दिल्ली के 24 अकबर रोड [कांग्रेस हेडक्वार्टर] से लखनऊ के 5 विक्रमादित्य रोड (मुलायम सिंह यादव का घर) की दूरी चाहे 500 किलोमीटर की हो लेकिन यूपी के चुनाव परिणामों ने झटके में लखनऊ के 5 कालिदास मार्ग को दिल्ली के10 जनपथ को करीब ला खड़ा कर दिया है। यह देश में बदलते राजनीतिक मिजाज का ऐसा जायका है जो संकेत दे गया कि अब चकाचौंध की सियासत आमआदमी हजम करने को तैयार नहीं है। राहुल गांधी का 'औरा' यूपी ने अखिलेश यादव की सादगी तले तोड़ा। या फिर पैराटूपर की राष्ट्रीय राजनीति करने वाले कांग्रेसी और बीजेपी के सियासी भ्रम को तोड़ा। या भ्रष्टाचार में गोते लगाकर सोशल इंजीनियरिंग की चुनावी परिभाषा गढ़ने वाली मायावती को आइनादिखाया। हुआ जो भी लकीर यही खिंची कि अगर सत्ता प्यादे को वजीर बना देती है तो वोटर वजीर को प्यादा बनाकर लोकतंत्र का जाप कर लेगा, चाहे उसके सामने चुनावी विकल्प का मतलब राजनीतिक हमाम ही क्यों ना हो।
सिर्फ चुनाव के वक्त राजनीतिक बिसात बिछा कर कांग्रेस का बेडा करने की यूपी की बिसात से लेकर उत्तराखंड और पंजाब के कांग्रेसियो को दिल्ली दरबार के आसरे ही राजनीति करने का जो पाठ बार बार गांधी परिवार की कोटरी ने पढ़ाया उसको बेपर्दा अगर पंजाब के चुनावी इतिहास को बदल कर आकालियों ने किया तो अण्णा के खंडूरी समर्थन ने कांग्रेस के भीतर की कसमसाहट के बीच चुनावी जीत की झटपटाहट को भी बेपर्दा कर दिया। पंजाब के 46 बरस के इतिहास में पहली बार कोई पार्टी दोबारा सत्ता में आयी। जबकि बेरोजगारी,ड्रग्स से लेकर स्वास्थ्य,शिक्षा, बिजली,कानून-व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मुद्दों के बीच भ्रष्टाचार को लेकर नारे यही लगते रहे कि चीते,बगूले,नीले मोर / यह भी चोर तो ते भी चोर। यानी लोकल चोर तो चलेगा लेकिन दिल्ली की डोर से बंधा चोर नहीं चलेगा। पंजाब के कांग्रेसी कैप्टन का जहाज असल में पंजाब के ही तीन बादलों के आपसी टकराव से ज्यादा दिल्ली के उन बादलों में क्रैश कर गया जहां से कभी कोई सीधी लकीर पंजाब की राजनीति के लिये इस दौर में खींची नहीं गयी। कांग्रेस के इसी तौर तरीके ने उत्तराखंड से लेकर गोवा तक में कांग्रेस की स्थानीय पहचान के सामानांतर केन्द्र की राजनीति की ऐसी मोटी लकीर खींच दी कि खंडूरी ने अपने ही भ्रष्ट सीएम निशंक से जब सत्ता ली तो अण्णा के जनलोकपाल का लागू कर ऐसा हंटर चलाया कि उसकी गिरफ्त में निशंक के बदले काग्रेस का अण्णा विरोधी रुख ही सामने आया। और उत्तरांचल के बेरोजगारी, पलायन, विकास और फंड के घपलों सरीखे घाव इस सियासत में छुप गये। यानी जिन प्रदेशों में जो मुद्दे जहा खडे थे, वह वहीं मौजूद है लेकिन संसदीय राजनीति का तकाजा है कि इसी में लोकतंत्र की स्वतंत्रता को महसूस कर लिया जाये।
इसका एक बड़ा चेहरा गांधी परिवार के अक्स में रायबरेली और अमेठी ने भी दिखलाया। जहां इतिहास में पहली बार सोनिया गांधी,राहुल गांधी,प्रियंका गांधी,राबर्ट बढेरा और प्रियंका अपने दोनो बच्चों के साथ पहुंची। लेकिन लोकतंत्र ने पारंपरिक मुहं दिखायी भी गांधी परिवार को चुनावी फैसलों के जरीये नहीं दी। यानी नजीर बना दी कि सरोकर ना हो तो फिर औरा भी फुस्स होगा। फिर यह पांच राज्यों के चुनाव परिणाम पहली बार किसी को सत्ता में लाने या हटाने से ज्यादा केन्द्र सरकार की उन नीतियों की तरफ भी इशारा कर रहे हैं, जिसकी बुनियाद सियासत पर नहीं आर्थिक सुधार पर खड़ी है । और जो आर्थिक सुधार सरोकार की जगह अभी तक मुनाफा ही टटोलते रहें। इसलिये अब कांग्रेस की मुश्किल सियासी राजनीति से ज्यादा सरकार की उन नीतियों को लेकर है जिस रास्ते प्रधानमंत् मनमोहन सिंह चलना चाहते हैं और चुनावी परिणाम काग्रेस को इसकी इसकी इजाजत नहीं देते। मसला अब यह नहीं है चुनाव में जीत के लिये बुनकरों को आर्थिक पैकेज से लेकर मुस्लिम आरक्षण का चुग्गा फेंक कर कांग्रेस मस्त हो जाये।
मसला यह भी नहीं है कि बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी अयोध्या का दाग धोने के लिये यूपी में नायाब सोशल इंजीनियरिंग [उमा भारती से कुशवाहा तक ] कर संघ परिवार को ही समझाने लगे कि चुनाव तो जीतने के लिये लड़े जाते हैं। और टकराव में फंसी बीजेपी के पहचान वाले चेहरों को अपने धंधे के तराजू में यह कहकर तौलने लगे कि कार्यकर्त्ता का काम है पार्टी का झंडा उठाना, टिकट तो समीकरण के आसरे बांटे जाते हैं। वहीं मायवती दलित वोट बैंक को ही घृतराष्ट्र की भूमिका में मानकर अपने घृतराष्ट्र होने की पट्टी यह कहकर ना घोलें कि आंबेडकर से लेकर कांशीराम तक की मूर्तियों तले ही विकास देखना जरुरी है। लेकिन अब बड़े सवाल यहीं से खड़े होते हैं कि मायावती की बहुमत वाली सोशल इंजीनियरिंग सिर्फ पांच बरस ही क्यों टिक पायी। दलितों को दलित होने का एहसास कराकर राहुल गांधी का राजनीति करना और बिना जाति जाने या पूछे अखिलेश यादव का नये सरोकार बनाना। यानी य पी का फैसला क्या जाति बंधन तोड़ने की दिशा में बढ रहा है। या फिर जातियां खुद को वोटबेंक की सौदेबाजी के दायरे से अलग करने को झटपटा रही है। भ्रष्टाचार की संस्कृति लखनउ-दिल्ली को मिलाकर गंगा-जमनी के तर्ज पर देखने वाली हो चुकी है। यानी सवाल सिर्फ लखनउ, देहरादून,चंडीगढ या पंजिम भर का नहीं है उसमें दिल्ली की सियासत के भ्रष्टाचार का छौंक लगेगा ही। और जो नीतियां सब्सिडी काट कर कॉरपोरेट को मुनाफा देते हुये विकास की बात कहेगी उसपर चलने के लिये अब चुनावी राजनीति तैयार नहीं है। यानी आने वाले वक्त में एफडीआई से लेकर बीमा क्षेत्र को खुला करने का फैसला कांग्रेस ले नहीं सकती। और फिर भी मनमोहनोमिक्स चलेगा तो बड़ा फैसला कांग्रेस के साथियों से निकलेगा। जिन्हें अगर एहसास हो गया कि कांग्रेस की नैया 2014 में ले डूबेगी तो शरद पवार का रास्ता सौदेबाजी से आगे निकलेगा और ममता बनर्जी के तेवर घमकी से आगे जायेंगे। सोचेंगे करुणानिधि भी। और अदालती पचड़े में फंसे मुलायम और मायावती भी सौदेबाजी का दायरा बढायेंगे। क्योंकि फैसले ने हर दल को आगाह कर दिया है कि सत्ता के आसरे प्यादे से वजीर तो बना जा सकता है लेकिन जनता से सरोकार जोड़कर अगर अब काम ना ये तो वजीर से प्यादा बनाने में भी वोटर देर नहीं करेगा।
सिर्फ चुनाव के वक्त राजनीतिक बिसात बिछा कर कांग्रेस का बेडा करने की यूपी की बिसात से लेकर उत्तराखंड और पंजाब के कांग्रेसियो को दिल्ली दरबार के आसरे ही राजनीति करने का जो पाठ बार बार गांधी परिवार की कोटरी ने पढ़ाया उसको बेपर्दा अगर पंजाब के चुनावी इतिहास को बदल कर आकालियों ने किया तो अण्णा के खंडूरी समर्थन ने कांग्रेस के भीतर की कसमसाहट के बीच चुनावी जीत की झटपटाहट को भी बेपर्दा कर दिया। पंजाब के 46 बरस के इतिहास में पहली बार कोई पार्टी दोबारा सत्ता में आयी। जबकि बेरोजगारी,ड्रग्स से लेकर स्वास्थ्य,शिक्षा, बिजली,कानून-व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मुद्दों के बीच भ्रष्टाचार को लेकर नारे यही लगते रहे कि चीते,बगूले,नीले मोर / यह भी चोर तो ते भी चोर। यानी लोकल चोर तो चलेगा लेकिन दिल्ली की डोर से बंधा चोर नहीं चलेगा। पंजाब के कांग्रेसी कैप्टन का जहाज असल में पंजाब के ही तीन बादलों के आपसी टकराव से ज्यादा दिल्ली के उन बादलों में क्रैश कर गया जहां से कभी कोई सीधी लकीर पंजाब की राजनीति के लिये इस दौर में खींची नहीं गयी। कांग्रेस के इसी तौर तरीके ने उत्तराखंड से लेकर गोवा तक में कांग्रेस की स्थानीय पहचान के सामानांतर केन्द्र की राजनीति की ऐसी मोटी लकीर खींच दी कि खंडूरी ने अपने ही भ्रष्ट सीएम निशंक से जब सत्ता ली तो अण्णा के जनलोकपाल का लागू कर ऐसा हंटर चलाया कि उसकी गिरफ्त में निशंक के बदले काग्रेस का अण्णा विरोधी रुख ही सामने आया। और उत्तरांचल के बेरोजगारी, पलायन, विकास और फंड के घपलों सरीखे घाव इस सियासत में छुप गये। यानी जिन प्रदेशों में जो मुद्दे जहा खडे थे, वह वहीं मौजूद है लेकिन संसदीय राजनीति का तकाजा है कि इसी में लोकतंत्र की स्वतंत्रता को महसूस कर लिया जाये।
इसका एक बड़ा चेहरा गांधी परिवार के अक्स में रायबरेली और अमेठी ने भी दिखलाया। जहां इतिहास में पहली बार सोनिया गांधी,राहुल गांधी,प्रियंका गांधी,राबर्ट बढेरा और प्रियंका अपने दोनो बच्चों के साथ पहुंची। लेकिन लोकतंत्र ने पारंपरिक मुहं दिखायी भी गांधी परिवार को चुनावी फैसलों के जरीये नहीं दी। यानी नजीर बना दी कि सरोकर ना हो तो फिर औरा भी फुस्स होगा। फिर यह पांच राज्यों के चुनाव परिणाम पहली बार किसी को सत्ता में लाने या हटाने से ज्यादा केन्द्र सरकार की उन नीतियों की तरफ भी इशारा कर रहे हैं, जिसकी बुनियाद सियासत पर नहीं आर्थिक सुधार पर खड़ी है । और जो आर्थिक सुधार सरोकार की जगह अभी तक मुनाफा ही टटोलते रहें। इसलिये अब कांग्रेस की मुश्किल सियासी राजनीति से ज्यादा सरकार की उन नीतियों को लेकर है जिस रास्ते प्रधानमंत् मनमोहन सिंह चलना चाहते हैं और चुनावी परिणाम काग्रेस को इसकी इसकी इजाजत नहीं देते। मसला अब यह नहीं है चुनाव में जीत के लिये बुनकरों को आर्थिक पैकेज से लेकर मुस्लिम आरक्षण का चुग्गा फेंक कर कांग्रेस मस्त हो जाये।
मसला यह भी नहीं है कि बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी अयोध्या का दाग धोने के लिये यूपी में नायाब सोशल इंजीनियरिंग [उमा भारती से कुशवाहा तक ] कर संघ परिवार को ही समझाने लगे कि चुनाव तो जीतने के लिये लड़े जाते हैं। और टकराव में फंसी बीजेपी के पहचान वाले चेहरों को अपने धंधे के तराजू में यह कहकर तौलने लगे कि कार्यकर्त्ता का काम है पार्टी का झंडा उठाना, टिकट तो समीकरण के आसरे बांटे जाते हैं। वहीं मायवती दलित वोट बैंक को ही घृतराष्ट्र की भूमिका में मानकर अपने घृतराष्ट्र होने की पट्टी यह कहकर ना घोलें कि आंबेडकर से लेकर कांशीराम तक की मूर्तियों तले ही विकास देखना जरुरी है। लेकिन अब बड़े सवाल यहीं से खड़े होते हैं कि मायावती की बहुमत वाली सोशल इंजीनियरिंग सिर्फ पांच बरस ही क्यों टिक पायी। दलितों को दलित होने का एहसास कराकर राहुल गांधी का राजनीति करना और बिना जाति जाने या पूछे अखिलेश यादव का नये सरोकार बनाना। यानी य पी का फैसला क्या जाति बंधन तोड़ने की दिशा में बढ रहा है। या फिर जातियां खुद को वोटबेंक की सौदेबाजी के दायरे से अलग करने को झटपटा रही है। भ्रष्टाचार की संस्कृति लखनउ-दिल्ली को मिलाकर गंगा-जमनी के तर्ज पर देखने वाली हो चुकी है। यानी सवाल सिर्फ लखनउ, देहरादून,चंडीगढ या पंजिम भर का नहीं है उसमें दिल्ली की सियासत के भ्रष्टाचार का छौंक लगेगा ही। और जो नीतियां सब्सिडी काट कर कॉरपोरेट को मुनाफा देते हुये विकास की बात कहेगी उसपर चलने के लिये अब चुनावी राजनीति तैयार नहीं है। यानी आने वाले वक्त में एफडीआई से लेकर बीमा क्षेत्र को खुला करने का फैसला कांग्रेस ले नहीं सकती। और फिर भी मनमोहनोमिक्स चलेगा तो बड़ा फैसला कांग्रेस के साथियों से निकलेगा। जिन्हें अगर एहसास हो गया कि कांग्रेस की नैया 2014 में ले डूबेगी तो शरद पवार का रास्ता सौदेबाजी से आगे निकलेगा और ममता बनर्जी के तेवर घमकी से आगे जायेंगे। सोचेंगे करुणानिधि भी। और अदालती पचड़े में फंसे मुलायम और मायावती भी सौदेबाजी का दायरा बढायेंगे। क्योंकि फैसले ने हर दल को आगाह कर दिया है कि सत्ता के आसरे प्यादे से वजीर तो बना जा सकता है लेकिन जनता से सरोकार जोड़कर अगर अब काम ना ये तो वजीर से प्यादा बनाने में भी वोटर देर नहीं करेगा।
6 comments:
well said !
यहां कोई सरोकार नहीं है बाजपेई जी. मुद्दा है तो सिर्फ इतना कि कौन कैसे वोटों की फसल काटता है. जनता ऐसे ही प्यादे और वजीर बनाती रहेगी और ऐसी ही रहेगी, हमेशा.
कोउ नृप भय हमें का हानि
Sir i dont wht iz the real meaning of all these words .pr ye pta hai sir aapke blog aur news(badi khabar) sunkar ek nai urza ka sanchar hota hai
बाजपेयी जी,
सीधा गणित यह है कि मुसलमान वोट, सपा को मिले (मायावती भी यही कह रही हैं) और चतुषकोणीय मुकाबले में मात्र 29% वोट लाकर सपा ने प्रदेश को लाल टोपी पहना दी !!
हमारा गणित यह कहता है कि 71% जनता को लाल टोपी का गुंडा राज झेलना पढेगा और आप जैसे लोग इस महान लोकंतत्र की जय बोलकर
अपनी लकीर खींचते रहेंगे :(
लोकतंत्र को इसी कारण सर्वोत्तम शासन प्रणाली कहा जाता है. जहाँ जनता चाह ले तो बड़े बड़े सूर्माओ को धुल-धस्रीत कर अपने चौखट पर शीश नवाने को मजबूर कर देता है. दंभ को रौंद कर दम्भी के मस्तक को अपना चरणधूलि बना लेता है. इस चुनाव ने एक बार फिर इस बात को स्थापित किया है. इस कथन की पुष्टि एक बार फिर होती है, और हमारे नेताओं को यह समझना चाहिए, कि कुछ लोगों को कुछ समय तक मुर्ख बनाया जा सकता है कुछ को हमेशा मुर्ख बनाया जा सकता है लेकिन सभी लोगों को हमेशा के लिए मुर्ख नहीं बनाया जा सकता है. नेताओं को अब यह बात गाँठ बांध लेना चाहिए कि आपको लोगों ने जिस अपेक्षा और आकांक्षा के साथ सत्ता दी है आपको उसपर खरा उतरना ही होगा नहीं तो उत्तर प्रदेश कि तरह सत्ता से बेदखल होना होगा. जनता अब काम काज का मूल्याङ्कन सीख चुकी है और उन्हें आंकड़ो कि बाजीगिरी और आश्वाशन के कोरे लालच से मुर्ख नहीं बनाया जा सकता है. आज हमारे कुछ वर्ग के प्रतिनिधि सामंतबाद के विरोध के बल पर सत्तासीन तो होते है लेकिन सत्ता पर काबिज होने के पश्चात सामंतबाद के सारे अवगुण को अपने में समाहित ही करते नजर आते हैं. यही कारण है कि मौका मिलते ही फिर जनता उन्हें नकार देती है. राष्ट्रीय दलों का जो धीरे धीरे पतन हो रहा है उसका एक बड़ा कारण यह है कि अपने कद को ऊँचा रखने के लिए बड़े नेता सिर्फ राग दरबारी पसंद करते है वीर रस से प्रभावित किसी व्यक्ति को अपने लिए खतरा मान कर पनपने ही नहीं देते हैं. राज्यों में वो किसी को मजबूत नेता बनने ही नहीं देते है. अब उन्हें समझना ही होगा कि पेराशूट पोलिटिक्स कि जगह अब पदयात्रा कि राजनीति का समय आ चुका है जिसके लिए उन्हें मजबूत स्थानीय नेता को खड़ा करना ही होगा नहीं तो राष्ट्रीय दल कुछ समय बाद राज्यों के दल भी नहीं रहेंगे.
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