Monday, June 22, 2009

"लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना "

माओवादी नेता कामरेड किशनजी से पुण्य प्रसून वाजपेयी की बातचीत

लालगढ़ में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के आपरेशन शुरु होने के 72 घंटो बाद हालात कितने बदले हैं और माओवादियों की अगली पहल क्या होगी यह सवाल हर किसी के जहन में है। खासकर पहली बार सीपीएम लालगढ़ में माओवादियों के सफाये का सवाल उसी तरह उठा रही है, जैसा कभी नक्सलबाडी में किसानों ने जमींदारो को लेकर उठाया था । जब इन सवालो को मैंने कामरेड किशनजी के सामने रखा तो उनका पहला और सीधा सपाट जबाब यही आया कि "लालगढ को लालगढ तक देखना वैसी ही भूल होगी जैसे माओवादियो को सिर्फ लालगढ में देखना। " कामरेड किशन के इस जबाब के बाद मैने सवाल-दर-सवाल उठाये और जबाब भी बिना किसी लाग लपेट के इस तरह आया जैसे लालगढ युद्द में पुलिस का ऑपरेशन नहीं बल्कि कौई बौद्दिक क्लास चल रही हो।

सवाल- लालगढ को लालगढ तक देखना भूल होगी । इसका मतलब क्या क्या है ।
जबाव- लालगढ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है । और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढे सोलह हजार गांवो में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार है । इन ग्रामीणों की हालत ऐसी है, जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है । इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है । सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी । इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है । गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है । जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी, हथियार, धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरों में तो एयरकंडीशन भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले । जबकि गांव के कुंओं में इन्होने कैरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके । और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है । सालो-साल से यह चला आ रहा है । किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है । जंगल गांव की तरह यहा के आदिवासी रहते है । यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानो की अदला-बदली से काम चलाया जाता है । इसलिये सवाल माओवादियों का नहीं है । हमनें तो इन्हे सिर्फ गोलबंद किया है । इनके भीतर इतना आक्रोष भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार है । और गांव वालो का यह आक्रोष सिर्फ लालगढ़ तक सीमित नही है ।

सवाल- तो माओवादियो ने गांववालो की यह गोलबंदी लालगढ़ से बाहर भी की है ।
जबाब- हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब न आये । क्योकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है । हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था । सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गाववालों को थोड़ी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता । लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमने चुनाव का बांयकाट कराकर गाववालो को जोडा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर, लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड खत्म हो चुकी है । जिसका केन्द्र लालगढ़ है ।

सवाल--तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही हैं । इसीलिये वह आपलोगों को मदद कर रही हैं ।

जबाब- ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है, यह तो हम नहीं कह सकते । लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उसपर हमारी सहमति जरुर है । लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा । ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलो को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेंगी । लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियो ने पकड़ा है, उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितिया इतनी विकट हो चली है कि लालगढ़ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है । वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है ।

सवाल---नक्सलबाडी से लालगढ़ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।
जबाब---जोड़ने का मतलब हुबहू स्थिति का होना नहीं है । जिन हालातों में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी । चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे है, बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है । क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहूलुहान हो रहा है तो उसका आक्रोष कहां निकलेगा । क्योंकि इन तीस सालो में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनो में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी । लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फिसदी कौन डकार गया, इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा । छोटी जोत के कारण 90 फिसदी पट्टेदार और 83 फिसद बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हुये । इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारो की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालों से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कही ज्यादा गहरा है, क्योकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती। और कंगाल होकर बंद हो चुके उद्योगों की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है । वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है । यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे ।

सवाल- लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है ।
जबाव- आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है । बंगाल में माओवादियों के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दूसरे राज्यों से भी कड़ा है । हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है । तीस से ज्यादा माओवादी बंगाल के जेलों में बंद है । अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूखांर अपराधी के साथ होता है । दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण है । प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालो को जेल में बंद किया जा सकता है । लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं है । अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते है । जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही । अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है । नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है । महिलाओ के साथ बलात्कार की कई धटनाये सामने आयी है । लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।

सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियों से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।
जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है । लालगढ़ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे हैं, उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालो का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है । जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थकों पर पुलिस अत्याचार हो रहा है । इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है । उन्हें गांव छोडने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं, उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संघर्ष लंबे वक्त तक चल सके ।

सवाल--आप ग्राउंड जीरो पर है । हालात क्या है लालगढ़ के ।
जबाब-- लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैप जरुर लगा लिये हैं । लेकिन गांवो में किसी के आने की हिमम्त नहीं है । आदिवासी महिलाए-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं । लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी - ग्रामीण मारा जाये । इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमने गांववालो को मानव ढाल बना रखा है । पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही हैं। माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे । बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं । फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है। जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमे पुलिस से ज्यादा है । इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है, जहा तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती है । उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।

आखिरी सवाल- कभी यह अतिवाम सीपीएम में ही थी, अब आमने सामने आ जाने की वजह ।
जबाव--अच्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया । क्योंकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे । पहली बार जब 1967 मे संयुक्त मोर्चे की सरकार में ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री बने । लेकिन 1964 में जो सवाल भूमि को लेकर वाम आंदोलन खडा कर रहा था उसे संयुक्त मोर्चा की सरकार ने जब सत्ता में आने के बाद टाला तो अतिवाम ने सीपीएम के खिलाफ आंदोलन की पहल की । उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर या आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियो को लागू कराने का वक्त नहीं दिया । अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातों को ज्योति बसु ने 42 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये ।

5 comments:

डॉ .अनुराग said...

हमें तो बस इतना समझ आ रहा है की सी आर पी ऍफ़ या पोलिस के जवान किसकी बपोती है ?उनकी जाने जब जायेगी तो कौन सा राज नेता अपनी पेंशन या तनख्वाह से उनके घर में भेजेगा...इस घटिया पोलिटिक्स में एक प्यादे तो वो भी है ....मगर कब तक ?

aarya said...

आप ने सही समय पर सही साक्षात्कार लिया है, इससे उन कथित पंथ निरपेक्ष नेताओं का असली रूप सामने आ रहा है. ये ढोंगी नेताओं व दलाल अधिकारियों की ही देन है की आज भारत की जनता अपने ही देश के खिलाफ बन्दूक उठाये है, और इनके बीच पिसती है हमारी सेना व सुरछा में जुटे जवान. आज के युग के पत्रकार होते हुए भी आपने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है. आपको साधुवाद. रत्नेश त्रिपाठी

Awadhesh Kumar Maurya said...

HAR HAL ME MAVOVADIYON KE SAMSYAYON KA SAMADHAN HONA CHAHIYE.AAKHIR VO KOI BAHARI NAHI HAI JO UNSE DUSMANO JAISA VYVHAR KIYA JA RAHA HAI..

davinder said...

lalgarh is an example of the days to come, same happened in punjab when level of issues was different but struggle, to start with was pro people & pro farmer, dono ka comparison nahi kar raha par chahe maovaadi ho ya kashmiri youth ya north eastern fighters every struggle is facing equal or stronger state terrorism. Solution kaise milega jab tak log bhookhe hai. CRPF/ITBP/Police ya army ek baar kuch logo ko maar denge ek baar gurrila forces peeche hatengi, par fir aage aana hoga, its unavoidable. Maine pehle bhi ek baar kaha tha aaj bhi vohi yaad kara raha hoon Jangal kee avaaz or zaroorat ko shehar jitni jaldi samajh kar unka sath dena shuru kar dega utni jaldi kuch badlaw kee aas hai. Varna mojooda system me insaan sirf Numbers hai kuch kam ho jayenge to system chalaane vaalon ko koi farak nahi parne vaal

Unknown said...

फिर उजाले की तलाश में जली है मशालें
फिर अंधेरे को चीरने की कवायद है
पर क्या ये आंदोलन की दिशा और रास्ता सही है
इस सवाल के जवाब में उठता बस 'शायद' है।