Saturday, September 24, 2011

हैरी और आयत में छिपे "मौसम" का मिजाज

किसी फिल्म को देखते-देखते यह लगने लगे कि शानदान प्लॉट बर्बाद हो रहा है। या फिर एक व्यापक कैनवास को पकड़ते पकड़ते फिल्म कमजोर होती जा रही है। कहीं लगे कि फिल्म को जहां ठहरना चाहिये वहां वह सरपट भाग रही है और जहां सरपट भागना चाहिये, वहां फिल्म ठहरी हुई है। बहुत कुछ यह सारे सवाल फिल्म "मौसम" देखने के बाद जिस तरह जेहन में उठे उसमें मेरे सामने पहला सवाल यही आया कि जैसा मैं सोच रहा हूं, क्या फिल्म " मौसम " के निर्देशक पंकज कपूर के जेहन में भी यह सब होगा। कैनवास पर किसी पेंटिंग की तरह पंकज कपूर का निर्देशन यह सवाल तो उठा रहा था कि हिंसा और प्रेम को एक लकीर में पिरोया जा सकता है। लेकिन बार बार हिंसा का सवाल प्रेम को रोकता या फिर प्रेम की कशिश हिंसा को जानबूझकर अमानवीय ठहराने की जिद में ही खोती नजर आती।

खैर पहला सवाल फिल्म का नाम "मौसम" ही क्यों। तो भारत भौगोलिक तौर पर इतना बेहतरीन देश है, जहां साल भर में छह मौसम आते हैं। और हर मौसम में प्यार की परिभाषा नये तरीके से गढ़ी भी जाती है। संयोग से "मौसम" में छह मौसम की जगह हिंसा के छह ऐसे दौर हैं, जिसने मानवीय मूल्यों को लेकर विरोध को आतंक की आग में झुलसना दिखाया है। फिल्म 1989 के कश्मीर हिंसा से पीडित कश्मीर पंडितों के दर्द से शुरु होती है। जिसका चेहरा एक खूबसूरत लेकिन सहमी बला आयत की कहानी कहता है। आयत यानी "मौसम" की नायिका सोनम कपूर। संयोग से जिसका दिल उस वक्त मचलता है, जब 6 दिसंबर 1992 दस्तक देता है। पंजाब के एक छोटे से गांव के खुशनुमा माहौल में नायक हैरी यानी शाहिद कपूर का दिल आयत को देखकर जब अटखेलिया करना चाहता है और गांव में अयोध्या के आतंक की हलकी लकीर खौफ पैदा करते हुये कुछ कहना चाहती है। तो पंकज कपूर का निर्देशन गर्म होती सांसों के हदले जिस खूबसूरती से गर्म होते देश के माहौल को पकड़ने के लिये बिना किसी हिंसा के दिल में टीस पैदा कर बंबई के 1993 के सीरियल ब्लास्ट की कहानी को स्वीटजरलैंड में फूलो के बाजार के बीच महकने के लिये छोड़ते हैं, अदभूत है।

यहां "मौसम" की जरुरत ठहरने की होनी चाहिये थी, जो कश्मीर, अयोध्या और मुंबई ब्लास्ट तले आयत और हैरी के प्यार की कोपलों के जरीये हिंसा को चुनौती दे,लेकिन तभी सामने करगिल हमले की दास्तान में नायक की कहानी शुरु करने की जल्दबाजी में पंकज कपूर खो जाते है। और यहां से फिल्म एकदम "मौसम" की रवानगी छोड़ एक ऐसे पटल पर ला पटकती है। जहां संयोग और सूचना तकनीक की धीमापन जिन्दगी को जीने से दूर करता नजर आता है। कैनवास पर खूबसूरत पेंटिंग की तरह सोनम को पंकज कपूर का कैमरा पकड़ता जरुर है, लेकिन वह यहा भूल जाते हैं कि हर हसीन पेंटिग का महत्व तभी है जब उसे देखने वाली आंखे हों। कुछ इसी तर्ज पर नायक हैरी की बेबसी भी अकेलेपन में एक ऐसे माहौल को जगाना चाहती है, जहां संवाद बनाने के लिये तकनीक नहीं है और संयोग ऐसे हैं कि दर्शक कुर्सी पर कसमसा कर रह जाये।

हिंसा और प्रेम के कॉकटेल में "मौसम" का अगला पड़ाव 9-11 यानी अमेरिका के ट्विन टॉवर पर हमले की हिंसा के बाद अमेरिका की निगाह में मुस्लिमों को लेकर शक के रुप में सामने आता है। लेकिन यहां भी फिल्म ठहरने के बदले जब सरपट भागती है तो एक ऐसे शक का शिकार होती है, जिसे कोई भी प्रेमी या प्रेमिका बर्दाश्त नहीं कर सकते। आयत को लेकर एक ऐसे संयोग के दायरे में हैरी शक कर बैठता है, जिससे यह लगता है कि पंकज कपूर के जहन में हिंसा के छठे मौसम को जीने की कुलबुलाहट है। और "मौसम" बिना सरोकार गुजरात की हिंसा को जीने के लिये अहमदाबाद की उन गलियों में जा ठहरती है, जो 28 फरवरी 2002 को धू-धू जले। इसे छठे हिंसक " मौसम" को जीते आयत और हैरी जब एक दूसरे की बांहो में होते हैं तो अतीत के पन्नों तले हिंसा और दंगों की अमानवीयता को खारिज करते हुये न सिर्फ धर्म के भेद को मिटाते हैं बल्कि कश्मीर के दर्द को समेटे आयत की गर्म सांसों को 84 के दंगों में अपने दर्द की टीस भी हैरी यानी शाहिद कपूर रखकर यह एहसास तो कराता है कि मानवियता तले ही जिन्दगी और प्यार पनप सकते हैं। लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर जिस तेजी से इस एहसास को जीने के लिये किसी सी ग्रेड का नायक मचलता है, कुछ उसी अंदाज में पंकज कपूर भी "मौसम" में नायक खोजने निकल पड़ते हैं। और फिल्म आखिरी हिस्से के छोर को पकड़ने की छटपटाहट में न सिर्फ सिरे को छोड़ देती है बल्कि "मौसम" के बदलने के प्रवाह को भी रोक देती है। असल में यहीं पर पंकज कपूर हारते नजर आते हैं और "मौसम" पटरी से उतर कर उस बाजारु मिजाज में तब्दील हो जाती है, जो लोकप्रिय अंदाज पाना चाहती है। परीकथा को "मौसम" का आसरा चाहिये और फिर किसी सुपरमैन को परीकथा का आसरा। संगीत को सूफियाना अंदाज चाहिये और सूफियाना अंदाज को कहानी की किस्सागोई। यह चक्रव्यूह ही "मौसम" को कमजोर कर देता है। मौका मिले तो बिना प्रेमिका के "मौसम" का लुत्फ उठाया जा सकता है। बस नजर और मिजाज साथ होना चाहिये। और पंकज कपूर के पास संयोग से यही दोनों हैं।

4 comments:

सतीश कुमार चौहान said...

प्रसून जी थियेटर में तो जा न सकेगे पर सेटेलाइट चैनल में जरूर देखेगे तब कुछ कहेगे, कि ये कहीं प्रसून जी विज्ञापन तो नही .....

DR. Vivek Mishra 2368151 said...

prasun ji meri apni rai hai ki aap jo kuch bhi sochte hai ya kahte hai bari tarkik hoti hai mai aap se shamat hu

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

प्रसून जी, आप जो भी जिसके ऊपर लिखते सच लिखते है आपके लिखने,बोलने,और प्रस्तुत करने शैली और दिलेरी ने आज आपको इस मुकाम तक पहुचाया है,मै आपके इस हुनर का कायल हूँ,

Sanjeet Tripathi said...

aapne likha is film k bare mein,aur hamne padhaa, baki apni raay to film ko dekhne k bad hi kayam kar sakenge hum sir... shukriya aapki is samiksha ko padhwane k liye...
shesh shubh