Tuesday, September 1, 2009

जनादेश की हवा में मनमोहन की रफ्तार

प्रधानमंत्री दुखी हैं । देश के हालात से नहीं, भाजपा के भीतर मची उठापटक से । शनिवार को बाड़मेर में थे। भाजपा पर पत्रकारों ने प्रतिक्रिया पूछी । मनमोहन सिंह बोले- लोकतंत्र के लिये बेहद जरुरी है राजनीतिक दलो में स्थिरता रहे । संयोग से मनमोहन सिंह का यह दुख ठीक उसी दिन आया, जब सरकार के सौ दिन पूरे हुये । और इन सौ दिने में देश के भीतर जो हुआ सो हुआ, लेकिन मनमोहन सिंह ने भी यह समझा कि नहीं समझा कि लोकतंत्र के लिये देश के भीतर भी स्थिरता रहनी बेहद जरुरी है। ये तो सालों साल तक पता नहीं चलेगा लेकिन जनादेश मिलने के बाद जिस गर्व से सरकार ने लगातार दूसरी बार सत्ता संभाली, उसमें कौन कहां किस रुप में पहुंचा यह समझना जरुरी है।

सत्ता सभालते वक्त मनमोहन सिंह ने दो बातों पर खास जोर दिया था। पहला अर्थव्यवस्था और दूसरा आंतरिक सुरक्षा । मंदी को लेकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का जो सपना विकास दर के आंकडों में देखने-दिखाने की कोशिश की जानी थी, उस सपने को सूखे ने सबसे पहले तोड़ा। विकास दर के आंकडो से लेकर महंगाई दर के आंकड़ों के लिये सरकार की कोई नीति काम करती है, इस पर तो कयास ही लगाये जा सकते है लेकिन सूखा से लड़ने के लिये नीति होनी चाहिये नहीं तो देश डगमगा सकता है, इसका अंदाज सूखे में डगमगाते देश और सरकार से लग गया। मानसून के हवा-हवाई होने के वक्त ही संसद का मानसून सत्र शुरु हुआ था। लेकिन सरकार ने सूखा तो दूर मानसून की कमी को भी नहीं माना। सूखे से देश के सत्तर करोड़ लोग जब सीधे प्रभावित हो रहे थे, तब सरकार शर्म-अल-शेख और बलूचिस्तान को लेकर संसद में उलझी थी। किसी ने हिम्मत नहीं दिखायी कि सूखा और उसके बाद महंगाई से खस्ता होते हालातों को लेकर संसद से कोई पहल हो।

संसद का मानसून सत्र बिना मानसून जब आखिरी दौर में पहुचा तो सरकार और सांसदों को लगा कि उन्हें तो अब अपने लोकसभा क्षेत्र में भी जाना होगा तो रस्मअदायगी के लिये मानसून-सूखा-महंगाई का रोना रोया गया । जिसमें बहस के दौरान लोकसभा में कभी भी सौ सासंद भी नजर नहीं आये । सरकार के पहले बजट ने भी जतला दिया कि उसकी नजर वोट बैंक को खुद पर आश्रित किये रखने की है। इसलिये बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरीये देश को मजबूत आधार देने के बदले मंत्रालयों को ग्रामीण समाज के विकास का पाठ पढाते हुये बजट का साठ फीसदी बांटा गया। यानी यह जानते समझते हुये किया गया कि अगर केन्द्र से साठ लाख करोड़ रुपया ग्रामीण विकास के लिये चलेगा तो निचले स्तर तक महज छह से नौ लाख रुपया ही पहुंच पायेगा । बाकि तो उस तंत्र में खप जायेगा जो सरकार के जरिये बीच का आदमी होकर वोटबैक भी बनाता-बनता है और इसी तंत्र को रोजगार मान कर सरकारो की नीतियों पर तालिया पीटता है ।

राष्ट्रीय रोजगार योजना यानी नरेगा इसी तंत्र में सबसे मजबूत होकर उभरा तो उसको चुनाव की जीत से जोड़ते हुये उस पर करोड़ों लुटाने की नीति बनी । नरेगा के तहत हर महीने साढ़े तीन हजार करोड़ से कुछ ज्यादा और साल भर में 44 हजार करोड का प्रवधान किया गया । लेकिन पहले सौ दिन में 12 हजार करोड़ रुपये नरेगा में देकर सरकार ने क्या किया, इसका कोइ लेखा-जोखा नही है । सिवाय इसके कि किस गांव पंचायत में किस किस नाम के किस ग्रामीण को रोजगार दिया गया । जो दिल्ली में बैठ कर फर्जी बनाया जा सकता है । सवाल है कि इसी नरेगा को किसी इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजना से जोड़ा जाता तो नजर में काम भी आता और रोजगार भी। लेकिन यहा सिर्फ रुपया नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री कभी दुखी नहीं हुये कि उनके मंत्रालय में कैबिनेट स्तर के कृषि मंत्री ही सूखा और महंगाई को लेकर जमाखोरो और मुनाफाखोरो को लगातार संकेत दे रहे है कि जो कमाना है तो चीनी, दाल, चावल की जमाखोरी कर लो।

यह पहली बार हुआ कि कृषि मंत्री शरद पवार ने देश में भरोसा पैदा करने की जगह संसद के परिसर से लेकर कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर कहा कि चावल-चीनी के दाम आने वाले वक्त में बढ़ सकते है । दाल की कमी हो सकती है । इस दौर में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने भी सूखे और महंगाई के मद्देनजर शरद पवार पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी टीम के वरिष्ठ मंत्री को लेकर न दुखी हुये न ही उन्होने कोई प्रतिक्रिया दी । बात हवा में उड़ा दी गयी।

इसी दौर में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के इलाको को चिन्हित कर बुदेलखंड प्राधिकरण का सवाल राहुल गांधी ने उठाया । प्राधिकरण या कहे राहुल गांधी को लेकर उस राजनीति में भरोसा जरुर उठा जो बुंदेलखंड को संवार कर अपनी राजनीतिक जमीन बनाना चाहते है, लेकिन बुंदेलखंड के लोगो में कोई आस नही जगी । क्योंकि इन सौ दिनो में यहां के पांच लाख से ज्यादा लोगों को रोजी रोटी के लिये घरबार छोड़ना पड़ा। वहीं, इसी दौर में इसी इलाके में खनिज संपादा की लूट में हजारों एकड़ जमीन पर सिर्फ बारुद ही महकता रहे। माइनिंग के जरिये खनिज संपदा को निकालने के प्रक्रिया में तीन हजार से ज्यादा विस्फोट तो इन्हीं सौ दिनो में किये गये । और विश्व बाजार में दस हजार करोड़ से ज्यादा का खनिज यहां से निकाला गया।
किसानो को लेकर राहत का सवाल इन सौ दिनो में तीन बार सरकार की तरफ से किया गया, जिसमें दो बार वित्तमंत्री तो एक बार पीएम को ख्याल आया । याद करने के दौरान हर बार कुछ राहत देने की बात कही गयी लेकिन मुश्किल आसान करने की कोई नीति सरकार ने नहीं रखी । इन सौ दिनों में सरकार की तरफ से ऐसी कोई नीति लाने की भी नहीं सोची गयी, जिससे किसाने को कहा जा सके कि 2014 के चुनाव के वक्त कोई किसान आत्महत्या नहीं करेगा, ऐसी नीतिया हम ला रहे हैं। मनमोहन सिंह स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले से जब देश में दूसरी हरित क्रांति की जरुरत बता रहे थे, तब विदर्भ के पांच किसान खुदकुशी कर रहे थे। 2008 में भी मनमोहन सिंह ने ही लालकिले पर झंडा फहराया था और 2009 में भी । किसानो को लेकर दर्द दोनो मौकों पर उभारा था । लेकिन इस एक साल में देश भर में तीन करोड़ से ज्यादा किसान मजदूर हो गये । संयोग से आजादी के बाद मजदूरों में तब्दील होने का किसानो का यह सिलसिला सबसे तेजी से उभरा है। जिस आंध्र प्रदेश में वायएसआर ने किसानो का ही सवाल उठाकर सत्ता पायी और सौ दिन पहले दूसरी बार सत्ता जीत कर नायडू के इन्फोटेक को मात दी, वही वायएसआर ने भी कैसे किसानों से मुंह मोड़ लिया, यह भी इन्हीं सौ दिनो में नजर आया। सबसे ज्यादा किसानो ने इन्हीं सौ दिनो में खुदकुशी की। आंकड़ा पचास पार कर गया ।

लेकिन सवाल यह उभरा कि पीएम ने दूसरी हरित क्रांति को लाने के लिये किसे कहा। उनकी खुद की पहल क्या है । यह सवाल मौन है । पंचायती स्तर की राजनीति की वकालत तो पीएम भी करते हैं । लेकिन दिल्ली से महज सौ किलोमीटर की दूरी पर इन्ही सौ दिनो कोई पंचायत छह प्रेमी जोड़ों की हत्या कर दे और राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर पीएम तक खामोश रहे , तो क्या इसे महज सामाज की त्रासदी बताकर खामोशी ओढी जा सकती है। हरियाणा में तो वही कांग्रेसी सरकार है जो दुबारा सत्ता पाने के लिये सबकुछ योजनाबद्द तरीके से कर रही है। सोनिया गांधी से मुलाकात कर जल्द चुनाव कराकर सत्ता में दोबारा लौटने का जो बल्यू प्रिंट कांग्रेसी सीएम हुड्डा ने रखा, उसमें वह 8 हजार करोड़ का प्रचार भी था जो विधानसभा भंग करने से पहले न्यूज चैनलों, समाचार पत्रों, एफएम और तमाम हिन्दी-अंग्रेजी की पत्रिकाओं के लिये बुक कर लिये गये थे । अगर यही नीति और पैसा उन पंचायतो को आधुनिक समाज से जोड़ने में लगाया जाता, जहां पुलिस कानून को ठेंगा दिखाकर नौजवान प्रेमियो की हत्या कर दी जाती है तो कुछ बात होती । लेकिन हत्याओ के बाद सीएम का बयान भी यही आया कि समाज को भी देखना पड़ता है । पीएम तो देश का होता है । जब सरकार के ही आंकडे बताते है कि देस में 38 फीसदी गरीबी की रेखा से नीचे है और सत्तर करोड लोग दिन भर में महज बीस रुपये कमा पाते है तो फिर दस सेकेंड के लिये बीस हजार से लेकर नब्बे हजार तक न्यूज चैनलो में अपनी उपल्बधि बताने के लिये कोई कांग्रेसी कैसे लुटा सकता है।

अर्थव्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के छेद खुद सरकार भी बताती है । इन्ही सौ दिनो में हजार और पांच सौ रुपये के नकली नोट देश की अर्थव्यवस्था को खोखला करते गये । सरकार के माथे पर भी शिकन साफ दिखायी दी । बडे स्तर पर जांच की तैयारी भी की गयी लेकिन रिजर्व बैक ने जब यह कहा कि हर पांच नोट पर एक नकली नोट हो सकता है तो मामला जांच से आगे जाता है। लेकिन पीएम ने कोई पहल नहीं की। क्या यह संभव नही कि पांच सौ और हजार रुपये तत्काल बंद कर सिर्फ सौ रुपये का ही चलन कर दिया जाता। वैसे भी उन नोटो को रखने वाले देश के बीस फीसदी ही लोग हैं। लेकिन बात तो देश की होनी चाहिये। हां, इसमें काला धन रखने वालो को परेशानी जरुर होती। जो शेयर बाजार से लेकर अर्थव्यवस्था डांवाडोल कर सकते हैं। लेकिन उनके लिये भविष्य में कोई भी अनुकूल नीति बन सकती है। बात को पहले देश बचाने की होनी चाहिये। जहा तक आंतरिक सुरक्षा का सवाल है तो देश में सूखा साढे तीन सौ जिलों में है और माओवादी करीब दो सौ पच्चतर जिलों में । ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा का प्रभाव इतने जिलों में है । बीते सौ दिनो में माओवादियों ने बंगाल के छह नये जिलों को अपने प्रभाव में लिया है। लालगढ में कार्रवाइ के बाद इनके कैडर में करीब पांच हजार लोग जुड़े हैं। सौ दिनों में माओवादियों के दो दर्जन हमले हुये । जिसमें तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गये । छत्तीसगढ़ में तो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मारे गये । आंकडे के लिहाज से इसी सौ दिनो में सबसे ज्यादा हि्सा माओवादियो के जरीये हुई है, और इन्हीं सौ दिनो में पुलिस प्रशासन सबसे निरीह नजर आया है।

इसलिये सवाल भाजपा का नहीं है जिसकी अस्थिरता में लोकतंत्र की कमजोरी टटोली जाये , और दुखी हुआ जाये । कहा यह भी जा सकता है कि कमजोर नीति और मजबूत इरादे अगर सरकार में न हों तो लोकतंत्र कहीं ज्यादा कमजोर पड़ता है, जो सौ दिनो के दौरान नजर आया है। और इससे देश दुखी है।

5 comments:

Anurag Harsh said...

आपने सही चिंतन किया। देश कब तक इस तरह जनादेश देने के बाद भी चिंता करता रहेगा, दुखी होता रहेगा, आम आदमी के बारे में चिंता आखिर कब शुरू होगी।

vikram7 said...

लेकिन पहले सौ दिन में 12 हजार करोड़ रुपये नरेगा में देकर सरकार ने क्या किया, इसका कोइ लेखा-जोखा नही है । सिवाय इसके कि किस गांव पंचायत में किस किस नाम के किस ग्रामीण को रोजगार दिया गया । जो दिल्ली में बैठ कर फर्जी बनाया जा सकता है । सवाल है कि इसी नरेगा को किसी इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजना से जोड़ा जाता तो नजर में काम भी आता और रोजगार भी। लेकिन यहा सिर्फ रुपया नजर आ रहा है।

कहा यह भी जा सकता है कि कमजोर नीति और मजबूत इरादे अगर सरकार में न हों तो लोकतंत्र कहीं ज्यादा कमजोर पड़ता है.


प्रसून जी,बिल्कुल सही कहा हॆ आपने,आंतरिक सुरक्षा भी सवालो के घेरे मे हॆ. एटमी विशेषज्ञ के.संथानम के बयान ने भी कई सवाल पैदा कर दिए,ऒर उसका जवाब देना भी सरकार की जवाबदेही बनती हॆ. सरकार के सॊ दिनो के कामकाज
के सही लेखा जोखा के साथ साथ शासन में व्याप्त विसंगतियो को बहुत ही सही दर्शाया हॆ आपने

Lal Sant Kumar Shahdeo said...

सरकार के सौ दिन गुजर गए। चुनाव पूर्व दावे न पूरे होने थे न पूरे हुए। नरेगा मे 12 हजार करोड़ रुपये देने से क्या होना है,होगा वही जो अघिकारी चाहेंगे। वे अपना और अपने मातहतों का हिस्सा निकालने के लिये कितने छिद्र बनाये अगर वो देखना हो तो झारखण्ड आकर देखें। यहाँ के एक अधिकारी के झारखण्ड,दिल्ली एवं अन्य ठिकानो में परसों पडे छापों में C.B.I.ने करोड़ों रुपये की चल अचल सम्पती मिली। आखीर ये सब आया कहाँ से।
एक बात और प्रसून जी, समाज के ये दीमक,अपनी चोरी छिपाने के लिये हर वर्ष हजारों टन अनाज वर्षा के जल में सडा कर लाखों टन पचा लेते हैं। मानसून की इस बेरूखी मे भी इनको अनाज सडाने की खातिर पानी मिल ही गया। कम से कम इस अकाल मे तो इनको भूखे गरीबों पर तरस आनी चाहीए थी सरकार भी अपनी आँकडों पर ही ईतिश्री मान लेती है। कम से कम जिम्मेवार पदाधिकारी पर कार्रवाई तो होनी ही चाहिये, लेकीन होता कुछ नहीं। होता ये है,कि अगले वर्ष फिर से वही कहानी दुहराई जाती है और आँकडों पर टीकी सरकार को आँकडे भेज दी जाती है।..... .

Sarita Chaturvedi said...

VIPACHH KI AGAR YAHI HALAT RAHI TO ISTHTI AUR BHI DAYNIY HOTI JAYEGI.. SARKAR KUCHH BHI KARE..KAUN ROKNE TOKNE WALA HAI..?

Harsh Panchal said...

Kya aap ko nahi lagta ke k ye nishfal lokshahi ka udaharan hai? Kya aap ko nahi lagta ki hame lokshai pachti nahi hai? Mujhe to yahi lagta hai! Aaise samay mai prachin bharat ke Ganrajyo ki yad aati hai. Kash samay mai pichhe jake dekh sakte ki voh Ganrajyo sundar vyavstha kaisi hoti hogi. Lekin itna no vishvas hai ki aisi to nahihi hoti hogi. Aap ko kya lagta hai?