Wednesday, November 14, 2018

मीडिया के अक्स तले लोकतंत्र के दो चेहरे


मौजूदा वक्त में जिन हालातो से भारतीय  मीडिया दो चार हो रहा है या फिर पत्रकारो के सामने जो संकट है उस परिपेक्ष्य में अमेरिकी मीडिया का ट्रंप की सत्ता से टकराना दुनिया के दो लोकतांत्रिक देशो की दो कहानिया ही सामने लाता है । और दोनो ही दिलचस्प है । क्योकि दुनिया के सबसे पुराने लोकतांभिद देश अमेरिका के राष्ट्रपति मीडिया के सामने खुले तौर पर आने से कतराते नहीं है । पर दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री मीडिया के सामने सवालो के जवाब देने से घबराते है तो अपनी पंसद के पत्रकार या मीडिया हाउस को अपनी चौखट पर बुलाकर किस्सागोई करते है और इंटरव्यू के तौर पर देश उसे सुनता है । पढता है । अमेरिका का मीडिया हाउस राजनीतिक सत्ता के प्रचार प्रसार का हिस्सा नहीं बनता । लेकिन भारत का मीडिया सत्ता के प्रचार प्रसार को ही खबर बना देता है । अमेरिकी मीडिया लोकतंत्र की उस साख को सत्ता से ज्यादा महत्व देता है जो हक उसे संविधान से मिले है । भारत का मीडिया संवैधानिक संस्थाओ को सत्ता की अंगुलियो पर नाचते देख ताली बजाने से नहीं चुकता । तो लोकतंत्र की दो परिभाषाओ के अक्स तले भारतीय मीडिया के रेगने की कहानी भी है और अमेरिकी मीडिया की सत्ता से टकराने की दास्ता भी है ।

दरअसल भारतीय लोकतंत्रिक माहौल में हर कोई इसे अजूबा मान रहा है कि आखिर सीएनएन ने अमेरिका राष्ट्रपति और व्हाइट हाउस प्रशासन के खिलाफ ये केस दर्ज कैसे कर दिया कि सीएनएन के पत्रकार जिम एगोस्टा के संवैधानिक अधिकारो का हनन किया जा रहा है । तो क्या वाकई किसी पत्रकार के संवैधानिक अधिकार भी होते है और क्या वाकई अगर भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसी पत्रकार के सवाल से उलझ जाये या गुस्से में आ जाये और पीएमओ उसके एक्रिडिय़शन को ही कैसंल कर दें तो उसका मीडिया हाउस ये सवाल उठा दे कि ये तो प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है । या फिर पत्रकार के संवैधानिक अधिकारो की ही हनन है । ये वाकई कल्पना के परे है कि भारत में ऐसा हो सकता है । लेकिन अमेरिका में तो बकायदा न्यूज नेटवर्क ने मुकदमें की घोषणा करते हुए कहा, 'प्रेस डॉक्यूमेंट्स को गलत तरीके से निरस्त करना प्रेस की स्वतंत्रता के सीएनएन और एकोस्टा के प्रथम संशोधन अधिकार और नियत प्रक्रिया के पांचवें संशोधन अधिकार का उल्लंघन है.' जाहिर है ये सवाल भारत में प्रेस काउसिंल या एडिटर गिल्ड आफ इंडिया या नेशनल ब्राडकास्टिंग आफ इंडिया से भी पूछा जा सकता है कि भारत में ये क्यो संभव नहीं है । पर भारत के हालात बताते है कि पूछना तो दूर सत्ता के फैसले को संवैधानिक दायरे में मीडिया ही सही ठहराने में इस तरह लग सकता है कि जिससे खबर यही बने कि जनता द्वारा चुनी हुई राजनीतिक सत्ता से कोई पत्रकार या मीडिया हाउस कैसे सवाल कर सकता है । लेकिन दूसरी तरफ अमेरिकी न्यू नेटवर्क का तो कहना है, 'हमने अदालत से आदेश पर तत्काल रोक लगाने और पत्रकार जिम का पास लौटाने का आग्रह किया है और हम इस प्रक्रिया के तहत स्थाई राहत मांगेंगे.' न्यूज नेटवर्क ने यह भी कहा, 'अगर चुनौती नहीं दी जाती तो व्हाइट हाउस की कार्रवाई से निर्वाचित अधिकारियों की कवरेज करने वाले किसी पत्रकार के लिए घातक प्रभाव दिखाई देते.' तो लोकतंत्र का तकादा है कि लोकतंत्र संविधान पर टिका है । और संविधान से मिले अधिकारो का हक चुनी हुई सत्ता को भी नहीं है । इसलिये सिर्फ सीएनएन ही नहीं बल्कि व्हाइट हाउस कॉरेस्पान्डेंट एसोसिएशन ने  भी सीएनएन के मुकदमें का स्वागत किया और कहा कि व्हाइट हाउस परिसर तक पहुंच को रोकना घटनाओं पर अनुचित फीडबैक के बराबर है. और जो भी संवाददाता व्हाइट हाउ को कवर करते है उनके एसोशियसशन ने साफ कहा, 'हम प्रशासन से फैसला पलटने और सीएनएन के पत्रकार की पूर्ण बहाली का लगातार आग्रह करते हैं.' पर ये  भारत में क्यो संभव नहीं है । ये सवाल तो है ही । क्योकि भारत में ना तो आपातकाल लगा है जहा संविधान से मिलने वाले अधिकार सस्पेंड कर दिये गये हो । और ना ही संवैधानिक अधिकारो के हनन पर सुप्रीम कोर्ट या कोई संवैधानिक संस्था सवाल ना उठा सकती है । अमेरिका की तर्ज पर लोकतंत्र का मिजाज वहीं है ।संविधान से मिलने वाले नागरिक अधिकार वहीं है । और प्रेस की स्वतंत्रता से जुडे सवाल भी वहीं है । लेकिन भारत में फिर ऐसा क्या है कि राजनीतिक सत्ता की मुठ्ठी में संविधान कैद हो गया है । किसी भी संवैधानिक संस्था की स्वतंत्रता को लेकर हर मोड पर सवाल है । क्योकि ऐसा कोई कार्य या ऐसा कोई फैसला आता ही नहीं या होता ही नहीं जो सत्तानुकुल ना हो । सीएजी को दर्जन भर नौकरशाह पत्र लिख पूछते है , राफेल की किमत को लेकर उसका अध्धयन क्या कहता है , बताया क्यो नहीं जा रहा है ? सीबीआई, सीवीसी , ईडी  ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक के निर्देश सत्तानुकुल लगते है या सत्तानुकुल नहीं होते तो संस्था के मुखिया पर सत्ता की गाज गिरती है या सत्ता ही खुद को उस संस्था का सर्वोसर्वा मान लेती है फिर बना लेती है । और इस कडी में मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा खम्भा होता है । तो पहले तीन खम्भे ही जब सत्ता संभालने का काम करने लगे तो चौथे खम्भे की क्या हैसियत हो जाती है या क्या साख बना दी गई है ये कई उदाहरणो से समझा जा सकता है ।

मसलन भारत में न्यूज चैनलो का रुतबा खासा बढा है । उसका असर । उसका विस्तार । उसकी पहुंच । और उसके संवाद बनाने की क्षमता ने राजनीतिक सत्ता को साफ तौर पर समझा दिया है कि चैनल मीडिया पर नकेल कसने से सत्तानुकुल राजनीतिक नैरेटिव बनाया जा सकता है । और इस राजनीतिक नैरेटिव को न्यूज चैनलो को चलाने वाले मीडिया हाउस मान चुके है कि वह लोकतंत्र के चौथे खम्भे नही बल्कि एक बिजनेस कर रहे है जिसका लक्ष्य मुनाफा बनाना है । और मुनाफे के मीडिया बिजनेस को मुनाफा देने की स्थिति में सत्ता से बेहतर और कौन हो सकता है । तो लोकतंत्र में संवैधानिक अधिकारो के हनन  का सवाल किस मीडिया हाउस को दिखायी देगा या फिर दिखायी देगा तो भी वह उस अधिकार को मुनाफे में क्यो नहीं बदलेगा । यानी संवैधानिक हनन की खबरो की एवज से सत्ता से मुनाफा लेकर या तो खामोश हो जायेगा या फिर संवैधिनिक हननको ही गलत ठहरा देगा ।

फिर भारत में तो संविधान से मिलने वाले अधिकारो के हनन की लकीर इतनी मोटी है कि कोई भी मीडिया हाउ कही से भी आवाज उठा सकता है और सत्ता से ये सवाल कर सकता है कि आखिर उसका काम क्या है अगर वह संविधान से मिले जीने के अधिकार । शिक्षा के अधिकार । हेल्थ स्रविस के अधिकार ही नहीं बल्कि साफ पानी पीने तक के हालात बना नहीं पायी । यानी सत्ता की नीतियो के झूठ फरेब के जाल को भेदने की आवश्कता नहीं है बल्कि न्यूनतम की लडाई में फंसे देश में कैसे सत्ता तीन हजार करोड की सरदार पटेल की प्रतिमा बनायी जा सकती हैा जबकि वह धन के टैक्स पेयर का है ।  जाहिर है मीडिया इन सवालो को क्यो उठाये ये संपादकिय सोच हो सकती है । लेकिन खुले तौर पर जो मीडिया हाउस सत्ता के साथ हो उसका मुनाफा बढे । खुले तौर पर जो सत्ता को लेकर जरा भी आलोचनात्मक हो या कहे सत्ता की नीतियो का रियल चैक ही करने की हिम्मत दिखाये उस मीडिया हाउस से धमकी या मुनाफे के नाम पर सौदेबाजी करने का खुला खेल ही जब होने लगे तो क्या किसी पत्रकार के अधिकारो का बात वाकई कोई करेगा । या फिर मीडिया हाउस के दफ्तरो में या संपादको के घर पर छापे मारने की प्रक्रिया इस रुप में अपनायी जाये कि सत्ता के साथ खडे मीडिया हाउस छापा मारा गया ये तो जोर शोर से बताये और छापा बिना किसी आधार के या छापा मारने पर भी कुछ नहीं निकला इसे बताने के बदले खामोशी बरत लें । तो क्या ये कहा जा सकता है कि लोकतंत्र को हडप कर सत्ता ने देश को ही लोकतंत्र के नाम पर मनमानी का अधिकार पा लिया है ।

यानी अमेरिकी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र को एक तराजू पर तौला नहीं जा सकता । क्योकि अमेरिका में खुद को फोर्थ स्टेट बताते हुये मीडिया संवैधानिक हक के लिये संघर्ष करने को तैयार है लेकिन भारत में लोकतंत्र को सत्ता की मनमर्जी पर सौप मीडिया मुनाफे के लिये संविधानिक हक को भूलने के लिये तैयार है । और दुनिया के सबसे रईस देश अमेरिका का सच ये भी है कि मीडिया वहा पूंजी या मुनाफे पर नहीं टिका है लेकिन भारत में पूंजी और मुनाफा दोनो ही  सत्ता ही उपलब्ध कराती है तो मीडिया बिनजेस माडल में तब्दिल हो चुका है । इसीलिये न्यूज चैनलो के लिये टीआरपी से विज्ञापनो की कुल कमाई दो हजार करोड की है । लेकिन राजनीतिक प्रसार प्रसार से कुल कमाई बीस से तीस हजार करोड से ज्यादा की है । 

और संयोग देखिये दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश में सीएनएन का संवाददाता अमेरिका की तरफ बढते प्रवासियो के कारंवा पर अमेरिका राष्ट्रपति की राय जानने के लिये सवाल करता है और भारत में असम के लाखो लोगो को एक रात में प्रवासी बना दिया जाता है और प्रधानमंत्री मोदी से कोई सवाल तक नहीं करता ।

10 comments:

Unknown said...

Kuch gunjaish hai iss mei sudhar kee yaa

Gaurav kumar said...

यह सब तो ठीक है बोले थे कि नवंबर में आ रहे हैं। तो आना कब है अब

Unknown said...

क्रांतिकारी पुण्य प्रसुन वाजपेयीजी,
सभी सोंचता है कि शहीद भगत सिंह हमारे ही गांव में जन्म लें परन्तु मेरे घर में नहीं, पड़ोसी के घर में। आपने अपनी नौकरी छोड़ दी देश के लिए। आपने प्रेम चंद के पंच पर्मेश्वर शीर्षक कहानी के उस वाक्य को सही साबित कर दिये या कहें जिंदा रखे जिसमें खाला कहती है कि बेटा क्या बिगाड़ के डर से इमान की बात नहीं कहोगे ? जय श्री राम ---

Jinda Shaheed! said...

Enter your comment... पुण्यप्रसूनबाजपेईजी!
आज देश मेँ तथाकथित लोकतन्त्र के तथाकथित चारोँ स्तम्म ढह चुके हैँ ये चारो सिर्फ जिन्दा लाश हैँ तभी लोकतन्त्र अब तक लाश पर ही केन्द्रित है जो कि कतई कहीँ से भी अतिसँयोक्ति नही है आखिर कितनी बार ये बात सबसे कही जा सकी है/ सुनी जा चुकी है/ समझी चा चुकी है।-जयहिन्द!

Radhe sahu said...

Sir news kb join kroge

Unknown said...

नमन। कहने को ही चार स्तम्भ हैं हमको तो सिर्फ एक ही दिखाई देता है। आप को पढ़कर याद आ गया कि मीडिया है जो न्यायपालिका एक जज की संदिग्ध मौत की जांच न करा सके उससे न्याय की उम्मीद करती है जनता।

Unknown said...

Sir ap news Chanel mein kb ayenge

Unknown said...

जिस देश मे सचिव (institutional) बैद(RBI)

और गुरु (RSS & media) राजा के भय अथवा अपने निजी लाभ के लिए सच बोलना बंद कर हर समय राजा की ही प्रंशसा करने लगे तो वह देश विनाश की तरफ बढता हैं।

Krishna Kumar Jaiswal said...

Sir mai aapko fir se news channel me dakhna chahta hu.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

Chinta ki baat hai.
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