सत्तर और अस्सी के दशक को याद कीजिये । इस दौर में पहली बार सिनेमायी पर्दे पर एक ऐसा नायक गढ़ा गया, जो समाज की विसंगतियों से अकेले लड़ता है । नायक के तरीके किसी खलनायक की तरह ही होते थे। लेकिन विसंगतियों का पैमाना इतना बड़ा था कि अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन की जगह देखने वालो के जेहन में नायक की तरह उतरता चला गया ।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले एक दशक के दौरान आतंकवाद के जरिए समाज के भीतर भी गढ़ा गया । चूंकि यह कूची सिल्वर स्क्रीन की तरह सलीम-जावेद की नहीं थी, जिसमें किसी अमिताभ बच्चन को महज अपनी अदाकारी दिखानी थी। बल्कि आतंकवाद को परिभाषित करने की कूची सरकारों की थी। लेकिन इस व्यवस्था में जो नायक गढ़ा जा रहा था, उसमें पटकथा लेखन संघ परिवार का था। और जिस नायक को लोगों के दिलो में उतारना था-वह नरेन्द्र मोदी थे। आतंकवाद से लड़ते इस नायक की नकल सिनेमायी पर्दे पर भी हुई । लेकिन इस दौर में नरेन्द्र मोदी को अमिताभ बच्चन की तरह महज एक्टिंग नहीं करनी थी बल्कि डर और भय का एक ऐसा वातावरण उसी समाज के भीतर बनाना था, जिसमें हर समुदाय-संप्रदाय के लोग दुख-दर्द बांटते हुये सहज तरीके से रह रहे हों।
हां, अदाकारी इतनी दिखानी थी कि राज्य व्यवस्था के हर तंत्र पर उन्हें पूरा भरोसा है और हर तंत्र अपने अपने घेरे में बिलकुल स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर रहा है। इसलिये जब 15 जून 2004 को सुबह सुबह जब अहमदाबाद के रिपोर्टर ने टेलीफोन पर ब्रेकिंग न्यूज कहते हुये यह खबर दी कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा में लड़कियां भी जुड़ी है और गुजरात पुलिस ने पहली बार लश्कर की ही एक लड़की को एनकांउटर में मार गिराया है तो मेरे जेहन में तस्वीर यही उभरी कि कोई लड़की हथियारो से लैस किसी आतंकवादी की तर्ज पर किसी मिशन पर निकली होगी और रास्ते में पुलिस आ गयी होगी, जिसके बाद एनकाउंटर। लेकिन अहमदाबाद के उस रिपोर्टर ने तुरंत अगली लकीर खुद ही खिंच दी। बॉस, यह एक और फर्जी एनकाउंटर है। लेकिन लड़की। यही तो समझ नहीं आ रहा है कि लडकी को जिस तरह मारा गया है और उसके साथ तीन लड़को को मारा गया है, जबकि इस एनकाउंटर में कहीं नहीं लगता कि गोलिया दोनों तरफ से चली हैं। लेकिन शहर के ठीक बाहर खुली चौड़ी सडक पर चारों शव सड़क पर पड़े हैं। एक लड़के की छाती पर बंदूक है। कार का शीशा छलनी है। अंदर सीट पर कुछ कारतूस के खोखे और एक रिवॉल्वर पड़ी है। और पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारो के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं।
घटना स्थल पर पुलिस कमिशनर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमीशनर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद है, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे । 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटो के भीतर ही जिस शोर -हंगामे में लश्कर का नया आंतक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन, यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था । क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह भी परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वाले में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाये।
लेकिन एक खास व्यवस्था में किस तरह हर किसी की जरुरत कमोवेश एक सी होती चली जाती है, और राज्य की ही अगर उसमें भागीदारी हो जाये तो सच और झूठ के बीच की लकीर कितनी महीन हो जाती है, यह इशरत जहां के एनकाउंटर के बाद कई स्तरों पर बार बार साबित होती चली गयी। एनकाउटर के बाद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पुलिस प्रशासन की पीठ थपथपायी, तब मोदी राज्य व्सवस्था को आतंकवाद के खिलाफ मजबूती प्रदान करने वाले किसी नायक सरीखे दिखे। लड़की के लश्कर के संबंध को लेकर जब मोदी ने एक खास समुदाय को घेरा तो आंतकवाद के खिलाफ मोदी हिन्दुत्व के नायक सरीखे लगे। इस नायकत्व पर उस वक्त किसी भी राजनीतिक दल ने अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं की। क्योंकि जो राजनीति उस वक्त उफान पर थी, उसमें पाकिस्तान या कहें सीमा पार आतंकवाद का नाम ऑक्सीजन का काम कर रहा था। वहीं, आंतकवाद के ब्लास्ट दर ब्लास्ट उसी पुलिस प्रशासन को कुछ भी करके आतंकवाद से जोड़ने का हथियार दे रहे थे, जो किसी भी आतंकवादी को पकड़ना तो दूर, कोई सुराग भी कभी नहीं दे पा रही थी।
यह हथियार सत्ताधारियों के लिये हर मुद्दे को अपने अनुकूल बनाने का ऐसा मंत्र साबित हो रहा था जिस पर कोई अंगुली उठाता तो वह खुद आतंकवादी करार दिया जा सकता था। कई मानवाधिकार संगठनों को इस फेरहिस्त में एनडीए के दौर में खड़ा किया भी गया । इसका लाभ कौन कैसे उठाता है, इसकी भी होड़ मची । इसी दौर में नागपुर के संघ मुख्यालय को जिस तरह आतंकवादी हमले से बचाया गया, उसने देशभर में चाहे आतंकवाद के फैलते जाल पर बहस शुरु की, लेकिन नागपुर में संघ मुख्यालय जिस घनी बस्ती में मौजूद है, उसमें उसी बस्ती यानी महाल के लोगो को भी समझ नहीं आया कि कैसे मिसाइल सरीखे हथियार से लैस होकर कोई उनकी बस्ती में घुस गया और इसकी जानकारी उन्हें सुबह न्यूज चैनल चालू करने पर मिली। इस हमले को भी फर्जी कहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओ का पुलिस ने जीना मुहाल कर दिया। सुरेश खैरनार नामक एक कार्यकर्ता तो दिल्ली में तमाम न्यूज चैनलो में हमले की जांच रिपोर्ट को दिखाने की मन्नत करते हुये घूमता रहा लेकिन किसी ने संघ हेडक्वार्टर की रिपोर्ट को फर्जी कहने की हिम्मत नहीं की क्योंकि शायद इसे दिखाने का मतलब एक अलग लकीर खिंचना होता । और उस लकीर पर चलने का मतलब सत्ताधारियो का साथ छोड़ एक ऐसी पत्रकारिता को शुरु करना होता, जहां संघर्ष का पैमाना व्यवसायिकता में अवरोध पैदा कर सकता है।
अहमदाबाद में इशरत जहां को जब लश्कर से जोड़ने की बात गुजरात की पुलिस और उसे आधार बनाकर मुख्यमंत्री ने कही तो मेरे जेहन में लश्कर-ए-तोएबा के मुखिया का वह कथन घूमने लगा, जिसका जिक्र लश्कर के चीफ हाफिज सईद ने 2001 में मुझे इंटरव्यू देने से पहले किया था। हाफिज सईद ने इंटरव्यू से पहले मुझसे कहा थी कि मै पहला भारतीय हूं, जिसे वह इंटरव्यू दे रहे हैं। लेकिन भारत से कई और न्यूज चैनलो ने उनसे इंटरव्यू मांगा है । संयोग से कई नाम के बीच बरखा दत्त का नाम भी उसने लिया, लेकिन फिर सीधे कहा खवातिन को तो इंटरव्यू दिया नहीं जा सकता। यानी किसी महिला को लेकर लश्कर का चीफ जब इतना कट्टर है कि वह प्रोफेशनल पत्रकार को भी इंटरव्यू नहीं दे सकता है तो यह सवाल उठना ही था कि अहमदाबाद में पुलिस किस आधार पर कह रही है इशरत जहां के ताल्लुकात लश्कर से हैं ।
यह सवाल उस दौर में मैंने अपने वरिष्ठों के सामने उठाया भी लेकिन फिर एक नयी धारा की पत्रकारिता करने तक बात जा पहुंची, जिसके लिये या तो संघर्ष की क्षमता होनी चाहिये या फिर पत्रकारिता का एक ऐसा विजन, जिसके जरिए राज्य सत्ता को भी हकीकत बताने का माद्दा हो और उस पर चलते हुये उस वातावरण में भी सेंध लगाने की क्षमता हो जो कार्बनडाइऑक्साइड होते हुये भी राजनीतिक सत्ता के लिये ऑक्सीजन का काम करने लगती है।
जाहिर है गुजरात हाईकोर्ट ने कुछ दिनो पहले ही तीन आईएएस अधिकारियो को इस एनकाउंटर का सच जानने की जांच में लगाया है। लेकिन किसी भी घटना के बाद शुरु होने वाली मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट ने ही जिस तरह इशरत जहां के एनकाउंटर को ‘पुलिस मेडल पाने के लिये की गयी हत्या’ करार दिया है, उसने एक साथ कई सवालों को खड़ा किया है । अगर मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाये। खासकर कई रिपोर्ट तो मुबंई के बाहरी क्षेत्र में, जहां इसरत रहती थी, उन इलाको को भी संदेह के घेरे में लाने वाली बनी। उस दौर में मीडिया रिपोर्ट ने ही इशरत की मां और बहन का घर से बाहर निकलता दुश्वार किया। उसको कौन सुधारेगा। फिर 2004 के लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का जो डर राजनेताओ ने ऐसे ही मीडिया रिपोर्ट को बताकर दिखाया, अब उनकी भूमिका को किस रुप में देखा जाये । 2004 के लोकसभा चुनाव में हर दल ने जिस तरह गुजरात को आतंकवाद और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला करार देकर मोदी के गुजरात की तर्ज पर वहां के पांच करोड़ लोगों को अलग थलग कर दिया, उसने यह भी सवाल खड़ा किया कि समाज का वह हिस्सा जो, इस तरह की प्रयोगशाला का हिस्सा बना दिया जाता है उसकी भूमिका देश के भीतर किस रुप में बचेगी। क्योंकि पांच साल पहले के आतंकवाद को लेकर विसंगतियां अब भी हैं, लेकिन 2009 में उससे लड़ने के तरीके इतने बदल गये हैं कि समाज की विसंगतियों की परिभाषा भी सिल्वर स्क्रीन से लेकर लोगो के जहन तक में बदल चुकी है। नयी परिस्थितियों में समाज से लड़ने के लिये राजनीति में न तो नरेन्द्र मोदी चाहिये, न ही सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन। नयी परिस्थितियों में इशरत जहां के एनकाउटर का तरीका भी बदल गया है । अब सामूहिकता का बोध है। सिल्वर स्क्रीन पर कई कद वाले कलाकारो की सामूहिक हंसी-ठठ्टा का ऐसा जाल है, जहां सच को जानना या उसका सामना करना हंसी को ही ठसक के साथ जी लेना है । वहीं समाज में मुनाफा सबसे बडी सत्ता है जो सामूहिक कर्म से ही पायी जा सकती है । और एनकाउटंर के तरीके अब सच से भरोसा नहीं उठाते बल्कि विकास की अनूठी लकीर खींच कर विकसित भारत का सपना संजोते है।
सवाल है इसकी मजिस्ट्रेट जांच कब होगी और इसकी रिपोर्ट कब आयेगी। जिसके घेरे में कौन कौन आएगा कहना मुश्किल है लेकिन इसका इंतजार कर फिलहाल इताना तो कह सकते हैं-इशरत हमें माफ कर दो ।
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Wednesday, September 9, 2009
देश की असल जांच रिपोर्ट के लिए तो कई मजिस्ट्रेट चाहिए
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:31 PM
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15 comments:
आज एक बयान आया गृह सचिव का, 'इशरत आंतकवादी तो थी लेकिन किसी की भी बेरहमी से हत्या है'
...आपसे सहमती न होने की कोई वजह नज़र नहीं आती.....
लेख के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.. आपकी कलम से जो शब्द निकलते हैं वो सीधे दिल में उत्तर जाते हैं...
आपने बहुत शानदार ढंग से बातों को रखा है। खैर आप तो उस ब्रेकिंग न्यूज के गवाह रहे हैं, इसलिए उन तथ्यों को बहुत नजदीक से जानते होंगे।
इसी विषय पर मैंने भी अपने ब्लॉग पर लिखा है, जहां कुछ भाई लोग टिप्पणी में फर्जी नामों से कोस रहे हैं। लोगों को सच हजम नहीं हो रहा है।
आपने बहुत शानदार ढंग से बातों को रखा है। खैर आप तो उस ब्रेकिंग न्यूज के गवाह रहे हैं, इसलिए उन तथ्यों को बहुत नजदीक से जानते होंगे।
qunba.blogspot.com
आपने बहुत शानदार ढंग से बातों को रखा है। खैर आप तो उस ब्रेकिंग न्यूज के गवाह रहे हैं, इसलिए उन तथ्यों को बहुत नजदीक से जानते होंगे।
आपके इस लेख को क्या समाचार-पत्र में प्रकाशित करने की आप इजाजत देंगे, हां तो कृपया स्वीकृति प्रदान करें।
aajitsharma@gmail.com
सवाल है इसकी मजिस्ट्रेट जांच कब होगी और इसकी रिपोर्ट कब आयेगी। जिसके घेरे में कौन कौन आएगा कहना मुश्किल है लेकिन इसका इंतजार कर फिलहाल इतना तो कह सकते हैं-इशरत हमें माफ कर दो ।
boss', swaal ye bhee hai k kya ishrat maaf kar degi? aur ye bhee k kitni mafiyan aur mangni hongi humein? ye baat sirf gujrat, maharshtra ki nahi hai ...sab jagah aisa ho raha hai. hum kya kar paa rahe hain khabar dene k naam par? aap log jahan baithe hain vahan se kuchh saaf nazar aata hai to batayein...hum to andhera hi dekh paa rahe hain.
vaise aapki post achhi aur samayik hai.
@ सुनील डोगरा जी - गृह सचिव का बयान विरोधाभासी नहीं है? यदि आतंकवादी थी तो फ़िर हत्या करने में रहम क्या और बेरहमी क्या? यदि वह आतंकवादी नहीं थी तो केन्द्र सरकार क्यों कह रही है कि थी? सिर्फ़ मोदी को कोसने से क्या हो्गा?
yeh desh kiska hai? satta sanskriti,kanun vyawastha kiske jimme hai? kya loktantra niyatiead ke hawale nahi hai? pratirodh ki sanskriti bhi kamchalaou kyo ho gayi hai? satta or pratipaksh lagata hai rangmanch ke kalakar ho gaye hoan or apana-apana bas rol kar rahe ho!
दरअसल मामला सिर्फ मोदी के गुजरात और इशरतजहां के एनकाउंटर को अपने फायदे के लिये कैश करने का नहीं है...पुलिस की सामंती व्यवस्था,पुलिस को क्राइम के लिये आउटसोर्स करने की सहुलियत,नेता,नोटवालों और भ्रष्ट पुलिसवालों का नेक्सस...अपनी जरूरत के हिसाब से चीजों,आदमियों और हालात को बदलना,अपने फायदे के लिये किसी को लश्कर का आतंकी,किसी को देश का दुश्मन,किसी एमबीए पास रणबीर को शातिर बदमाश बनाना देना,इस तरह के मामलों की फेहरिस्त कितनी लंबी है ये हम सब जानते हैं,दरअसल मसला पूरी व्यवस्था का है,इलाज एक अंग का नहीं बल्कि पूरे बीमार शरीर के लिये ढूंढने की जरूरत है
दरअसल मामला सिर्फ मोदी के गुजरात और इशरतजहां के एनकाउंटर को अपने फायदे के लिये कैश करने का नहीं है...पुलिस की सामंती व्यवस्था,पुलिस को क्राइम के लिये आउटसोर्स करने की सहुलियत,नेता,नोटवालों और भ्रष्ट पुलिसवालों का नेक्सस...अपनी जरूरत के हिसाब से चीजों,आदमियों और हालात को बदलना,अपने फायदे के लिये किसी को लश्कर का आतंकी,किसी को देश का दुश्मन,किसी एमबीए पास रणबीर को शातिर बदमाश बनाना देना,इस तरह के मामलों की फेहरिस्त कितनी लंबी है ये हम सब जानते हैं,दरअसल मसला पूरी व्यवस्था का है,इलाज एक अंग का नहीं बल्कि पूरे बीमार शरीर के लिये ढूंढने की जरूरत है
दरअसल मामला सिर्फ मोदी के गुजरात और इशरतजहां के एनकाउंटर को अपने फायदे के लिये कैश करने का नहीं है...पुलिस की सामंती व्यवस्था,पुलिस को क्राइम के लिये आउटसोर्स करने की सहुलियत,नेता,नोटवालों और भ्रष्ट पुलिसवालों का नेक्सस...अपनी जरूरत के हिसाब से चीजों,आदमियों और हालात को बदलना,अपने फायदे के लिये किसी को लश्कर का आतंकी,किसी को देश का दुश्मन,किसी एमबीए पास रणबीर को शातिर बदमाश बनाना देना,इस तरह के मामलों की फेहरिस्त कितनी लंबी है ये हम सब जानते हैं,दरअसल मसला पूरी व्यवस्था का है,इलाज एक अंग का नहीं बल्कि पूरे बीमार शरीर के लिये ढूंढने की जरूरत है
ज्यादातर मुटभेड फर्जी होते हैं पर क्या मारे जाने वाला बेकसुर ही होता है मजिस्ट्रेट जांच में मुटभेड को फर्जी बताया गया है किसी को बेकसुर नहीं। औरतो को लेकर सईद कट्टर हो सकता है पर जरुरी नहीं कि उसके भाडे के जेहादी वैसे ही हो वो खुद को पुलिस से बचाने के लिए औरतों का सहारा ले सकते हैं।मीडिया ने तब गलती की इस मुटभेड पर सवाल न उठा कर अब फिर वही गलती कर रही है जल्दबाजी मे किसी को बेकसुर बता कर।फिर पुलिस इन आतंकवादियों को मारे नही तो क्या करे पकडने के बाद सजा हो भी गई तो हमारी सरकारे उन्हें फासी पर चढाने से पहले ये देखेगीं की वह किस धर्म का है और उसेसजा देने पर उन्हें वोटों का कितना नफा नुकसान होगा। पर मै भी किसी बेकसुर को मारे जाने के खिलाफ हुं।
इससे बेहतर क्या हो सकता है...गलतियों का सिलसिला चलता रहे..साथ में माफ़ीनामा भी...दोनों में से कोई तो सिलसिला रूके...या तो गलतियां रूक जायें..या फिर मांफी न मांगी जाये..मांगनी है तो सज़ा मांगिये..ज्यादा असर होगा...
muje samaj nahi aata ki aap sab logo ko esrat ya sohrabuddin hi kyo nazar aate hai.... 5 lakh kasmiri hindu apne hi desh me dar-dar ki thokar kha rahe hai...unse kabhi koi maafi nahi maangega....Mizoram me hindus ke saath jo atyachaar ho raha hai unke baare me likhne ki fikar aapko kaha..... aap yaha esrat se maafi maang rahe hai, jo ki Secular central govt. ki report ke anusaar terrorist thi par aapko to saeed par bharosa hai...kuch mahino pahle aapke channel par dikhaya ja raha tha ki sohrabudin ka jurm bas etna sa tha ki usne chain chori karne ke baad use rok rahe ek on duty police vaale ko chaaku maara and baad me vo police vaala mar gaya....(bas etna sa apraadh tha)... par kabhi socha hai vo police vaala kiske liye maraa...vo mara aap or hum jaiso ke liye jo aaram se baith kar esrat se maafi maang sake ....aapke pass saayad waqt nahi hoga un logo se maafi maangne ka jo sansad ko bachaane ke liye kurbaan ho gaye...par kal agar kissi kharidi hui report me ya saeed ne yah kah diya ki afjal sansad attack me saamil nahi tha to usse bhi maafi maang lena....MAHU (U.P.) me sare aam ek MLA dangaayio ke saath logo ko marwa raha tha....aapne un marne vaale logo se maafi maangi?......2 mahine pahle U.P. me daaku Ghanshyam Kevat ko bhi uski bullets khatam hone ke baad maara gaya tha jabki usko arrest kiya ja sakta tha us par kisine maafi kyo nahi maangi....agar kevat ka encounter sahi tha to esrat ka bhi sahi tha esse logo ka yahi anjaam hona chhahiye.........par ye doglapan acha nahi hai....Esrat jaiso ke saath sahaanubhuti dikha kar aap deshbakt muslmaano ka apmaan hi kar rahe hai.........aapke jawaab ka entzaar rahega ...vese etni secular taarifo ke bich me saayad aapko ye kadwa sach acha nahi lage...
Musalman bana hi gaya hai batware ke badla lene ke liye
आपने अपनी हर बात बहुत बढ़िया तरीके से लिखी लेकिन आपने अपने लेख में ghazwa times का जिक्र तक नहीं किया|आप को इतना भरोसा कैसे है कि इशरत जहां आतंकवादी नहीं थी???
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