Friday, April 3, 2009

आडवाणी के बाद शुरु होगी संघ की असल पारी

22 मार्च को करीब रात साढ़े दस बजे वरुण गांधी के खिलाफ चुनाव आयोग का फैसला आया। 11 बजने से पहले ही संघ के नये मुखिया मोहनराव मधुकर भगवत का नागपुर से ये निर्देश दिल्ली पहुंच गया कि वरुण का साथ संघ परिवार देगा और वह इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे । राजनीतिक मुद्दे को लेकर इतनी तत्परता इससे पहले कभी किसी सरसंघचालक ने दिखायी तो वह गुरु गोलवरकर थे। उन्होंने गांधी की हत्या के बाद मुस्लिमों को पुचकारने की सोच के खिलाफ आक्रोष को एक नयी जगह दी थी। हालांकि, उसके बाद संघ पर प्रतिबंध भी लगा।

लेकिन देश के हालात साठ दशक में जिस तरह बदल चुके हैं, उसमें गीता की कमस खाकर हिन्दुओं पर उठे हाथ को काट लेने का वचन समाज में जगह पायेगा यह सोचना मुश्किल है लेकिन संघ की आंखों से देखे तो हालात साठ साल पहले जैसे हो चुके हैं और इसको अपने तरीके से मोहन भागवत न सिर्फ परिभाषित करने को तैयार है बल्कि बीजेपी के जरीये भारतीय राजनीति को भी नया मूलमंत्र देने की तैयारी कर रहे हैं। इसके संकेत संघ ने परंपरा तोड़ कर मोहन भागवत को सरसंघचालक बना कर की तो मोहन भागवत ने पहले भाषण में कर दिया ।

संघ के मुखिया का पद संभालते ही मोहनराव मधुकर भागवत ने जो-जो बातें कहीं उसका लब्बो-लुआब यही निकला-"यह देश हिन्दुओं का है । हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है । वह इस घर का मालिक है । लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा । क्योंकि भारत हिन्दु राष्ट्र है।"

असल में हेडगेवार के बाद सिर्फ गुरु गोलवरकर ही थे, जिन्होंने सरसंघचालक बनने के बाद बिना हेडगेवार का जिक्र किये सीधे उन्हीं की बात कही। यानी स्वयंसेवकों को इसका एहसास कराया कि हिन्दुत्व की सोच उनकी अपनी है, जो हेडगेवार की भी रही होगी। उसके बाद यह हिम्मत बालासाहब देवरस, रज्जू भैया और सुदर्शन दिखला नहीं पाये। नौ साल पहले सुदर्शन ने जब सरसंघचालक का पद संभाला था तो अपने पहले भाषण का निन्यानवे फीसदी संघ के गौरवशाली अतीत को समर्पित करते हुए हर बयान के साथ हेडगेवार का नाम लेते रहे थे। वह अपनी सोच को नहीं रख पाये। वहीं नौ साल पहले मार्च 2000 में जब मोहनराव भागवत ने सरकार्यवाह का पद संभाला तो हर बात अपनी कही..यहां तक की उन्हें सरकार्यवाह बनाने के बीच में जो स्वयंसेवक विरोध कर रहे थेस उन पर सीधा निशाना साध कर कहा," मेरे नाम के प्रस्ताव तथा अनुमोदन में बहुत सारी बातें जो कहीं गयी, वे क्यों कहीं गयी, यह मै जानता हूं। मै जानवरों का डॉक्टर हूं। जानवरों को इंजेक्शन देते समय सुई घोपना पड़ता है, उसके पहले उस जगह को हाथ से सहलाकर उस पशु का ध्यान बटाने की पद्दती मेरे शास्त्र में बतायी गयी है। इसलिये मैं भी और आप भी मेरी कमियो को जानते हैं।"

वहीं नौ साल बाद जब उन्हे सरसंघचालक का पद मिला तो उन्होंने बेहिचक हेडगेवार का नाम लिये बगैर उनकी हर सोच को अपनी भाषा में ढाल कर स्वंयसेवको को इसका एहसास कराया कि वह हिन्दुत्व को किस रफ्तार से देखना चाहते हैं। असल में भागवत अब समझ चुके है कि संघ की सोच उन्हें लागू कर दिखानी है, इसलिये वह कोई वैसा भ्रम रखना नहीं चाहते है जैसा सुदर्शन के दौर में रहा। भागवत उस तरह के किसी राजनीतिक प्रयोग के भी पक्ष में नहीं है, जैसा देवरस ने इमरजेन्सी में कमाल कर दिखाया था । भागवत इस सच को समझ रहे है कि देवरस के पीछे सपना देखने वाले स्वयंसेवकों की फौज थी। वहीं भागवत के पीछे सपना टूटता हुआ देखने वालो की फौज है इसलिये कोई भी राजनीतिक प्रयोग संघ की विचारधारा के आसरे नहीं चल पायेगा जबकि विचारधारा विकसित होकर स्वयंसेवकों को जोड़ ले तो राजनीति को प्रयोग के लिये एक धारा तो मिल जायेगी । इसलिये भागवत ने उन मदनदास देवी को संघ की टीम में दरकिनार किया है, जो तीन दशको से राजनीति के खिलाडी के तौर पर संघ के भीतर से काम करते हुये बीजेपी को प्रभावित करते रहे। मदनदास देवी को प्रचारक प्रमुख बनाकर बुजुर्ग प्रचारको की सुविधा-असुविधा देखने में लगा दिया गया है। वहीं इमरजेन्सी में जो साथी प्रचारक भूमिगत होकर भागवत के साथ काम करते रहे उन्हे भागवत ने सहसरकार्यवाह बनाकर संघ में सीधा संदेश दिया है कि अब एक ही धारा पर संघ चलेगा। मन भेद का सवाल ही पैदा नहीं होता। भैयाजी जोशी ने इसीलिये अपनी टीम में विचारधारा और राजनीतिक नौकरशाही को जोडा है । सुरेश सोनी के साथ दत्तात्रेय होसबोले भी सह सर कार्यवाह बनाये गये है । कमोवेश यह मिजाज हर क्षेत्र में है लेकिन बडा सवाल उस राजनीति का है जिसपर बीजेपी को चलना है । भागवत ने सांगठनिक तौर पर संघ को एक धागे में जोड़ने की पहल जिन नौ सालो में की, संयोग से उस दौर में संघ के तेवर और समझ उस राजनीतिक प्रयोग की तरह होते गये, जिस पर चलते हुये बीजेपी ने सत्ता गंवायी और खुद का कांग्रेसीकरण किया।

संघ के भीतर भी स्वयंसेवको की जमात सत्ता की मलाई को ही असल विचारधारा का परिणाम मानने लगी । पहली बार यह एहसास उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के तेवरो ने बार-बार कराया । वाजपेयी को रिटायमेंट की सीख देने से लेकर हिन्दुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देना और मुस्लिम समुदाय के बारे में ज्ञान दिखला कर आडवाणी के जिन्ना प्रेम को लोकतांत्रिक पहलुओं से जोड़कर देखना । भागवत ही नहीं संघ के भीतर एक पूरी पीढी पहली बार सरसंघचालक सुदर्शन के खिलाफ हो चली थी, जो खुलेतौर पर मान रही थी कि सुदर्शन के बने रहने का मतलब है संघ का बंटाधार । लेकिन संघ की पारंपरिक स्थितयां इस बात की इजाजत देती नहीं कि सरकार्यवाह जो सोचे वह सरसंघचालक की सहमति के बगैर पूरा हो सकती हैं। वहीं, सरसंघचालक के खिलाफ जाकर सरकार्यवाह संघ के नवनिर्माण का सवाल खडा करें, यह भी संभव नहीं है।

लेकिन 1925 में गठित आरएसएस में पहली बार यह देखने को मिला कि सरसंघचालक को हटाने के लिये संघ के भीतर ही गोलबंदी शुरु हुई । मार्च के पहले हफ्ते में दिल्ली के झंडेवालान मुख्यालय में यह मुहर लग गयी कि सुदर्शन को अब अपनी गद्दी भागवत के लिये छोड़ देनी चाहिये । लेकिन संघ में यह परंपरा रही नहीं है कि दिल-दिमाग-शरीर से मजबूत सरसंघचालक अपनी विरासत कैसे किसी दूसरे को दे दे । संघ ने कितना कुछ गंवाया है और दोबारा खुद को खड़ा करने की कुलबुलाहट उसके भीतर कैसे हिलोरे मार रही है, इसका एहसास सुदर्शन का आखिरी भाषण कराता है । जिसमें एक मजबूत दिमाग और शरीर रखने वाला व्यक्ति बताता है कि सालो से जो रसोईया उसे खाना खिलाता रहा, अब वह उसको पहचान नहीं पा रहे हैं। तस्वीर देखने पर भी पहचान नहीं पाते हैं। मेडिकली कितना कमजोर हो चला था सरसंघचालक और अगर वह पद ना छोड़े तो संघ को आगे बढाने या सांगठनिक तौर पर मजबूत करने में संघ सक्षम नहीं हो पायेगा । जिस शख्स ने सरसंघचालक बनने के बाद अपने पहले भाषण में दसियों बार डॉ हेडगेवार का नाम लिया..वही शख्स पद छोडने का ऐलान करते वक्त सिर्फ अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में ही बताये। असल में सुदर्शन की विदाई ने ना सिर्फ संघ को अंदर से चेताया है, बल्कि बीजेपी के लिये भी भागवत एक नयी चेतावनी के साथ आये हैं।

राजनीति में सिर्फ इंदिरा गांधी का ही नाम उभरता है, जो विरोधियो के मुंह से अपनी तारीफ करवाकर उन्हें हटाती थी । भागवत का आना कुछ ऐसा ही है । इसका पहला स्वाद वरुण गांधी को लेकर संघ के तौर तरीको ने दिखालाया । वरुण गांधी के आसरे संघ ने आडवाणी को भी संकेत दिये की उनकी आखिरी पारी में अगर बीजेपी को सत्ता मिलती है तो उन्हे अपने रहते संघ परिवार के अनुकुल नीतियो पर चलना हैं और अगर हार मिलती है तो भी जाते जाते संघ परिवार के अनुकुल ही लकीर खिंचनी है । यानी चुनाव के तुरंत बाद बीजेपी का नवनिर्माण की पहल तय है । असल में मोहन भागवत अपने नौ साल के उस कठिन दौर को भूले नहीं है जो बतौर सर कार्यवाह उन्होंने भोगे।

कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार ठंडे बस्ते में डल चुका था।

पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोड़ने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमों को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे, उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।

जाहिर है, इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देखकर खुद को अलग थलग समझ रहा था, बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो जुड़ा तो संघ परिवार के साथ, लेकिन बार बार सावरकर की सोच उन्हे संघ से दूर ले जाती । इसी लिये भागवत ने संघ की जो नयी टीम बनायी, उसमें मराठियो को सबसे ज्यादा तरजीह ही नहीं दी बल्कि हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयं सेवक को स्थापित किया । मोहन भागवत बीजेपी की नीतियों को संघ के ढर्रे पर लाकर परिवार को एकजुट करना चाहते हैं, जिससे किसी को ना लगे कि संघ को अपने संगठनों की लगाम कसनी नहीं आती । क्योंकि ढीली लगाम का असर उन्होने सुदर्शन के दौर में देखा है, जब 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया, जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनों में जाना शुरु कर दिया। महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी, जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया । भागवत इसी डोर को थामना चाह रहे हैं ।

ऐसे में भागवत बीजेपी को खुला छोडेंगे, यह सोचना भी मुश्किल है । भागवत के सामने बोजेपी को लेकर जो चुनौती है, उसमें उनके पंसदीदा नेताओं के अंतर्विरोध हैं । बाल आप्टे को कोई जानता नहीं । नरेन्द्र मोदी को लेकर संघ के भीतर मनभेद है। जेटली सीधे जनता से चुनकर कर आते नहीं है । यानी जिस सोच को बीजेपी के जरीये भागवत को आगे बढाना है, उसमें यही तीन नेताओं के नाम अगर सबसे ऊपर होंगे, तो सवाल राजनाथ सिंह के उस संघ प्रेम का होगा जो एक साथ संघ की सोच को अकाट्य मानता हो तो दूसरी तरफ टेंटवाला यानी मित्तल के जरीये बीजेपी में बवाल भी खड़ा कराता है। भागवत को जानने वाले मानते हैं कि वह परिणाम प्रेमी है। यानी हाथ में रुद्दाक्ष की माला जप कर हिन्दुत्व का राग से बेहतर उन्हे लाठी लेकर जयश्रीराम का नारा लगाना भाता है । यह समझ अगर देश के भविष्य की राजनीति को साप्रायिकता के चोला ओढे दिखायी दे रही है तो इसके लिये देश को तैयार तो होना ही पड़ेगा क्योंकि भागवत वाकई एक ऐसे डाक्टर हैं, जिनकी सूरत डाक्टर हेडगेवार से मिलती है और सीरत वेटेनरी डाक्टर की है, जो पहले सहलायेगा और जैसे ही ध्यान बंटेगा वैसे ही इंजेक्शन घोप देगा।

13 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

मूल राजनैतिक संगठन संघ ही है, बीजेपी उस का मुखौटा भर है। कोटा में बीजेपी में काम कर रहे सभी नेताओं को धता बता कर एक सरकारी अफसर और संघ कार्यकर्ता को चुनाव मैदान में उतारा गया है। अब जनता को फैसला करना है कि वे किसे पसंद करते हैं? पर यह तो निश्चय है कि इस बार बीजेपी के सैनिक चुनाव युद्ध में औरों से लड़ते हुए भी आपस में अधिक संघर्षरत रहेंगे।

Anonymous said...

बाजपेयी जी, शालीन शब्दों में कुछ बातें कहना चाहूँगा। उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेंगे। पढ़ा तो आपको कई बार, लेकिन, प्रतिक्रिया पहली बार कर रहा हूँ। शायद इसलिए कि कभी आपके चिट्ठे में देखा ही नहीं कि आपने किसी प्रतिक्रिया का जवाब दिया हो। ख़ैर, ऐसा माना जाता है कि मीडिया वालों को निष्पक्ष होना चाहिये, लेकिनी अजीब बात है, कोई भी आदमी आप लोगों को सुनकर आपकी सोच को समझ सकता है। दूसरी बात कि आप जैसे लोग प्रतिक्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया देते हैं, क्रिया पर प्रतिक्रिया देते हुए कभी न पढ़ा, न सुना। कहने का मतलब है कि भारत शुरू से कभी साम्प्रादायिक नहीं रहा, इतना तो आप भी मानते होंगे। लेकिन, कभी आपने सोचा कि आज ये बातें क्यों उभर रही हैं? तस्लीमा नसरीन पर हमला करने वाले, फिर मीडिया के सामने अगली बार न चूकने का वायदा करने वाले, भारत पर पुन: इस्लामी शासन की इच्छा व्यक्त करने वाले इमाम बुखारी, कार्टूनिस्ट का सिर माँगनेवाले चरमपंथी, इन सब पर आपकी कलम चलती हुई कभी नहीं देखी। इतना पढ़ने तक आप तुरत मुझे एक हिन्दुवादी सोच लेंगे, लेकिन इसे ही मशीनी सोच कहते हैं जो पूर्वाग्रह पकड़ता है, तर्क नहीं। कभी समान आचार संहिता, 371, कश्मीर से निर्वासित कश्मीरियों पर भी अपनी राय दीजिये, तो हमें अच्छा लगे। आप दशक का अंतर बताकर जनता की बात करते हैं, फिर मोदी की बात करते हैं, मोदी की विकास-पहलों की भी बात करें, जनता द्वारा उन्हें दुबारा चुने जाने की भी बात करें। इंसान के विरुद्ध कोई नहीं, लेकिन जो केवल मुसलमान हो, जिसे वंदे मातरम घटिया लगता हो, जिसकी नज़र में इस्लाम की सदियों पुरानी शिक्षा ही ब्रह्म वाक्य हो, जिसे तर्क पर बात करना नागवार गुज़रता हो, उससे भाईचारा निभाने के ज़रा कारण तो बताइये। और फिर यह मत भूलिये कि कट्टर से कट्टर हिन्दू भी रहीम, बाबा फ़रीद, रसख़ान से लेकर अपने अब्दुल कलाम साहब तक को सम्मान क्यों देता है? इंतज़ार रहेगा आपकी अगली पोस्ट का।

रूपाली मिश्रा said...

संघ का सही विश्लेषण आपने किया है

Kapil said...

मुझे लगता है भागवत या उनके रूप में संघ के उग्रहिन्‍दुत्‍व की लाइन पर जोर देने को व्‍यापक सामाजिक-आर्थिक हालात में हमें समझना चाहिए। पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्‍यवस्‍था आज संकट के मुहाने पर खड़ी है। लाखों लोगों की नौकरी जाने और 1930 की महान मन्‍दी से खराब हालात पैदा होने की बात लगभग तय माननी चाहिए। ऐसे समय में खासकर पिछड़े देशों में आम जनता बुनियादी मुद्दों जैसे रोजगार, गरीबी, भूख आदि पर गोलबंद होने लगती है। जो कि जाहिरा तौर पर पूरे शासक वर्ग के लिए एक बड़ी चुनौती पैदा करती है। पूंजीवाद के पास इस गंभीर संकट से निपटने का एक औजार फासीवाद होता है। इस औजार की मदद से नस्‍ल, धर्म, क्षेत्र आदि के नाम पर जनता का ध्‍यान बुनियादी समस्‍याओं की जड़ से हटाकर लोगों को आपस में लड़ाने का काम शासक वर्ग करता है। 1930 की मन्‍दी के बाद हिटलर का उदय इसी तथ्‍य की ओर इशारा करता है। मौजूदा मन्‍दी के दुष्‍परिणाम जैसे ही लोगों को हमारे देश में भी गोलबंद करने लगेंगे, उम्‍मीद की जानी चाहिए कि फासीवादी या सटीक शब्‍दों में संघ की राजनीति ज्‍यादा से ज्‍यादा उग्र होती जाएगी। मोहन भागवत का आना किसी उग्र व्‍यक्ति के आने की बजाए उस राजनीतिक संकटमोचक उपाय का आना है जो पूंजीवाद अपने तरकश में संकट के लिए बचा कर रखता है।

पिंक सिटी गोल्ड said...

अगर यह देश हिन्दूओं का है तो पहले संविधान में सर्वधर्म शब्द का अर्थ बदलना ही होगा ? अगर सभी का है तो इन हिन्दूओं की धमकिओं को भी उसही नजर से देखना होगा जैसा मुस्लिम संगठन सीमी को देखा जाता है। अगर एक संगठन, जाति, धर्म आदि के धमकी दें तो देश का अपमान और दूसरी जाति, संगठन, धर्म वाले याने हिन्दू कुछ भी करें तो सही ? एक के लिये कानून लागू होगा दूसरे के लिये नहीं चाहे अपराध एकसा होने पर भेदभाव क्यों ? कानून में समानता का अधिकार है तो कानून लागू भी तो समान ही होना चाहिये ? यह भेदभाव क्यों ? - http://pinkcitygold.blogspot.com/

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) said...

चुनाव आते ही सारे न्यूज़ चैनेल वाले भाई लोग भाजपा के पीछे पड़ गए हैं | ऐसा लग रहा है जैसे भाजपा ५ साल शाशन चलाया है और सब उसका खाल निकालने पर लगे हैं ! पत्रकार लोग फैसला लिए की २६/११ को मुद्दा नहीं बनाने देंगे, उसपर राजनीती नहीं होने देंगे ! गुजरात को भूलने नहीं देंगे लेकिन गोधरा शब्द का उच्चारण भी नहीं करेंगे ! पाच साल में सरकार ने क्या क्या नहीं किया वो मुद्दा हम नहीं उठाएंगे लेकिन अडवाणी और मोदी ने १० साल पहले क्या किया उसका मुद्दा जरूर उठायेंगे ! भाजपा हिंदुत्वा या वरुण का मुद्दा उठाए या नहीं लेकिन मीडिया उसको जरूर मुद्दा उठाएगा ! आतंग्वाद इस कदर बढ़ गया की मुंबई में ३ दिन तक मुल्ली गाजर की तरह काटा सब लेकिन हम सर्कार को शाबाशी देंगे ! महंगाई इतनी बढ़ गयी की आम आदमी तड़प रहा है ! बेरोजगारी और जॉब लॉस इतना है की लोग खुद्कुसियाँ कर रहे हैं लेकिन मीडिया चुनाव तक चुप्पी साधे रहेगा ! वरुण हाथ काटे या नहीं लेकिन मुंबई में राज नाम का एक आदमी कितने उत्तर भारतियों का कमाने वाला हाथ काट कर वापस भेज दिया ! मीडिया चुप्पी साधे रहेगा ! ये कटे हाथ टी वि चैनेल के स्टूडियो में नहीं दिखाई देगा! ये बिहार यु पी के गावों में दिखाई देता है ! रासुका नाम का भुत उस राज नाम के चिडिया पर नहीं लग सकता है ! मीडिया तो चुनाव तक गाँधी के तीन बन्दर टाइप सब कुछ बंद कर रखा है ! खैर वोट देने वाले लोग ये सब नहीं देख रहे हैं.

जो हो रहा है आज कल टी वि चैनलों पर वो देश के हित के लिए ठीक नहीं है !

prakharhindutva said...

www.prakharhindu.blogspot.com
नया आलेख पढ़िए.....

............सच तो ये है कि वरुण जैसे नेता देश या धर्म की नहीं सोचते अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश में लगे रहते हैं। देशद्रोह, गद्दारी और हिंसा तो मुसलमानों के रक्त में व्याप्त है वो अपने नैसर्गिक गुणों को नहीं त्याग सकता। ये तो अल्लाह का नूर है जो मुहम्मद के मुख से टपका है और मुसलमान उसे बटोर बटोर कर इंसानों तक पहुँचा रहे हैं। आतंकवाद एक आम मुसलमान का फुल टाइम जॉब है पर वरुण जैसे नेताओं को इसका ध्यान केवल चुनावी मौसम में आता है। तब कहाँ थे वरुण गाँधी जब 13 मई 2008 को जयपुर घायल हुआ था, अहमदाबाद में हिन्दू मरा था और बेंगलुरु रोया था? क्या उन्हें 13 सितम्बर को दिल्ली का क्रन्दन नहीं सुनाई दिया। तब इसलाम ने पशुता की सारी सीमाएँ लाँघ डाली थीं और वरुण गाँधी कहीं नहीं थे। वरुण तो वरुण हिन्दुत्व के महानायक नरेंद्र मोदी क्या कर रहे थे?............



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चौहान said...

आपका लेख सत्यता से लाखो कोस दुर है सिर्फ कोर-कल्पित
कृप्या संघ को समझने के लिये संघ रुप दर्शन किताब पढीये।

Kapil said...

चंदन भाई, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि संघ की असली विचारधारा के लिए सबसे प्रामाणिक किताब गुरू गोलवलकर की 'वी एंड अवर नेशनहुड डिफाइंड' है जिसे खुद संघ प्रकाशनों से गायब कर दिया गया है। अगर आप ढूंढ़ सकें और अपने ब्‍लॉग पर उसे उद्धृत कर सकें तो लोगों की काफी ज्ञानवृद्धि होगी।

Sarita Chaturvedi said...

SANGH ACHHA HAI YA BURA , PAR JIS TARAH SE PES KIAA JA RAHA HAI , YE USKE SATH JYADTI HAI. SANGH KA HAMESA UGR ROOP HI SAAMNE RAKHAA JATA HAI, JABKI USKI SHANT CHABI KO KOI TAWJJO NAHI DI JAATI. AAJ BHALE HI KISI DHARM KO AIK BAINAR KE TALE AASANI SE LAYA JA SAKTA HAI YADI ASPECTS CLEAR HAI PAR HINDUWO KO AIK JHANDE KE TALE LANA AIK ASAMBHAW SA KAM HAI. KAM SE KAM JATIWAD KA ROG JO AAJ KE RAJNITI KI PRANWAYOO HAI, USE RSS ME JAGAH TAK NAHI HAI. YE KAHNE ME KOI HICHAK NAHI KI JIS TARAH AUR DHARM KHULKAR APNE DHARM KA PRCHAR YA BAKHAN BHARAT ME HI KARTE HAI , WAHA HINDU DHARM IS ROOP ME KOSO DUR HAI. YAHA KAHI N KAHI ISTHAPIT SOCH SE HATKAR SOCHNE KI BAAT HONI CHAHIYE. YE JAROOR HAI KI BHAGWAT JI NE BHASAN ME KAI BAAR HINDU SHABD KAHA PAR WAQUI RSS ANTI MUSLIM NAHI HAI, YAHA TAK KI ISTHAPNA KE SAMAY BHI YE SOCH NAHI THI VANSAPTI KI APNE HI CULTURE KO PREVAIL KARNE KI. JIS HINDU KI WO BAAT KAR RAHE THE WO DHRAM SE JYADA KUCH AUR THA AUR WO THA HINDU CULTURE JISKA CHETR KAPHI VISTRIT HAI.JIN MUDDO PAR RSS CHALNA CHAHTI HAI WO KAM SE KAM BHRAT KO BATTE NAHI HAI PAR AAKLAN IS KADAR KIAA JATA HAI KI YE LAGE KI RSS BHI KATTARTA KA HI ANUMODAN KARTI HAI. IS GADHE AUR ISTHAPIT SOCH KO PHIR SE KHANGLANE AUR TATOLANE KI JAROORAT HAI.KISI BHI INSTITUTION KI APNI KAMIAA HOTI HAI AUR ISLIYE RSS KE HAR POINT PAR RIGHT KA NISAN NAHI LAGAYA JA SAKTA. KAM SA KAM RSS KO SAMPRDAIKTA KE CHASME SE DEKHAKAR KOI BHI SAHI BISLESAR TO NAHI HI KIAA JA SAKTA.RSS KO JO TEWAR CHAHIYE THA USE BHAGWAT BAHUT HAD TAK PURA KARTE HAI PAR JAROORAT HAI KI RAJNITI KE US RANG KO SANGH PAR N CHADHNE DE JO SUDARSAN KE SAMAY KAPHI GHADHA HO GAYA THA.

AANDOLAN said...

बाजपेयी जी, शालीन शब्दों में कुछ बातें कहना चाहूँगा। उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेंगे। पढ़ा तो आपको कई बार, लेकिन, प्रतिक्रिया पहली बार कर रहा हूँ। शायद इसलिए कि कभी आपके चिट्ठे में देखा ही नहीं कि आपने किसी प्रतिक्रिया का जवाब दिया हो। ख़ैर, ऐसा माना जाता है कि मीडिया वालों को निष्पक्ष होना चाहिये, लेकिनी अजीब बात है, कोई भी आदमी आप

Pawan Kumar Sharma said...

संघ का सही विश्लेषण आपने किया है, इंतज़ार रहेगा आपकी अगली पोस्ट का।
पढ़ा तो आपको कई बार, लेकिन, प्रतिक्रिया पहली बार कर रहा हूँ।

ABVP HARYANA said...

Mere khyal se sangh ke bare me kuch kahne se pahle sangh ko jan lena jaruri hai. Kyuon ki jo sangh media me hai ya media jesa dhikhat hai sangh ka usse o partisat bhi smbandh nahi hai.