कांग्रेस का अध्यक्ष कौन हो , यह गांधी परिवार से इतर सोचा नहीं जा सकता है तो भाजपा में संघ परिवार की सहमति के बगैर कोई अध्यक्ष बन नहीं सकता है । सोनिया गांधी लगातार चौथी बार अध्यक्ष बनती हैं तो भाजपा को उसमें तानाशाही या लोकतंत्र का खत्म होना नजर आता है तो भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी बनते हैं तो कांग्रेस को उसमें संघ परिवार की तानाशाही या भाजपा ही महत्वहीन नजर आती है । लेकिन कांग्रेस-भाजपा से इतर दक्षिण से लेकर उत्तर और पश्चिम से लेकर पूर्व तक किसी भी राजनीतिक पार्ट्री में झांकें तो वहां परिवार ही पार्टी है । मसलन मुलायम यादव की सपा , लालू यादव की आरजेडी, ठाकरे की शिवसेना , करुणानिधि की डीएमके, पटनायक की बीजेडी, मायावती की बीएसपी। यानी नब्बे फीसदी राजनीतिक पार्टियां ऐसी हैं जिनके सांगठनिक ढांचे को बनाने में ही परिवार की तानाशाही चलती है। यानी मुश्किल यह नहीं है कि लोकतंत्र पर भरोसा राजनीतिक दलों के भीतर भी नहीं है । मुश्किल यह है कि परिवार ही लोकतंत्र का पर्याय बन चुका है और देश को चलाने में लोकतंत्र की यही परिभाषा काम कर रही है। जिसके विरोध का मतलब कहीं पार्टी विरोधी होना है तो कहीं गैरकानूनी।
14 मार्च 1998 को कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने वाली सोनिया गांधी के खिलाफ एक बार ही.... प्रसाद ने चुनाव लड़ा और तब से आज तक यानी बीते एक दशक में कांग्रेस में जब जब अध्यक्ष पद के चुनाव का वक्त आता है तब तब यही कहा जाता है कि है कोई ....प्रसाद जो चुनाव लड़ना चाहता है। और प्रसाद कोई बनना नहीं चाहता। कमोवेश अध्यक्ष को लेकर भाजपा में भी कुछ ऐसा ही रूप आरएसएस का है। नितिन गडकरी पर कितनी सहमति भाजपा की रही , यह इससे ही समझा जा सकता है कि दिल्ली की चौकड़ी को पहले सरसंघचालक ने खारिज किया और फिर पूछा है कोई मैदान में। यानी भाजपा में लोकतंत्र का मतलब नागपुर के संघ मुख्यालय में मत्था टेकना है तो कांग्रेस में 10 जनपथ में। यह लकीर कोई आज की हो ऐसा भी नहीं है मोतीलाल नेहरु के दौर से गांधी-नेहरु परिवार और जनसंघ के बनाने के पीछे खड़ा संघ परिवार। बीते 60 सालो में लोकतंत्र की जिस घुट्टी को देश की संसदीय राजनीति ने पीया और पिलाया है अगर उसके बाद कोई नेता इस देश में यह कहे कि विकास या देश चलाने को लेकर लोकतंत्र के पैमाने पर ही सारे काम होते हैं तो उससे बडा झूठ और क्या हो सकता है। और अगर ऐसे में यह कहा जाये कि राजनीतिक दलों की तर्ज पर ही आम जनता के सामने भी इसी तरह किसी ना किसी 'परिवार" की चलती है और उसकी खामोशी में हीं भारत को दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश का तमगा देकर संसदीय राजनीति अपनी तानाशाही में सबकुछ समेट लेती है , तो इसमें गलत क्या होगा।
इसलिये किसान, आदिवासी, मजदूर, बीपीएल, नक्सलवाद से लेकर विकास के नाम पर बनते दो भारत का सवाल खडा करने से पहले जरुरी है कि जिस चुनावी तंत्र पर संसदीय राजनीति इठलाती है और संसद के भीतर अक्सर सांसद यह कहने से नहीं चूकते कि सांसदों की महत्ता बरकार ना रही तो संसद जैसा संविधान ढह जायेगा और लोकतंत्र खतरे में पड जायेगा...तो पहले उसकी हकीकत असल जमीन को जानना जरुरी है। फिलहाल सत्ता की मदहोशी में जो कांग्रेस इठलाती है कि उसे जनता ने दोबारा चुना है जरा उसके पक्ष में पड़े वोटरों की तादाद देख लें। समूचे देश में कांग्रेस को 11 करोड 91 लाख 11हजार 19 वोट मिले। यानी देश के कुल वोटरों का महज 16.61 फीसदी। वहीं विपक्ष के हैसियत को लेकर इठलाती भाजपा को सिर्फ 7 करोड 84 लाख 35 हजार 381 वोट मिले। जो देश के कुल वोटरों का 10.94 फीसदी है। और अगर इन दो राजनीतिक दलों के अलावे किसी भी राजनीतिक दल के गिरेबां में झाकेंगे तो किसी की अधिकतम हैसियत देश के कुल वोटरो में से साढे तीन फिसदी समर्थन से ज्यादा की हैसियत नहीं है। इतना ही नहीं देश की सातों राष्ट्रीय हैसियत वाली पार्टियां यानी कांग्रेस, भाजपा, बसपा, एनसीपी, सीपीआई, सीपीएम और आरजेडी में अगर सपा, शिवसेना और डीएमके को भी मिला दें तो भी इनको देने वाले वोटरो से ज्यादा तादाद इस देश में किसी को भी वोट ना देने वालो की संख्या की है। जिस चुनाव के जरीय लोकतंत्र के गीत गाये जाते है उसमें देश के 29 करोड 98 लाख 25 हजार 820 नागरिक वोट डालते ही नहीं है और संसद के भीतर के सभी 543 सांसदो को मिलने वाले नागरिकों के वोट अगर जोड़ भी दिये जाते हैं तो उनकी संख्या 25 करोड़ पार नहीं कर पाती।
असल में देश का सवाल शुरू यहीं से होता है । मुश्किल यह नहीं है कि जिन नियम कायदों पर देश के लोकतंत्र के गीत गाये जाते हैं वह सवा सौ साल पुराने है। या कहें अंग्रेजों के दौर के हैं। पुलिस मैनवल हो या जेल मैनुवल या फिर भूमि सुधार अधिनियम हों या आदिवासी एक्ट अगर वह अठारहवीं सदी का है और बार बार संसद में ही सांसद यह दोहराते है कि 1894 के मैनुवल को बदले बगैर रास्ता नहीं निकल सकता तो फिर एक सवाल संसदीय राजनीति के तौर तरीको को लेकर कोई क्यों नहीं उठा पाता है। अगर संसदीय राजनीति के चुनावी आईने में ही दोष के मुद्दों की परछाई देखें तो असल हकीकत भी समझ में आ सकती है। 15वीं लोकसभा में देश के 71 करोड़ वोटरों में से 30 करोड़ वोटरों ने किसी को चुना ही नहीं। इवीएम को लेकर तो भाजपा सत्ता से अपनी बेदखली देखती है मगर तीस करोड़ वोटरों के लिये कोई विकल्प इस देश में खडा हो उसे कानूनी दर्जा देने की हिमायती कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है । देश में विकास के नाम पर खडे होते रियल इस्टेट या कहे कंक्रीट के जंगल की वजह से खेती की जमीन से पांच करोड किसान मजदूर , आदिवासी परिवार बेदखल हो गये । उन्हें बेदखल करने में तो राजनीतिक दलों की सहमति थी लेकिन इन राजनीतिक दलों से इतर व्यवस्था बनाने के लिये अगर यह आंदोलन खडा कर दें तो वह तत्काल गैरकानूनी हो जायेगा । उड़ीसा के पास्को में मारे गये 28 आदिवासी इसकी एक छोटा सा चेहरा है । ऐसे कई चेहरे बंगाल-झारखंड से लेकर विदर्भ-तेलागंना तक बिखरे पड़े हैं । लेकिन इन्हें कोई मान्यता नहीं है क्योंकि इसका कोई सिरा संसदीय राजनीति को नहीं सालता।
सवाल है देश सवा सौ करोड नागरिकों में से 47 करोड़ गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों के लिये इसी संसदीय सत्ता के पास सर्वसम्मति से 30 किलोग्राम अनाज बांटने के अलावे और कोई नीति है ही नहीं। देश के तीस करोड़ गरीबों के बीच दो से तीन रुपये किलो गेंहू-चावल देने के अलावे और कोई ठोस पालिसी किसी भी सत्ता के पास नहीं है । देश के तीस करोड किसान परिवारो के लिये खेती का इन्फ्रस्ट्रक्चर है ही नहीं। देश के करीब बीस करोड़ आदिवासियों को जो हक संविधान में लिखकर दिये गये हैं उनकी धज्जियां और कोई नहीं बल्कि लोकतंत्र को बनाये रखने की जिम्मेदारी निभाने वाले संसदीय खम्भे ही उड़ाते हैं। सत्ता की बाजीगरी में ही न्यायपालिका और कार्यपालिका पहले वेंदाता सरीखे बहुराष्ट्रीय कंपनी को खनन के लिये हरी झंडी देती है फिर सत्ता अपने वोटरों की संख्या बढ़ाने के लिये एनओसी को ही खारिज कर देती है। पहले खनन पर सहमति में राज्य की हां में हां ना मिलाना उग्रवादी होना होता है और फिर राजनीतिक निर्णय में समाजवाद के सपने ना देखना अलोकतांत्रिक बनना होता है। लेकिन इस उहा-पोह में ना फंसकर अगर सीधे दोबारा राष्ट्रीय पार्टियों में परिवारों के दम पर बने अध्यक्ष सोनिया गांधी और नितिन गडकरी पर ही लौटें तो फिर तानाशाही तले लोकतंत्र की लकीर खिंचने का मजा लिया जा सकता है। अगर सोनिया को कांग्रेस के जरिये परिभाषित करना हो तो बीते 12 सालो का खाका तीन स्तर पर खींचा जा सकता है। पहले स्तर में कांग्रेस को किसी भी तरह सत्ता में लाना। जो 2004 में सफल हुआ। फिर वामपंथियो से पिंड छुडाना और अब अकेले अपने बूते सरकार बनाने की दिशा में कांग्रेस को ले जाने का प्रयास। लेकिन देश के नजरिये से अगर इस दौर में सरकार को परिभाषित किया जाये तो पहले देश बेचना, फिर देश की फिक्र करना और अब फिक्र करते हुये देश को अपनी अंगुलियो पर नचाना ही सरकार का राजनीतिक हुनर है। इसे समझने के लिये 2004 से 2007 तक के दौर में मनमोहन सिंह की नीतियो पर मूक सहमति। 2008-09 के दौर में मनमोहन की आर्तिक नीतियों पर नकेल कांग्रेस के जरिये कसने की पहल और 2010 में सरकार और कांग्रेस से भी एक कदम आगे बढते हुये राहुल गांधी के लिये बनती पगडंडी को राजमार्ग में बदलने की कवायद से भी समझा जा सकता है।
लेकिन परिवारवाद का यह लोकतंत्र हर कांग्रेसी में अपनी विरासत को ही भविष्य की सत्ता सौपने की जद्दोजहद में लगाता है । यानी पारिवारिक सत्ता में ही लोकतंत्र का अक्स अगर मान लिया गया है तो फिर देश के स्तर पर लोकतंत्र का मतलब वही नीतियां बन चुकी हैं जो देश के पच्चीस करोड़ लोगों के हित के आगे जाती नहीं । लेकिन ऐसे लोकतंत्र पर सहमति कैसे बनती जाती है और संसदीय सत्ता किस तरह विकल्प को खत्म करती है इसका नायाब चेहरा भी संसदीय लोकतंत्र के सबसे मजबूत पिलर यानी विपक्ष को देखकर भी लगाया जा सकता है । भाजपा शासित राज्य हों या फिर केन्द्र में बतौर विपक्ष भाजपा । नीतियों को लेकर कांग्रेस से अलग दिखना तो दूर उसी रास्ते पर कई कदम आगे बढाकर संसदीय सत्ता में अपनी दखल जमाने पर समूचा चिंतन टिकाये हुये है । और व्यक्तिगत तौर पर इसका बेहतरीन उदाहरण भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी हैं। जो राजनीति से इतर समाज के मुनाफे के लिये कार्यक्रम चलाते है। मसलन किसानों की विधवाओ और उनके बच्चो के लिये पिछले चार साल से अन्नदाता सुखी भव कार्यक्रम चला रहे हैं। और इसी दौर में नागपुर में उस महान परियोजना को पूरा कराने में भी जुटे हैं जिसके घेरे में चार हजार से ज्यादा किसान अपनी जमीन से बेदखल किये गये और दर्जन भर किसानों ने खुदकुशी कर ली। महाराष्ट्र के ग्रामीण आदिवासियों को हैंडलूम और हैंडीक्राफ्ट से लेकर बंबू के सामानों को बनवा कर उनकी रोजी रोटी की व्यवस्था कराने के लिये "वेदा"और हस्तकला ध्यानपीठ तक चलाते है । वहीं आदिवासियो को जंगल से बेदखल कर उनके जंगलो को ही खत्म कर विकास परियोजनाओं को हरी झंडी देने में सबसे आगे भी है। यानी लोकतंत्र की अनूठी सोच चाहे परिवारिक लोकतंत्र के दायरे में संसदीय सत्ता को ही पहले बेदखल और फिर स्थापित करने की इजाजत देती है। और मुक्तभोगियों ने कहीं अपनी लड़ाई अपने तरीके से लड़ने का मन बनाया तो वह इस देश में अलोकतांत्रिक है। यह देश का अलिखित संविधान है ,चाहे तो आजमा कर देख लें।
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Monday, September 13, 2010
पारिवारिक लोकतंत्र का अलिखित संविधान
Posted by Punya Prasun Bajpai at 3:36 PM
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9 comments:
इस देश और इस देश में पैदा होने वाले हर नागरिक का दुर्भाग्य है की कांग्रेस जैसी पार्टी और अंग्रेजों का कानून आजादी के बाद उनके सीने पर मुंग दल रहें हैं ,जब तक इन दोनों का मूल समेत खात्मा नहीं होगा तबतक इस देश में सुधार नहीं होगा | अब तो किसी चमत्कारिक शक्ति का ही सहारा है जो इन भ्रष्ट कांग्रेसियों को कालापानी की सजा दे सके और इस देश और समाज को बचा सके | रही संघ की बात तो इसे भी इस कांग्रेस पार्टी के दलाल संस्कृति के छूत का रोग लग गया है जिसके इलाज की जरूरत है और धर्म की राजनीती के वजाय गद्दार बनाम देशभक्त की राजनीती को आधार बनाना होगा ...तथा देश और समाज के गद्दारों के खिलाप अभियान चलाना होगा ...इस देश के गद्दारों में कई उद्योगपति भी हैं जिनको बेनकाब करने की जरूरत है ...
सवाल ये है की इन सबके बीच एक आम आदमी कर ही क्या सकता है सिवाए इसके की वो इन सब चीजो को होते हुए देखे | तीस करोड़ लोग यदि वोट देंगे भी तो उन्ही को ना जो चुनावों में खड़े है बस वोटो की संख्या ही बढ़ने वाली है और कुछ भी नहीं | अरब की आबादी में कुछ हजार लोग सोच समझ कर वोट करते है और कुए और खाई में से मजबूर हो कर कुए को वोट करते है |
एक बात और की सभी सवाल ही खड़े करते है जवाब कोई नहीं देता की आम आदमी करे तो करे क्या वो अपने बल पर इस व्यवस्था को कैसे बदल सकता है |
लोकतंत्र हमारे देश में एक छलावा मात्र रह गया है. जब तक पार्टियों के अन्दर लोकतंत्र न हो हम अपने शाशन प्रणाली को पूर्णतया लोकतांत्रिक नहीं बता सकते. अफ़सोस ये है कि दिन बदिन समय दर समय ये पारिवारिक राजनीति का ज़हर गहरा होता जा रहा है.
पुण्य प्रसून जी, अपनी बातों को बताने की आपकी शैली मुझे बहुत पसंद है.
प्रसून जी
आप के उठाये गये सभी प्रश्न वह हैं जिन्हें मीडिया में जबर्दस्त तरीके से, पागलपन ही हद तक चीख चीख कर उठाया जाना चाहिये, ताकि लोकतंत्र के चालचलन की समीक्षा हो सके.
परंतु विड़म्बना यही है कि वर्तमान व्यव्स्था में मलाई खाने वालों के चादीं ही चादीं है, वो भला इसे परिवर्तित क्यों करना चाहेंगे?
दुनिया का सबसे अमीर आदमी, भारतीय होने वाला है, यह क्या कम उप्लब्धि इस महान लोकतंत्र की?
प्रसून जी पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं। बहुत अच्छा लगा। बहुत सही मुद्ददे आपने उठाये है।
सब लूट खसोट की माया है ,तो एेसे में कौन सा लोकतंत्र व कौन लोकतंत्र का रखवाला। हमीं है चोर व हमीं पुलिसवाला। इतना बडा देश कौन से पाये पर खडा है व कबतक, समझ में नहीं आता ।
उपेन्द्र : 14 सित. को हिन्दी दिवस । समारोह की एक झलकी:- http://srijanshikhar.blogspot.com
Good morning sir. i am a trainee journalist when i used to watch your bulletin everyday but you dont come on Saturday n Sunday.I already wrote on your blog 18 mins by you its not enough... you know when someone asks me hey how you get lots of knowledge then i say him/her watch n read punya blog n bulletin then u easily get everything....
I am the biggest fan of your's.
I wanted to study in makanlal university becoz i know you teach in makanlal n you give guest lecture also.. please come IIJNM Bangalore also if you get some free time we have lots of Guest lecture but i am waiting for yours only...I already told to my dean kanchan kaur...
prasun ji is desh ke 50% se jayda logo ko to aaj bhi ye nahi pata hoga ki desh me jis gandhi shabdh par ye congresi rajniti karte hai ye gandhi shabd inko kaha se mila? logo ko aaj bhi ye hi lagta hai ki ye gandhi parivar jo hai ye mahatma gandhi ji ka hai desh ke 50% se jayda logo ko to aaj bhi ye nahi pata hoga ki rajiv gandhi ke pita ji ka kya name tha
ye gandhi parivar kon sa gandhi hai kaha se mila inko gandhi surname ..
aur mera ek aur saval hai apse desh me kahi bhi dange hote hai to usme musalmano ka bachao kyu kiya jata hai jabki sachai to kuch aur hi hai desh me dange vahi hote hai jaha musalman 50% se jayda hai vahi dange hote hai fir bhi le de ke dosh hinduo par hi kyu mad diya jata hai akahir kyu ??? ahmdabad me dange hua vaha bhi jaha muslim jayda the vahi dange hua aur kahi to nahi hua jaha hindu jayda the vaha to kabhi nahi hote dange fir bhi ye news valo ko pata nahi kya hamdardi hai muslims se jo unka paksh leta hai hamesha esa kyu?
aaj desh ka votar kyu vote dene nahi jata iska bhi ek karan hai
desh me ese log to chunav ladne ke liye khade ho jate hai jo ki puri tarah se bharst hai ab jo log vote dene jate hai vo majburi me un bharst netao ko vote dekar a jate hai jabki hona esa chahiye ki janta ko apna pratinidhi chunne ka haq khud ko ho ya to esa hona chahiye IVM mashine me ek aur vikalp hona chahiye inme se koi nahi ka jis din esa ho jayga na prasun ji us din desh me voting 80% se jayda hone lagegi..
rahul chandwani
itarsi
love.chandwani@gmail.com
पुण्य जी, आपके सवाल बेहद सच है और यह चिंता भी जायज है कि क्या संसदीय लोकतंत्र का यह ढांचा सचमुच लोकतंत्र ही है। दरअसल, प्रजातंत्र मूर्खता पूर्ण शासन व्यवस्था है। खासकर भारत में राजवंश नेहरु-गाधी परिवार में ही निहित है। दूसरी ओर संघ परिवार और बाकी की जेबी पार्टियां हैं। पुण्य जी, अगले 30 साल के भीतर इस देश के कई टुकड़े होने हैं। मैं शर्त बद सकता हूं।
bhut kub sirji, hamara durbhgay hai ke hamay achay poi ledar nhe melay.
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