Thursday, December 27, 2018

पहाडो के सौन्दर्य तले नये बरस के इंतजार में सुलगते सवाल




साल खत्म होने को है और सत्ताधारी जनता को मूर्ख मान कर फिर से सत्ता की दौड को ही नये बरस का एंजेडा बनाने पर तुले है । सौ वाट का बल्ब फ्यूज हो रहा है तो जीरो वाट के कई वल्ब भी एकसाथ सोचने लगे है कि रोशनी तो वह भी दे देगें । हमने ही तो इन्हे अपने ही अधिकारो को खत्म करने का लाइसेंस दे दिया है , वर्ना इनकी क्या हैसियत । ये गुस्सा है या बेबसी । या फिर देश के बिगडते हालात पर बोलने भर का अंदाज । हो जो भी लेकिन हिमाचल की ठंडी वादियो में क्रिसमस और नये बरस के बीच सैलानियो के संमदर में घूमते-फिरते हर चर्चा दो ही मुद्दो पर आ कर टिक जाती है । पहला सियासत और दूसरा प्रकृति से छेडछाड ।  शिमला, चैल, कुफरी,फागू  का एहसास यही है कि रात होते होते  तापमान जीरो से नीचे चला ही जाता है तो बर्फ तक के रंग को बदरंग करते गाडियो का  रेला कैसे शहर से बहाड के जीवन को रौद रहा है  । और दिन में धूप से बदन गर्म करते वक्त जुबा पर सिय़ासत के घाव हर किसी में बैचेनी पैदा कर ही देते हैा हां, शिमला में दिल्ली वालो का जमघट जरुर इस एहसास को जगाता है कि सत्ताधारी कैसे खुद को जन सेवक बताकर जनता के लिये ना साफ पानी ना साफ हवा मुहैया करा पाते है । लेकिन शिमला से 40 किलोमिटर दूर चैल में चाहे आप पैलेस होटल में हो या  देश के सबसे उपरी क्रिकेट ग्राउंड पर । या फिर पर्वत की चोटी पर काली मंदिर में । गाहे बगाहे कोई ना कोई ये बात कह ही देता है हालात ऐसे बनाये जा रहे है कि 2019 में देश अस्त हो जायेगा या देश में कुछ उदय हो जायेगा । और सीधे ना कहते हुये उपमाओ के जरीये पहाड से दिल्ली की सियासत को समझते समझाते हुये जो बात कह दी जाती है वह आपके दिल को भेद सकती है । बिजनेस फलो का है । बिजनेस फलो के रस का है । बिजनेस गर्म कपडो को लुधियाने से लाकर बेच मुनाफा बनाने का हो या मैगी की दुकान खोलकर जिन्दगी की गाडी खिंचने का है या फिर पहाड पर दो चार रात गुजारने वालो की भीड को सहुलियत देकर या कहे रास्ता बताकर जिन्दगी जीने का है..हर जुबां पर दर्द ज्यादा है । और दर्द की निशानदेही उसी सत्ता और उसी लोकतंत्र के खिलाफ उठती आवाज है जिसे चुनते वह खुद है । या फिर जो जनता ने खुद के लिये ही बनाया है । 80 बरस की बूढी मां की अधबूझी आंखो को दिखाकर  50 बरस का बेटा ही जब ये कहे कि इन आंखो ने तो देश को बनते हुये देखा पर लगता है अब दोनो एक साथ ही देश को बिगाडने वाले हालातो के बीच चले जायेगें । पहाडो पर जमीन के पैसे वालो ने कब्जा कर लिया । तो ना जमीन बची ना पहाड । और पहाड भी जब तक पैसे उगल रहे है जब तक इन पहाडो को और घायल किया जायेगा । कुल जमा चार महीने कमाई होती है पहाडो पर रहने वालो की । तीन महीने गर्मी । और महीने भर की ठंड । लेकिन पहाडो को खत्म कर मुनाफा बनाने का धंधा बारहो महीने चलता है । आप तो दिल्ली से आये है पर क्या आप जानते है दिल्ली में कमाई करने वाले पहाडो के मालिक हो गये । किसी ने घर बना लिया । किसी ने होटल । कोई पडाह को ही खरीद लेने के लिये उतावला है । तो कोई नीचे से खडे होकर ये कहने से नहीं चूकता जब तक पहाड साफ हवा दे रहे है तब तक तो कमाई हो ही सकती है । गुरुग्राम में रहने वाले पहाड में काटेज - होटल बनाकर गुरुग्राम से ही रेट तय करते है । और कमाई से दुनिया की सैर पर निकल जाते है । और हम खुद को ही घायल कर मलहम नहीं रोटी का जुगाड करते है । जरा समझने की कोशिश किजिये हमारे पहाडो को बर्बाद करने वालो का इंतजार हम ही करते है जिससे हमारी घर का चुल्हा जल सके । और संयोग ऐसा है कि कुफरी में माइनस पांच डिग्री के बीच भी देश में गर्म होती सियासत के केन्द्र में दिल्ली की सत्ता को फ्यूज होते बल्ब के तौर पर देखा तो जा रहा है लेकिन जिस तरह जीरो और पांच पांच वाट के बल्ब रोशनी देने के लिये मचल रहे है उसपर खूब चर्चा होती है । कौन है राजभर । कौन है कुशवाहा । कौन हैा पासवान । कौन है यादव । कौन है मायावती । कौन है गडकरी । कौन है मोदी । कौन है शाह । कौन है ममता । कौन है तेजस्वी ।कौन है चन्द्रबाबू । कौन है स्टालिन ।ये देश से बडे हो चुके है । इसलिये पहाड पर हर किसी के लिये परिभाषा है । हर किसी को एक नाम दिया जा चुका है । और साफ हवा- शुद्द पानी- दाल रोटी सबकुछ कैसे इन्ही परिभाषित लोगो ने लूट लिया या लूटकर अपने उपर सभी को निर्भर करने की बेताबी दिखा रहे है इसपर जितनी पैनी नजर संसद की बहस में नहीं हो सकती उससे कही ज्यादा पैनापन पहाड के दर्द के साथ हर क्षण आपके सामने है । आंकडे भी डराने वाले है । एक हजार करोड का मुनाफा एक महीने में और कई लाख करोड का धाटा सिर्फ इसी महीने में । जी , दुनिया भर में प्रकृति बचाने ही होड है और हमारे यहा प्रकृति से खिलवाड कर या बर्बाद कर कमाने की होड है । शिमला में रहने वाले पर्यावरणविद बेहद निराश दिखते है तो खुल कर बोलते है । लेकिन आम शख्स तभी खुलता है जब वह मान लें कि आप सत्ताधारी नहीं है । और इस तरह की चर्चा में मुद्दो को लेकर बैचेनी वाकई कुछ नये सवालो को जन्म दे ही देची है । और ये सवाल बेहद सादगी से पहाड पर पिढियो से जिन्दगी बिता चुके किसी भी परिवार से मिल लिजिये , बातचीत का लब्बोलुआब यही निकलेगा कि पत्रकार आखिर क्यो पत्रकारिता कर नहीं पा रहा है । सत्ताधारी आखिर क्यो जनता के दर्द को समझ नहीं पा रहे है । या फिर विपक्ष की सियासत करने वालो से भी जनता का कोई लगाव क्यो नहीं है । सभी फरेबी है । सभी अपनी जमीन को बचाये रखने के खेल में ही मशगूल है । सभी के आधार मुनाफा खोजते है । क्योकि हर आम शख्स ने मान लिया है कि उसकी मौत ही इस खेल को मुनाफा दे सकती है । और मरने वाले के लिये जिन्दा रहने का एकमात्र उपाय मौत देने वालो की बिसात को ही लोकतंत्र या सत्तातंत्र मान लेना है । गजब की सोच फागू जैसे ढंडे इलाके में पर्यटन विभाग के होटल में जली हुई लकडियो को चुनते पति-पत्नी ने ये कह परोस दी कि आप आये है तो रोजी रोटी चलेगी । चले जायेगें तो रोजी रोटी के लाले पड जायेगें । पर आपके आने और जाने से पहाड की उम्र एक बरस तो कम हो ही गई । गाडियो का रेला आता है । सडक चाहिये । और शिमला से दिल्ली तक के सियासतदान लगे हुये है गाडियो वालो के लिये काली कारपेट बिछाने में । चाहे पेड कटे । चाहे पहाड घंसे । चाहे पानी खत्म हो । बेफ्रिक है सभी । तो क्या मौत का सामान समेटे हुये हम पहाड पर आ रहे है और मौत समेटे जिन्दगी पहाडी जी रहा है । हो जो भी लेकिन शिमला के माल रोड पर चर्चा यही मिलेगी देश का बल्ब फ्यूज होने को है । त्यौहारो या उत्सवो में चमकने वाली शौशनी समेटे छोटी छोटी लडियां ही अब खुद को सौ वाट का बव्ब मान चुकी है । तो आप भी मान लिजिये 70 बरस के लोकतंत्र की उम्र पूरी हो चली है , नहीं चेते तो उत्सव के साथ देश को ही दफ्न वही सियासत करेगी जिसे लोकतंत्र का जामा पहना कर नई नवेले दुल्हे की तरह हर पांच बरस में सजाया समाया जाता है । फिक्र है तो माल रोड पर तफरी में ना घुमिये बल्कि देश के शहर दर शहर की सडको पर घुम घुम कर बताइये हालात क्यो हो चले है ऐसे है और एक नयी फौज की जरुरत देश को क्यो है । प्रोफेशन कोई भी हो । डाक्टर बन कर क्या कर लिजियेगा । इंजिनियर हो जाइयेगा तो क्या होगा । पत्रकार ही बन जाइयेगा तो कौन सा कमाल कर लिजियेगा । फिल्मी सितारा होकर डरे या गुस्से में आये ये कहने भर से क्या होगा । अरे उतरिये मैदान में । भगाइये  सत्ता सेवको को । माल रोड पर अखरोट-बदाम बेचने वाला बुजर्ग की तल्खी इस एहसास को जगाने के लिये काफी थी कि पर्यटक चाहे नये बरस के इंतजार में पहाडो के सौन्दर्य के बीच पहुंच कर सुकुन पा लें लेकिन पहाड पर रहने वालो के मन दर्द से सुलग रहे है ।

7 comments:

Unknown said...

Koi channel join kariye sir plz

mazid said...

बहुत ही मार्मिक,तार्किक लेख लिखें हैं सर।आपके मास्टर स्ट्रोक ने सत्ता में बदलाव किया,(4 राज्य)ओर अब वाले मास्टर स्ट्रोक(5wt)के बल्ब फिर से 100 वाट को ही फ्यूज होने से बचाने की कोशिस!

Unknown said...

बिल्कुल सही बात बताई वाजपयी जी ने सवाल ओर जवाब दोनो मिल जाते है ओर शिख मिलती है

Unknown said...

Sir well written,,,,

Neelam Sood said...

सर जी,यहाँ तो सारा खेल ही कमीशन पर टिका है। कमीशन के सिर पर अपनी नालायक औलादों का भविष्य संवारने मे लगे हैं भ्रष्ट अधिकारी ,सियासतदान और विपक्ष बारी बारी, इन्हे क्या फर्क पड़ता है नदियां बिके या पहाड़ों का सीना चीर कर सीमेंट उद्योग लगें !

वक्त का तकाजा said...

deat sir aap yese hi likhte rahe

Unknown said...

AAP bahut achcha likhte h me hamesha apke lekha padati ho.aap super journalist hai.