Tuesday, March 9, 2010

बिन माई-बाप के दो साल से टिकी इस हॉकी टीम को देखिए और समझिए !

मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम से बाहर निकलती भारतीय टीम के साथ कोई नहीं था । ना कोई अधिकारी। ना कोई सुरक्षाकर्मी। ना किसी न्यूज चैनल का कैमरा। यह वही टीम है जिसके लिये चंद मिनट पहले तक ध्यानचंद स्टेडियम के भीतर पन्द्रह हजार दर्शकों का, लगातार सत्तर मिनट तक की गूंज में सिर्फ एक ही शब्द सुनायी दे रहा था -इंडिया-इंडिया । वही टीम जिस खामोशी से ध्‍यानचंद स्टेडियम से बाहर निकल रही थी और लगभग चुरायी नजरों से स्टिक थामे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा को जरूर देख रही थी। वही ध्यानचंद जिनकी हॉकी को हॉलैंड में तोड़ कर देखा गया था कि कहीं स्टिक में चुंबक तो नहीं है। वही ध्यानचंद, जिसने ना हारने वाले तानाशाह हिटलर की आंखो के सामने ना सिर्फ जर्मनी को 8-1 से रौंद डाला था, बल्कि जर्मनी में बड़े ओहदे के साथ रहने के हिटलर के खुले ऑफर को भी ठुकरा दिया था।


उसी शख्स के नाम पर बने नेशनल स्टेडियम में भारतीय हॉकी को दुबारा जगाने का सपना शायद देश ने अर्से बाद देखा और पाकिस्तान को हराने के बाद शायद भारतीय हॉकी टीम ने भी यही सपना देखा कि वह विश्व चैपियन बनने का दम-खम रखती है। हालांकि शास्त्रीय संगीत से रॉक के हंगामे की तरह हॉकी का समूचा खेल ही बदल गया। जिस दौर में ध्यानचंद खेलते थे जब हॉकी की कीमत
50 रूपये थी । आज वही हॉकी 12 हजार की हो चुकी है। तब लकड़ी की स्टिक होती थी और अब कार्बन की होती है। तब भारत के लिये गोल्ड मेडल कोई मायने नहीं रखता था, जरूरी यह होता था कि विरोधी टीम कोई गोल ना कर दे। वहीं अब समूचा खेल ही डिफेंस पर जा टिका है। कोशि‍श विरोधी का गोल बचाने की होती है। मिट्टी और घास के मैदान पर हुनर की जगह अब रबर के मैदान को गीला कर रफ्तार को मात देने के दम-खम में ही समूची हॉकी सिमट गयी है। लेकिन, बावजूद इसके पाकिस्तान को हराने के बाद जीत का सपना खिलाड़ि‍यों समेत समूचे हिन्दुस्तान ने देखा। मगर सपने देखना और सपनों में ही जीना कितना अलग और कितना खतरनाक है... हश्र सामने है। लेकिन, इसके लिये जिम्मेदार कौन है। जी, बडा सवाल यही है। और इसे समझने के लिये ध्यानचंद स्टे़डियम से बाहर निकलना होगा। दो साल से भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी को संभालने वाली आईएचएफ यानी इंडियन हॉकी फेडरेशन नहीं है।

आईएचएफ ठीक वैसे ही है जैसे क्रिकेट के लिये बीसीसीआई। दो साल पहले आईएचएफ के सचिव ज्योति कुमार कैमरे पर खिलाड़ि‍यों के चयन के लिये घूस लेते हुये पकड़े गये थे। और उसके बाद ही भारतीय ओलंपिक संघ ने आईएचएफ को भंग कर दिया था और केपीएस गिल का साम्राज्य खत्म हुआ था। लेकिन
, इन दो साल में आईएचएफ का चुनाव नहीं हुआ, क्योंकि इसमें घुसने के लिये राजनीति के धुरंधर खिलाड़ि‍यों से लेकर रईसों में ऐसी होड़ मची कि‍ मामला अदालत तक जा पहुंचा। चूंकि आईएचएफ के चुनाव में शिरकत करने के लिये किसी राज्य हॉकी एसोसि‍एशन का अधिकारी होना जरूरी है, तो अधिकारी बनने के लिये लाखों के वारे-न्यारे का खेल शुरू हुआ। मसलन, बंगाल हॉकी एसोसि‍एशन में सहारा के सर्वेसर्वा सुब्रत रॉय के भाई जयव्रत रॉय घुस गये, तो पंजाब हॉकी एसोसि‍एशन में सुखबीर सिंह बादल के बेटे घुस गये। पूर्व हॉकी खिलाड़ियों को इस दशा पर रोना भी आया और आक्रोश भी छलका, तो मामला अदालत तक पहुंचा। लेकिन इन दो वर्षों में भारतीय ओलंपिक एसोसि‍एशन ने एडहोक के तौर पर तत्कालिक व्यवस्था के तहत उत्तर प्रदेश के पूर्व सांसद असलम खान को कार्यभार सौंपकर उनके मातहत पांच खिलाड़ियों को नियुक्त किया। जिसमें अशोक ध्यानचंद, असलम शेरखान, धनराज पिल्लै, अजित पाल सिंह और जफर इकबाल थे। लेकिन आईएचएफ के चुनावों को लेकर जिस तरह राजनीति गरमायी और आईएचएफ पर कब्जा करने की राजनीतिक समझ ने पूर्व खिलाड़ियों को अंदर से इस कदर हिलाया कि एडहोक व्यवस्था के तहत नियुक्त पांचों खिलाड़ियों ने एक-एक कर अपना पिंड छुड़ाना ही सही समझा। और एकएक कर सभी ने इस्तीफा दे दिया।

तंग आकर असलम खान ने भी इस्‍तीफा दिया और उनके बाद हॉकी को देखने के लिये ए.के. मट्टू की नियुक्ति हुई
, जिन्होने खिलाड़ि‍यों को पैसे मिलने, ना मिलने की राजनीति के बीच इस्‍तीफा दे दिया। और फिलहाल हॉकी फेडरेशन को विद्या स्ट्रोक्स देख रही हैं। स्ट्रोक्स वही हैं जिनकी राजनीति को हिमाचल में कांग्रेस भी दूर से सलाम कहती है, लेकिन भारतीय खेल हॉकी को फिलहाल वही सलाम कर रही हैं। लेकिन, हॉकी की दुर्दशा यही नहीं रुकी। अगर हॉकी के पास क्रिकेट सरीखा बीसीसीआई नहीं था, तो खिलाड़ियों को चुनने का कोई पैमाना भी नही था। किक्रेट में रणजी के जरि‍ये हर राज्य से खिलाड़ी भारतीय टीम तक पहुंचते हैं, लेकिन बीते दो सालों में हॉकी को कोई मैच राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर हुआ ही नहीं। रंगास्वामी टूर्नामेंट तक नहीं हुआ। यानी इन दो सालो में हॉकी को लेकर किसी स्तर पर कोई खेल देश में हुआ ही नहीं। यानी जो टीम दो साल पहले थी उसमें देश के किसी हिस्से से कोई नया खिलाड़ी नहीं जुड़ा। इसलिये जब शिवेन्द्र पर दो मैच का बैन लगा, तो विकल्प के तौर पर घायल दीपक ठाकुर को खिलाने के अलावा और कोई चारा नहीं रहा। और संदीप को सिर्फ पेनल्‍टी कॉर्नर एक्सपर्ट के तौर पर ही लगातार खिलाया जाता रहा, चाहे उनकी डिफेन्स में बार-बार सेंध लगी। यानी टीम, जो एक योजना के तहत तैयार होती है वह गायब हो गयी और मैदान पर हर खिलाड़ी अपना दम-खम दिखाता नजर आया। बोर्ड नहीं, मैच नहीं, तो टीम को संभाले कौन, इसके लिये कोच को ही सब कुछ मान लिया गया।

लेकिन इन्ही दो सालो में हॉकी टीम के कोच बनाने और हटाने का सिलसिला भी खिलाड़ियों की संख्या सरीखा ही हो गया। करीब बारह कोच इस दौर में बदल दिये गये। और दुर्दशा यही नहीं रुकी बल्कि वि‍श्व कप हॉकी के लिये जब कोच का सवाल उठा
, तो एथलेटिक्स की समझ रखने वाले सुरेश कलमाडी को यही समझया गया कि स्पेन के जोएश ब्रासा को कोच बनाया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने स्पेन जैसी टीम को विश्व विजेता बनाया है। लाखों रुपये देकर ब्रासा को भारतीय हॉकी टीम का कोच भी बना दिया गया। लेकिन, ब्रासा की नियुक्ति के बाद पता चला कि वह पुरुष नहीं बल्कि महिला हॉकी टीम के कोच रहे हैं। निजी तौर पर स्पेन के दो पुरुष किलाडियो के कोच जरुर रहे है। शायद वजह भी यही रही कि स्पेन के ट्रम्प कार्ड पाबलो अमत को कवर करने के लिये कोई भारतीय खिलाड़ी मैदान में नहीं था। अब सवाल है कि हॉकी में कभी नं.-एक की टीम की रैकिग जब 12 है तो इस स्थिति के बावजूद भारत में विश्वकप का आयोजन क्यों हो रहा है। तो, इसका फैसला फेडरेशन ऑफ इंटरनेशनल हॉकी करता है। अगर मेजबानी का मामला अटक जाये तो एफआईएच के अध्यक्ष की सुनी जाती है। और संयोग से फेडरेशन के प्रेसिडेंट नेयाग्रे ने खासतौर पर इस बार हॉकी को भारत में कराने की पेशकश के पीछे यही तर्क दिया था कि ध्यानचंद का सुनहरा इतिहास भारत के साथ जुड़ा है और भारत में हॉकी जाग जाये तो हॉकी के भी वारे-न्यारे हो सकते हैं, इसलिये विश्वकप भारत में कराकर उस सुनहरे इतिहास को भी जगाने का मौका भारत को मिलेगा।

चूंकि विश्वकप हॉकी आफिशियल टूर्नामेंट है
, इसलिये इसमें शामिल होने वाली टीमों का खर्चा मेजबान को उठाना नहीं पड़ता है, जो भी टीम खेलती है उसे अपना धन खर्च करना पड़ता है यानी हवाई किराये से लेकर सेंकाई के बर्फ तक का खर्च हर देश को खुद ही उठाना पड़ता है। ऐसे में एफआईएच ने यह भी माना गया कि क्रिकेट के जरि‍ये विश्व बाजार बना भारत हॉकी के खिलाड़ि‍यों का भी जीर्णोद्धार हो सकता है। लेकिन, इंग्लैड से हारकर मेजर ध्यानचंद स्टेडियम के बाहर जिस तरह खमोशी के साथ चुरायी नजरो से हॉकी टीम के खिलाड़ी ध्यानचंद की प्रतिमा को देखते हुये बस में सवार हो रहे थे..... यही लगा कि इंडिया-इंडिया की गूंज करने वाला भारत कब समझेगा राष्ट्रीय खेल सिर्फ नारों और सपनों से नही बचता, इसके लिये देश को जुटना पड़ता है, ध्यानचंद संघर्ष के दौर में निकले थे। लेकिन, उनकी मौत एम्स के जनरल वार्ड में हुई और इलाज कर रहे डॉक्टर की उनकी मौत पर पहली टिप्पणी यही थी, हॉकी मर गया ।

9 comments:

Ghost Buster said...

बावजूद इन सब समस्याओं के हॉकी टीम इस बार कुल मिलाकर अच्छा खेली है. मिड्फ़ील्ड और फ़ॉरवर्ड लाइन ने बढ़िया खेल दिखाया पर डिफ़ेंस हमेशा की तरह कमजोर रहा. लेकिन जीवट का खेल दिखाया टीम ने, हारने का अफ़सोस नहीं. राजनीति का दखल बंद हो तो यही खिलाड़ी क्या कुछ नहीं कर जाएंगे!

Unknown said...

Har baar hocky se aik nai ummid ki jati hai ki shayad chamtkar ho jaaye par halat dekhiye ki ab 7we aur 8we ke liye khelege. Apne hi des me aisi har aur to aur thikra kis par phootega? Coach to mara hi jayega. Shivendra ko yoo hi chadha diaa gaya aur aik Pradip Saurabh ji hai n jaane kyo un par itna kuchh likh diaa?

Parveen Kr Dogra said...

dil se dil dena hoga hoga hocky ko...
very insightful post!!!! thanks a lot
http://khel-khelmein.blogspot.com/

Parul kanani said...

hockey hamara rashtriya khel hai aur uski upeksha,desh ke gaurav ki awmanna hai.

Unknown said...

इतना ज़बर्दस्त कटेंट लाते कहां से हैं। कमाल का लेख है। हर लेख की तरह एकदम रिच।

Sankar shah said...

sawal yeh hai ki "jimmewar koun"?

Ashok Kumar pandey said...

इस बार मुझे अपनी टीम का खेल देखते हुए कोई शर्मिंदगी नहीं हुई…मुझे उम्मीद साफ़ दिखाई दे रही है।

VISHNU said...

हमारे खेल मंत्री क्या कर रहे हैं। क्या खेल मंत्री का सर शर्म ने नहीं झुकता जब राष्ट्री खेल की ये दुरदशा होती है। मुझे हैरानी होती है कि वो लोगों से नजरें कैसे मिलाते होंगे। क्या वो अपने आप को खेल मंत्री कहलाने के लायक मानते है। क्या वो जिम्मेदारी लेंगे?

r.k.gandhi said...

हॉकी की दुर्दशा के लिए आखिर जिम्मेवार कौन है..हमारा राष्ट्रीय खेल जिस मुकाम पर पहुँचा है..वहां से स्वर्णिम कब लौटेगा...यह सबसे बड़ा सवाल है.इस और हम सभी को सोचने की आवश्यकता है..नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हॉकी का नामोनिशान मिट जाएगा.और शेष रह जाएंगे..ध्यानचंद की कुछ यादें