतिक श्रम भी तोड नहीं पाया । कमोवेश छत्तसगढ में भी यही हुआ । हालाकि छत्तिसगढ की राजनीति को समझने वाले कट्टर युवा काग्रेसी भी मानते है कि टीएस सिंहदेव या ताम्रध्वज साहू के सीएम होने का मतलब बीजेपी की बी टीम सत्ता में है । और भूपेश बधेल ही एक मात्र नेता है जो रमन सिंह की सत्ता या राज्य में अडानी के खनन लूट पर पहले बोलते थे सीएम बनने के बाद कार्रवाई कर सकते है । लेकिन फिर सवाल काग्रे के उस ढक्कन को खोलने का है जिसमें कार्यकत्ता को ये ना लगे कि हाईकमान के निर्देश पर पैराशूट सीएम बैठा दिया गया है । जाहिर है इसके खतरे भी है और भविष्य की राजनीति में सत्ता तक ना पहुंच पाने का संकट भी है । जाहिर है पारपरिक काग्रेसियो के लिये ये झटका है लेकिन राहुल गांधी की राजनीति को समझने वाले पहली बार ये भी समझ रहे है कि काग्रेस को आने वाले पचास वर्षो तक अपने पैरो पर खडा होना है या क्षत्रप या दूसरे राजनीतिक दलो के आसरे चलना है । फिर राहुल गांधी के पास गंवाने के लिये भी कुछ नहीं है [ कमजोर व थकी हुई काग्रेस के वक्त राहुल गांधी अध्य़क्ष बने ] लेकिन पाने के लिये काग्रेस के स्वर्णिम अतीत को काग्रेस के भविष्य में तब्दिल करना है । और इसके लिये सिर्फ काग्रेसी शब्द से काम नहीं चलेगा । बल्कि बहुमुखी भारत के अलग अलग मुद्दो को काग्रेस की छतरी तले कैसे समेट कर समाधान की दिशा दिखायी जा सकती है अब सवाल उसका है । इसलिये ध्यान दे तो तीन राज्यो में जीती के बाद किसानो की कर्जमाफी को किसानो की खुशहाली के रास्ते को बेहद छोटा सा कदम बताते हुये किसान के संकट के बडे कैनवास को समझने की जरुरत बतायी । यानी इक्नामिक माडल भी कैसे बदलेगा और हर तबके के लिये बराबरी वाली नीतिया कैसे लागू हो ये सवाल तो है । यानी तीन राज्यो की जीत के बाद तीनो राज्य के मुख्यमंत्री अगर सिर्फ उसे चुन लिया जाये जो 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा वोट दिलाने का दावा करे. , तो अगला सवाल ये भी होगा कि दावा तो कई नेता कर सकते है । लेकिन राहुल की काग्रेस उस राजनीतिक डर से मुक्ति चाहती है जहा सत्ता ना मिलने पर कोई नेता पार्टी तोड बीजेपी या अन्य किसी छत्रप से जा मिले और सीएम बन जाये । राहुल गांधी धीरे धीरे उस काग्रेस को मथ रहे है जो एक ऐसा खुला मंच हो जहा कोई भी आकर काम करें और लोकप्रियता के अंदाज में कोई भी पद ले लें । हां, इन तमाम विश्लेषण का आखरी सच यही है कि किसी कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट पार्टी की तर्ज पर राहुल गांधी काग्रेस के महासचिव [ अध्यक्ष ] है । जिन्हे हटाया नहीं जा सकता । और काग्रे का सच भी है कि गांधी-नेहरु परिवार के ही ईर्द-गिर्द काग्रेस है । लेकिन राहुल गांधी ने काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढकक्न को खोल दिया है ।
Tuesday, December 11, 2018
[+/-] |
जनादेश ने लोकतंत्र के चौराहे पर ला खडा किया साहेब को...... |
आसान है कहना कि 2014 में उगा सितारा 2019 में डूब जायेगा । ये भी कहना आसान है पहली बार किसान-मजदूर-बेरोजगारी के समुद्दे सतह पर आये तो शहरी चकाचौंध तले विकास का रंग फिका पड गया । ये कहना भी आसान है कि बीजेपी आंकडो के लिहाज से चाहे विस्तार पाती रही लेकिन अपने ही दायरे में इतनी सिमटी की मोदी-शाह-जेटली से आगे देख नहीं पायी । और ये भी कहना आसान है कि साल भर पहले काग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी ने पप्पू से राहुल के सफर को जिस परिपक्वता के साथ पूरा किया उसमें काग्रेस के दिन बहुरने दिखायी देने लग गये । लेकिन सबसे मुश्किल है अब ये समझना कि जिस लोकतंत्र की धज्जियां दिल्ली में उडायी गई उसके छांव तले राजस्थान , छत्तिसगढ और मध्यप्रेदश कैसे आ गये । और अब क्या 2019 के फेर में लोकतंत्र और ज्यादा लहूलुहान होगा । क्योकि जहा जहा दाव पर दिल्ली थी वहा वहा सबसे बुरी हार बीजेपी की हुई । छत्तिसगढ में अडानी के प्रोजेक्ट है तो रुपया पानी की तरह बहाया गया । पर जनादेश की आंधी ऐसी चली कि तीन बार की रमन सरकार ही बह गई । मद्यप्रदेश के इंदौर और भोपाल सरीखे शहरी इलाको में भी बीजेपी को जनता के मात देदी । जहा की सीट और कोई नहीं अमित शाह ही तय कर रहे थे । और राजस्थान में जहा जहा वसुधरा को घुल चटाने के लिये मोदी - शाह की जोडी गई वहा वहा वसुंधरा ने किला बचाया और जिन 42 सीटो को दिल्ली में बैठ कर अमित शाह ने तय किया उसमें से 34 सीटो पर बीजेपी की हार हो गई । तो क्या वाकई 2014 की जीत के नशे में 2019 की जीत तय करने के लिये बीजेपी के तीन मुख्यमंत्रियो का बलिदान हुआ । या फिर काग्रेस ने वाकई पसीना बहाया और जमीनी स्तर पर जुडे कार्यकत्ताओ को महत्ता देकर अपने आलाकमान के पिरामिड को इस बार पलट दिया । यानी ना तो पैराशूट उम्मीदवार और ना ही बंद कमरो के निर्णयो को महत्व । तो क्या बूथ दर बूथ और पन्ने दर पन्ने की सोच तले पन्ना प्रमुख की रणनीति जो शाह बनाते रहे वह इस बार टूट गया । हो सकता है ये सारे आंकलन अब शुरु हो लेकिन महज चार महीने बाद ही देश को जिस आमचुनाव के समर में कूदना है उसकी बिसात कैसी होगी और इन तीन राज्यो में काग्रेस की जीत या बीजेपी के हार कौन सा नया समीकरण तैयार कर देगी अब नजरे तो इसी पर हर किसी की होगी । हा , तेलगाना में काग्रेस की हार से ज्यादा चन्द्रबाबू के बेअसर होने ने उस लकीर को चाहे अनचाहे मजबूत कर दिया कि कि अब गठंबधन की शर्ते क्षत्रप नहीं काग्रेस तय करेगी । यानी जनादेश ने पांच सवालो को जन्म दे दिया है । पहला , अब मोदी को चेहरा बनाकर प्रेजीडेन्शिल फार्मेट की सोच की खुमारी बीजेपी से उतर जायेगी । दूसरा , मोदी ठीक है पर विकल्प कोई नहीं की खाली जगह पर ठसक के साथ राहुल गांधी नजर आयेगें । तीसरा , दलित वोट बैक की एकमात्र नेत्री मायावती नहीं है और 2019 में मायावती के सौदेबाजी का दायरा बेहद सिमट गया । चौथा, महागठबंधन के नेता के तौर पर राहुल गांधी को खारिज करने की स्थिति में कोई नहीं होगा । पांचवा, बीजेपी के सहयोगी छिटकेगें और शिवसेना की सौदेबादी का दायरा ना सिर्फ बीजेपी को मुश्किल में डालेगा बल्कि शिवसेना मोदी पर सीधा हमला बोलेगी । तो क्या वाकई काग्रेस के लिये अच्छे दिनो की आहट और बीजेपी के बुरे दिन की शुरूआत हो गई । अगर इस सोच को भी सही मान लें तो भी कुछ सवालो का जवाब जो जनता जनादेश के जरीये दे चुकी है उसे जुंबा कौन सी सत्ता दे पायेगी ये अपने आप में सवाल है । मसलन राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ तीनो सत्ता धाटे के साथ काग्रेस को मिल रही है । यानी सत्ता पर कर्ज है । तीन राज्यो में किसान-मजदूर-युवा बेरोजगार बेहाल है । तीनो राज्यो में उघौगिक विकास ठप पडा है । तीनो राज्यो में खनिज संसाधनो की लूट चरम पर है । मद्यप्रदेश और छतिसगढ में तो संघ के स्वयसेवको की टोलिया का कब्जा सरकारी संस्थानो से लेकर सिस्टम के हर पुर्जे पर है । और सबसे बडी बात तो ये है कि मोजूदा दौर में जो खटास राजनीतिक तौर पर उभरी वह सिर्फ बयानबाजी या राजनीतिक हमले भर की नहीं रही । बल्कि सीबीआई और इनकमटेक्स के अधिकारियो ने काग्रेसी पर मामला भी दर्ज किया और छापे भी मारे । काग्रेस को फाइनेन्स करने वाले छत्तिसगढ के 27 और मद्यप्रदेश के 36 लोगो पर दिल्ली से सीबीआई और इनकमटेक्स के छापे पडे । यानी राजनीतिक तौर तरीके पारंपरिक चेहरे वाले रहे नहीं है । तो ऐसे में सत्ता परिवर्तन राज्य में जिस तल्खी के साथ उभरेगें उसमें इस बात का इंताजार करना होगा कि अब काग्रेस के लिये संघ का मतलब सामाजिक सांस्कृतिक संगठन भर नहीं होगा । लेकिन बात यही नहीं रुकती क्योकि मोदी भी समझ रहे है और राहुल गांधी भी जान रहे है कि अगले तीन महिने की सत्ता 2019 की बिसात को तय करेगी । यानी सत्ता चलाने के तौर तरीके बेहद मायने रखेगें । खासकर आर्थिक हालात और सिस्टम का काम करना । मोदी के सामने अंतरिम बजट सबसे बडी चुनौती है । तो काग्रेस के सामने नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र को पटरी पर लाने और ग्रामिणो के हालत में सुधार तत्काल लाने की चुनौती है । और संयोग से इनकी तादाद सबसे ज्यादा उन्ही तीन राज्यो में है जहा काग्रेस को जीत मिली है । फिर भ्रष्ट्रचार के मुद्दो को उठाकर 2014 में जिस तरह बार बार मोदी ने काग्रेस को घेरा अब इन्ही तीन राज्यो में भ्रष्ट्रचार के मुद्दो के आसरे काग्रेस बिना देर किये बीजेपी को घेरेगी । मद्यप्रदेश का व्यापम घोटाला हो या वसुंधरा का ललित मोदी के साथ मिलकर खेल करना या फिर रमन सिंह का पनामा पेपर । और इस रास्ते को सटीक तरह से चलाने के लिये तीनो राज्यो में जो तीन चेहरे काग्रेस सबसे फिट है उसमें मध्यप्रदेश में कमलनाथ । तो राजस्थान में सचिन पायलट और छत्तिसगढ में भूपेश बधेल ही फिट बैठते है । और ये तिगडी काग्रेसी ओल्ड गार्ड और युवा को भी बैलेस करती है । और बधेल के जरीये रमन सिंह या छत्तिसगढ में अडानी के प्रोजक्ट पर भी लगाम लगाने की ताकत रखती है । पर इस कडी में आखरी सवाल यही है कि अब शिवराज, रमन सिंह और वसुंधरा का क्या होगा । या फिर मोदी - शाह की जोडी अब कौन सी बिसात बिछायेगी या फिर मोदी सत्ता कौन सा तुरुप का पत्ता देश के सामने फेकेगीं जिससे उनमें है ये मई 2019 तक बरकरार रहे । या फिर बीजोपी के भीतर से वाकई कोई अवाज उठेगी या संघ परिवार जागेगा । लेकिन ध्यान दें तो कोई विकल्प अब बीजेपी के भीतर नहीं है । मोदी के बाद दूसरी कतार के नेता ऐसे है जो अपना चुनाव नहीं जीत सकते है या फिर उनकी कोई पहचान किसी राज्य तो दूर किसी लोकसभा सीट तक की नहीं है । मसलन, अरुण जेटली , धर्मेन्द्र प्रधान , पियूष गोयल या निर्माला सीमारमण । और इस कडी में हारे हुये मुख्यमंत्रियो को अमित शाह कौन सी जगह देगें ये भी सवाल है । यानी जनादेश ने साफ तौर पर बतलाया है कि जादू या जुमले से देश चलता नहीं और मंदिर नहीं सवाल पेट का होगा । सिस्टम गढा नहीं जाती बल्कि संवैधानिक संस्थाओ के जरीये चलाना आना चाहिये । शायद इसीलिये पांच राज्यो के जनादेश ने मोदी को लोकतंत्र के चौराहे पर ला खडा किया है ।
Monday, December 10, 2018
[+/-] |
ना राजधर्म निभाया, ना धर्मसभा की मानेगें.... |
जयपुर के पांडे मूर्त्तिवाले । वैसे पूरा नाम पंकज पांडे है , लेकिन पहचान यही है जयपुर के पांडे मूर्त्तिवाले । और इस पहचान की वजह है कि देश भर में जहा भी प्रमुख स्थान पर भगवान राम की मूर्त्ति लगी है , वह पांडे जी ने ही बनायी है । यू श्रीकृष्ण और अन्य भगवान के मूर्त्तिया भी बनायी है और अलग अलग जगहो पर स्थापित की है । लेकिन भगवान राम की मूर्ति और वह भी अयोध्या में राम की प्रतिमा को लेकर पांडे जी इतने भावुक रहते है कि जब भी बात होती है तो बात करते करते उनकी आंखो में आंसू आ जाते है । आवाज भर्रा जाती है । और आखरी वाक्य अक्सर उनसे बातचीत में यही आकर ठहरती है कि अयोध्या में राम मंदिर तो बना नहीं लेकिन उन्होने भगवान राम की उस मूर्ति को बना कर रखा हुआ है जिसे राम मंदिर में स्थापित करना है । और अक्सर इस आखरी वाक्य से पहले आडवाणी की रथयात्रा से लेकर मोदी की ताकतवर सत्ता का जिक्र जरुर होता है । लेकिन राजनीति और सत्ता धर्म के मार्ग पर कहा चलते है इस सवाल पर संयोग से ह बार वह राजधर्म का जिक्र किया करते थे लेकिन 9 जिसंबर को राजधर्म की जगह धर्मसभा का जिक्र कर उन्होने यही उम्मीद जतायी कि 15 से 25 दिसंबर के बीच कोई बडा निर्णय होगा । निर्णय क्या होगा यह पूछने पर उन्होने चुप्पी साध ली लेकिन उम्मीद के इंतजार में रहने को कहा । और यही से यह बात भी निकली कि कैसे 50 की उम्र वाले पांडेजी आज 75 पार है लेकिन उम्मीद छूटती नहीं । लेकिन दूसरी तरफ दिल्ली में रामलीला मैदान की धर्मसभा में उम्मीद ही नहीं भरोसा भी गुस्से में तब्दिल होता दिखायी दिया । चाहे भैयाजी जोशी मंच से सत्ता से गुहार लगा गये कि राम मंदिर के लिये कानून तो सरकार को बनाना ही चाहिये । लेकिन संयोग से उसी दिन मोदी सत्ता के तीसरे कद्दावर नेता अरुण जेटली ने एक अंग्रेजी चैनल को दिये इंटरव्यू में जब साफ कहा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार चलेगी । तो चार सवाल उठे । पहला , सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखना चाहती है तो संघ परिवार सत्ता से विधेयक लाने की गुहार क्यो कर रहा है । दूसरा, सत्ता का मतलब है कि बीजेपी की सत्ता और बीजेपी जब खुद को संघ परिवार की सोच से अलग कर रही है तो फिर इसके संकेत क्या कानून तंत्र और भीडतंत्र को बांटने वाले है । तीसरा , क्या सत्ता तमाशा देखे और तमाशा करने करने के लिये विहिप -बंजरंग दल या स्वयसेवक तैयार है । चौथा , आखिर में राम मंदिर जब सियासत का प्यादा बना दिया गया है तो फिर अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर भीडतंत्र की हैसियत तो प्यादे वाली भी ना होगी । तो क्या वह सत्ता की मंशा पर मठ्टा डालने का मन बना चुका है । यानी राम मंदिर से अगर वोटो का ध्रूवीकरण होता है और पारदर्शी तौर पर ये दिखायी देने लगा है कि राम भक्ति से ज्यादा सत्ता भक्ति ही अब संघ परिवार पर छायी हुई है तो फिर खडा होगा कौन । और राम मंदिर की दिशा में बढेगा कौन । क्योकि रामलीला मैदान में एक पुराने स्वयसेवक से जब चर्चा होने लगी तो उन्होने बेहद सरल शब्दो में उपनिषद का सार समझा दिया । बोले, ईश्वर के पास तो सबकुछ है , तो उन्होने अपने को बहलाने के लिये सृष्टि की रचना की । और मनुष्य उन्ही के कण से बने । तो मनुष्य खुद को कैसे समझे और ईश्वर को कैसे जाने तो सृष्टि बनाते वक्त ईश्वर ने मनुष्य़ के मन, दिमाग और तन को खुद से इस तरह अलग किया कि जिससे मनुष्य अपने होने या खुद को पहचानने के लिये भटकता फिरे । और ध्यान दिजिये जिसका मन राम में रम गया या अपने इश्वर में लग गया तो वह उस माया से मुक्ति पा जाता है जिसके लिये मनुष्य खुद के जीवन को खत्म कर देता है । हमारी बातो भगवा पहने एक व्यक्ति भी सुन रहे थे तो उन्होने बीच में टोका, तो जो मनुष्य खुद को शक्तिशाली समझता है वह तो ईश्वर से उतना ही दूर हो गया । क्यों ...मैने सवाल किया तो वह बेहिचक बोले क्योकि हर राजा को लगता है कि उसके पास सबकुछ है तो अपने मनोरंजन के लिये ही वह अपनी जनता से खेलता है । और वह ये भूल जाता है कि वह खुद उस ईश्वर के कण से बना है जिन्होने सृष्टि ही अपने लिये बनायी । यानी कण कण में भगवान का मतलब यही है कि सभी तो ईश्वर के कण से बने है और ताकतवर खुद को ही इश्वर मानने लगता है तो फिर ये भी इश्वर का तमाशा ही है । जाहिर है बातो में ऐसा रस था कि मैने सवाल कर दिया ...अब तो लोकतंत्र है राजा कहां कोई होता है । पर लोकतंत्र को भी शाही अंदाज में जीने की चाहत मुखौटे और चेहेर में कैसे बंट जाती है ये तो आप राम मंदिर के ही सवाल पर देख रहे है । स्वयसेवक महोदय ने ना कहते हुये भी जब मुखौटे का जिक्र किया तो मैने उसे और स्पष्ट करने को कहने की मंशा से अपनी समझ को राम मंदिर से इतर मौजूदा सामाजिक राजनीतिक हालात की दिशा में ये कहते हुये मोड दिया कि ..ऐसा तो नहीं मोदी के सत्ता में आने पर बतौर मुखौटा सिर्फ गरीबी गरीब , किसान-मजदूर की बात बीचे साढे चार बरस में लगातार जारी है लेकिन असल चेहरा कारपोरेट हित और सत्ता की रईसी के लिये पूंजी के जुगाड में ही रमा हुआ है । और संयोग से तभी साध्वी रितंभरा मंच से बोलने खडी हुई और मंदिर कानून बनाने का जिक्र किया तो स्वयसेवक महोदय बोल पडे , अब मंदिर कानून का जिक्र कर रही है तो ये सवाल वृंदावन में अपने आश्रम के लिये सरकारी चंदा लेते वक्त क्यो नहीं कहा । यानी ...यानी क्या सरकार के साथ अंदरखाने मिलाप और बाहर विलाप ? मुश्किल यही है कि 1992 के आंदोलन की पूंजी पर आज की गुलामी छुपती नहीं है । और यही हाल संघ परिवार का होचला है । कोई नानाजी देशमुख सरीखा तो है नहीं कि एक धोती और एक गमछा ले कर चल निकले । अब तो घुमने के लिये आलीशान गाडिया भी चाहिये और विमान प्रवास में सीट भी ए 1 । इन बातो को सुनते हुये एक और पुराने स्वयसेवक आ गये जो मंच से सत्ता को राम मंदिर के नाम पर लताड कर आये ते । उनकी आंखो में आंसू थे ..लगभग फूट पडे...देख लिजिये कोई सत्ता का आदमी आपको यहा दिखायी नहीं देगा । लेकिन राम मंदिर से सत्ता हर किसी को दिखायी दे रही है । गुलामी होने लगी है । साढ चार बरस बोलते रहे विकास है तो चुप रहो । अब विकास से कुछ हो नही रहा है तो राम राम कहने के लिये कह रहे है । अच्छा ही है जो इनके चंगुल से कक्काजी , दयानंद दी , शरद जी , मिश्रा जी , तोगडिया जी और ऐसे सैकडो अच्चे प्रचारको को निकाल दिया गया । और लगे सत्ता की गुलामी करने । मेरा तो ह्रदय दिन में रोता है और आंखे रात में बरसती है । बात बढती जा रही थी ..चंद भगवाधारी और जमा हो रहे थे । और जो जो जिन शब्दो में कहा गया उसका अर्थ यही निकल रहा था कि भगवा भीड भी अब संङल रही है और सत्ता तंत्र के खेल में प्यादा बन खुद को भीडतंत्र बनाने के लिये वह भी तैयार नही है ।
Sunday, December 9, 2018
[+/-] |
अर्थ्वयवस्था का चेहरा भी बदलेगा 11 दिसंबर के बाद |
ये पहली बार होगा कि तीन राज्यो के चुनाव परिणाम देश की राजनीति पर ही नहीं बल्कि देश के इकनामिक माडल पर भी असर डालेगें । खास तौर से जिस तरह किसान-मजदूर के मुद्दे राजनीतिक प्रचार के केन्द्र में आये । और ग्रामिण भारत के मुद्दो को अभी तक वोट के लिये इस्तेमाल करने वाली राजनीति ने पहली बार अर्थव्यवस्था से किसानो के मुद्दो को जोडा वह बाजार अर्थव्यवस्था से अलग होगी , इसके लिये अब किसी राकेट साइंस की जरुरत नहीं है । ध्यान दें तो काग्रेस ने अपने घोषणापत्र मे जिन मुद्दो को उठाया उसे लागू करना उसकी मजबूरी भी है और देश की जरुरत भी । क्योकि मोदी सत्ता ने जिस तरह कारपोरेट की पूंजी पर सियासत की और सत्ता पाने के बाद कारपोरेट मित्रो के मुनाफे के लिये रास्ते खोले वह किसी से छुपा हुआ नहीं है । और 1991 में आर्थिक सुधार के रास्ते कारपोरेट के जरीये काग्रेस ने ही बनाये ये भी किसी से छुपा नहीं है । लेकिन ढाई दशक के आर्थिक सुधार के बाद देश की हथेली पर भूख-गरीबी और असमानता जिस तरह बढी और उसमें राजनीतिक सत्ता का ही जितना योगदान रहा उसमें अब राहुल गांधी के सामने ये चुनौती है कि वह अगर तीन राज्य जीतते है तो वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की लकीर खिंचे । और शायद ये लकीर खिंचना उनकी जरुरत भी है जो भारतीय इक्नामिक माडल के चेहरे को खुद ब खुद बदल देगी । इसके लिये काग्रेस को अर्थशास्त्री नहीं बल्कि राजनीतिक क्षमता चाहिये । क्योकि चुनावी घोषणापत्र के मुताबिक दस दिनो में किसानो की कर्ज माफी होगी । न्यूतम समर्थन मूल्य किसानो को मिलेगा । मनरेगा मजदूरो को काम-दाम दोनो मिलेगा । छोटे-मझौले उघोगो को राहत भी मिलेगी और उनके लिये इन्फ्रास्ट्क्चर भी खडा होगा । अब सवाल है जब ये सब होगा तो किसी भी राज्य का बजट तो उतना ही होगा , तब कौन सा रुपया किस मद से निकलेगा । जाहिर है कारपोरेट को मिलने वाली राहत राज्यो के बजट से बाहर होगी । और उसी मद का रुपया ग्रामिण इक्नामी को संभालेगा । क्योकि किसान मजदूर या छोटे-मझौले उघोगो के हालात में सुधार का एक मतलब ये भी है कि उनकी खरीद क्षमता में बढोतरी होगी । यानी कारपोरेट युग में जिस तरह की असमानता बढी उसमें ग्रामीण भारत की पहचान उपभोक्ता के तौर पर कभी हो ही नहीं पायी । फिर जब दुनिया भर में भारत का डंका पीटा जा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवी सबसे बडी इक्नामी हो चुकी है तो अगला सवाल कोई भी कर सकता है कि जब इतनी बडी इक्नामी है तो फिर भारतीय कारपोरेट अपने पैरो पर क्यो नहीं खडा हो पा रहा है । और उसे सरकार से राहत क्यो चाहिये । फिर एनपीए की सूची बतलाती है कि कैसे दस लाख करोड से ज्यादा की रकम कारपोरेट ही डकार गये और उनसे वसूली की जगह मोदी सत्ता ने की खेप में राहत देनी शुरु कर दी । और इसी कतार में आम जनता का बैको में जमा रुपया भी कारपोरेट सत्ता से करीबी दिखा कर फरार हो गया । जिन्हे भगौडा कहकर वापस भारत लाने का शिगूफा राजनीतिक तौर पर मोदी सत्ता ने बार बार कही । लेकिन सवाल ये नहीं है कि जो भगौडे है उन्हे सत्ता वापस कब लायेगी बल्कि बडा सवाल ये है कि क्या वाकई मोदी सत्ता के पास कारपोरेट से इतर कोई आर्थिक ढांचा ही नहीं है । जाहिर है यही से भारतीय राजनीति के बदलते स्वरुप को समझा जा सकता है । क्योकि जनवरी में मोदी सरकार आर्थिक समिक्षा पेश करेगी और अपने पांच बरस की सत्ता के आखरी बरस में चुनाव से चार महीने पहले अंतरिम बजट पेश करेगी । और दूसरी तरफ काग्रेस अपने जीते हुये राज्यो में कारपोरेट से इतर ग्रामिण इक्नामी पर ध्यान देगी । यानी राज्य बनाम केन्द्र या कहे काग्रेस बनाम बीजेपी का आर्थिक माडल टकराते हुये नजर आयेगा । और अगर ऐसा होता है तो फिर पहली नजर में कोई भी कहेगा कि जिस आर्थिक माडल का जिक्र स्वदेशी के जरीये संघ करता रहा और एक वक्त बीजेपी भी आर्थिक सुधार को बाजार की हवा बताकर कहती रही उसमें बीजेपी सत्ता की कहीं ज्यादा कारपोरेट प्रेमी हो गई और काग्रेस भारत के जमीनी ढांचे को समझते हुये बदल गई ।
दरअसल पहली बार राजनीतिक हालात ही ऐसे बने है कि काग्रेस के लिये कोई भी राजनीतिक प्रयोग करना आसान है और बीजेपी समेत किसी भी क्षत्रप के लिये मुशिकल है । क्योकि राहुल गांधी के कंघे पर पुराना कोई बोझ नहीं है । काग्रेस को अपनी पुरानी जमीन को पकडने की चुनौती भी है और मोदी के कारपोरेटीकरण के सामानांतर नई राजनीति और वैक्लिपक इकनामी खडा करना मजबूरी है । मोदी सत्ता इस दिशा में बढ नहीं सकती क्योकि बीते चार बरस में उसने जो खुद के लिये जो जाल तैयार किया उस जाल को अगले दो महीने में तोडना उसके लिये संभव नहीं है । हालाकि तीन राज्यो के जनादेश का इंतजार करती बीजेपी ये कहने से नहीं चूक रही है कि मोदी वहा से सत्ता हो जहा से काग्रेस या विपक्ष की सोच खत्म हो जाती है । तो ऐसे में ये समझना भी जरुरी है कि चुनाव के जो आंकडे उभर रहे है उसमें बीजेपी से दस फिसदी तक एससी-एसटी वोट खिसके है । किसान-मजदूरो के वोट कम हुये है । बेरोजगार युवा और पहली बार वोट डालने वालो ने भी बीजेपी की तुलना में काग्रेस को करीब दस फिसदी तक ज्यादा वोट दिये है । और अगर अगले दो तीन महीनो में मोदी उन्हे दोबारा अपने साथ लाने के लिये आर्थिक राहत देते है तो तीन सवाल तुरत उठेगें । पहला , राज्यो के जनादेश में हार की वजह से ये कदम उठाया गया । दूसरा , काग्रेस की नकल की जा रही है । तीसरा , चुनाव नजदीक आ गये तो राहत देने के कदम उठाये जा रहे है । फिर असल सच तो यह भी है सरकारी खजाना खाली हो चला है तभी रिजर्व बैक से एक लाख करोड रुपया बाजार में लाने के लिये रिजर्व बैक के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स पर दवाब बनाया जा रहा है । फिर चुनाव जब चंद फर्लाग की दूरी पर हो तो कारपोरेट मित्रो से पूंजी की जरुरत मोदी सत्ता को पडेगी ही । और कारपोरेट मित्रो को अगर ये एहसास होता है कि मोदी सत्ता जा रही है तो वह ज्यादा दांव मोदी पर ही लगायेगे । क्योकि काग्रेस तब मोदी के कारपोरेट मित्रो की पूंजी से बचना चाहेगी । पिर एक सच ये भी है कि पहली बार काग्रेस ने राजनीतिक तौर पर मोदी के कारपोरेट मित्रो का नाम खुले तौर पर अपने चुनावी प्रचार में ना सिर्फ लिया बल्कि भ्रष्ट्रचार के मुद्दो को उठाते हुये क्रोनी कैपटलिज्म का कच्चा-चिट्टा भी खोला ।
तो चुनावी दांव के बदलते हालात में आखरी सवाल ये भी होगा कि तीन राज्यो की जीत के बाद काग्रेस महज महागढबंधन में एक साझीदार के दौर पर दिखायी नहीं देगी बल्कि काग्रेस के ही इर्द -गिर्द समूचे विपक्ष की एकजूटता दिखायी देगी । और इसका बडा असर यूपी में नजर आयेगा जहा काग्रेस अकेले चुनाव लडने की दिशा में बढेगी । क्योकि काग्रेस अब इस हकीकत को समझ रही है कि जब मायावती को तीन राज्यो के दलितो ने कांग्रेस की तुलना में कम वोट दिया तो यूपी में उसे गंठबंधन के साथ जाने पर कोई लाभ नहीं होगा । क्योकि काग्रेस के पारंपरिक वोट बैक सिर्फ किसान तक सीमित नहीं रहे है बल्कि दलित आदिवासी, ओबीसी और ब्रहमण भी यूपी में साथ रहे है । इसीलिये काग्रेस के लिये दिल्ली की सत्ता हमेशा यूपी के रास्ते निकली है । तो जिस परिवर्तन की राह पर काग्रेस खडी है उसमें तीन राज्यो के जनादेश पहली बार राजनीतिक तौर तरीके भी बदल रहे है और देश का इक्नामिक माडल भी ।
Saturday, December 8, 2018
[+/-] |
स्वंयसेवक की चाय ! भरभरा कर गिरने वाले बांध को दो दो बोरियो से थामा नहीं जा सकता है साहेब... |
जब नदी में उफान हो और बांध ही भरभरा कर गिरने की स्थिति में हो तब रेत की दो दो बोरियो को जुटा कर बांध बचाया नहीं जा सकता । चाय की प्याली टेबल पर रखते रखते स्वयसेवक के जुबा से निकलते इन शब्दो ने मुझे भी चौकाया और प्रोफेसर साहेब को भी । दोनो ही एक साथ बोल पडे, क्या मतलब है इसका ?
बेहद शांत स्वर में स्वयसेवक ने कहा आप हमेशा चाय की प्याली का तुफान मापते है इस बार देश के तुफान को समझे और बांध के भरभराने को परखे । बांध कौन है ? जैसे ही मैने कहा, तो इस बार प्रोफेसर साहेब ठहाका लगाकर बोले प्रसून जी आप भी बांध के बारे में पूछेगें । देश का मामला है तो उफान राज्यो के जनादेश से मापने की कोई गलती ना करें । मुझे ही कहना पडा ,लेकिन आज स्वयसेवक महोदय के तेवर ही कुछ और थे , बीच में लगभग कूदते हुये बोले ... आप तो बाहर से देख रहे है लेकिन मै तो अंदर से देख भी रहा हूं और दिवालियापन को समझ भी रहा हूं । दिवालियापन यानी....यानी जिस तरह 2014 की तर्ज पर ही 2019 की बिसात बिछायी जा रही है उसमें आपको जानकार हैरत होगी कि काग्रेस का भ्रष्ट्रचार और राम मंदिर पर उग्र तेवर का काकटेल बना कर ये परोसना चाहते है । पर 2014 में तो विकास की बात थी । अब टोकते हुये प्रोफेसर साहेब बोले , तो स्वयसेवक महोदय लगभग बिगड गये ...और गुस्से में बोले आप टोके नहीं तो मै समझाउ.. जी हम चाय की चुस्की लेते है आप ही 2019 को लेकर घुंधलके को साफ किजिये । धुधलका क्या है अब तो एक्जीट पोल ने जिस तरह काग्रेस की जीत तय की है उसी का विस्तार 2019 में हो जायेगा .... प्रोफेसर साहेब फिर बोले तो स्वयसेवक महोदय बोल पडे आप चाय का मजा लिजिये ...लेकिन समझने की कोशिश किजिये कि पटरी से गाडी उतर क्यो रही है । जी बताइये...और प्रोफेसर साहेब आप भी सुने , मुझे ही स्टैड लेना पडा ।
तो बांध भरभरा रहा है और भरभराते बांध को ये एहसास ही नहीं है कि उसकी दो दो बोरियो से अब नदी का उफान रुकेगा नहीं । और ये 11 दिसबंर को जब साफ होगा तो कल्पना किजिये 2019 के लिये कौन सी बोरिया लेकर बांध बांधने की कोशिश होगी । जरा सिलसिलेवार समझे ....एक तरफ उग्र हिन्दुत्व का उभार बुलंदशहर में उभरा । काग्रेस के भ्रष्ट्रचार को मुद्दा बनाने के लिये ब्रिट्रिश बिचौलिये मिशेल का दुबई से प्रत्यापर्ण कर लाया गया । यानी 2014 के बाद विकास का बही खाता बता कर चुनाव में जाने की हिम्मत मोदी सरकार के पास नहीं है । लेकिन जिन दांव को ये खेलना चाहते है वह दांव भी इन्हे उल्टा पडेगा । ये आप कह रहे है । मुझे टोकना पडा । जी , मै ही कह रहा हूं , क्योकि भ्रष्ट्रचार तो सत्ता का सिस्टम होता है । और हमेशा विपक्ष भ्रष्ट्राचार के मुद्दे को उठाता है लेकिन जब सत्ता उठाने लगे तो कई परते उघडती है । मसलन ? मसलन यही कि यूपीए के दौर में सीएजी विनोद राय और अगस्ता वेस्टलैड के बिचौलिये मिशेल एक नहीं है । और ये हर कोई जानता है कि विनोद राय के प्रसेपशन वाली कोयला और 2 जी घोटाले की रकम को ही करप्शन का मुद्दा बनाकर बीजेपी ने काग्रेस को कटघरे में खडा किया । विनोद राय बीजेपी के लिये सरकारी प्यादा बन गये । लेकिन मिशेल क्यो बनेगें । क्योकि सत्ता का प्यादा बनने का मतलब है जो बयान अंतर्रष्ट्रीय कोर्ट में मिशेल ने दिया है उस बयान से पलट जाये । और मिशेल को अंतर्रष्ट्रीय कोर्ट बरी कर चुका है । तो सत्ता जो चाहती है वह कैसे मिशेल बोल देगें । मान्यवक सत्ता क्या बुलवाना चाहती है मिशेल से .....प्रोफेसर साहेब ने उत्सुकता में पूछा , तो स्वयसेवक महोदय बोले अब तो ये देश का बच्चा बच्चा जानता है कि मिशेल एक बार कह दें कि फैमली का मतलब है गांधी परिवार और एपी का मतलब है अहमद पटेल । और मसला यही है कि इंटरनेशवल कोर्ट में मिशेल ने सिर्फ खुद को कानूनी तौर पर बिचौलिया होने के कार्य पर बोला है । तो मिशेल बीजेपी की 2019 की बिसात पर कैसे और क्यो प्यादा बनेगा । बात तो सही है और आप दूसरा मुद्दा उग्र हिन्दुत्व को बुलंदशहर से कैसे जोड रहे थे ।
आपको ये तो पता है ना कि 6 दिसबंर को योगी आदित्यनाथ को दिल्ली बुलाया गया । जी । क्यो बुलाया गया । ये तो आप बतायेगें । प्रोफेसर साहेब की इस टिप्पणी पर स्वयसेवक महोदय मुस्कुराये और बोल पडे । योगी सीएम है और 2019 में यूपी के सीएम की महत्ता क्या होगी ये दिल्ली की सत्ता बाखूबी समझ रही है । और अब मामला यूपी में कानून व्यवस्था का नहीं है बल्कि कानून के राज की एवज में हिन्दुत्व के पोस्टर ब्याय के तौर पर खुद को स्थापित करने का है । और दिल्ली चाहती है कि इस काम को तेजी से किया जाये । लेकिन योगी चाहते है ये काम धीरे धीरे हो जिससे वह ना सिर्फ पोस्टर ब्याय बने बल्कि हालात संभालने की उनकी काबिलियत पर भी मुह लगें । समझे नही , साफ कहे मुझे् टोकना पडा,,प्रसून जी आपको भी साफ बताना होगा कि बजरंग दल और बिहिप ही नहीं बल्कि बीजेपी का कार्यकत्ता भी अगर बुंलदशहर में पुलिस के हत्या में आरोपी है तो फिर राज्य का मुखिया कानून व्यवस्था देखे या हिन्दुत्व का पोस्टर ब्याय बने । अब प्रोफेसर साहेब से रहा नहीं गया ... तो झटके में बोल पडे । मुस्किल है कोई भी प्रयोग एक बार ही होता है । दूसरी बार संभव नहीं है । यही तो मै भी कब रहा हूं ..अब स्वयसेवक महोदय बोले । लेकिन मै कुछ समझ नहीं पा रहा हूं . मुझे ही कहना पडा । इसमें समझना क्या है , गुजरात के प्रयोग से मोदी निकले तो यूपी के प्रयोग से योगी निकलेगें । अंतक सिर्फ इतना है कि गुजरात के वक्त अटलबिहारी वाजपेयी थे जो राजधर्म की बात कह रहे थे और यूपी के वक्त खुद राजधर्म वाले मोदी जी है जो अपने लिये योगी का बलिदान चाहते है । और योगी इन हालातो को समझ रहे है तो समझे टकराव कहा कैसे होगा . और 2019 के बाद बीजेपी के हाथ में क्या होगा और उसका चेहरा कौन होगा । तो क्या आप 2019 में मोदी का अस्त देख रहे है । मै कोई अस्त या उदय नहीं देख रहा हूं ...सिर्फ हालात बता रहा हूं कि कैसे उग्र हिन्दुत्व की डोर और करप्शन के आसरे 2019 में बेडा पार करने की तैयारी है ।
अब मुझे टोकना पडा... तब तो कोई विजन या कोई सिस्टम तक काम नहीं कर रहा है ।
क्यो अब प्रोफेसर साहेब ने मुझे ही टोका ।
इसलिये क्योकि बुलंदशहर की घटना से पुलिस का मनोबल डाउन होगा या तो सत्ता विरोधी होगा । औऱ ध्यान दिजिये हुआ क्या , लखनउ से नौकरशाह का आदेश आया तो बुलंदशहर के एसपी को भी नतमस्तक होना पडा । लेकिन इसके समानातंर जरा ये भी समझे कि अक्सर सत्ता ही अपने अनुकुल परिस्थितियो को बनवाने के लिये नौकरशाह को निर्देश देती है । नौकरशाह नीचेल स्तर पर आदेश देता है । और जब जांच होती है तो नौकरशाह को ही जेल होती है ।
ये आप क्या कह रहे है प्रसून जी ... अब स्वयसेवक बोले । मैने भी तपाक से कहा...कोयला घोटाले मे किसे जेल हुई । सचिव को ही ना । और कोयला सचिव ने अपनी मर्जी से तो आदेश दिये नहीं थे । फिर कोयला सचिव के पीछे आईएएस संगठन खडा हुआ ना । इसी तरह बुलंदशहर की घटना के बाद पुलिस महकमा एक होगा ना ।
तो क्या सत्ता के पास वाकई कोई विजन देश को चलाने का है ही नहीं । ये सवाल जिस मासूमियत से प्रोफेसर साहेब ने पूछा , लगभग उसी मासूमियत से स्वयसेवक महोदय का जवाब आया , विजन होता तो सोशल इंजिनियरिंग फेल ना होती । बहराइच की सांसद सावित्रीबाई फुले ने बीजेपी छोड दी । कुशवाहा 11 दिसबंर का इंतजार कर रहे है । इंतजार किजिये ये कतार बढती जायेगी ....क्यों , क्योकि दलित अगर बीजेपी को वोट देगा नहीं और हिन्दु के नारे से समाज पाटने के जगह अगर बंटेगा तो फिर बीजेपी के साथ कौन खडा होगा ।इसलिये आप इंतजार किजिये पांच राज्यो के परिणाम संघ के लिये भी सीख होने वाले है और सुविधाभोगी होकर संघर्ष करने की बात कहने वालो के लिये आखरी किल ठुकने वाली है ।
मगर एक जानकारी दिजिये दलित वोट जायेगें किधर...क्यो ? ये सवाल आपके जहन में क्यो आया । मेरे जहन में ये सवाल तभी आ गया था जब मायावती ने काग्रेस के साथ मध्यप्रदेश या छत्तिसगढ या राजस्थान में कोई समझौता नहीं किया । और अगर इन राज्यो के चुनाव के फैसले में मायावती हाशिये पर चली जाती है..जो एक्जिट पोल में नजर भी आ रहा है तो फिर इसका एक मतलब ये भी होगा कि दलित भी अब मायावती के भरोसे नहीं है ।
तब तो दो सवाल और होने चाहिये । अब प्रोफेसर साहेब बोले । क्या ? पहला सरस्वती फुले बीजेपी छोड किस पार्टी का दामन थामेगी । और दूसरा क्या राज्यो के चुनाव संकेत होगें कि काग्रेस के पास अपने पारंपरिक वोटबैक लोट रहे है ।
महत्वपूर्ण सवाल है .... क्योकि फुले अगर काग्रेस में चली जाती है तो मान कर चलिये मायावती की काट काग्रेस को मिल गई । क्योकि सरस्वती फुले फायरब्रांड भी है और मायावती की घटती साख के बाद विकल्प भी । फिर बीजेपी से अगर मायावती ने सौदाबाजी कर अगर चुनाव लडा है जो लगातार मैसेज जा रहा है कि 2019 से पहले मायावती डर और पद दोनो के लालच से अलग चुनाव लडी तो राज्यो में काग्रेस की जीत तमाम क्षत्रपो को संकेत दे देगी कि काग्रेस को अब महागठबंधन के लिये मेहनत नहीं करनी है बै बल्कि क्षत्रप ही काग्रेस की शर्ते पर साथ जुडे ।
ये तो सौदेबाजी में ही पता चलेगा । स्वयसेवक का ये कहना था पर अगले ही पल खुद स्वयसेवक महोदय ही बोल पडे...ठीक कह रहे है आप अगर काग्रेस खिल रही है और मोदी ढल रहे है तो फिर सौदेबाजी के हालात काग्रेस तय करने लगेगी ।
इसका मतलब है बीजेपी के बुरे दिन आने वाले है । बात प्रोपेसर साहेब ने की लेकिन स्वयस्वक महोदय मेरी तरफ देखते हुये बोले , बुरे दिन तो देश के आने वाले है । खजाना खाली है । संवैधानिक संस्थाये तार तार है । सीबीआई पर सुप्रीम कोर्ट के सवाल सत्ता की मनमर्जी तले संविधान की ही आहुति देख रहे है ।
आज आपके तेवर बेहद कडे है .... खास कर मोदी सत्ता को लेकर ....और आपके सवाल सिर्फ आप तक सीमित है या संघ परिवार की भीतर भी कसमसाहट है .... मैने एक साथ कई सवाल दागे..लेकिन सवालो को सुनने के बाद स्वयसेवक महोदय सिर्फ इतना ही बोले...संघ कोई राजनीतिक संगठन नहीं है लेकिन अब संघ पर राजनीतिक हमले हो रहे है और संघ की कार्यशैली सास्कृतिक संगठन वाली है तो आपको बाहर से संघ खामोश ही दिखायी देगा लेकिन स्वंयसेवक दर स्वयसेवक के भीतर ये सवाल तो है कि आखिर मोदी युग में संघ सुविधायुक्त होकर वैचारिक तौर पर सिकुडता क्यो चला गया । फिर जिस तर्ज पर सत्ता ने तमाम संस्थानो के जरीये विरोधियो को डराया उसकी जद में बीजेपी से ही जुडे लोग भी आ गये ।
ये तो आप नई बात कह रहे है ..कि डराने के दाये में बीजेपी भी आ गई ...कोई उदाहरण ..मुझे बोलना पडा ..
है ना ...आपसे इससे पहले भी बीजेपी के एक शख्स विभव उपाध्याय के बारे में जिक्र हुआ था ।
जी वहीं जो पहली बा 2005 में मोदी जी को जापान ले गये थे ...
जी ..आपकी यादश्त काफी मजबूत है प्रसून जी...उन्ही विभव उपाध्याय को ईडी नोटिस भेजती है । उनके करीबियो पर डीआईआई छापा मारती है ।
ये तो आप नई जानकारी दे रहे है ....
जी क्या कहे और तो और हरियाणा में तो संघ से जुडे खट्टर सीएम है लेकिन दिल्ली की सत्ता जब सीएम पर भी अपने अधिकारियो के जरीये सुपर सीएम बैठा देती है तो फिर सीएम इमानदार हो कर भी क्या करेगा ..... क्यों
अब देखिये जीएसटी के इंसपेक्टरो तक को इतनी ताकत के साथ भ्र्ष्ट्राचार करने का अधिकार मि गया है कि फरीदाबाद में बीजेपी से ही जुडे एक व्यापारी को वही का जीएसटी अधिकारी नहीं बख्शता ।
तो क्या बीजेपी की भी नहीं चलती या फिर वह अधिकारी ही बेहद महत्वपूर्ण है ।
अरे नहीं जनाब .... मै तो सिस्टम के करप्ट होने की व्याख्या कर रहा हूं ... अधिकारी छोटा सा है ...शायद उसका नाम कोई गोल्डन जैन है । बेहद भ्रष्ट्र है ....सभी जानते है । लेकिन सिस्टम ही जब किसी को भी राजनीतिक दवाब के तहत परेशान करने वाला बना दिया जायेगा तो होगा क्या ...हर करप्ट व्यक्ति खुद को मोदी के ग्रूप का बतायेगा । ये लकीर फरीबाद से लेकर चडीगढ तक चली जायेगी..फिर खट्टर कितने भी इमानदार स्वयसेवक रहे हो ..होगा क्या
जारी........
Friday, December 7, 2018
[+/-] |
जनादेश बता देगा ...मोदी ढल रहे है...शाह उग रहे है...राहुल गढ रहे है ! |
पांच राज्यो के चुनाव प्रचार में तीन सच खुल कर उभरे । पहला , अमित शाह बीजेपी के नये चेहरे बन रहे है । दूसरा , काग्रेस का सच गांधी परिवार है और राहुल गांधी के ही इर्द-गिर्द नई काग्रेस खुद को गढ रही है । तीसरा , 2014 में देश के रक्षक के तौर पर नजर आते नरेन्द्र मोदी भविष्य की बीजेपी के भक्षक के तौर पर उभर रहे है । पर तीनो के अक्स में कही ना कही 2014 में लारजर दैन लाइफ के तौर पर उभरे नरेन्द्र मोदी है और उनकी छाया तले देश की समूची राजनीतिक सियासत का सिमटना है । और चार बरस बाद संघर्ष करते हुये राजनीति के हर रास्ते ये बताने से नहीं चूक रहे है कि छाया लुत्प हो चुकी है । 2019 की दिशा में बढते कदम एक ऐसी राजनीति को जन्म दे रहे है जिसमें हर किसी को अब अपने बूते तप कर निकलना है । क्योकि परत दर परत परखे तो ये पहला मौका रहा जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने नरेन्द्र मोदी से ज्यादा चुनावी रैलिया की । और इससे पहले नरेन्द्र मोदी की चुनावी रैलिया बीजेपी ही नहीं देश भर के लिये संदेश होती थी कि मोदी कितने लोकप्रिय है । क्योकि उसमें खूब भीड होती थी । औसतन डेढ घंटे तक नरेन्द्र मोदी का भाषण चलता था । कमोवेश उसी तर्ज पर इस चुनाव प्रचार में अमित शाह की चुनावी रैलियो में भी भीड जुटी . अमित शाह के भाषण लंबे होने लगे । मोदी का भाषण राजस्थान के प्रचार में तो तीस मिनट तक आ गिरा । पर शाह का भाषण औसतन 45 से 50 मिनट रहा । तो बीजेपी के भीतर ये सवाल काफूर हो गया कि सिर्फ मोदी की ही चुनावी रैली में भीड जुटती या भाषण का कन्टेट सिर्फ मोदी के पास है । यानी एक विश्लेषण ये भी हो सकता है कि भीड जब जुटानी ही है तो फिर रैली किसी भी नेता की हो वह जुट ही जायेगी और भीड के आसरे रैली की सफलता या नेता की लोकप्रियता को आंकना गलत है । और दूसरा विश्लेषण ये भी कहता है कि नरेन्द्र मोदी ने ही ढील दी कि अगर उनकी पीठ पर 2014 के वादो का बोझ है तो फिर अमित शाह बोझ रहित है । यानी रणनीति के तहत अमित शाह को आगे किया गया । लेकिन पहली बार चुनावी प्रचार के थमने के बाद जब जनादेश का इंतजार देश कर रहा है तो ये सवाल चाहे अनचाहे हर जहन में होगा ही अगर वाकई बीजेपी तीनो राज्यो में हार गई तो क्या होगा । क्योकि मेनस्ट्रीम मीडिया को परखे तो उसकी रिपोर्ट नरेन्द्र मोदी की छवि हार के बावजूद बनाये रखने की दिशा गढनी शुरु हो चुकी है । एक तरफ ये परोसा जा रहा है कि छत्तिसगढ, मध्यप्रदेश और वसुंधरा में बीजेपी सीएम की पहचान तो नरेन्द्र मोदी के केन्द्र पटल पर आने से पहले ही खासी पहचान वाली रही है । और तीनो ही 2013 में अपने बूते जीते थे । तो इन बार तीनो की अपनी परिक्षा और अपना संघर्ष है । यानी नरेन्द्र मोदी का इन चुनाव से कोई लेना देना नहीं है । तो दूसरी तरफ ये भी कहा जाने लगा है केन्द्र और राज्य को चलाने वाले नेताओ की अदा में फर्क होता है । राज्य में सभी को साथ लेकर चलना जरुरी है लेकिन केन्द्र में ये जरुरी नहीं है क्यकि प्रधानमंत्री की पहचान उसके अपने विजन से होती है । जैसे इंदिरा गांधी थी । वैसे ही नरेन्द्र मोदी भी अकेले है । यानी चुनावी हार का ठिकरा मोदी के सिर ना मढा जाये या फिर जिस अंदाज में नरेन्द्र मोदी चार महीने बाद अपने चुनावी समर में होगें वहा उन्हे उनके तानाशाही रवैये या उनकी असफलता को कोई ना उभारे , इस दिशा में मोदी बिसात मिडिया के ही जरीये सही पर बिछायी तो जा रही है । तो एक संदेश तो साफ है कि पांच राज्यो के जनादेश का असर बीजेपी में जबरदस्त तरीके से पडेगा और चाहे अनचाहे मोदी से ज्यादा अमित शाह के लिये जनादेश फायदेमंद होने वाला है । क्योकि आज की तारिख में अमित शाह की पकड बीजेपी के समूचे संगठन पर है । सीधे कहे तो जैसे नरेन्द्र मोदी ही सरकार है वैसे ही अमित शाह ही बीजेपी है । और 2019 में अगर मोदी का चेहरा चूकेगा तो बीजेपी को 2019 के समर के लिये तैयार होना होगा और तब चेहरा अमित शाह ही होगें । ऐसे हालात में कोई भी सवाल खडा कर सकता है कि क्या नरेन्द्र मोदी ऐसा होने देगें । या फिर क्या फर्क पडता है मोदी की जगह अमित शाह ले लें । क्योकि दोनो है तो एक दूसरे के राजदार । तो दोनो को एक दूसरे से खतरा भी नहीं है । लेकिन बीजेपी का भविष्य बीजेपी के अतित को कैसे खारिज कर चुका है ये वाजपेयी - आडवाणी की जोडी से मोदी-शाह की जोडी की तुलना करने पर भी समझा जा सकता है । वाजपेयी और आडवाणी के दौर में बीजेपी की राजनीति आस्था और भरोसे पर टिकी रही । और दोनो ही जिस तरह एक दूसरे के पूरक हो कर सभी को साथ लेकर चले उसमें बीजेपी के संगठन में निचले स्तर तर सरोकार का भाव नजर आता रहा । संयोग से मोदी अमित शाह के दौर में सिर्फ आडवाणी या जोशी को ही बेदखल नहीं किया गया बल्कि काम करने के तरीके ने बतलाया कि किसी भी काबिल को खडे होने देना ही नहीं है और सत्ता के लिये अपने अनुकुल सियासत ही सर्वोपरि है । तो यही मैसेज बीजेपी संगठन के निचले पायदान तक पहुंचा । यानी अमित शाह अगर 2019 के रास्ते को बनायेगें तो सबसे पहले उनके निशाने पर नरेन्द्र मोदी ही होगें इसे कोई कैसे इंकार कर सकता है । दरअसल धीरे धीरे ये रास्ता कैसे और क्यो बनता जा रहा है ये भी चुनाव प्रचार के वक्त ही उभरा । क्योकि बीजेपी शासित तीनो राज्यो में बीजेपी की जीत का मतलब बीजेपी के क्षत्रप ही होगें मोदी नहीं ये तीनो के प्रचार के तौर तरीको ने उभार दिया । जहां तीनो ही मोदी सत्ता की उपलब्दियो को बताने से बचते रहे और मोदी भी अपनी साढे चार बरस की सत्ता की उपलब्धियो को बताने की जगह काग्रेस के अतित या सत्ता की ठसक तले काग्रेसी नेताओ को धमकी देने की ही अंदाज में ही नजर आये । दरअसल मोदी इस हकीकत को भूल गये कि भारत लोकतंत्र का अम्यस्त हो चुका है । यानी कोई सत्ता अगर किसी को धमकी देती है तो वह बर्दाश्त किया नहीं जाता । हालाकि 2014 में सत्ता में आने के लिये मोदी की धमकी जनता को रक्षक के तौर पर लगती थी । इसलिये ध्यान दिजिये तो 2013-14 में जो मुद्दे नरेन्द्र मोदी उठा रहे थे , उसके दायरे में कमोवेश समाज के सारे लोग आ रहे थे । और सभी को मोदी अपने रक्षक के तौर पर नजर आ रहे थे । इसलिये पीएम बनने के बाद नरेन्द्र मोदी का हर अभियान उन्हे जादुई ताकत दे रहा था । लेकिन धीर धीरे ये जादू काफूर भी हुआ लेकिन मोदी खुद को बदल नहीं पा रहे है क्योकि उन्हे अब भी अपनी ताकत जादूई छवि में ही दिखायी देती है । उसलिये राफेल पर खामोशी बरत कर जब वह अगस्ता वेस्टलैंड में मिशेल के जरीये विपक्ष को धमकी देते है तो जनता का भरोसा डिगने लगता है । क्योकि ये हर किसी को पता है कि अंतर्ष्ट्रीय कोर्ट से मिशेल बरी हो चुके है और भारतीय जांच एंजेसी या अदालत किस अंदाज में काम करती है । बोफोर्स में वीपी सिंह के दौर में क्या हुआ ये भी किसी से छुपा नहीं है । यानी कोरी राजनीतिक धमकियो से साढे चार बरस गुजारे जा सकते है लेकिन पांचवे बरस चुनाव के वक्त ये चलेगें नहीं । और जिस रास्ते अमित शाह ने बीजेपी के संगठन को गढ दिया है उसमें चुनावी हार के बाद शाह की पकड बीजेपी पर और ज्यादा कडी होगी क्योकि तब 2019 की बात होगी और शिवराज, रमन सिंह या वसुंधरा को कैसे पार्टी संगठन में एडजस्ट किया जायेगा ये भी सवाल होगा ? लेकिन इसके सामानातंर काग्रेस की जीत और हार के बीच राहुल गांधी ही खडे है । और काग्रेस के लिये गांधी परिवार ताकत भी है और कमजोरी भी ये बात पांच राज्यो के जनादेश के बाद खुल कर उभरेगी । चुकि 2014 के बाद ये दूसरा मौका है कि बीजेपी और काग्रेस आमने सामने है । इससे पहले गुजरात और कर्नाटक के चुनावी फैसले ने बाजी एक एक कर रखी है । और अब तीन राज्यो में बीजेपी की सत्ता को अगर काग्रेस खिसका नहीं पायी तो ये राहु गांधी की सबसे बडी हार मानी जा सकती है लेकिन प्रचार के तौर तरीको ने बता दिया कि राहुल गांधी के अलावे काग्रेस में ना तो कोई दूसरा नेता है और ना ही काग्रेस किसी दूसरे नेता को परखना चाहती है । यानी राहुल गांधी का कद ही काग्रेस का कद होगा और काग्रेस की हार भी राहुल गांधी की ही हार कहलायेगी । तो ऐसे हालात में काग्रेस की जीत राहुल गांधी को काग्रेस के भीतर इंदिरा वाली छवि के तौर पर स्थापित भी कर सकती है जहा वह 1977 की हार के बाद 1980 में दूबारा सत्ता पा गई थी । हालाकिं खुद को नये सिरे से गढते राहुल गांधी ने प्रचार के दौरान काग्रेसी ओल्ड गार्ड को ये एहसास करा दिया कि 2014 के हार के पीछे 2012-13 में काग्रेसी मंत्रियो का अहम भी था । जो सत्ता के मद में चूर हो कर जनता से ही कट गये थे । और इसी का लाभ मोदी को मिला । पर अब राहुल गांधी इस एहसास को समझते हुये ये भी चुनावी प्रचार में जनता को बताते रहे कि सत्ता का रंग मोदी पर भी काग्रेसी अंदाज में कही ज्यादा गाढा है । तो चुनावी प्रचार का असर जनादेश के जरीये मोदी शाह और गांधी तीनो के भविष्य को तय करेगा ये भी तय है ।
Thursday, December 6, 2018
[+/-] |
महत्वपूर्ण क्यों और क्या होगा पांच राज्यो के जनादेश के बाद....? |
बीजेपी या काग्रेस ही नहीं बल्कि देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां भी जानती है कि 11 दिसबंर के बाद देश की राजनीति बदल जायेगी । और संभवत पांच राज्यो से इतर देश में वोटरो का एक बडा तबका भी मान रहा है कि पांच राज्यो के जनादेश से 2019 की राह निकलेगी । जैसे जैसे तारिख नजदीक आ रही है वैसे वैसे काग्रेस और बीजेपी की राजनीति में भी परिवर्तन साफ दिखायी दे रहा है । और इस बदलते माहौल की सबसे बडी वजह यही है कि दांव पर बीजेपी या काग्रेस पार्टी नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी का होना है । क्योकि एक तरफ 2014 के जनादेश ने जिस तरह मोदी के लारजर दन लाइफ के औरे को बना दिया । वही नेहरु गांधी परिवार में 2014 का सबसे कमजोर राहुल गांधी का कद 2019 में उसी दिशा में ले जा रहा है जहा 11 दिसबंर के बाद या तो वह देश के प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रमुख दावेदार हो जायेगें या फिर क्षत्रपो की कतार में खडे नजर आयेगें । लेकिन कैसे 2014 के हालात 2019 की बिसात पर बीजेपी और काग्रेस की चाल को उलट दे रही है ये समझना कम दिसचस्प नहीं है ।
पहले काग्रेस की जीत तले बीजेपी की फितरत को समझे । गुजरात में बराबरी की टक्कर देते हुये जीत ना पाना । कर्नाटक में गठबंधन से मात दे देना । और राजस्थान में काग्रेस की जीत का मतलब है बीजेपी के भीतर जबरदस्त उथल-पुथल । जो वसुंधरा राजे सिंधिया को एक क्षेत्रिय पार्टी बनाने की दिशा में ले जा सकती है । क्योकि मोदी-शाह की जोडी वसुंधरा को बर्दाश्त करने की स्थिति में तब होगी नहीं । और इसके संकेत बीजेपी छोड काग्रेस में गये मानवेन्द्र सिंह [ बीजेपी नेता जसंवत सिंह के बेटे ] को जिताने के लिये अंदरुनी तौर पर बीजेपी का ही सक्रिय होना । यहा ये समझ जरुरी है कि बीजेपी की मतलब अमित शाह होता है । और मान्वेन्द्र की जीत का मतलब वसुंधरा की हार है । ये खेल पहले काग्रेस में खूब होता था । लेकिन काग्रेस बदल रही है तो सचिन पायलट की मोटरसाउकिल के पीछे अशोक गहलोत बैठ कर हवा खाने से नहीं कतराते । खैर मध्यप्रदेश में अगर काग्रेस जीतती है तो नया सवाल शिवराज सिंह चौहान के बाद कौन ये भी उभरेगा । ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली में काग्रेस हारी तो 15 बरस सत्ता भोगने वाली शीला दीक्षित को लेकर हुआ क्या या कौन से सवाल उठे ये महत्वपूर्ण है । ये अलग बात है कि अब काग्रेस संभली है तो शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित को काग्रेस का महासचिव पद दे दिया गया है । पर सवाल है कि क्या संघ के प्रिय और मोदी-शाह को खटकने वाले शिवराज का राज बीजेपी के भीतर भी बरकरार रह पायेगा । और इसी के सामानातंर छत्तिसगढ में भी क्या काग्रेस की जीत रमन सिंह के आस्तितव को भी बरकरार रख पायेगी । क्योकि रमन सिंह या कहे उनके बेटे का नाम जिस तरह राहुल गांधी ने पनामा पेपर के जरीये उठाया तो विपक्ष के तौर पर लडाकू बीजेपी की अगुवाई कैसे रमन सिंह कर पायेगें । खासकर तब जब रमन सिंह के खिलाफ बतौर काग्रेसी उम्मीदवार खडी अटलबिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला को जिताने में बीजेपी का ही एक प्रभावी गुट लगा हुआ है । यानी रमन सिंह को हारा हुआ देखने वाले छत्तिसगढ बीजेपी में है । और बीजेपी का मतलब अमित शाह ही होता है ये बताने की जरुरत नहीं है । और इसी लकीर को अगर तेलगांना ले जाईये तो वहा बीजेपी खिलाडी के तौर पर तो है लेकिन बीजेपी जिन मुख्य खिलाडियो के आसरे खेल रही है उसमें काग्रेस के लिये तेलगांना में संगठन खडा करने और चन्द्रबाबू नायडू के साथ होने के हालात ने झटके में केसीआर, औवैसी और बीजेपी को एक ही मंच पर ला खडा किया । यानी काग्रेस के लिये जो धर्म की राजनीति में जो सवाल उलझा था उसका रास्ता तेलगंना में निकलता दिखायी देता है जहा काग्रेस का साफ्ट हिन्दुत्व बीजेपी-केसीआर के वोट बैक में सेंध लगाती है और खामोश मुस्लिम को अपने अनुकुल करती है । यानी बीजेपी की बिसात पर केसीआर का चलना और औवैसी का संभल संभल कर खुद को संभालना ही काग्रेस की जीत है । क्योकि ये 2014 की उसी आहट को 2019 में दोहराने की दिशा में ले जा रही है जब एक वक्त कोई काग्रेस के साथ चलना नहीं चाह रहा था तो अब ये संकट 11 दिसबंर के जनादेश के बाद बीजेपी के साथ हो सकता है । जब एनडीए में भगदड मच जाये ।
लेकिन इसके उलट बीजेपी की जीत सीधे राहुल गांधी की लीडरशीप पर सवाल खडा करती है । यानी बीजेपी अगर तीन राज्यो में जीतती है तो मोदी-अमित शाह का कद जितना नहीं बढेगा उससे राहुल गांधी का कद कही ज्यादा छोटा हो जायेगा । और संकेत तब यही निकलेगें कि 2019 में काग्रेस विपक्ष की अगुवाई करने की हैसियत में नहीं है । लेकिन बीजेपी की जीत बीजेपी के संगठन को मोदी-शाह तले जिस तरह केन्द्रीत करेगी उसमें बीजेपी का 2019 का चेहरा वहीं होगा जैसा इंदिरा गांधी के वक्त काग्रेस का था ।
और यही से सबसे महत्वपूर्ण सवाल खडा होता है कि 2019 की तरफ बढते कदम एक तरफ बीजेपी को केन्द्रियकृत करती जा रही है तो संकट से जुझती काग्रेस अपने पिरामिड वाले ढांचे को उलटने का प्रयास कर रही है । 11 दिसबंर को जीत के बाद 2019 के लिये बीजेपी में सारे फैसले मोदी-शाह करेगें । 11 दिसबंर को जीत के बाद काग्रेस में राहुल की मान्यता को सर्वोपरी जरुर होगी लेकिन संगठन का ढांचा नीचे से उपर आयेगा । यानी कार्यकत्ता की आवाज को महत्व दिया जायेगा । बीजेपी में जिस तरह 75 पार के नेताओ को मार्गदर्शक मंडल में बैठा कर रिटायर कर दिया गया । उसके उलट काग्रेस में ओल्ड गार्ड संगठन को मथने में लगेगे । और उसके लिये निर्देश राहुल गांधी नहीं देगें बल्कि बुजुर्ग नेता खुद ही कहेगें । यानी जो संकेत चिदबंरम ने ये कहकर दिया कि मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में ही उन्हे मंत्री नही मनना चाहिये था बल्कि संगठन को संभालना चाहिये था । ये संकेत है कि काग्रेस धीरे धीरे युवाओ के हाथ में जायेगाी । तो बीजेपी की जीत मोदी-शाह की ताकत को संघ से भी ज्यादा बढाती है । और बीजेपी को सिर्फ कार्यकत्ताओ के आंकडो में विस्तार मिलता है । कार्यकत्ताओ की उपयोगिता मोदी-शाह की जोडी तले ना के बराबर हो जाती है । लेकिन काग्रेस की जीत राहुल गांधी को संगठन सुधारने से लेकर काग्रेस को युवा ब्रिग्रेड के जरीये मथने का मौका देगी । जिसमें युवा मंत्री होगा लेकिन बुजर्ग रिटायर ना होकर संगठन और सत्ता के बीच कडी के तौर पर रहेगी । यानी काग्रेस और बीजेपी दोनो ही बदल रही है या 11 दिसबंर के बाद बदलती हुई दिखायी देगी तो बधाई मोदी सत्ता को ही देनी होगी । जिसने चरम की राजनीति को अंजाम दिया । असर यही हुआ कि अब बीजेपी का काग्रेसीकरण हो नहीं सकता और काग्रेस सत्ता के मद में खो कर गांधी परिवार की भक्ति में लीन हो नहीं सकती । अब तो नये राजनीतिक प्रयोग । वैकल्पिक नीतियो की सोच । आर्थिक सुधार के आगे का इक्नामिक माडल और ग्रामिण भारत के मुद्दो को केन्द्र में रखने की मजबूरी ही 2019 की दिशा तय कर रही है ।
Wednesday, December 5, 2018
[+/-] |
या तो सत्ता के तंत्र के साथ रहो या फिर मारे जाओगे .... |
इनकांउटर हर किसी का होगा जो सत्ता के खिलाफ होगा । इस फेरहिस्त में कल तक पुलिस सत्ता विरोधियो को निशाने पर ले रही थी तो अब पुलिसवाले का ही इंनकाउटर हो गया क्योकि वह सत्ता की धारा के विपरीत जा रहा था । बुलंदशहर की हिंसा के बाद उभरे हालातो ने एक साथ कई सवालो को जन्म दे दिया है । मसलन, कानून का राज खत्म होता है तो कानून के रखवाले भी निशाने पर आ सकते है । सिस्टम जब सत्ता की हथेलियो पर नाचने लगता है तो फिर सिस्टम किसी के लिये नहीं होता । संवैधानिक संस्थाओ के बेअसर होने का यह कतई मतलब नहीं होगा संवैधानिक संस्थाओ के रखवाले बच जायेगें । और आखरी सवाल क्या राजनीतिक सत्ता वाकई इतनी ताकतवर हो चुकी है कि कल तक जिस पुलिस को ढाल बनाया आज उसी ढाल को निशाने पर ले रही है । यानी लोकतंत्र को धमकाते भीडतंत्र के पीछे लोकतंत्र के नाम पर सत्ता पाने वाले ही है । और इन सारे सवालो के अक्स में बुलंदशहर में पुलिस वाले को मारने वाले आरोपियो की कतार में सत्ताधारी राजनीतिक दल से जुडा होना भर है या सत्ता के अनुकुल विचार को अपने तरीके से प्रचार प्रसार करने वाले हिन्दुवादी संगठनो की सोच है । जो बेखौफ है और जो ये मान कर सक्रिय है कि , उनके अपराध को अपराध माना नहीं जायेगा । यानी अब वह बारिक सियासत नहीं रही जब सत्ताधारी के लिये कानून बदल जाता था । सत्ताधारियो के करीबियो के लिये कानून का काम करना ढीला पड जाता था । या सत्ता के तंत्र काम करते रहे उनके लिये सिस्टम सत्ता के महज एक फोन पर खुद को लचर बना लेता था । अब तो लकीर मोटी हो चली है । सत्ता कोई फोन नहीं करती । कानून ढीला नहीं पडता । कानून को बदला भी नहीं जाता । बल्कि सत्तानुकुल भीडतंत्र की लोकतंत्र हो जाता है । सत्ता के रंग में रंगी भीड ही कानून मान ली जाती है । और सिसटम के लिये सीधा संवाद सियासत खुद की हरकतो से ही बना देती है कि उसे कानून के राज को बरकरार रखने के लिये नहीं बल्कि सत्ता बरकरार रखने वालो के इशारे पर काम करना है । और ये इशारा बीजेपी के एक अदने से कार्यकत्ता का हो सकता है । संघ के संगठन विहिप या बंजरंग दल का हो सकता है । गौ रक्षको के नाम पर दिन के उजाले में खुद को पुलिस से ताकतवर मानने वाले भीडतंत्र का हो सकता है । जाहिर है बुलंदशहर को लेकर पुलिस रिपोर्ट तो यही बताती है कि पुलिसकर्मी सुबोध कुमार सिंह की हत्या के पीछे अखलाख की हत्या की जांच को सत्तानुकुल ना करने की सुबोध कुमार सिंह की हिम्मत रही । जो पुलिस यूपी में कल तक 29 इनकाउंटर कर चुकी थी और हर इंनकाउंटर के बाद योगी सत्ता ने ताली ही पीटी । और इनकाउंटर करती पुलिसकर्मी को आपराधिक नैतिक बल सत्ता से मिलता रहा । तो जब उसके सामने उसके अपने ही सहयोगी निडर पुलिसकर्मी सुबोध कुमार सिंह आ गये तो सत्ता की ताली पर तमगा बटोरती पुलिस को भी सुबोध की हत्या में कोई गलती दिखायी नहीं दी । यानी पुलिसकर्मी सुबोध को मरने के लिये छोडना पुलिस वालो को भीडतंत्र के किस राज की स्थिति में ले जा रही है और पुलिस को कानून के राज की रक्षा नहीं करनी है बल्कि सत्तानुकुल भीडतंत्र को ही सहेजना है । और ये हिम्मत की बात नहीं है कि अब पुलिस की फाइल में आरोपियो की फेरहसि्त में बजरंग दल के योौगेशराज हो या बीजेपी के सचिन या फिर गौ रक्षा के नाम पर गले में भगवा लपेटे खुद को हिन्दुवादी कहने वाले राजकुमार, मुकेश, देवेन्द्र , चमन, राजकुमार , टिंकू या विनित के नाम है बल्कि इन नामो को अब सत्ताधारी होने की पहचान बुलंदशहर में मिल गई है ।और जिस मोटी लकीर का जिक्र शुरु में किया गया वह कैसे अब और मोटी की जा रही है इसे समझने के लिये तीन स्तर पर जाना होगा । पहला , पुलिस के लिये आरोपी वीआईपी अपराधी है । दूसरा वीआईपी आरोपी अपराधी की पहचान अब विहिप, बजंरग दल , गो रक्षा समिति या बीजेपी के कार्यकत्ता भर की नहीं रही , उसका कद सत्ता बनाये रखने के औजार बनने का हो गया । तीसरा , जब पुलिस के लिये सत्तानुकुल हो कर अपराध करने की छूट है तब न्यायलय के सामने भी सवाल है कि वह जाच के सबूतो के आधार पर फैसले दें जिस जांच को पुलिस ही करती है । और किसा तरह इन तीन स्तरो को मजबूत किया गया उसके भी तीन उदाहरण है । पहला तो सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुये जस्टिस जोसेफ के इस बयान से समझा जा सकता है जब वह कहते है कि पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के वक्त उपर से निर्देश दिये जा रहे थे । और रोटी पानी के लिये कैसे वह समझौोता कर सकते है । यानी सुप्रीम कोर्ट की कारर्वाई को भी अगर जस्टिस जोसेफ के नजरिये से समझे तो सत्ता सुप्रीम कोर्ट को भी अपने खिलाफ जाने देना नहीं चाहती और दूसरा न्याय की खरीद फरोख्त सत्ता के जरीये भी हो रही है । यानी जो बिकना चाहता है वह बिक सकता है । लेकिन इसके व्यापक दायरे को समझे तो सत्ता कोई कारपोरेट संस्था नहीं है । बल्कि सत्ता तो लोकतंत्र की पहचान है । संविधान के हक में खडी संस्था है । लेकिन जिस अंदाज में सत्ता काम कर रही है उसमें सत्तानुकुल होना ही अगर सबसे बडा विचार है या फिर जनता द्वारा चुनी हुई सत्ता लोकतंत्र को प्रभावित करने के लिये आपराधिक कार्यो में संलिप्त हो जाये या आपराधिक कार्यो से खुद को बरकरार रखने की दिशा में बढ जाये तो क्या होगा । जाहिर है इसके बाद कोई भी संवैधानिक संस्था या कानू का राज बचेगा कैसे ? दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में नया सवाल ये भी है कि क्या चुनाव अलोकतांत्रिक होते माहौल में एक सेफ्टी वाल्व है । और अभी तक ये माना जाता रहा कि चुनाव में सत्ता परिवर्तन कर जनता अलोकतांत्रिक होती सत्ता के खिलाफ अपना सारा गुस्सा निकाल देती है । लेकिन इस प्रक्रिया में जब पहली बार ये सवाल सामने आया है कि चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा को ही अलोकतांत्रिक मूल्यो को परोस कर बदल दिया जाये । यानी पुलिस, कोर्ट , मीडिया , जांच एंजेसी सभी अलोकतांत्रिक पहल को सत्ता के डर से लोकतांत्रिक बताने लगे तो फिर चुनाव सेफ्टी वाल्व के तौर पर भी कैसे बचेगा ? क्योकि हालात तो पहले भी बिगडे लेकिन तब भी संवैधानिक संस्थाओ की भूमिका को जायज माना गया । लेकिन जब लोकतंत्र का हर स्तम्म सत्ता बरकरार रखने के लिये काम करने लगेगा और देश हित या राष्ट्रभक्ति भी सत्तानुकुल होने में ही दिखायी देगी तो फिर बुलंदशहर में मारे गये पुलिस कर्मी सुबोध कुमार सिहं के हत्यारे भी हत्यारे नहीं कहलायेगें । बल्कि आने वाले वक्त में संसद में बैठे 212 दागी सांसदो और देश भर की विधानसभाओ में बैठे 1284 दागी विधायको में से ही एक होगें । तो इंतजार किजिये आरोपियो के जनता के नुमाइन्दे होकर विशेषाधिकार पाने तक का ।
Monday, December 3, 2018
[+/-] |
जरा सोचिये ! जब मेनस्ट्रीम मीडिया को कोई देखने - सुनने पढने वाला नहीं होगा |
क्या पत्रकारिता की धार भोथरी हो चली है । क्या मीडिया - सत्ता गठजोड ने पत्रकारिता को कुंद कर दिया है । क्या मेनस्ट्रीम मीडिया की चमक खत्म हो चली है । क्या तकनालाजी की धार ने मेनस्ट्रीम मीडिया में पत्रकारो की जरुरतो को सीमित कर दिया है । क्या राजनीतिक सत्ता ने पूर्ण शक्ति पाने या वचर्स्व के लिये मीडिया को ही खत्म करना शुरु कर दिया है । जाहिर है ये ऐसे सवाल है जो बीते चार बरस में धीऱे धीरे ही सही लेकिन कहीं तेजी से उभरे है । खासकर जिस अंदाज में न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर रेगते मुद्दे का कोई सरोकार ना होना । मुद्दो पर बहस असल मुद्दो से भटकाव हो । और चुनाव के वक्त में भी रिपोर्टिंग या कोई राजनीतिक कार्यक्रम भी इवेंट से आगे निकल नहीं पाये । या कहे सत्ता के अनुकुल लगने की जद्दोजहद में जिस तरह मीडिया खोया जा रहा है उसमें मीडिया के भविष्य को लेकर भी कई आंशकाये उभर रही है । आंशाकाये इसलिये क्योकि मेनस्ट्रीम मीडिया के सामानातांर डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया अपने आप ही खबरो को लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया को चुनौति देने लगा है । और ये चुनौती भी दो तरफा है । एक तरफ मीडिया-सत्ता गठजोड ने काबिल पत्रकारो को मेनस्ट्रीम से अलग किया तो उन्होने अपनी उपयोगिता डिजिटल या सोशल मीडिया में बनायी । तो दूसरी तरफ मेनस्ट्रीम मीडिया में जिन खबरो को देखने की इच्छा दर्शको में थी अगर वही गायब होने लगी तो बडी तादाद में गैर पत्रकार भी सोशल मीडिया या डिजिटल माध्यम से अलग अलग मुद्दो को उठाते हुये पत्रकार लगने लगे । मसलन ध्रूव राठी कोई पत्रकार नहीं है । आईआईटी से निकले 26 बरस के युवा है । लेकिन उनकी क्षमता है कि किसी भी मुद्दे या घटना को लेकर आलोचनात्मक तरीके से टकनीकी जानराकी के जरीये डीजिटल मीडिया पर हफ्ते में दो 10 -10 मिनट के दो कैपसूल बना दें । तो उन्हे देखने वालो की तादाद इतनी ज्यादा हो गई कि मेनस्ट्रीम अग्रेजी मीडिया का न्यूज चैनल रिपबल्कि या टाइम्स नाउ या इंडिया टुडे भी उससे पिछड गया । लेकिन यहा सवाल देखने वालो की तादाद का नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया की कुंद पडती धार का है ,और जिस तरह मीडिया का विस्तार सत्ता के कब्जे के दायरे में करने के लिये मीडिया संस्थानो का नतमस्तक होना है , उसका भी है । और ये सवाल सिर्फ कन्टेट को लेकर ही नहीं है बल्कि यही सवाल डिस्ट्रीब्यूशन से भी जुड जाता है । ध्यान दें तो मोदी सत्ता के विस्तार या उसकी ताकत के पीछे उसके मित्र कारपोरेट की पूंजी की बडी भूमिका रही है । मीडिया संस्थानो की फेरहिस्त में बार बार ये सवाल उठता है कि मुकेश अंबानी ने मुध्यधारा के 70 फिसदी मिडियाहाउस पर लगभग कब्जा कर लिया है । हिन्दी में सिर्फ आजतक और एबीपी न्यूज चैनल को छोड दें तो कमोवेश हर चैनल में दाये-बाये या सीधे पूंजी अंबानी की ही लगी हुई है । यानी शेयर उसी के है । पर ये भी महत्वपूर्ण है कि अंबानी का मीडिया प्रेम यू नहीं जागा है । और मोदी सत्ता नहीं चाहती तो जागता भी नहीं ये भी सच है । क्योकि धीरुभाई अंबानी के दौर में मीडिया में आबजर्वर ग्रूप के जरीये सीधी पहल जरुर हुई थी । लेकिन तब कोई सफलता नही मिली । और तब सत्ता की जरुरत भी अंबानी के मीडिया की जरुरत से कोई लाभ लेने वाली नहीं थी । तो मीडिया कोई लाभ का धंधा तो है नहीं । लेकिन सत्ता जब मीडिया पर अपने लिये नकेल कस लें तो मीडिया से लाभ किसी भी धंधे से ज्यादा लाभ देने लगती है । सच ये भी है । क्योकि सिर्फ विज्ञापनो से न्यूज चैनलो का पेट कितना भरता होगा ये दो हजार करोड के विज्ञापन से समझा जा सकता है जो टीआरपी के आधार पर चैनलो में बंटते - खपते है । लेकिन राजनीतिक विज्ञापनो का आंकडा जब बीते चार बरस में बढते बढते 22 से 30 हजार करोड तक जा पहुंचा है तो फिर मीडिया अगर सिर्फ धंधा है तो कोई भी मुनाफा कमाने में ही जुटा हुआ नजर आयेगा । जो सत्ता से लडेगा उसकी साख जरुर मजबूत होगी लेकिन मुनाफा सिर्फ चौनल चलाने तक ही सीमित रह जायेगा । और कैसे सत्ता कारपोरेट का खेल मीडिया को हडपता है इसकी मिसाल एनडीटीवी पर कब्जे की कहानी है । जो मोदी सत्ता के दौर में राजनीतिक तौर पर उभरी और मोदी सत्ता ही उन तमाम कारपोरेट प्लेयर को तलाशती रही कि वह एनडीटीवी पर कब्जा करें उसने एक तरफ अगर सत्ता की मीडिया को अपने कब्जे में लेने की मानसिकता को उभार दिया तो उसका दूसरा सच यह भी है कि मीडिया चलाते हुये चाहे जितना धाटा हो जाये लेकिन मीडिया पर कब्जा कर अगर उसे मोदी सत्ता के अनुकुल बना दिया जाये तो मोदी सत्ता ही दूसरे माध्यमो से मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट को ज्यादा लाभ दिला सकती है । और यहा ये भी महत्वपूर्ण है कि सबसे पहले सहानपुर के गुप्ता बंधुओ जिनका वर्चस्व दक्षिण अफ्रिका में राबर्ट मोगाबे के राष्ट्रपति होने के दौर में रहा उनको एनडीटीवी पर कब्जे का आफर मोदी सत्ता की तरफ से दिया गया । लेकिन एनडीटीवी की बुक घाटे वाली लगी तो गुप्ता बंधु ने एनडीटीवी पर कब्जे से इंकार कर दिया । चुकि गुप्ता बंधुओ का कोई बिजनेस भारत में नहीं है तो उन्हे धाटे का मीडिया सौदा करने के बावजूद भी राजनीतिक सत्ता से मिलने वाले ज्यादा लाभ की जानकारी नहीं रही । लेकिन भारत में काम कर रहे कारपोरेट के लिये ये सौदा आसान रहा । तो अंबानी ग्रूप इसमें शामिल हो गया । और माना जाता है कि आज नहीं तो कल एनडीटीवी के शेयर भी ट्रांसफर हो ही जायेगें । और इसी कडी में अगर जी ग्रूप को बेचने और खरीदने की खबरो पर ध्यान दें तो ये बात भी खुल कर उभरी कि आने वाले वक्त में जी ग्रूप को भी अंबानी खरीद रहे है । और मीडिया पर कारपोरेट के कब्जे के सामानातांर ये भी सवाल उभरा कि कही मीडिया कारपोरेशन बनाने की स्थिति तो नहीं बन रही है । यानी कारपोरेट का कब्जा हर मीडिया हाउस पर हो और कारपोरेट सीधे सीधे सत्ता से समझौता कर लें । यानी कई मीडिया हाउस को मिलाकर बना कारपोरेशन सत्तानुकुल हो जाये और सत्ता इसकीा एवज में कारपोरेट को तमाम लाभ दूसरे धंधो में देने लगे । तो फिर कमोवेश किसी तरह का कंपीटिशन भी चैनलो में नहीं रहेगा । और खर्चे भी सीमित होगें । जो सामन्य स्थिति में खबरो को जमा करने और डिस्ट्रीब्यूशन के खर्चे से बढ जाते है । वह भी सीमित हो जायेगें । क्योकि कारपोरेट अगर मीडिया हाउस पर कब्जा कर रहा है तो फिर जनता तक जिस माध्यम से खबरे पहुंचते है वह केबल सिस्टम हो या डीटीएच , दोनो पर ही वही कारोपरेट कब्जा करने की दिशा में बढेगी ही जिसने मीडिया हाउस को खरीदा । और ध्यान दें तो यही हो रहा है यानी न्यूज चौनलो में क्या दिखाया जाये और किन माध्यमो से जनता तक पहुंचाया जाये जब इस पूरे बिजनेस को ही सत्ता के लिये चलाने की स्थिति बन जायेगी तो फिर मुनाफा के तौर तरीके भी बदल जायेगे । और तब ये सवाल भी होगा कि सत्ता लोकतांत्रिक देश को चलाने के लिये सीमित प्लेयर बना रही है । और सीमीच प्लेयर उसकी हथेली पर रहे तो उसे कोई परेशानी भी नहीं होगी । यानी एक ही क्षेत्र में अलग अलग प्लेयर से सौदेबाजी करनी नहीं होगी । दरअसल भारत का मीडिया इस दिशा में चला जाये इसके प्रयास तो खूब हो रहे है लेकिन क्या ये संभव है या फिर जिस तर्ज पर रशिया हुआ करता था या अभी कुछ हद तक चीन में सत्ता व्यवस्था है उसमें तो ये संभव है लेकिन भारत में कैसे संभव है ये मुश्किल सवाल जरुर है । क्योकि राजनीतिक तौर पर एकाधिकार की स्थिति में राजनीतिक सत्ता हमेशा आना चाहती रही है । ये अलग बात है कि मोदी सत्ता इसके चरम पर है । लेकिन ऐसे हालात होगें तो खतरा तो ये भी होगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता या आवश्यकता को ही खो देगा । क्योकि जनता से जुडे मुद्दे अगर सत्ता के लिये दरकिनार होते है तो फिर हालात ये भी बन सकते है कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो होगा लेकिन उसे देखने वाला कोई नहीं होगा । और तब सवाल सिर्फ सत्ता का नहीं बल्कि कारोपरेट के मुनाफे का भी होगा । क्योकि आज के हालात में ही जब मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता सत्ता के दबाब में धीरे धीरे खो रहा है तो फिर धीरे धीरे ये बिजनेस माडल भी धरधरा कर गिरेगा । क्योकि सत्ता भी तभी तक मीडिया हाउस पर कब्जा जमाये कारपोरेट को लाभ दे सकता है जबतक वह जनता में प्रभाव डालने की स्थिति में हो । और कडी का सबसे बडा सच तो ये भी है जब मेनस्ट्रीम मीडिया ही सत्ता को अपने सवालो या रिपोर्ट से पालिश करने की स्थिति में नहीं होगी तो फिर सत्ता की चमक भी धीरे धीरे लुप्त होगी । उसकी समझ भी खुद की असफलता की कहानियो को सफल बताने वालो के ही इर्द-गिर्द घुमडेगी । और उस परिस्थिति में मेनस्ट्रीम मीडिया की परिभाषा भी बदल जायेगी और उसके तौर तरीके भी बदल जायेगें । क्योकि तब एक सुर में सत्ता के लिये गीत गाने वाले मीडिया काकरपोरेशन में ढहाने के लिये ऐसे कोई भी पत्रकारिय बोल मायने रखेगें जो जनता के शब्दो को जुबा दे सके । और तब सत्ता भी ढहेगी और मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट भी ढहेगें । क्योकि तब घाटा सिर्फ पूंजी का नहीं होगा बल्कि साख का होगा । और अंबानी समूह चाहे अभी सचेत ना हो लेकिन जिस दिशा में देश को सियासत ले जा रही है और पहली बार ग्रामिण भारत के मुद्दे राष्ट्रीय फलक पर चुनावी जीत हार की दिशा में ले जा रहे है ... और पहली बार संकेत यही उभर रहे है कि सत्ता के बदलने पर देश का इकनामिक माडल भी बदलना होगा । यानी सिर्फ सत्ता का बदलना भर अब लोकतंत्र का खेल नहीं होगा बल्कि बदली हुई सत्ता को कामकोज के तरीके भी बदलने होगें । यानी जो कारपोरेट आज मीडिया हाउस के दरीये मोदी सत्ता के अनुकुल ये सोच कर बने है कि कल सत्ता बदलने पर वह दूसरी सत्ता के साथ भी सौदेबाजी कर सकते है तो उनके लिये ये खतरे की घंटी है ।