Thursday, January 10, 2019

संसद में तार तार होते संविधान की फिक्र किसे है....




मोदी सत्ता के दस फिसदी आरक्षण ने दसियो सवाल खडे कर दिये । कुछ को दिखायी दे रहा है कि बीजेपी-संघ का पिछडी जातियो के खिलाफ अगडी जातियो के गोलबंदी का तरीका है । तो कुछ मान रहे है कि  जातिय आरक्षण के पक्ष में तो कभी बीजेपी रही ही नहीं तो संघ की पाठशाला जो हमेशा से आर्थिक तौर पर कमजोर तबके को आरक्षण देने के पक्ष में थी उसका श्रीगणेश हो गया । तो किसी को लग रहा है कि तीन राज्यो के चुनाव में बीजेपी के दलित प्रेम से जो अगडे रुठ गये थे उन्हे मनाने के लिये आरक्षण का पांसा फेंक दिया गया । तो किसी को लग रहा है आंबेडकर की थ्योरी को ही बीजेपी ने पलट दिया ।  जो आरक्षण के व्यवस्था इस सोच के साथ कर गये थे कि हाशिये पर पडे कमजोर तबके को मुख्यधारा से जोडने के लिये आरक्षण जरुरी है । तो कोई मान रहा है कि शुद्द राजनीतिक लाभ का पांसा बीजेपी ने अगडो के आरक्षण के जरीये फेंका है । तो किसी को लग रहा है बीजेपी को अपने ही आरक्षण पांसे से ना खुदा मिलेगा ना विलासे सनम । और कोई मान रहा है कि बीजेपी का बंटाधार तय है क्योकि आरक्षण जब सीधे सीधे नौकरी से जोड दिया गया है तो फिर नौकरी के लिये बंद रास्तो को बीजेपी कैसे खोलेगी । यानी युवा आक्रोष में आरक्षण घी का काम करेगा । और कोई तो इतिहास के पन्नो को पलट कर साफ कह रहा है जब वीपी सिंह को मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने वाले हालात में भी सत्ता नहीं मिली तो ओबीसी मोदी की हथेली पर क्या रेगेंगा । इन तमाम लकीरो के सामानांतर नौकरी से ज्यादा राजनीतिक सत्ता के लिये कैसे आरक्षण लाया जा रहा है और बिछी बिसात पर कैसी कैसी चाले चली जा रही है ये भी कम दिलचस्प नहीं है । क्योकि आरक्षण का समर्थन करती काग्रेस के पक्ष में जो दो दल खुल कर साथ है उनकी पहचान ही जातिय आरक्षण से जुडी रही है पर उन्ही दो दल [ आरजेडी और डीएमके  ]  ने मोदी सत्ता के आरक्षण का विरोध किया । फिर जिस तरह आठवले और पासवान मोदी के गुणगान में मायावती को याद करते रहे और मायावती मोदी सत्ता के खिलाफ लकीरो को गढा करती रही उसने अभी से संकेत देने शुरु कर दिये है कि इस बार का लोकसभा चुनाव वोटरो को भरमाने के लिये ऐसी बिसात बिछाने पर उतारु है जिसमें पार्टियो के भीतर उम्मीदवार दर उम्मीदवार का रुख अलग अलग होगा ।
तो क्या देश का सच आरक्षण में छिपे नौकरियो के लाभ का है । पर सवाल तो इसपर भी उठ चुके है । क्योकि एक तरफ नौकरिया हैा नहीं और दूसरी तरफ मोदी सत्ता के आरक्षण ने अगडे तबके में भी दरार कुछ ऐसी डाल दी कि जिसने दस फिसदी आरक्षण का लाभ उठाया वह भविष्य में फंस जायेगा । क्योकि 10 फिसदी आरक्षण के दाय.रे में आने का मतलब है सामन्य कोटे के 40 फिसदी से अलग हो जाना । तो 10 फिसदी आरक्षण का लाभ भविष्य में दस फिसदी के दायरे  में ही सिमटा देगा । पर मोदी सत्ता के आरक्षण के फार्मूले ने पहली बार देश के उस सच को भी उजागर कर दिया है जिसे अक्सर सत्ता छुपा लेती थी । यानी देश में जो रोजगार है उसे भी क्यो भर पाने की स्थिति में कोई भी सत्ता क्यो नहीं आ पाती है ये सवाल इससे पहले गवर्नेस की काबिलियत पर सवाल उठाती थी । लेकिन इस बार आरक्षण कैसे एक खुला सियासी छल है ये भी खुले तौर पर ही उभरा है । यानी सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि देश की कमजोर होती अर्थवयवस्था या विकास दर के बीच नौकरिया पैदा कहा से होगी । बल्कि नया सवाल तो भी है कि सरकार के खजाने में इतनी पूंजी ही नहीं है कि वह खाली पडे पदो को भर कर उन्हे वेटन तक देने की स्थिति में आ जाय़े । यूं ये अलग मसला है कि सत्ता उसी खजाने से अपनी विलासिता में कोई कसर छोडती नहीं है ।
तो ऐसे में आखरी सवाल उन युवाओ का है जो पाई पाई जोड कर सरकारी नौकरियो के फार्म भरने और लिखित परिक्षा दे रहे है । और इसके बाद भी वही सुवा भारत गुस्से में हो जिस युवा भारत को अपना वोटर बनाने के लिये वही सत्ता लालालियत है जो पूरे सिस्टम को हडप कर आरक्षण को ही सिस्टम बनाने तक के हालात बनाने की दिसा में बढ चुकी है । यानी जिन्दगी जीने की जद्दोजहद में राजनीतिक सत्ता से करीब आये बगैर कोई काम हो नहीं सकता । और राजनीतिक सत्ता खुद को सत्ता में बनाये रखने के लिये बेरोजगार युवाओ को राजनीतिक कार्यकर्ता बनाकर रोजगार देने से नहीं हिचक रही है । बीजेपी के दस करोड कार्यकत्ताओ की फौज में चार करोड युवा है । जिसके लिये राजनीतिक दल से जुडना ही रोजगार है । राजनीतिक सत्ता की दौड में लगे देश भर में हजारो नेताओ के साथ देश के सैकडो पढे-लिखे नौजवान इसलिये जुड चुके है क्योकि नेताओ की प्रोफाइल वह शानदार तरीके से बना सकते है । और नेता को उसके क्षेत्र से रुबरु कराकर नेता को कहा क्या कहना है इसे भी पढे लिखे युवा बताते है , और सोशल मीडिया पर नेता के लिये शब्दो को न्यौछावर यही पढे लिके नौजवान करते है । क्योकि नौकरी तो सत्ता ने अपनी विलासिता तले हडप लिया और सत्ता की विलासिता बरकरार रहे इसके लिये पढे लिखे बेरोजगारो ने इन्ही नेताओ के दरवाजे पर नौकरी कर ली । शर्मिदा होने की जरुरत किसी को नहीं है क्योकि बीते चार बरस में दिल्ली में सात सौ से ज्यादा पत्रकार भी किसी नेता , किसी सांसद , किसी विधायक , किसी मंत्री या फिर पीएमओ में ही बेरोजगारी के डर तले उन्ही की तिमारदारी करने को ही नौकरी मान चुके है । यानी सवाल ये नहीं है कि आरक्षण का एलान किया ही क्यो गया जब कुछ लाभ नहीं है बल्कि सवाल तो अब ये है कि वह कौन सा बडा एलान आने वाले दो महीने में होने वाला है जो भारत का तकदीर बदलने के लिये होगा । और उससे डूबती सत्ता संभल जायेगी । क्या ये संभव है । अगर है तो इंतजार किजिये और अगर संभव नहीं है तो फिर सत्ता को संविधान मान लिजिये जिसका हर शब्द अब संसद में ही तार तार होता है ।   


20 comments:

Susheel said...

Jab Nash manuj par chhata hai, pahle vivek mar jata hai

Krishan Mohan said...

🙏

Sajid ali said...

जो देश को विकाश देने आए थे वो जाते जाते आरक्षण दे रहे हैं. रेलवे में 3 लाख पद खाली पड़े हैं जिन पर भर्ती नही हो रही हैं. प्राइवेट सेक्टर तो नोटबन्दी के बाद उभर नही पाया है. रियल एस्टेट सेक्टर का भी यही हाल है. बैंको की हालत कुछ समय बाद भिखारियों जैसी हो जाएगी

Unknown said...

हालात बद से बद्दतर हो रहे है युवा रोजगार की तलाश में भटक रहे है और यहां जुमलेबाजी हो रही है सियासत भी अजीब हो गयी है।

Unknown said...

बेहतरीन विश्लेषन
🙏🙏🙏

Unknown said...

बहुत अच्छा लेख लिखा है सर आपने। एक बेरोजगार युवा के मन की बात की नब्ज आपने पकड़ीं है।यह केवल एक जुमला ही साबित होगा।

Jinda Shaheed! said...

Enter your comment...
मरे प्रिय आत्मन!
पुण्य प्रसून बाजपेई जी
प्रणाम!
सत्ता/सियासत/सिँहासन की अन्धी दौड तले विचार/विमर्श/परामर्श की पृष्ठभूमि मेँ नायक/महानायक/खलनायक की खोज मेँ अपाहिज/विकृत/कुरुप देश की व्यवस्था जो "डिवाइड एण्ड रुल" को आत्मार्पित/समर्पित है जिसमे अपने-2 स्वहित मेँ निश्चित सीमा तक निर्णय लेने की क्षमता विकसित कर लेने की पूरी स्वतन्त्रता है किन्तु हम फिर भी नीतिगत स्वतन्त्र है नही परन्तु स्वतन्त्रता दिवस तो मनाते ही हैँ गणतन्त्र होने का दावा/पुष्टि करने के लिए गणतन्त्र दिवस भी मनाते हैँ जबकि स्वतन्त्र और गणतन्त्र दोनो झूठे आवरण है जो मुखौटा राजनीति के मुखौटा वाले नेताओँ की बुनियाद है असल दु:ख और दुर्भाग्य यही है कि इस सत्य की स्वीकारोक्ति काबिल एक भी दल/ एक भी नेता आखिर क्यूँ नही है ये कैसा दुश्चक्र है? अपनी क्रूर/निष्ठुर/निरँकुश मानसिक काराग्रह से बाहर निकलकर प्रत्येक को आत्मनिरीक्षण करना ही चाहिए तब किसी का भी लक्ष्य सत्तापरिवर्तन नही व्यवस्थापरिवर्तन ही होगा क्यूँकि मेरी व्याकुलता/व्यग्रता अभीतक उग्रता नही सिद्ध हो सकती है इस नीति/नियत/नियति के खेल मेँ सभी को अहम/वहम/भ्रम है जिसे तोडने के लिए मुझे माँ गँगा के बेटे से अपनी खुद की अखण्ड भीष्म प्रतिज्ञा (भ्रष्ट्राचारमुक्तभारत) के परिप्रेक्ष्य मेरा मेरे समर्पण का शपथपत्र का अनुमोदन/अनुपालन का प्रस्ताव गुरुसत्ता/राजसत्ता के समक्ष अबतक विचाराधीन है जो कि अब वही अन्तिम विकल्प है काँग्रेसमुक्तभारत/ भ्रष्ट्राचारमुक्तभारत का ही नही देश को दलोँ के दलदल से मुक्तभारत का सपना साकार हो सकता है और होगा क्यूँकि दलदल मेँ दल जितना अधिक झटपटाएगेँ वो उतना ही जल्दी समा जाएगें / डूब जाएगेँ अब कोई भी बचेगा नहीँ क्यूँकि नरेन्द्रजी! इकलौते एक ऐसे नेता हैँ जिनका आभामण्डल कई बार ये दर्शा चुका है कि "दल से बडा है देश" जो अबतक परिवर्तन की इक्सपोर्ट/इक्सपर्ट सोँच सिर्फ शब्दो के माध्यम से वाणी तक है आचरण मेँ नही पायी जा सकी है/ नही पायी गयी है फिर भी जिसकी मुझे वेसब्री से प्रतीक्षा है क्यूँकि आज देश की दिशा व दशा बदलने हेतु लोकतन्त्र मेरी मुट्ठी मेँ है तभी मै कहता हूँ कि कर लो दुनिया मुट्ठी मेँ वर्ना जाओगे भट्ठी मेँ जिसकी आग मै ही तो हूँ बेशक अर्श से फर्श तक उपेक्षित हूँ किन्तु अपेक्षित भी तो हूँ क्यूँकि ऐसा कोई रास्ता तो हो सकता है जिसकी कोई मँजिल न हो परन्तु ऐसी कोई मँजिल नहीँ जिसका कोई रास्ता नही हो।-जयहिन्द!

Sandeep Gupta said...

प्रसून जी नैतिकता के पतन की जो बेचैनी आपके लेख में दिखाई देती है यकीन रखिए नैसर्गिक व्यवस्थाएं स्वता ही इसको खत्म कर देंगी, हर अति का एक अंत होता है, हर कर्म का एक फल होता है मोदी जी के अव्यवस्थित और अतार्किक निर्णय उन्हें अंत की तरफ लेकर जा रहे हैं, सत्ता की ऐसी भूख शायद ही कभी देखी हो क्योंकि सत्ता होगी तभी ये बचेंगे , येन केन प्रकारेण बस सत्ता चाहिए फिर चाहे सुप्रीम कोर्ट कोर्ट की अनदेखी करके आलोक वर्मा को दूबारा हटाना हो उर्जित पटेल को भगाना हो या और संस्थाओं का सत्यानाश करना हो, चहु ओर राफेल का भूत नजर आ रहा है यह जितना उस से पीछा छुड़ाना चाहते हैं वह उतना ही इनसे चिपटा जा रहा हैआलोक वर्मा को मोदी जी ने दोबारा हटाया यानी प्रत्यक्ष किम प्रमाणम, हर कर्म का प्रतिफल अवश्य मिलता है यह इन्हे याद रखना होगा ।

Ravi Kumar Mahto said...

यह सिर्फ भोटबैंक तो ही है और इससे कुछ फ़ायदा नहीं होने वाला है

Pravin Damodar said...

विकास के नम पर सत्ता लुट ली और अब जातीयता को तेजी से बढाणे मे सफल हो रहे है संविधान को ताक पे रखकर बिल पास कराये जा रहे है येहिटलर शाहि नहि तो क्या है? अगर जनता ने अगले चुनाव मे भावनावश मतदान कीया तो अगले पांच साल मे और देखना क्या से क्या होता है

Unknown said...

Kya baat hai?-jayhind!

Unknown said...

Bahut sundar abhivyakti hai Jo asap Satya hai

Unknown said...

Bahut sundar abhivyakti hai Jo asap Satya hai

Unknown said...

Kya baat hai?-jayhind!

आर्य मुसाफिर said...

लगभग छ: हजार वर्ष से हमारे देश में लोकतन्त्र/प्रजातन्त्र/जनतन्त्र/जनता का शासन/पूर्णत: स्वदेशी शासन व्यवस्था नहीं है। लोकतन्त्र में नेता / जनप्रतिनिधि चुनने / बनने के लिये नामांकन नहीं होता है। नामांकन नहीं होने के कारण जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार की नाममात्र भी आवश्यकता नहीं होती है। मतपत्र रेल टिकट के बराबर होता है। गुप्त मतदान होता है। सभी मतदाता प्रत्याशी होते हैं। भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं होता है। लोकतन्त्र में सुख, शान्ति और समृद्धि निरन्तर बनी रहती है।
सत्तर वर्ष से गणतन्त्र है। गणतन्त्र पूर्णत: विदेशी शासन प्रणाली है। गणतन्त्र का अर्थ है- गनतन्त्र = बंदूकतन्त्र, गुण्डातन्त्र = गुण्डाराज, जुआंतन्त्र = चुनाव लडऩा अर्थात् दाँव लगाना, पार्टीतन्त्र = दलतन्त्र, तानाशाहीतन्त्र, परिवारतन्त्र = वंशतन्त्र, गठबन्धन सरकार = दल-दलतन्त्र = कीचड़तन्त्र, गुट्टतन्त्र, धर्मनिरपेक्षतन्त्र = अधर्मतन्त्र, सिद्धान्तहीनतन्त्र, आरक्षणतन्त्र = अन्यायतन्त्र, अवैध पँूजीतन्त्र = अवैध उद्योगतन्त्र - अवैध व्यापारतन्त्र - अवैध व्यवसायतन्त्र - हवाला तन्त्र अर्थात् तस्करतन्त्र-माफियातन्त्र; फिक्सतन्त्र, जुमलातन्त्र, विज्ञापनतन्त्र, प्रचारतन्त्र, अफवाहतन्त्र, झूठतन्त्र, लूटतन्त्र, वोटबैंकतन्त्र, भीड़तन्त्र, भेड़तन्त्र, भाड़ातन्त्र, भड़ुवातन्त्र, गोहत्यातन्त्र, घोटालातन्त्र, दंगातन्त्र, जड़पूजातन्त्र (मूर्ति व कब्र पूजा को प्रोत्साहित करने वाला शासन) अर्थात् राष्ट्रविनाशकतन्त्र। गणतन्त्र को लोकतन्त्र कहना अन्धपरम्परा और भेड़चाल है। अज्ञानता और मूर्खता की पराकाष्ठा है। बाल बुद्धि का मिथ्या प्रलाप है।
निर्दलीय हो या किसी पार्टी का- जो व्यक्ति नामांकन, जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार से नेता / जनप्रतिनिधि (ग्राम प्रधान, पार्षद, जिला पंचायत सदस्य, मेयर, ब्लॉक प्रमुख, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि) बनेगा। उसका जुआरी, बेईमान, कामचोर, पक्षपाती, विश्वासघाती, दलबदलू, अविद्वान्, असभ्य, अशिष्ट, अहंकारी, अपराधी, जड़पूजक (मूर्ति और कब्र पूजा करने वाला) तथा देशद्रोही होना सुनिश्चित है। इसलिये ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमन्त्री तक सभी भ्रष्ट हैं। अपवाद की संभावना बहुत कम या नहीं के बराबर हो सकती है। इसीलिये देश की सभी राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक, भौगोलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी और प्रान्तीय समस्यायें निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनैतिक दल देश को बर्बाद कर रहे हैं। राष्ट्रहित में इन राजनैतिक दलों का नामोनिशान मिटना / मिटाना अत्यन्त आवश्यक है।
विदेशी शासन प्रणाली और विदेशी चुनाव प्रणाली के कारण भारत निर्वाचन आयोग अपराधियों का जन्मदाता और पोषक बना हुआ है। इसलिये वर्तमान में इसे भारत विनाशक आयोग कहना अधिक उचित होगा। जब चुनाव में नामांकन प्रणाली समाप्त हो जायेगा तब इसे भारत निर्माण आयोग कहेंगे। यह हमारे देश का सबसे बड़ा जुआंघर है, जहाँ चुनाव लडऩे के लिये नामांकन करवाकर निर्दलीय और राजनैतिक दल के उम्मीदवार करोड़ो-अरबों रुपये का दाँव लगाते हैं। यह चुनाव आयोग हमारे देश का एकमात्र ऐसा जुआंघर है, जो जुआरियों (चुनाव लड़कर जीतने वालों) को प्रमाण पत्र देता है।

Vinod gupta said...

मेरे प्रिय पूण्य प्रसून बाजपेयी जी
आपके इस लेखन में सच्चाई साफ दिख रही है बस महसूस करने की आवस्यकता है कुछ लोगो को सच्चाई से भी घृणा होती होगी मगर लोकतंत्र है इसमें सबको अपने विचार प्रकट करने किसी विचार को मानने न मानने का पूरा पूरा अधिकार है। ऐसे ही ज्ञानवर्धक ठोस सत्य लेख के लिए शुभकामनाएं।

ASHWANI said...

10 प्रतिशत आरक्षण जाति आधारित तो नहीं है,सिर्फ आर्थिक आधार ही है,हर उम्मीदवार फॉर्म भरने के समय 10 प्रतिशत अथवा open category चुन सकेगा। आमदनी बढ़ने पर वह इस category से बाहर भी आ जायेगा। ऐसे में उसका भविष्य 10 प्रतिशत में कैसे सिमट जायेगा समझ नहीं आया।

Anubhav said...

Dear Bajpai Sir,
My name is Anubhav and I am an Indian ( I don't believe in caste and religion). I am software Professional based out in US at present. I followed you a lot due to your true journalism

Few Open Question:

1: Do you think there are no poor in general category ?
2: If reservation is already availed by one generation of SC/ST/OBC, why next generation should be eligible for reservation ?
3: Reservation should be only for poor people not based on caste. What is your thought ?

I believe there should not be any reservation. Government should provide all financial assistance to poor people so that they can face any completion.

Hope you will answer my these questions ?

PS: I am not a Modi Bhakta but I am a Desh Bhakta and I always feel proud to see my "Tri Color".

Thanks
Anubhav an Indian

Unknown said...

Bhai job lgne ke bad bhi uski income 8 lack(67000/month) nhi hogi per year so vo fir bhi 10%ki category me hi rhega

Unknown said...

8 lack per year wala poor hota h kya if ye limit 2 lack hoti to hm man lete ki ye garibo ke liye h