पुणे ब्लास्ट ने एक बार फिर मुस्लिमों को लेकर आतंक का सवाल उभार दिया। चूंकि ब्लास्ट की जांच में कोई ठोस सबूत हाथ लगे नहीं हैं तो पुणे को मालेगांव से भी जोड़ा जा रहा है। यानी निशाने पर कहीं ना कही कट्टर हिन्दुत्व भी है। एक तरफ चरमपंथी मुस्लिम तो दूसरी तरफ उग्रपंथी हिन्दुत्व । लेकिन पुणे ब्लास्ट से पहले आई फिल्म ‘माई नेम इज खान’ के सामने चरमपंथी मुस्लिम सोच ने भी घुटने टेके और कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति भी धराशायी हुई। फिल्म के आगे बालठाकरे की राजनीति अगर झटके में फुस्स हो गयी तो समूचे मुस्लिम वर्ल्ड में फिल्म को लेकर दो सवाल इस तेजी से घुमड़े कि लगा पहली बार मुस्लिमो को जुबान मिल गयी।
सवाल सिर्फ ‘माइ नेम इज खान’ और मैं टेररिस्ट नहीं हूं के कहने भर का नहीं है। फिल्म के भीतर भी कट्टर इस्लाम की धज्जियां बेहद सांकेतिक तौर पर टोपी पहन मुस्लिम को बेहद बारीकी से शैतान की संज्ञा देते हुये आतंक से जिस तरह जोडा गया है, वह काबिले तारिफ है। असल में माई नेम इज खान कह कर दुनिया फतेह करने का मंसूबा शहरुख खान ने इसी बदौलत सच कर दिखाया। तीन दिन में 90 करोड के धंधे में अमेरिका, कनाडा, अस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड से लेकर मीडिल ईस्ट तक में तक में खान का धंधा लाखों डॉलर का है। कमाई में जितना हिस्सा भारत का है, उतना ही विदेश में। पहले तीन दिन में भारत में कमाई अगर 47.4 करोड़ रही तो 43 करोड़ विदेश में रही, जिसमें अमेरिका-कनाडा में 19 लाख डॉलर, मीडिल इस्ट में 12 लाख डॉलर और आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैड में 5 लाख डॉलर।
बॉलीवुड की किसी फिल्म की यह अपने तरीके की पहली कमाई है जो पहली नजर में यह एहसास भी कराती है कि शाहरुख वर्ल्ड ब्रांड बन चुके हैं। लेकिन फिल्म देखने पर यह एहसास कमजोर हो जाता है। क्योकि कमाई के पीछे असल में यह असर फिल्म से ज्यादा उस भावना का है, जिसे मुस्लिम समाज अमेरिका में भोग रहा है। और खुद अपनी परिस्थितियों को लेकर भी ढोह रहा है। 9-11 के बाद मुस्लिमों को आतंकवादी ठहराना अमेरिकापरस्त होने का शगूफा चल पड़ा था। चूंकि उसी दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने दुनिया भर में सीधे संकेत दिये थे कि जो भी आतंकवाद के खिलाफ है वह अमेरिका के साथ है और जो अमेरिका के साध नहीं है, वह आतंकवाद के साथ है। और आतंकवाद का मतलब मुस्लिम वर्ल्ड से जोडा गया। जार्ज बुश के इस जज्बे में दुनिया की निगाहे मुस्लिमों को लेकर झुकी रहीं। इराक से लेकर अफगानिस्तान तक को अमेरिका ने रौंदा। दुनिया के तमाम देश तो दूर की बात हैं, भारत जिसके सामाजिक-सास्कृतिक और एतिहासिक संबंध इराक और अफगानिस्तान के साथ रहे हैं, वह भी खामोश हो गया क्योंकि सामने आर्थिक सुधार का वह सपना था, जिसमें अमेरिका का साथ खडे होने का मतलब विकसित भारत के सपने को सच करने का सपना था। इसके घाव इराक-अफगानिस्तान ने किस तरह भोगा, यह इसी बात से समझा जा सकता है कि ओबामा के आने से पहले तक यानी जार्ज बुश के दौर में इराक में चार लाख सत्तर हजार नागरिक मारे गये तो अफगानिस्तान में चौवन हजार अफगानी मारे गये। और अमेरिकी बाजार थ्योरी जब दुनिया के सामने सीमाओ को खोल रही थी उसी दौर में अफगानिस्तान और इराक के नागरिक अपने ही देश में बंद हो गये। जिन्हें दुनिया ने अमेरिकी खौफ से आतंकवादी और तालिबानी माना। मुस्लिमों को लेकर अमेरिका के इस नयी परिभाषा के घेरे में भारत भी आया और समूचे एनडीए सरकार के दौर में यह बात खुले तौर पर गूंजती रही कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी ना हो लेकिन हर आतंकवादी जरुर मुस्लिम है।
राजनीतिक तौर पर यह आवाज थमी आज भी नहीं है। ऐसे में भारत ही नहीं दुनिया भर में खान होने का मतलब दर्द और त्रासदी होगा, यह कभी किसी ने सोचा नहीं होगा। और खान अगर यह कहेगा कि माय नेम इज खान और मै आतंकवादी नहीं हूं तो मुस्लिम समाज इस वाक्य को सर आंखों पर बैठाकर अपनी जीत या अपनी खामोश भावनाओ में आवाज पायेगा। और उसकी भावनाओं का ज्वार ही फिल्म को पहले हफ्ते में तीन सौ करोड़ की कमाई करा देगा, यह किसने सोचा होगा। लेकिन अरब वर्ल्ड के अलावा दुनिया भर में मुस्लिम समाज, जहां जहा मौजूद है, अगर वहां वहां माय नेम इज खान के छप्पर फाड कमाई की है, तो इसका एक ही सच है कि उसे पहली बार अमेरिकी समाज के अंतर्विरोध और जार्ज बुश को दौर के विरोधाभासों के बीच मुस्लिमों को खान शब्द में गरिमा लौटती दिखी। यानी हंटन की थ्योरी तले क्लैश आफ सिविलाईजेशन तले इस्लाम और ईसाई के संधर्ष तले मुस्लिम दबा जा रहा था, तब उसे सरकारों से नहीं बल्कि सिल्वर स्क्रीन के जरीये जुबान मिली है।
असल में मुस्लिमों को लेकर भारतीय समाज में इस दौर में क्या क्या बदल गया और खान शब्द कैसे संघर्ष और इमान से आतंक और दु्श्मन में बदलने लगा यह बालीवुड के नजरिये से भी समझा जा सकता है क्योंकि भारतीय समाज के लिये अगर इसी सिल्वर स्क्रीन से खान को समझना चाहे तो यह भारत का दर्द होगा कि आधुनिक होते वक्त के साथ खान धंधे में तो इजाफा करता है, लेकिन दिलो में सिमटता जा रहा है। और भारत की विदेश नीति भी इस खान के खिलाफ अमेरिका परस्त होकर मुनाफे और आर्थिक सुधार में अमेरिका परस्त होती चली गयी। और इसे समझाने के लिये भी फिल्मी धंधे की जरुरत आ पड़ी। याद कीजिये 1961 की फिल्म काबुलीवाला। बलराज साहनी ने इसमें खान का भूमिका निभायी थी, जो काबुल से आया है। मेवे बेचते काबुलीवाला के खान का नाम फिल्म में अब्दुल रहमान खान था जो हिन्दुस्तान में बेखौफ मेवे बेचता और सपने काबुल में अपनी बेटी के सुंदर भविष्य के देखता है। बेटी की याद में एक हिन्दुस्तानी परिवार की बेटी से उसका मन जुड़ जाता है। उसी लडकी में बेटी का अक्स देख देखकर उसकी जिन्दगी कटती है। यह वह दौर था जब काबुल से दिल्ली की आवाजाही बेहद मुश्किल थी लेकिन दिलो के तार सीधे जुड़े थे। दर्द का एहसास साझा था। इसलिये काबुल की दूरी सिर्फ कठिन रास्तों की थी। दिलो की नहीं। वहीं पचास साल बाद जब शाहरुख माय नेम इज खान बनाते हैं तो काबुल का मतलब तालिबान का आतंक और बारुद के घमाकों से होता है। आज के दौर में काबुल के अब्दुल रहमान खान में ही नहीं, अफगानिस्तान के हर खान में हर अफगानी तालिबानी आतंक नजर आता है। दिलों से दर्द गायब हो चुका है और साझा एहसास काफूर है। डर और भय को भारतीय मन में इस तरह घुसा दिया गया है कि काबुल शब्द ही आतंक का पर्याय सा लगने लगा है।
ऐसे वक्त में काबुलीवाला में गाते अब्दुल रहमान खान के गीत...ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछुडे चमन , तुझ पर दिल कुर्बान.....मे भी जेहाद की महक सूंघने के लिए सरकारी नीति जबरदस्ती कर सकती है । और अमेरिका से खिंची लकीर में यह गीत बारुद की गंध में भी बदल सकती है। यह अल-कायदा का राष्ट्रीय गीत भी लग सकता है। लेकिन सच यह है कि माय नेम इज खान की सीडी काबुल में भी देखी जा रही है और खासी पंसद की जा रही है। हम-आप महसूस कर सकते हैं कि खान शब्द जिन्दगी में जख्म है तो सिल्वर स्क्रीन पर मलहम बन रहा है। कमाल है चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों की जगह बालीवुड की एक फिल्म हालीवुड के फॉक्स इंटरनेटमेंट के साथ जुड कर साझा धंधा कर रही है और वही मलहम बन कर अमेरिकी कंपनी फॉक्स की झोली भी भर रहा है और शाहरुख खान कट्टर हिन्दुत्व को राजनीतिक चुनौती देते हुये भी दिख रहे हैं।
काबुलीवाला ही क्यो बालीवुड ने एक और खान को सिल्वर स्क्रीन पर शिद्दत से भोगा है। वह 1973 की फिल्म जंजीर का शेऱ खान है। प्राण ने शेर खान की भूमिका को जिया और फिल्म के जरीये इस एहासास को दर्शको के दिलो में जगाया कि खान का मतलब वादे का पक्का, इमानदार और बुलंद हौसले वाला शख्स होता है जो पीठ में कभी छुरा नहीं भोंक सकता और यार के लिये जान तक दे सकता है। लेकिन यह एहसास इतनी जल्दी काफूर हो जायेगा इसका एहसास भारतीय मन को कभी नहीं था। कह सकते है देश को पहला झटका बाबरी मस्जिद को ढहाने से लगा, जिसके बाद पहली बार मुस्लिम मन मानने लगा कि उसका दिल और मन गुलाम हो रहा है। लेकिन इस राजनीतिक हालात को भी समाज ने सहेजा और गूंथे हुये भारतीय मन में मुस्लिमो के जीने के एहसास को साथ ही जिलाये भी रखा और सांसे भी साथ ही गर्म की।
अयोध्या कांड ने असल में उस तंग समाज का चेहरा ठीक उसी तर्ज पर सामने ला दिया जो हालात विभाजन के बाद मुस्लिमो के मन में थे। याद कीजिये विभाजन के बाद 50-60 के दशक में हुनर और अदाकारी से लबरेज मुस्लिम कलाकारो की भरमार थी। उस दौर में कोई मु्सलिम कलाकार अपना नाम मुस्लिम नही रखता। यहां तक की युसुफ खान ने भी अपना नाम बदल कर दिलीप कुमार कर लिया था। और संयोग देखिये दिलिप कुमार यानी युसुफ खान का परिवार पेशावर से ही हिन्दुस्तान पहुंचा था। और शाहरुख खान के परिवार का अतित तो अफगानिस्तान होते हुये पेशावर से ही जुड़ा हुआ है। लेकिन नये हालातो में शाहरुख खान को अपना नाम बदलने की जरुरत नहीं पड़ी। बल्कि खान बंधुओ की तूती समूचे बॉलीवुड में बोलती है। लेकिन उसी बॉलीवुड में खान शब्द के साथ किसी सामान्य नागरिक की तर्ज पर रिहायश बेहद मुश्किल भी है। और तो और देश का एक तिहाइ हिस्सा ऐसा जरुर है, जहां खान शब्द आते ही पुलिस-प्रशासन की आंखों में शक घूमने लगता है। यह परिस्थितियां बार बार उन्हीं आर्थिक सुधार की तरफ अंगुली उठाती हैं, जहां पूंजी और मुनाफा चंद हाथों में सिमट रहा है। बाजार की प्रतिद्वन्दिता के नाम पर एक खास तबके के लिये ही सारी नीतियां बनायी जा रही हैं। यह शक इसलिये ज्यादा गहराता है क्योकि एक पूरी कौम पर सवालिया निशान लगाकर एक तरफ अमेरिका अपने धंधे को आतंक के निशाने पर बताकर मुस्लिम देशों पर कब्जा करता है तो दूसरी तरफ आर्थिक सुधार के दौर में भारत जैसे देश में मुस्लिमो को तंग गली में सिमटा दिया जाता है।
जंजीर का शेर खान माई नेम इज खान के दौर में आजमगढ का लगने लगता है। और काबुल का अब्दुल रहमान खान में तालीबान दिखायी देने लगता है। सवाल है क्या भविष्य में ऐसी किसी फिल्म की जरुरत पड़ जायेगी, जिसमें कोई नया खान सिल्वर स्क्रीन पर आकर कहेगा- माई नेम इज खान और मैं आप ही जैसा हूं..।