पांच राज्यो के चुनाव प्रचार में तीन सच खुल कर उभरे । पहला , अमित शाह बीजेपी के नये चेहरे बन रहे है । दूसरा , काग्रेस का सच गांधी परिवार है और राहुल गांधी के ही इर्द-गिर्द नई काग्रेस खुद को गढ रही है । तीसरा , 2014 में देश के रक्षक के तौर पर नजर आते नरेन्द्र मोदी भविष्य की बीजेपी के भक्षक के तौर पर उभर रहे है । पर तीनो के अक्स में कही ना कही 2014 में लारजर दैन लाइफ के तौर पर उभरे नरेन्द्र मोदी है और उनकी छाया तले देश की समूची राजनीतिक सियासत का सिमटना है । और चार बरस बाद संघर्ष करते हुये राजनीति के हर रास्ते ये बताने से नहीं चूक रहे है कि छाया लुत्प हो चुकी है । 2019 की दिशा में बढते कदम एक ऐसी राजनीति को जन्म दे रहे है जिसमें हर किसी को अब अपने बूते तप कर निकलना है । क्योकि परत दर परत परखे तो ये पहला मौका रहा जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने नरेन्द्र मोदी से ज्यादा चुनावी रैलिया की । और इससे पहले नरेन्द्र मोदी की चुनावी रैलिया बीजेपी ही नहीं देश भर के लिये संदेश होती थी कि मोदी कितने लोकप्रिय है । क्योकि उसमें खूब भीड होती थी । औसतन डेढ घंटे तक नरेन्द्र मोदी का भाषण चलता था । कमोवेश उसी तर्ज पर इस चुनाव प्रचार में अमित शाह की चुनावी रैलियो में भी भीड जुटी . अमित शाह के भाषण लंबे होने लगे । मोदी का भाषण राजस्थान के प्रचार में तो तीस मिनट तक आ गिरा । पर शाह का भाषण औसतन 45 से 50 मिनट रहा । तो बीजेपी के भीतर ये सवाल काफूर हो गया कि सिर्फ मोदी की ही चुनावी रैली में भीड जुटती या भाषण का कन्टेट सिर्फ मोदी के पास है । यानी एक विश्लेषण ये भी हो सकता है कि भीड जब जुटानी ही है तो फिर रैली किसी भी नेता की हो वह जुट ही जायेगी और भीड के आसरे रैली की सफलता या नेता की लोकप्रियता को आंकना गलत है । और दूसरा विश्लेषण ये भी कहता है कि नरेन्द्र मोदी ने ही ढील दी कि अगर उनकी पीठ पर 2014 के वादो का बोझ है तो फिर अमित शाह बोझ रहित है । यानी रणनीति के तहत अमित शाह को आगे किया गया । लेकिन पहली बार चुनावी प्रचार के थमने के बाद जब जनादेश का इंतजार देश कर रहा है तो ये सवाल चाहे अनचाहे हर जहन में होगा ही अगर वाकई बीजेपी तीनो राज्यो में हार गई तो क्या होगा । क्योकि मेनस्ट्रीम मीडिया को परखे तो उसकी रिपोर्ट नरेन्द्र मोदी की छवि हार के बावजूद बनाये रखने की दिशा गढनी शुरु हो चुकी है । एक तरफ ये परोसा जा रहा है कि छत्तिसगढ, मध्यप्रदेश और वसुंधरा में बीजेपी सीएम की पहचान तो नरेन्द्र मोदी के केन्द्र पटल पर आने से पहले ही खासी पहचान वाली रही है । और तीनो ही 2013 में अपने बूते जीते थे । तो इन बार तीनो की अपनी परिक्षा और अपना संघर्ष है । यानी नरेन्द्र मोदी का इन चुनाव से कोई लेना देना नहीं है । तो दूसरी तरफ ये भी कहा जाने लगा है केन्द्र और राज्य को चलाने वाले नेताओ की अदा में फर्क होता है । राज्य में सभी को साथ लेकर चलना जरुरी है लेकिन केन्द्र में ये जरुरी नहीं है क्यकि प्रधानमंत्री की पहचान उसके अपने विजन से होती है । जैसे इंदिरा गांधी थी । वैसे ही नरेन्द्र मोदी भी अकेले है । यानी चुनावी हार का ठिकरा मोदी के सिर ना मढा जाये या फिर जिस अंदाज में नरेन्द्र मोदी चार महीने बाद अपने चुनावी समर में होगें वहा उन्हे उनके तानाशाही रवैये या उनकी असफलता को कोई ना उभारे , इस दिशा में मोदी बिसात मिडिया के ही जरीये सही पर बिछायी तो जा रही है । तो एक संदेश तो साफ है कि पांच राज्यो के जनादेश का असर बीजेपी में जबरदस्त तरीके से पडेगा और चाहे अनचाहे मोदी से ज्यादा अमित शाह के लिये जनादेश फायदेमंद होने वाला है । क्योकि आज की तारिख में अमित शाह की पकड बीजेपी के समूचे संगठन पर है । सीधे कहे तो जैसे नरेन्द्र मोदी ही सरकार है वैसे ही अमित शाह ही बीजेपी है । और 2019 में अगर मोदी का चेहरा चूकेगा तो बीजेपी को 2019 के समर के लिये तैयार होना होगा और तब चेहरा अमित शाह ही होगें । ऐसे हालात में कोई भी सवाल खडा कर सकता है कि क्या नरेन्द्र मोदी ऐसा होने देगें । या फिर क्या फर्क पडता है मोदी की जगह अमित शाह ले लें । क्योकि दोनो है तो एक दूसरे के राजदार । तो दोनो को एक दूसरे से खतरा भी नहीं है । लेकिन बीजेपी का भविष्य बीजेपी के अतित को कैसे खारिज कर चुका है ये वाजपेयी - आडवाणी की जोडी से मोदी-शाह की जोडी की तुलना करने पर भी समझा जा सकता है । वाजपेयी और आडवाणी के दौर में बीजेपी की राजनीति आस्था और भरोसे पर टिकी रही । और दोनो ही जिस तरह एक दूसरे के पूरक हो कर सभी को साथ लेकर चले उसमें बीजेपी के संगठन में निचले स्तर तर सरोकार का भाव नजर आता रहा । संयोग से मोदी अमित शाह के दौर में सिर्फ आडवाणी या जोशी को ही बेदखल नहीं किया गया बल्कि काम करने के तरीके ने बतलाया कि किसी भी काबिल को खडे होने देना ही नहीं है और सत्ता के लिये अपने अनुकुल सियासत ही सर्वोपरि है । तो यही मैसेज बीजेपी संगठन के निचले पायदान तक पहुंचा । यानी अमित शाह अगर 2019 के रास्ते को बनायेगें तो सबसे पहले उनके निशाने पर नरेन्द्र मोदी ही होगें इसे कोई कैसे इंकार कर सकता है । दरअसल धीरे धीरे ये रास्ता कैसे और क्यो बनता जा रहा है ये भी चुनाव प्रचार के वक्त ही उभरा । क्योकि बीजेपी शासित तीनो राज्यो में बीजेपी की जीत का मतलब बीजेपी के क्षत्रप ही होगें मोदी नहीं ये तीनो के प्रचार के तौर तरीको ने उभार दिया । जहां तीनो ही मोदी सत्ता की उपलब्दियो को बताने से बचते रहे और मोदी भी अपनी साढे चार बरस की सत्ता की उपलब्धियो को बताने की जगह काग्रेस के अतित या सत्ता की ठसक तले काग्रेसी नेताओ को धमकी देने की ही अंदाज में ही नजर आये । दरअसल मोदी इस हकीकत को भूल गये कि भारत लोकतंत्र का अम्यस्त हो चुका है । यानी कोई सत्ता अगर किसी को धमकी देती है तो वह बर्दाश्त किया नहीं जाता । हालाकि 2014 में सत्ता में आने के लिये मोदी की धमकी जनता को रक्षक के तौर पर लगती थी । इसलिये ध्यान दिजिये तो 2013-14 में जो मुद्दे नरेन्द्र मोदी उठा रहे थे , उसके दायरे में कमोवेश समाज के सारे लोग आ रहे थे । और सभी को मोदी अपने रक्षक के तौर पर नजर आ रहे थे । इसलिये पीएम बनने के बाद नरेन्द्र मोदी का हर अभियान उन्हे जादुई ताकत दे रहा था । लेकिन धीर धीरे ये जादू काफूर भी हुआ लेकिन मोदी खुद को बदल नहीं पा रहे है क्योकि उन्हे अब भी अपनी ताकत जादूई छवि में ही दिखायी देती है । उसलिये राफेल पर खामोशी बरत कर जब वह अगस्ता वेस्टलैंड में मिशेल के जरीये विपक्ष को धमकी देते है तो जनता का भरोसा डिगने लगता है । क्योकि ये हर किसी को पता है कि अंतर्ष्ट्रीय कोर्ट से मिशेल बरी हो चुके है और भारतीय जांच एंजेसी या अदालत किस अंदाज में काम करती है । बोफोर्स में वीपी सिंह के दौर में क्या हुआ ये भी किसी से छुपा नहीं है । यानी कोरी राजनीतिक धमकियो से साढे चार बरस गुजारे जा सकते है लेकिन पांचवे बरस चुनाव के वक्त ये चलेगें नहीं । और जिस रास्ते अमित शाह ने बीजेपी के संगठन को गढ दिया है उसमें चुनावी हार के बाद शाह की पकड बीजेपी पर और ज्यादा कडी होगी क्योकि तब 2019 की बात होगी और शिवराज, रमन सिंह या वसुंधरा को कैसे पार्टी संगठन में एडजस्ट किया जायेगा ये भी सवाल होगा ? लेकिन इसके सामानातंर काग्रेस की जीत और हार के बीच राहुल गांधी ही खडे है । और काग्रेस के लिये गांधी परिवार ताकत भी है और कमजोरी भी ये बात पांच राज्यो के जनादेश के बाद खुल कर उभरेगी । चुकि 2014 के बाद ये दूसरा मौका है कि बीजेपी और काग्रेस आमने सामने है । इससे पहले गुजरात और कर्नाटक के चुनावी फैसले ने बाजी एक एक कर रखी है । और अब तीन राज्यो में बीजेपी की सत्ता को अगर काग्रेस खिसका नहीं पायी तो ये राहु गांधी की सबसे बडी हार मानी जा सकती है लेकिन प्रचार के तौर तरीको ने बता दिया कि राहुल गांधी के अलावे काग्रेस में ना तो कोई दूसरा नेता है और ना ही काग्रेस किसी दूसरे नेता को परखना चाहती है । यानी राहुल गांधी का कद ही काग्रेस का कद होगा और काग्रेस की हार भी राहुल गांधी की ही हार कहलायेगी । तो ऐसे हालात में काग्रेस की जीत राहुल गांधी को काग्रेस के भीतर इंदिरा वाली छवि के तौर पर स्थापित भी कर सकती है जहा वह 1977 की हार के बाद 1980 में दूबारा सत्ता पा गई थी । हालाकिं खुद को नये सिरे से गढते राहुल गांधी ने प्रचार के दौरान काग्रेसी ओल्ड गार्ड को ये एहसास करा दिया कि 2014 के हार के पीछे 2012-13 में काग्रेसी मंत्रियो का अहम भी था । जो सत्ता के मद में चूर हो कर जनता से ही कट गये थे । और इसी का लाभ मोदी को मिला । पर अब राहुल गांधी इस एहसास को समझते हुये ये भी चुनावी प्रचार में जनता को बताते रहे कि सत्ता का रंग मोदी पर भी काग्रेसी अंदाज में कही ज्यादा गाढा है । तो चुनावी प्रचार का असर जनादेश के जरीये मोदी शाह और गांधी तीनो के भविष्य को तय करेगा ये भी तय है ।
Friday, December 7, 2018
जनादेश बता देगा ...मोदी ढल रहे है...शाह उग रहे है...राहुल गढ रहे है !
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:55 AM
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25 comments:
वैसे तो देखा गया है कि 2013 से चुनावी भाषणों में भाषा की मर्यादा को तोडना शुरू कर दिया गया था, परन्तु अब तो भाषा भी शरमा जाये जैसी उसकी मजम्मत की जा रही है.
https://giribipinpolitical.blogspot.com/2018/12/blog-post_87.html …
वैसे तो देखा गया है कि 2013 से चुनावी भाषणों में भाषा की मर्यादा को तोडना शुरू कर दिया गया था, परन्तु अब तो भाषा भी शरमा जाये जैसी उसकी मजम्मत की जा रही है.
https://giribipinpolitical.blogspot.com/2018/12/blog-post_87.html …
मुझे आज तक समझ में नहीं आया आखिर मोदी से तकलीफ क्या है इन कुछ पत्रकारों को
Great analysis sir
सही और सटीक विश्लेषण वाजपेई जी।
Sahi baat
Satik aur sundar
सर, देश धीरे धीरे समझदार होता जा रहा है 🙏
Very relative and near to truth analysis.
Ye baat to pakki hai bjp me modi ji se jada amit shah ki chlti hai.. Or muje to esa bhi lagta hai jese yogi adityanath ko bhi agla PM ka chehra bna sakti hai. Kyuki bjp me unki bhi sakh bohot bani hai.. Or bjp unko bohot promote bhi kar rhi hai har election me... Modi ka to patta saaf hai.. Unke chehre pe ab nhi jeet payenge wo ye baat pta chl chuki h bjp ko..
this is the unknown truth reality matters great job
Sir Aapko TV per kab dekhenge
Sir when you are come back on TV
We are waiting for your show on TV.
मुझे लगता है नया दौर आ रहा है
Great job... Jald TV par aa jaiye
wow............ bjp ka mamla jo bhi ho 2019 bjp har rhi hai ? ye aap clear batiye
Effective analysis,good job,when we will see you on TV
सवाल यह भी है कि मोदी की इतनी चापलूसी क्यों
कड़वा सच !4 हरामी गुजराती 130 करोड़ हिन्दुस्तानियो को चूतिया बना गए !
2019 में गोदी-शाह के जूते हज़ार,
न कोई सोच न कोई विचार,
यूपी,पंजाब या हो बिहार,
कर दो आरएसएस के पिल्लो का सूपड़ा साफ,
यह अम्बानी अदानी के पालतू कुत्ते है,
इन्हें मूँह नही लगाना इन्हें भगाना है
भाजपा मुक्त भारत
यह मससूस होना शुरू हो गया है कि मोदी का जो जादू 2014 में था वह ढलान पर है। गर एग्जिट पोल को सही न माने तो भी कांग्रेस के अपने पक्ष में जनता का रुख कर लिया है। वह अब निर्जीव हालत में नहीं है। जो पारभव 2014 की लोकसभा में कांग्रेस को मिलना शुरू हुआ था वह विधान सभा चुनाव में भी जारी रहा। 11 दिसम्बर को 5 राज्यों के परिणाम आने के बाद तसवीर और भी साफ हो जाएगी। कितने लोकप्रिय बचे हैं मोदी और अमित शाह। स्पष्ट है कि 2014 से आज तक समूचे देश में भाजपा दो महानुभाओं में ही मौजूद रही है। अब भाजपा का ग्राफ गिरता है तो भाजपा माने या न माने किन्तु देश की अवाम के सामने आ जायेगा। सत्य तो यह है ही कि भाजपा में दो ही चेहरे हैं। मीडिया पर भाजपा के प्रवक्ता सिर्फ दो ही सज्जनों का गुणगान करते रहे हैं। हर तरह से हर चुनाव में सभी साधनों को झोंक कर भाजपा ने कांग्रेस को देश से मिटाने में पूरी तल्लीनता से काम किया है। साम-दाम-दण्ड-भेद का भरपूर उपयोग किया है। अब नए शगूफों में मिसेल और बाड्रा पर कार्यवाही कर यह तरीका भी आजमाया जा रहा है। कांग्रेस को प्रताड़ना देने का कोई काम नहीं छोड़ा है। इसके बाद भाजपा का ग्राफ गिरता है तो मोदी और अमित शाह के बाद भाजपा का उत्तराधिकारी कौन होगा ? यह यक्ष प्रश्न सामने खड़ा है।
मंज़र सबका तय होगा पर लेकिन, हार के वक़्त मोदी जिम्मेदारी नहीं होगा, क्यूं की वह अपने नेताओं पर हार की माला चड़ा देगा।
खूब लिखा है, सर
देश के तमाम लोगो को ये सोचना होगा की आखीर option क्या है
अगर इन चुनावी रज्यों में B.J.P हारती है तो, टुच्चे नेताओं और उनका अजेंडा चलाने वाले "गुहखोका" पत्रकारों के लिए यह स्पस्ट शंदेस होगा की जानता तुम्हारा बाप है, और बाप को चो..नहीं सिखाते.
पंडित जी,आपको प्रणाम.
Yeaaaa!
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