Friday, December 14, 2018

राहुल गांधी ने काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को खोल दिया....




अगर काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को खोल दिया जाये तो क्या होगा । ये सवाल करीब दस बरस पहले राहुल गांधी ने ही सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक से पूछा था । और तब उस विश्वलेषक महोदय ने अपने मित्रो से बातचीत में इसका जिक्र करते हुये कहा कि राहुल गांधी राजनीति में रेवोल्शूशनरी परिवर्तन लाना चाहते है । लेकिन अगर अब काग्रेस के मुख्यमंत्री के चयन को लेकर राहुल गांधी के तरीके को समझे तो लगता यही है कि वाकई बोतल में बंद काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को उन्होने खोल दिया है । और चूंकि ये पहली बार हो रहा है तो ना पारंपरिक काग्रेस इसे पचा पा रही है ना ही मीडिया के ये गले उतर रहा है । और बार बार जिस तरह मोदी शाह की युगलबंदी ने इंदिरा के दौर की काग्रेस के तौर तरीको ज्यादा कठोर तरीको से अपना लिया है उसमें दूसरे राजनीतिक दल भी इस हकीकत को समझ नहीं पा रहे है कि राहुल की काग्रेस बदलाव की राह पर है । और ये रास्ता काग्रेस की जरुरत इसलिये हो चला है क्योकि काग्रेस मौजूदा वक्त में सबसे कमजोर है । पारंपरिक वोट बैक खिसक चुके है । पुरानो बुजुर्ग व अनुभवी काग्रेसियो के सामानातंर युवा काग्रेस की एक नई पीढी तैयार हो चुकी है । और संगठन से लेकर राज्य और केन्द्र तक के हालातो को उस धागे में पिरोना है जहा काग्रेस का मंच सबके लिये खुल जाये । यानी सिर्फ किसानो के बीच काम करने वालो में से कोई नेता निकलता है तो उसके लिये भी काग्रेस में जगह हो और दलित या आदिवासियो के बीच से कोई निकलता है तो उसके लिये भी अहम जगह हो । और तो और बीजेपी में भी जब किसी जनाधार वाले नेता को ये लगेगा कि अमित शाह की तानाशाही तो उसके जनाधार को ही खत्म कर उसे बौना कर देगी तो उसके लिये भी काग्रेस में आना आसान हो जायेगा । महत्वपूर्ण ये है कि इन सारी संभावनाओ को अपनाना काग्रेस की मजबूरी भी है और जरुरत भी है । क्योकि राहुल गांधी इस हकीकत को भी समझ रहे है कि काग्रेस को खत्म करने के लिये मोदी-शाह उसी काग्रेसी रास्ते पर चले जहा निर्णय हाईकमान के हाथ में होता है और हाईकमान की बिसात उनके अपने कारिन्दे नेताओ के जरीये बिछायी गई होती है ।  तो राहुल ने हाईकमान के ढक्कन को काग्रेस पर ये कहकर उठा दिया कि सीएम वही होगा जिसे कार्यकत्ता और विधायक पंसद करेगे । और ध्यान दें तो "शक्ति एप " के जरीये जब राहुल गांधी ने विधायक-कायकत्ताओ के पास ये संदेश भेजा कि वह किसे मुख्यमंत्री के तौर पर पंसद करते है तो शुरुआत में मीडिया ने इसपर ठहाके ही लगाये । राजनीतिक विश्लेषक हो या दूसरे दल हर किसी के लिये ये एक मजाक हो गया कि लाखो कार्यकत्ताओ के जवाब के बाद कोई कैसे मुख्यमंत्री का चयन करेगा । दरअसल डाटा का खेल यही है । डाटा हमेशा ब्लैक-एंड वाइट में होता है । यानी उसपर शक करने की गुंजाइश सिर्फ इतनी भर होती है कि जवाब भेजने वाले को किसी ने प्रभावित कर दिया हो । लेकिन एक बार डाटा आ गया तो मुख्यमंत्री पद के अनेको दावेदार के सामने उस डाटा को रखकर पूछा तो जा ही सकता है कि उसकी लोकप्रियता का पैमाना डाटा के अनुकुल या प्रतिकुल है । मध्यप्रदेश में कमलनाथ को भी मुख्यमंत्री पद के लिये चुने जाने की जरुरत होनी नहीं चाहिये थी । क्योकि ये हर कोई जानता है कि कमलनाथ ने चुनाव में पैसा भी लगाया और उनके पीछे दिग्विजिय सिंह भी खडे थे । यानी सिधिया के सीएम बनने का सवाल ही नहीं था । लेकिन " शक्ति एप" के जरीये जमा किया जाटा जब सिंधिया को दिखाया गया तो सिंधिया के पास भी दावे के लिये कोई तर्क था नहीं । दरअसल यही स्थिति राजस्थान की है । पहली नजर में लग सकता है कि बीचे चार बरस से जिस तरह सचिन पायलय ने राजस्थान में काग्रेस को खडा करने के लिये जान डाल रहे थे उस वक्त असोक गहलोत केन्द्र की राजनीति में सक्रिय थे । याद किजिये गुजरात-कर्नाटक में गहलोत की सक्रियता । लेकिन यहा फिर सवाल डाटा का है । और पायलट के सामने गहलोत आ खडे हो गया तो उसकी सबसे बडी वजह गहलोत की अपनी लोकप्रियता जो उन्होने मुख्यमंत्री रहते ही बनायी [ माना जाता है कि गहलोत के वक्त बीजेपी नेताओ के भी काम हो जाते थे और वसुंधरा के दौर में बीजेपी नेताओ को भी दुष्यतं के दरबार में चढावा देना पडता था ] उसे सचिन का राजनीतिक श्रम भी तोड नहीं पाया । कमोवेश छत्तसगढ में भी यही हुआ । हालाकि छत्तिसगढ की राजनीति को समझने वाले कट्टर युवा काग्रेसी भी मानते है कि टीएस सिंहदेव या ताम्रध्वज साहू के सीएम होने का मतलब बीजेपी की बी टीम सत्ता में है । और भूपेश बधेल ही एक मात्र नेता है जो रमन सिंह की सत्ता या राज्य में अडानी के खनन  लूट पर पहले बोलते थे सीएम बनने के बाद कार्रवाई कर सकते है । लेकिन फिर सवाल काग्रे के उस ढक्कन को खोलने का है जिसमें कार्यकत्ता को ये ना लगे कि हाईकमान के निर्देश पर पैराशूट सीएम बैठा दिया गया है । जाहिर है इसके खतरे भी है और भविष्य की राजनीति में सत्ता तक ना पहुंच पाने का संकट भी है । जाहिर है पारपरिक काग्रेसियो के लिये ये झटका है लेकिन राहुल गांधी की राजनीति को समझने वाले पहली बार ये भी समझ रहे है कि काग्रेस को आने वाले पचास वर्षो तक अपने पैरो पर खडा होना है या क्षत्रप या दूसरे राजनीतिक दलो के आसरे चलना है । फिर राहुल गांधी के पास गंवाने के लिये भी कुछ नहीं है [ कमजोर व थकी हुई काग्रेस के वक्त राहुल गांधी अध्य़क्ष बने ] लेकिन पाने के लिये काग्रेस के स्वर्णिम अतीत को काग्रेस के भविष्य में तब्दिल करना है । और इसके लिये सिर्फ काग्रेसी शब्द से काम नहीं चलेगा । बल्कि बहुमुखी भारत के अलग अलग मुद्दो को काग्रेस की छतरी तले कैसे समेट कर समाधान की दिशा दिखायी जा सकती है अब सवाल उसका है । इसलिये ध्यान दे तो तीन राज्यो में जीती के बाद किसानो की कर्जमाफी को किसानो की खुशहाली के रास्ते को बेहद छोटा सा कदम बताते हुये किसान के संकट के बडे कैनवास को समझने की जरुरत बतायी । यानी इक्नामिक माडल भी कैसे बदलेगा और हर तबके के लिये बराबरी वाली नीतिया कैसे लागू हो ये सवाल तो है । यानी तीन राज्यो की जीत के बाद तीनो राज्य के  मुख्यमंत्री अगर सिर्फ उसे चुन लिया जाये जो 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा वोट दिलाने का दावा करे. , तो अगला सवाल ये भी होगा कि दावा तो कई नेता कर सकते है । लेकिन राहुल की काग्रेस उस राजनीतिक डर से मुक्ति चाहती है जहा सत्ता ना मिलने पर कोई नेता पार्टी तोड बीजेपी या अन्य किसी छत्रप से जा मिले और सीएम बन जाये । राहुल गांधी धीरे धीरे उस काग्रेस को मथ रहे है जो एक ऐसा खुला मंच हो जहा कोई भी आकर काम करें और लोकप्रियता के अंदाज में कोई भी पद ले लें । हां, इन तमाम विश्लेषण का आखरी सच यही है कि किसी कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट पार्टी की तर्ज पर राहुल गांधी काग्रेस के महासचिव [ अध्यक्ष ] है । जिन्हे हटाया नहीं जा सकता । और काग्रे का सच भी है कि गांधी-नेहरु परिवार के ही ईर्द-गिर्द काग्रेस है । लेकिन राहुल गांधी ने काग्रेस पर लगे हाईकमान के ढकक्न को खोल दिया है ।

22 comments:

Admin 1 said...

बहुत ही शानदार विश्लेषण

Unknown said...

Good Analysis

Unknown said...

Badiya

Unknown said...

बिल्कुल जी वाजपेयी जी आपकी बात में दम है

Unknown said...

बाजपेयी जी आपका बिशलेषण साहिर के 'ताजमहल 'की तरह सबसे अलग है अगर यह ही सच्चाई है तो भारतीय प्रजातंत्र के लिए अच्छा लक्षण है

Master stroke: stand with truth said...

हमेशा की तरह आप बात को एक स्क्रूड्राइवर की तरह दिमाग में घुसेड़ देते हैं । बहुत अच्छे वाजपेई जी ।

Unknown said...

Right sir

Unknown said...

आपके विशलेषण का जवाब नहीं वाजपेयीजी।

Bharatsinh Rajpoot said...

वाह सर अच्छा होता अगर आप अपनी राय या बात कीसी News में बताते या video post करते

Krishan Mohan said...

अति सुंदर विश्लेषण

Aman Yadav said...

जो बात पूरे चुनाव में जनता नहीं समझ पाई अगर आपका ये विश्लेषण पढ़ ले तो वो ये समझ जाएगी जी मैंने कांग्रेस को वोट देकर कुछ गलत नहीं किया।

Unknown said...

मौजूद दौर में कहां निर्णय इससे इत्र हो जाता, ये बताएंगे

Unknown said...

यदि वास्तव में ऐसा है तो कांग्रेस का भविष्य उज्ज्वल है।

Unknown said...

वाह सर जी
Very good

Unknown said...

सही पकड़े हैं.पंडित (विश्लेषण के) जी.

Unknown said...

विश्लेषण वाकई ठोस और खरा है।

Sandeep Gupta said...

आप बहुत अच्छा लिखते हैं सर पर यह बात आम जनता को कैसे समझ में आएगी कि कभी बीजेपी अच्छी थी परंतु आज कांग्रेस अच्छी है और राहुल जी के नेतृत्व में इमानदार भी है।

आकाश चाचाण said...

सर मैं आकाश चाचाण सिरसा हरियाणा से मैं पत्रकार में अपना कैरियर बनाना चाहता हु और विश्लेषण मुझे बहुत पसंद आते है काफी कुछ सीखने को मिलता है मैं एक बार आप से मिलना चाहता हु।

आकाश चाचाण
सिरसा हरियाणा से
9068032006

Unknown said...

Thanks sir

Sahas said...

Sir bas daily likhte rahiye kalam ki takat ise kahte hai

Unknown said...

जब ओले पड़ते हैं तो छतरी वाले की ओर दौड़ पड़ते हैं लोग

smal series said...

Is that really check points in front of parties , Kya political party ke andar bhi check kiye jate hai points